Tuesday, 29 November 2011

कुछ उलझे हुए विचार



आज बस मन हुआ कि कुछ लिखा जाये, मगर क्या? तो ऐसे ही मन में कुछ ख़्याल आने लगे, कुछ ऐसे विचार जिनका न कोई सर था न कोई पैर,Jक्या कभी आपने भी ऐसा कुछ सोचा है, कि हम हमारे ही शरीर के अंगों के एहसानों तले दबे हुए हैं। आप भी सोच रहे होंगे कि आज मैं भी क्या बेबकूफी की बातें कर रही हूँ। दरअसल बात यह है कि मैं खुद क्या सोच रही हूँ, क्या लिख रही हूँ, मुझे खुद भी शायद ढंग से पता नहीं है J तभी तो मैंने आज अपनी इस पोस्ट को शीर्षक ही ऐसा दिया है “कुछ उलझे हुए विचार” यूँ तो हम जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए ही करते है और हमारा शरीर हमारा अपना है। किन्तु यदि हम अपने शरीर को खुद से अलग करके देखें तो शायद कितना कुछ ऐसा है, जो हम खुद अपने शरीर से ही स्वयं सीख सकते है उसके लिए न तो हमें किसी और के अनुभवों को जानकर सीखने की जरूरत है और न ही किसी और तरह से, हमारा अपना शरीर ही हम को वो सब कुछ सीखा सकता है। जिसकी जरूरत हमको एक नेक इंसान बनने के लिए होती है।

यूँ तो शरीर का हर अंग महत्वपूर्ण होता है। हमारे शरीर में ऐसा कोई अंग नहीं है, जिसके न होने से हमको कोई फर्क न पड़ता हो। जैसे हमारी आँखें जो हमारी जरूरत का एक अहम हिस्सा हैं। कितना कुछ करती हैं हमारी यह आँखें हमारे लिए, हम को तकलीफ न हो, इसलिए अँधेरे में अपने आप को बड़ा कर के हमको देखने में सक्षम बनाती हैं और यदि रोशनी जरूरत से ज्यादा हो, तो खुद को सिकुड़ कर तेज़ रोशनी से हमको होने वाली तकलीफ से हमें बचाती हैं, हमारी यह आँखें। ऐसे ही हमारे हाथ ,वैसे तो हाथों की महिमा पर मैं पहले भी एक पोस्ट लिख चुकी हूँ। लेकिन फिर भी देखिये न, हमारे लिए, हमारे हाथ भी कितना कुछ करते हैं। यदि देखा जाये तो शायद ही कोई ऐसा कम हो जिसकी कल्पना बिना हाथों के की जा सकती है। अगर हाथ न हो तो हम किसी और व्यक्ति पर कितने आश्रित हो जाते है। कभी गौर से देखिये अपने ही हाथों को तो बहुत प्यार आता है उन पर और मन अंदर से जैसे धन्यवाद देता है, अपने ही हाथों को,J

ठीक इसी तरह हमारे पैर जो दिन रात हमारा वज़न उठाया करते हैं। मगर कभी उफ़्फ़ तक नहीं करते, कभी बहुत ज्यादा थकान होने पर भी, यदि मंजिल थोड़ी ही क़रीब हो तब भी हमारी ही ज़बरदस्ती को यह सुनते हुए कि बस थोड़ी दूर और है, थक कर चूर हो जाने के बाद भी हमारे लिए चला करते हैं हमारे पैर,J बदले में कभी नहीं कहते कि अब हम तुम को यहाँ तक लाये हैं, तो अब तुम हमारी खुशामत करो अगर आपने स्वयं उनकी परवाह करते हुए उनको आराम दिया, तो ठीक। नहीं भी दिया तो वो खुद कभी कुछ नहीं कहते। वो क्या हमारे शरीर का कोई भी अंग चाहे जितनी तकलीफ में हो खुद कभी कुछ नहीं कहता। सिवाय एक दो हिस्सों के Jजैसे दाँत या कान का दर्द यदि हो, तो वो चुप नहीं बैठता चाहे जो कर लो। इतना बुरा होता है कि आप दर्द से कराहते ही रहते हो, लेकिन जब इतना कुछ हमारे पास है, तब भी हम खुद से कुछ क्यूँ नहीं सीखते। क्यूँ हमको हमेशा हमारे द्वारा किए हुए किसी भी कार्य के बदले, ना चाहते हुए भी हमारे मन में बदले में कुछ पाने कि उम्मीद आ ही जाती है। अब दूर क्यूँ जायें यही देख लीजिये। अपने ब्लॉग जगत में जब आप किसी के ब्लॉग पर जाकर स्वयं कोई टिप्पणी करते हैं, तभी बदले में आपको कोई टिप्पणी देता है, मतलब दोनों तरफ बराबर की उम्मीदें हैं क्यूँ ?

अब आप लोग कहेंगे नहीं ऐसा नहीं है। बहुत से ऐसे ब्लॉग भी हैं, जिन पर आप बिना कोई बदले की उम्मीद  किए हुए भी सिर्फ उस ब्लॉग को पसंद करते हैं, इसलिए उस पर टिप्पणी देते हैं। तो हाँ मैं भी मानती हूँ, कि यह बात भी सच है। कुछ हैं, ऐसे ब्लॉग जिन पर हम सिर्फ इसलिए टिप्पणी देते हैं, क्यूँकि वो ब्लॉग हमको अच्छे लगते हैं। फिर भले ही हमको उसके बदले मे कोई टिप्पणी मिले या ना मिले, मगर बहुत कम और गिने चुने ब्लॉग ही ऐसे होते है। ज्यादातर टिप्पणी वापस पाने की चाह तो सभी में होती है।J भले ही कोई व्यक्ति इस बात को स्वीकारे या न स्वीकारेJ हाँ यह ज़रूर है कि नये-नये लेखकों के साथ ऐसा ज्यादा होता है और जो काफी समय से लिख रहे हैं, अब उनकी ऐसी कोई चाह न हो, या कम हो गई हो, लेकिन यह एक नियम कह लीजिये या इंसानी प्रवत्ति, कि जो जितनी ज्यादा टिप्पणीयाँ देता है, उसके ब्लॉग पर उतनी ही ज्यादा टिप्पणीयाँ आती हैं।J और क्यूँ न हो दुनिया का उसूल है "एक हाथ दे एक हाथ ले"। अगर यह वाकई झूठ है, तो अपने दिल पर हाथ रखकर कहिए कि यह झूठ है।JJJ

जबकि होना तो यह चाहिए कि हमारे द्वारा किए गए किसी भी कार्य के बदले हमको कुछ भी पाने की चाह होनी ही नहीं चाहिए, मगर ऐसा होता नहीं है। जबकि यही बात हमको खुद अपने शरीर से सीखना चाहिए कि दूसरों के लिए समर्पण की भावना क्या होती है। जैसे वो गीता में लिखा है, न कि"कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर" शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे शरीर का निर्माण किया गया हो, नहीं J क्यूँकि यह बात तो हमारे शरीर में कूट-कूट कर भरी है। लेकिन फिर भी हमको इस बात को समझने के लिए गीता और रामायण जैसे पवित्र एवं महान धर्म ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है।J यह थे मेरे कुछ उलझे हुए विचार जो पता नहीं कहाँ से शुरू हुए और कहाँ आ गये, कुछ पता नहीं,  इसलिए इन पंक्तियों के साथ अपने इन विचारों को यहीं विराम देती हूँ। यदि मेरी किसी बात से किसी को कोई ठेस पहुँची हो तो मैं उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।
  
"कितने ही वजूद हैं ऐसे दुनिया में ,
कुछ अनदेखे – अनजाने, फिर भी पहचाने से -
शायद हर जिंदगी का अपना दस्तूर है ,
कोई कम तो कोई ज्यादा मजबूर है ....... “

priyanka rathore ....                               

50 comments:

  1. :) aaj to kammal ka likha hai aapne

    ReplyDelete
  2. :) thanks kanu मुझे तो लगा था शायद आज की यह पोस्ट किसी को पसंद ही नहीं आयेगी ... :)

    ReplyDelete
  3. "कितने ही वजूद हैं ऐसे दुनिया में ,
    कुछ अनदेखे – अनजाने, फिर भी पहचाने से -
    शायद हर जिंदगी का अपना दस्तूर है ,
    कोई कम तो कोई ज्यादा मजबूर है ....... “

    ReplyDelete
  4. बहुत ही अच्छा लिखा है, पूर्णतया सुलझे हुये विचार हैं।

    ReplyDelete
  5. मानवशरीर ब्रह्मांड जितना ही क्लिष्ट है. दोनों को जितना जानने का प्रयास होता है उतना ही उलझता जाता है. शायद इसीलिए इसे अनादि-अनंत मान लिया गया है. यह बात इनके दृश्य व अदृश्य, दोनों ही पक्षों पर सिद्ध है.

    ReplyDelete
  6. किसने कहा है उलझा हुआ है?? सब कुछ सुलझा हुआ है जी :)

    ReplyDelete
  7. सब सुलझा हुआ है, सही है. टिप्पणियों का उदाहरण अच्छा रहा. लेकिन उदास और निराश नहीं होना.

    ReplyDelete
  8. उलझनों को सुलझाते आपके उलझे विचार मुझे सुलझे हुए लगे.

    पल्लवी जी,एक दूस्र्रे के यहाँ आने जाने से ही अपनापन बनता है.
    यह अलग बात है कि कभी कोई आगे कभी कोई पीछे हो जाये.
    कोई नया ब्लोगर हो या पुराना,ज्यादा अच्छा लिखता हो या कम,
    एक दूसरे के लिखे पर दिल से टिपण्णी करने से दोनों का ही
    बहुत लाभ होता है.

    शरीर परमात्मा का दिया अनमोल उपहार है हमें. शरीर का
    सदुपयोग करना व इसकी उचित देखभाल करना हमारा
    दायित्व है.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

    ReplyDelete
  9. आपसे नाराजगी का कोई प्रश्न ही नही होता पल्लवी जी.
    समयाभाव के कारण आपके ब्लॉग पर आने में देरी हुई,
    इसके लिए क्षमा चाहता हूँ.आपकी दूसरी पोस्टों को भी
    अवश्य पढूंगा.इससे मेरा ही तो लाभ होने वाला है.

    ReplyDelete
  10. वाह ...बहुत ही बढि़या ।

    ReplyDelete
  11. उलझन उलझन में बहुत सुलझी हुई बात कह दी ।
    लेकिन ब्लॉगजगत में यही सच है --एक हाथ ले , एक हाथ दे ।
    फिर भी मैंने देखा है कि बस १० % पाठक ही टिपण्णी करते हैं , ठीक वैसे जैसे मॉल्स में १० % लोग ही खरीदारी करते हैं ।

    ReplyDelete
  12. आपकी उलझन हमें पूरी तरह से समझ में आ रही है ...सार्थक आलेख

    ReplyDelete
  13. सार्थक तथा सामयिक प्रस्तुति , आभार.

    ReplyDelete
  14. बहुत खूब. शानदार पोस्ट.

    सादर.

    ReplyDelete
  15. उलझे उलझे भावों को लेकर लिखना शुरू भले किया हो आपने, पर बेहद सुलझी बातें कह गयीं:)
    बिना किसी चाह के अपना कर्तव्य करते जाना ही सुखद है...,यह हम आज न कल अपने अनुभव के आधार पर जान ही जाते हैं!

    ReplyDelete
  16. जीवन के जिस हिस्से को भी गौर से देखा और जाना जायेगा ...व्यापर हर कहीं नज़र आयेग ....

    एक हाथ ले , एक हाथ दे

    ReplyDelete
  17. ओह, इस पोस्ट में भी जानकारी...:) :)
    और अंतिम में प्रियंका की कविता बड़ी अच्छी लगी...

    वैसे,
    "अपने ब्लॉग जगत में जब आप किसी के ब्लॉग पर जाकर स्वयं कोई टिप्पणि करते हैं, तभी बदले में आपको कोई टिप्पणि देता है, मतलब दोनों तरफ बराबर की उम्मीदें हैं क्यूँ ?"

    -देखते हैं इसपर ब्लोग्गर्स क्या कहते हैं, :P

    ReplyDelete
  18. *जानकारी से बेहतर शब्द होगा एनालिसिस :)

    ReplyDelete
  19. गजब के उदाहरणों के साथ आपने की बात।
    वैसे ब्‍लाग जगत में टिप्‍पणियों की बात पर कहना चाहूंगा कि यह मेरी आदत में शुमार हो गया है... हर दिन उन ब्‍लागों को पढना जिन्‍हें मैंने फालो किया है.... फिर उनकी ओर से मुझे टिप्‍पणियां मिलें या नहीं.... मैं कोशिश करता हूं कि जिन ब्‍लागों में मैं फालोवर्स की सूची में हूं उन्‍हे तो पढ ही लूं और टिप्‍पणियां भी दूं।
    फिर भी आपकी बात सामान्‍य तौर पर सही है....

    ReplyDelete
  20. यक़ीनन आप सभी लोग सही कह रहे हैं ...:-) आभार

    ReplyDelete
  21. पढा। टिप्पणियों वाली बात सच भी है, बहुत या कुछ हद तक। जैसे यहीं देखिए, सामयिक…अब बताया जाय कि सामयिक कैसे हुया यह लेख?…फिर भी कई बार हाजिरी के लिए भी टिप्पणियाँ दे जाते हैं हम। क्योंकि लिखने वाले को इन्तजार भी हो सकता है कि फलाँ नहीं आए यहाँ…

    ReplyDelete
  22. पल्लवी, लगता है जैसे कि कोई शोध पत्र है । बहुत गहराई में खो जाती हैं आप । उस पर साहित्य की छात्रा की भाषा शैली ! अब, रूक्ष बैंकिंग के पेशे मे डूबे मेरे जैसे विज्ञान के छात्र के लिये मुमकिन ही नही कि इस कोटि के आलेख पर उचित तरीके से अपनी टिप्पणी दे सकूँ । इसलिये, बस दो शब्द : शुभ कामनाएँ !!

    ReplyDelete
  23. सुंदर प्रस्तुति और बहुत ही सुलझे हुए विचार पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा !


    मेरी नई कविता "अनदेखे ख्वाब"

    ReplyDelete
  24. अपने चर्चा मंच पर, कुछ लिंकों की धूम।
    अपने चिट्ठे के लिए, उपवन में लो घूम।।

    ReplyDelete
  25. आज तो आपने कमाल ही कर दिया, बेसिर पैर की आतों से आपने एक ऐसा शब्दचित्र खडा कर दिया है, जो दर्शन की गहराहयों में ले जाता है, वाह

    ReplyDelete
  26. bahut hi umda baat kahi gayi hai gr8

    ReplyDelete
  27. baton baton mein kitni umda baten kah gain aap.bahut sunder.......mere blog per aapka swagat hai.

    ReplyDelete
  28. ये बातें कम से कम मुझे तो बे सिर पैर की नहीं लगीं।
    जहां तक टिप्पणियों की आदान प्रदान की बात है और जैसा कि नए ब्लोगर्स के संदर्भ मे आपने कहा भी है मेरे विचार से नए ब्लोगर्स को अधिक से अधिक प्रोत्साहन की ज़रूरत होती है। हलचल के लिए कभी कभी गूगल सर्च की मदद लेता हूँ और बहुत से ऐसे ब्लोगस मिलते हैं जिन्हें कुछेक बार अपडेट कर के ब्लॉगर ने लिखना ही छोड़ दिया शायद इसका कारण किसी की निगाह वहाँ तक न जाना रहा हो या हमने नज़रअंदाज़ कर दिया हो।
    जहां तक मेरा अपना अनुभव है स्थापित ब्लोगर्स में ही टिप्पणी की महत्वाकांक्षा अधिक होती है।

    प्रियंका जी की पंक्तियाँ यहाँ साझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

    सादर

    ReplyDelete
  29. मैं लगभग बीस वर्षों से लेखन कार्य कर रही हूं और केवल तीन वर्षो से ही ब्‍लागिंग कर रही हूं। लेखन में त्‍वरित प्रतिक्रिया प्राप्‍त नहीं होती है जबकि ब्‍लागिंग में अनेक विचार प्राप्‍त होते हैं। हम कहां खडे हैं और समाज क्‍या सोच रहा है इसकी पड़ताल ब्‍लाग से ही होती है। इसीकारण टिप्‍पणियों का महत्‍व है। लेकिन जिन टिप्‍पणियों में विचार प्रगट नहीं होते उनके कोई मायने नहीं हैं। चाहे विरोधी विचार ही हों, लेकिन विचार हो तो ही टिप्‍पणी का महत्‍व है। संख्‍या का कोई अर्थ नहीं है। रही बात शरीर के अंगों की तो यह तो सच है कि हर अंग जरूरी होता है।

    ReplyDelete
  30. बहुत सुंदर और सार्थक आलेख..बहुत सुलझे और स्पष्ट विचार और उनकी प्रभावी अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
  31. खुबसूरत अभिवयक्ति

    ReplyDelete
  32. वैसे ढेर सारे अंगों के सुव्यवस्थित एकत्रिकरण से ही "हम" बनते हैं। :-)

    ReplyDelete
  33. पल्लवी दीदी अच्छा लगा पढ़ कर ...
    बिलकुल सही कहा आपने...
    सही है ,
    पर जहाँ अपने ब्लॉग की बात की तो दीदी मैं भी काफी दिनों से लिख रही हूँ,
    पर मैंने महसूस किया है कि ये ब्लोगिंग एक धंधे की तरह हो गया है..
    जैसा आपने कहा --एक हाथ दे, एक हाथ ले!
    अच्छे साहित्य से, अच्छी प्रेरणा-दायक बातो से किसी को मतलब नहीं है!
    कमेन्ट की चाह हम जैसे नए लेखको के लिए जरुरी है,
    ताकि आप सब के मार्गदर्शन से आगे बढ़ा जाए...
    किन्तु इसे कला के नजरिये से देखे तो अच्छा है,
    ना कि धंधे के नजरिये से, या फिर नाम कमाने के नजरिये से!
    कोई बात अच्छी ना लगी हो तो माफ़ी....:)

    ReplyDelete
  34. मन की बातों को बड़ी सादगी से लिखा है, इस सादगी को नमन.

    ReplyDelete
  35. बहुत ही मनभावन प्रस्तुति । कामना है सर्वदा सृजनरत रहें । मेरे नए पोस्ट पर आपकी आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  36. मन की सादगी लिखी बेहतरीन पोस्ट...अति सुंदर
    मेरे पोस्ट -प्रतिस्पर्धा-में आपका इंतजार है ,..

    ReplyDelete
  37. आपने जो कहा उसमें कहीं उलझाव नहीं है .हाँ, इस विषय में मुझे अब विचार करना पड़ेगा .

    ReplyDelete
  38. bahut khoob pallavi ji....apne lekh mei meri lines dalne ke liye shukriya.... :)aabhar

    ReplyDelete
  39. सुलझे विचार ....
    सहमत हूँ आपसे ...
    शुभकामनायें स्वीकार करें !

    ReplyDelete
  40. @सतीश सक्सेना जी, आपकी शुभकामनाओं के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आपकी शुभकामनाओं की और मार्गदर्शन की मुझे सदैव जरूरत रहा करती है और आगे भी रहेगी :-) कृपया यूं हीं संपर्क बनाए रखें आभार ...

    ReplyDelete
  41. प्रियंका जी ...आभारी तो मैं हूँ आपकी की आपने अपनी कविता की यह खूबसूरत पंक्तियाँ मुझे यहाँ अपने ब्लॉग पर लगाने की सहमति दी जिसके कारण मेरे ब्लॉग पर चार चाँद लग गए। :-)धन्यवाद

    ReplyDelete
  42. Pallavi ji,
    Apke vichar uljhe huye hone ke bad bhi ekdam spasht isliye hain kyonki..inme apas me ek tartamyata hai,bhasha ka sundar pravah hi ise rochak aur pathniya bana raha hai...
    Achchha lekh.
    HemantKumar

    ReplyDelete
  43. "कितने ही वजूद हैं ऐसे दुनिया में ,
    कुछ अनदेखे – अनजाने, फिर भी पहचाने से -
    शायद हर जिंदगी का अपना दस्तूर है ,
    कोई कम तो कोई ज्यादा मजबूर है ....... “bahut badhiyaa. aap jo bhi likhti hain , wah sach ke rang se sarabor hota hai

    ReplyDelete
  44. मन जाने अनजाने ऐसी ही उलझनों में उलझा रहता है, क्योंकि इसे उलझने की आदत हो चली है।

    टिप्पणियों की बात शायद कुछ हद तक ठीक है।

    ReplyDelete
  45. टिप्पणियों की बात सच कही है आपने ... पर फिर भी किसी तरह की उलझन काहे को ... पोस्ट को अच्छे से संजोया है आपने ...

    ReplyDelete
  46. आप सभी पाठकों एवं मित्रों का तहे दिल से शुक्रिया कृपया यूं हीं संपर्क बननाए रखें आभार ....:-)

    ReplyDelete

अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए यहाँ लिखें