Thursday, 24 November 2011

परवरिश ....


आप सभी पाठकों से मेरा अनुरोध है कि कृपया, आप अपनी टिप्पणी देने के बाद, थोड़ी देर ठहर कर  देखलें कि आपकी टिप्पणी वहाँ दिख रही है, या नहीं, और यदि संभव हो तो कृपया मुझे अपनी  टिप्पणी मेल भी कर दें, क्यूंकि यहाँ ब्लॉग साइट पर कुछ गड़बड़ी चल रही है। जिसके चलते बहुत लोगों की टिप्पणियाँ आकर गायब हो रही है, अर्थात नज़र नहीं आरही है। आप सभी लोगों की टिप्पणियाँ मेरे लिए बहुत मत्वपूर्ण है  
ध्न्यवायद  


मैंने यह कार्यक्रम कल पहली बार देखा। देखकर अच्छा भी लगा और कई सारे सवाल भी मन में उठे इसलिए सोचा क्यूँ न इस पर भी कुछ लिखा जाय यह एक प्रोग्राम का नाम है, जो अभी-अभी सोनी चैनल पर आना शुरू हुआ है। मुझे यहाँ आने वाले सभी चैनलों में सबसे ज्यादा सोनी ही पसंद है। मैं उस पर आने वाले लगभग सभी कार्यक्रम देखना पसंद करती हूँ।
 
कल जब यह प्रोग्राम मैंने देखा तो मुझे काफी अच्छा लगा। इस प्रोग्राम के ज़रिये ही सही मगर बहुत अहम मुद्दा उठाया गया है। यूँ तो हर माँ-बाप चाहते हैं, कि उनका बच्चा दुनिया का सबसे आदर्शवादी बच्चा बने और इसके लिए माता-पिता अपने बच्चे को जितनी हो सके, उतनी अच्छी से अच्छी परवरिश देने की कोशिश भी किया करते हैं। आज कल के हालात को देखते हुए कई बार "परवरिश" को लेकर मन में सवाल उठता है, कि हम जो परवरिश अपने बच्चों की कर रहे हैं, क्या वो सही है ? क्यूंकि हमारा यह समाज उसी मापदंड पर परवरिश को निरधारित करके देखा करता है।

यदि बच्चा अपने जीवन में कामयाब है, आदर्शवादी है, तो आपकी परवरिश सबसे बेहतर है और यदि किसी भी कारण से जाने-अंजाने आपके बच्चे से कोई ऐसी भूल हो जाय जो, कि नहीं होनी चाहिए थी। तब भी आप ही की परवरिश में दोष रहा होगा, ऐसा माना जाता है। यहाँ तक कि माँ-बाप खुद भी, अपने आप को दोषी मानने लगते है। इसलिए यह सब सोच कर कभी-कभी लगता है कि हम अपने बच्चों को जो परवरिश दे रहे हैं, कहीं उसमें कोई कमी तो नहीं ? क्या हम भी कहीं कोई ऐसी बात तो अपने बच्चों के साथ नहीं दोहरा रहे, जो कभी हमको भी अपने समय में नागवार थी, जब हम बच्चे हुआ करते थे।

इस आधार पर बहुत सी ऐसी बातें हैं, जिन्हें करने की छूट हम अपने बच्चों को अकसर दे दिया करते है। वैसे भी देखा जाये तो आज कल के बच्चों को देखकर, उनकी बातों को सुनकर ही ऐसा लगता है, कि शायद हम तो अपने बचपन में गधे थे। J हमको अक्ल ही नहीं थी, जितनी आज के बच्चों में होती है या शायद जागरूकता की  कमी थी, या पता नहीं क्या था। जो भी था, मगर यह बात तो तय है, कि कहीं न कहीं हमें अपने आप पर उतना भरोसा नहीं था। जितना आज कल के बच्चों को खुद पर होता है। शायद इसका एक बड़ा कारण यह रहा हो, कि हमको कभी अपने फैसले खुद करने की आज़ादी उस समय दी ही नहीं जाती थी, जितनी जल्दी आज कल के बच्चों को मिल जाती है। क्यूंकि आज कल फैसले लेने से पहले पूछा नहीं जाता। बल्कि  फैसले ले लेने के बाद केवल बताया जाता है और इन्हीं सब बात को, भावनाओं को, इस कार्यक्रम के माध्यम से, बहुत ही खूबसूरती के साथ दिखाया गया है।     

मुझे याद है उस वक्त हम जो भी काम करते थे, हमारे मन में एक बात, एक बार तो ज़रूर आती थी, कि यदि किसी भी बात में हमारे द्वारा लिया गया कोई निर्णय है, तो उस पर एक बार हमारे माता-पिता की रज़ामंदी की भी मुहर लग जाये तो अच्छा है।J शायद बहुत कम ही ऐसी बातें रही होंगी, जिस पर हम ने अपना फ़ैसला सुनाया हो। ज्यादातर हम लोग फ़ैसले मानने के आदि हुआ करते थे। सुनाने के नहीं,J मगर हाँ इतना ज़रूर होता था कि कभी-कभी मम्मी-पापा यूँ ही, हम से हमारी राय भी पूछ लिया करते थे। वो भी तब, जब बात हमसे जुड़ी हो, लेकिन तब भी केवल सुझाव देने तक ही अधिकार सीमित था, हमारे लिए फैसला लेने का नहीं,J मगर आज कि पीढ़ी ऐसी नहीं है। आज की पीढ़ी शुरू से ही खुद को आत्मानिर्भर समझती है और उसी में विश्वास रखती है। एक समयसीमा की उम्र गुज़र जाने के बाद, तो उनकी ज़िंदगी उनकी अपनी हो जाती है और उनकी ज़िंदगी में फिर उनके माता–पिता की दखलअंदाज़ी भी उन्हें गवारा नहीं होती। उनके फ़ैसले उनके अपने होते हैं। 

फिर चाहे वो पढ़ाई लिखाई से संबन्धित कोई फ़ैसला हो, या और कोई मसला। वो केवल अपनी मर्ज़ी से अपने आप लिए गए फ़ैसलों पर जीना चाहते हैं। एक यह वक्त है और एक वो वक्त था, कि हम कपड़े भी अपनी मम्मी कि पसंद के अनुसार सिलवाया करते थे। आज सोचो तो हँसी आती है, खुद पर कभी-कभीJJ बड़ों के लिहाज़ के चक्कर मे हमने खुद की पसंद को ना जाने कितनी बार मारा है और जब दूसरों को वही सब करते देखते थे। तो मन में कितनी बार आता था, कि जब इन लोगों के माता-पिता इनको यह सब करने की छूट दे सकते हैं। तो हमारे माता पिता ने हमको ऐसा क्यूँ नहीं करने दिया। वगैरा-वगैरा... और एक आज का वक्त है आप लाख माना कर लो मगर होगा वही जो उनका दिल करेगा। यदि सामने न हुआ तो पीठ पीछे होगा, मगर होगा ज़रूर। हांलांकी, मैं यह नहीं कहती कि हमने कभी अपने माता-पिता से छुप-छुप कर कोई काम नहीं किया। हमने भी किया है, मगर वो कोई ऐसा काम नहीं था कि जिसके वजह से कोई भारी खामियाज़ा उठाना पड़े। यह सब सोचते हुए आज कल माता-पिता वैसे ही अपने बच्चों को छूट दे देते हैं, कि पीठ पीछे होने से तो अच्छा है, जो कुछ हो सामने हो। 

बात सही है, मगर हर बात के लिए यह रवैया अपनाया जाना क्या ठीक है ? कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं जो वक्त की  मांग होने के साथ जरूरत भी है। जिसे ठुकराया नहीं जा सकता। जैसे मोबाइल फोन, जो लगभग आपको आज के दौर मे हर बच्चे के पास मिलेगा, माना कि यह आज कल के दौर की सबसे अहम जरूरत बन गया है और कुछ हद तक आपकी चिंता का समाधान भी, मगर जिस तरह हर चीज़ के नफे और नुक़सान दोनों होते है, इसके भी हैं। क्या गारंटी है कि आपके बच्चे इसका दुरुपयोग नहीं करेंगे। वैसे गारंटी तो, जीवन में किसी भी चीज़ की नहीं होती। माना कि बच्चों पर विश्वास करना चाहिए, जितना जल्दी आप आपने बच्चों पर विश्वास करना सीख जाए उतना अच्छा, मगर फिर भी आप अपने बच्चों पर हर वक्त नज़र नहीं रख सकते। क्योंकि अब पहले का ज़माना तो है नहीं, कि बच्चे घर से सीधे स्कूल और स्कूल से सीधे घर आयें। अब तो बच्चों को पढ़ने के लिए न जाने कहाँ-कहाँ जाना पड़ता है। कभी इस कोचिंग तो कभी उस कोचिंग, कहाँ–कहाँ और किन-किन दोस्तों पर नज़र रख पाएंगे आप, कि आपका बच्चा कहाँ जा रहा। किन लोग से मिलता है। किस संगति में रहता है। केवल एक मोबाइल दे देने भर से आप चिंता मुक्त नहीं हो सकते।
 
जरूरत है आपसी ताल मेल की, कि आपका बच्चा आप से दोस्त की तरह व्यवहार तो करे, मगर उसमें भी कुछ मर्यादा हो, यह नहीं कि उसकी बात यदि आपने न मानी, तो वो आपसे यह कहने लगे कि मुझे आप से नफ़रत है। जैसा आजकल आमतौर पर बच्चे पल-पल में कहा करते है, यदि उनकी मांग पूरी हो गई बिना किसी सवाल जवाब के तो कहेंगे I love you papa you are the best papa in this world और यदि आपने उनकी मांग पूरी करने से पहले उस मांग से संबन्धित कुछ सवाल पूछ लिए और बाद में किसी कारणवश मना कर दिया तो तुरंत गुस्सा आ जाएगा और कहेंगे I just hate you.... हांलंकी यह सब महज़ गुस्से में कहा जाता है। जिसका आत्मिक तौर पर कोई मतलब नहीं होता।

मगर फिर भी मेरी समझ से यह आपसी रिश्ता तो ऐसा होना चाहिए, कि न तो उसको ऐसा महसूस हो कि आप उसकी ज़िंदगी में अपने फ़ैसले उस पर थोप रहे हैं और न ही ऐसा हो कि वो आपके द्वारा कही हुई कोई बात को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दे। बल्कि यह आपसी रिश्ता ऐसा हो जिसमें अपनेपन की भावना के साथ बड़ों का लिहाज़ भी सम्मिलित हो। बच्चा आपसे खुला हुआ तो हो, मगर साथ ही उसके मन में आपके लिए प्यार और विश्वास के साथ आँखों की शर्म भी हो, इसलिए शायद इस प्रोग्राम की झलक में जो बात कही गई है, वो सोलह आने सही है। कि बच्चों के लिए क्या कुछ नहीं करते माँ–बाप वक्त आने पर, विश्वसनीय दोस्त से लेकर जासूस और जासूस से लेकर ATM और ATM से लेकर चौकीदार तक बना करते है, माँ-बापJ शायद सही मायने में यही होती है, असली और सही परवरिश....आपको क्या लगता है।J

46 comments:

  1. वक्त के साथ परिवेश भी बदला करता है और इसी के साथ समाज के मापदंड भी.परवरिश की कोई एक ही परिभाषा हर जगह/ परिवेश में सही नहीं कही जा सकती.नहीं बदलती तो आपसी समझ और भावनाएं.
    बहुत ही अच्छा लिखा है. बढ़िया आलेख.

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  2. विचारणीय आलेख्।

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  3. आलेख सार्थक है .

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  4. एक जरुरी पोस्ट, आँखें खोलने में सक्षम आपका आभार

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  5. विचारणीय आलेख ,आपसे सहमत हूँ ...

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  6. आप सभी पाठकों से मेरा अनुरोध है कि कृपया, आप अपनी टिप्पणी देने के बाद, थोड़ी देर ठहर कर देखलें कि आपकी टिप्पणी वहाँ दिख रही है, या नहीं, और यदि संभव हो तो कृपया मुझे अपनी टिप्पणी मेल भी कर दें, क्यूंकि यहाँ ब्लॉग कि साइट पर कुछ गड़बड़ी चल रही है। जिसके चलते बहुत लोगों कि टिप्पणियाँ आकर गायब हो रही है, अर्थात नज़र नहीं आरही है। और आप सभी लोगों कि टिप्पणियाँ मेरे लिए बहुत मत्वपूर्ण है
    ध्न्यवायद

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  7. आपके सुझाव के लिए शुक्रिया रचना जी... लेकिन कुछ कमेंट ऐसे हैं जो वहाँ spam में भी नहीं है। मगर लिखने वालों ने खुद कहा है की उन्होने कमेंट दिया था।

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  8. आपके विचारों से सहमत हूँ।

    सादर

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  9. जब से प‍रवरि
    श का विज्ञापन आ रहा था तभी से इसे देखने की इच्‍छा थी। लेकिन मुझे तो स्‍तरहीन ही लगा और दूसरे एपीसोड के बाद तो देखने का मन ही नहीं हुआ।
    रही बात बच्‍चों और माता-पिता की तो भारत में आज भी परिवारवादी या समाजवादी व्‍यवस्‍था है जबकि विदेशों में व्‍यक्तिवादी। हम और आप इसी परिवारवादी व्‍यवस्‍था के अंग रहे हैं लेकिन अब व्‍यक्तिवादी व्‍यवस्‍था हमारे यहाँ स्‍
    थापित होने लगी है, या उच्‍च घरानों में हो गयी है। इसलिए यह अन्‍तर दिखायी देता है। भारत में माता-पिता का मूल कार्य श्रेष्‍ठ संतति का निर्माण था लेकिन अब यह कार्य माता-पिता के जिम्‍मे नहीं है। लेकिन हम आज भी उसी अपराध बोध से ग्रसित हैं इसलिए बच्‍चों के पीछे पड़े रहते हैं।

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  10. जरूरत है आपसी ताल मेल की, कि आपका बच्चा आप से दोस्त कि तरह व्यवहार तो करे, मगर उसमें भी कुछ मर्यादा हो, यह नहीं कि उसकी बात यदि आपने न मानी, तो वो आपसे यह कहने लगे कि मुझे आप से नफ़रत है।


    जिन्दगी एक ढर्रे पर नहीं चलती यह बात हमें समझ लेनी चाहिए अगर नहीं समझ पाते तो फिर हम खुद ही शिकार हो जाते हैं उस भ्रम का जिसे हमने अपने मन में पाल रखा है ......बच्चों के साथ सही तालमेल की अति आवश्यकता है और यही तालमेल हमें बेहतर जीवन देता है ....!

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  11. आपकी सिफारिश अवश्य देखी जायेगी।

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  12. आपकी बात से पूर्णतः सहमत...यह सही है कि समय बदल रहा है, लेकिन बच्चों के साथ सही तालमेल बनाये रखने की कोशिश करते रहना चाहिए...

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  13. सच, डर लगता है मुझे तो देश के भविष्य के विषय में सोचते हुए भी..
    जाने कहाँ जा रहे हैं हम..! पैसे की दौड़, सामजिक प्रतिष्ठा की होड़, और इस सब में पीछे छूट गया है, दुनिया का सबसे कोमल रिश्ता..अभिभावक, और संतान का...!
    आइये, किसी भयावह सच के सामने आने से पहले ही चेत जाएँ...
    एक सार्थक लेख हेतु हार्दिक बधाई..! :)

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  14. बहुत ही अच्छा और विचारणीय लेख है, गहन चिंतन के योग्य है, साधुवाद

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  15. जब से ब्लॉग लिखना शुरू किया टीवी देखना ही बंद हो गया|

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  16. इस धारावाहिक का प्रोमो काफी रोचक लग रहा था इसलिए ठीक साढे नौ बजे सोनी टीवी लगाकर रिमोट किनारे कर दिया गया..... सीरियल की शुरूआत कुछ खास नहीं हुई...... पर उम्‍मीद है कि इसकी विषयवस्‍तु अच्‍छी होगी जो आगे चलकर देखने मिलेगा......
    अच्‍छा और विचारणीय लेख।

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  17. पल्लवी जी काफ़ी अच्छा और सार्थक लेख है यह्…इसे तो निश्चित रूप से हर अभिभावक को पढ़ना चाहिये।

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  18. आलेख और संबंधित विचार अच्छे लगे।

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  19. sach, badi tej raftar hai aajkal ke bachcho ki dost ban kar hi usper niyantran rakha ja sakta hai,par iske liye jaroori hai ham unke saath jyada se jyada waqt de sake, jud sake unsey,par kai bar kaam aadey aata hai aur bachchey hamse door hote jaate hai apni ek alag duniya bana lete hai

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  20. बेहतर होने पर सब सही होता है... बहुत सही विश्लेषण किया है

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  21. haan hum bhi dekhte hai ye program wese kitchen me se aa aakar dekhti hu beech beech me...par jese tese dekh hi leti hu:)karyakram bahut stariya nahi hai sach hai par sochne ka ek chance deta hai.ye bhi sachi hai ki parwarish ka koi fix tareeka nahi hota.....aapke lekh me uthae gae muddon aur vicharon se sahmat hu...

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  22. पल्लवी जी, मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया... बहुत सुंदर लेख लिखा है आपने.

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  23. हम लोग तो 11-12 वर्षों से टी वी देख ही नहीं रहे हैं। टी वी,फ्रिज और कूलर भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के उपादान हैं।

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  24. कई बार बच्चे आँखों में आँसू भर कर तिरते आँसुओं के ठीक बीच से देखते हैं कि मेरे रोने से माता-पिता पसीज रहे हैं या नहीं. बचपन यह परीक्षण जल्द ही कर लेता है. जहाँ तक हो सके शिशु को रोने नहीं देना चाहिए. बहुत ही खूबसूरत पोस्ट.

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  25. जरूरत है आपसी ताल मेल की, कि आपका बच्चा आप से दोस्त की तरह व्यवहार तो करे, मगर उसमें भी कुछ मर्यादा हो... संस्कार के मुद्दे पर सारगर्भित आलेख .

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  26. सच है ...अभिभावकों और बच्चों में तालमेल और समझ ज़रूरी है..... ऐसे टीवी कार्यक्रम इसे बढ़ावा देंगें यही उम्मीद है....

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  27. सारगर्भित आलेख,
    Vivek Jain
    vivj2000.blogspot.com

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  28. अधिकतर बचपन माँ बाप की समझदारी और परिपक्वता पर निर्भर होता है !
    शुभकामनायें आपको !

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  29. पल्लवी जी ,...
    आपके लिखे आलेख के विचारों
    से पूर्ण रूप से सहमत हूँ, सुंदर प्रस्तुति
    मेरे नए पोस्ट पर इंतजार है

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  30. सही कहा...यही आधार है.

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  31. nice...................nice...........

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  32. मैं तो कोई भी सिरिअल देखता नहीं, हाँ इस सिरिअल के प्रोमो जरुर देखे थे..मुझे बड़े अच्छे लगे थे इसके प्रोमोस...:)

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  33. पल्लवी जी,
    आपके विचारों
    से पूर्ण रूप से सहमत हूँ, सुंदर प्रस्तुति

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  34. उपदेशात्मक प्रस्तुति.अच्छा लिखा है.

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  35. बहुत ही उपयोगी एंव ज्ञानवर्धक पोस्ट आभार !

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  36. यह सीरियल मैने भी देखा है ..बहुत अच्छा लगा ..परवरिश के संधर्भ में हम कुछ कह नहीं सकते --क्योकि हर घर के अपने कुछ रिवाज होते हैं और हम उन्हीं रिवाजो में बंधे होते हैं !

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  37. बच्चों की सही परवरिश के लिए मां-बाप को बालमन का अध्ययन करते रहना चाहिए।

    अच्छा आलेख।

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  38. आप सभी पाठकों एवं मित्रों का तहे दिल से शुक्रिया कृपया यूं हीं संपर्क बनायें रखें....

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  39. Pallavi!! aapke har post se ye jhalak jata hai ki kitna homework aap karte ho... beshak har post ka koi karan aap dhundh lete ho, lekin bahut dil se kahte ho aap!!
    hats off!!
    thanx ham parents kii aankhe bi kholne ke liye:)

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  40. विचार बहुत अच्छे हैं, परंतु टीवी देखने का समय निकालना भी अपने आप में एक दुष्कर कार्य है।

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  41. सुन्दर विचारणीय आलेख है आपका.
    आपकी बातों से सहमत हूँ जी.

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