Wednesday, 29 June 2011

पट्रोल और डीज़ल के बढ़ते दाम – मज़ा या सज़ा

आज कल यह विषय कुछ ज्यादा ही चर्चा में मालूम होता है। इस विषय पर मेरी नजर से एक नजर यहाँ भी। मेरे विचार से यह एक ऐसा विषय है जिसमें देखा जाये तो जितना मजा है उतना ही चिंतन का भी, मगर चिंता के नज़रिये से तो इस विषय को सभी देखते हैं। तो आइए आज हम इस विषय को मज़े के नज़रिये से भी देखने का प्रयास करते है।

वैसे देखा जाये तो एक तरह से आम जन जीवन के लिए यह सही भी है, क्योंकि आजकल के दौर में जिसको देखो एक दूसरे से आगे बढ़ने की, एक दूसरे को खुद को ऊँचा और सम्पन्न दिखाने की होड़ सी लगी हुई है। इन सब चक्करों में आज हर घर में एक से दो कारें है और दो से तीन 2-3 दुपहिया वाहन आप को बड़ी आसानी से देखने को मिल जाएँगे, कहने का मतलब यह है कि जितने घरों में लोग नहीं हैं उससे ज्यादा उस घर में आपको वाहन मिल जाएँगे। 
खैर हम तो बात कर रहे थे मज़े की, तो मज़े की बात तो यह है कि इन बढ़ते दामों की वजह से ही सही लोग वापस पैदल चलना तो शुरू कर देंगे। जो आज कल की इस फैशनेबल दुनिया में दिखावे के चक्कर में खत्म सा ही हो गया है। इस बहाने लोगों का स्वास्थ्य भी ठीक हो जाएगा और जो लोग gym में पतले होने के लिए पैसा बर्बाद करते है,  उनका पैसा भी बच जायेगा। वैसे  ऐसा नहीं है कि gym जाने से कोई लाभ नहीं होता है, लेकिन बहुत कम लोग ही हैं जो gym  जाकर खुद को स्लिम फिट कर पाते हैं। अधिकतर लोग तो अपने इंडिया में सिर्फ दिखावे के लिए ही gym जाते हैं, कि चार लोगों में कहने में अच्छा लगे कि भई हम तो रोज gym जाते हैं , कसरत के लिए माना कि चिंता स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होती चाहे जैसे भी हो और गांधी जी ने तो कहा भी है कि चिंता चिता के समान होती है मगर यदि इस विषय पर सोचो तो थोड़ी चिंता करने में कोई बुरी बात नहीं है। चिंता के कारण लोग वाहन का प्रयोग कम करेंगे और यदि प्रयोग कम होगा तो उस के दो फ़ायदे होंगे ,पहला लोग पैदल चलना शुरू कर देंगे जिस के कारण चाहे अनचाहे उनका स्वास्थ्य खुद बख़ुद ठीक हो जायेगा और दूसरा जब वाहनों का प्रयोग कम होगा तो प्रदूषण भी कम हो जायेगा। इससे इंसान ही नहीं प्रकृति को भी नुकसान कम होगा और इस तरह हम अपने आस-पास के वातावरण को भी साफ और स्वछ बनाने में कामयाब हो सकेंगे। तो हुई न यह मज़े कि बात J

लेकिन यदि हम बात करें सज़ा कि तो वो भी अपनी जगह कोई गलत बात नहीं है। क्योंकि इस बात में जितना मजा है कहीं न कहीं उतनी सज़ा भी है क्योंकि वह  लोग जो निम्न वर्ग की श्रेणी में आते है। हमारे वो बंधु जिनके घर में कहीं आने जाने का एक ही साधन है। उनके लिए तो यह बहुत ही गहन चिंता का विषय है। क्योंकि आज भी हमारे देश में ऐसे कई लोग हैं जो रोज कमाते है और तभी दो वक्त का खाना नसीब होता है, ऐसे में यदि उन के पास एक ही साधन है अपने जीवन निर्वाह के लिए, कहीं आने जाने का, जिसको वह अपना पेट काट-काट कर चला रहे हैं ताकि उनके समय की बचत हो सके, उनके लिए इन दामों का बढ़ना सचमुच ही चिंता का विषय है और निश्चित ही हमारी सरकार को हमारे उन भाइयों के बारे में सोच कर कोई निर्णय लेना चाहिए।
आज कल की इस तेज रफ्तार भरी जिंदगी में हम चाह कर भी अपनी प्रकृति के लिए कुछ नहीं कर पाते और करें भी तो प्रदूषण भरा माहौल उस में सहायक नहीं बन पाता। जबकि हमारा भारत तो वो देश है, जो प्रकृति को भी माँ का दर्जा देता है। तो अपनी प्रकृति को बचाने के लिए अपने वातावरण को साफ स्वछ और निर्मल बनाने के लिए और कुछ नहीं तो, कम से कम हम यह प्रण लेकर प्रयास करने की कोशिश करें कि जितना हो सके उतना कम वाहनों का प्रयोग करें, अपने वाहनों की ठीक तरह से जांच करवाते रहें ताकि आपके वाहन धुआँ न छोड़े और जितना ज्यादा हो सके उतना ज्यादा से ज्यादा पेड़ लागतें रहे और आने वाली पीढ़ी को भी पेड़ों का महत्व समझाएँ ताकि वो भी पेड़ लगायें और हमारी प्रकृति को राहत प्रदान करें।
जय हिन्द ......

Saturday, 25 June 2011

आधुनिकता और नारी

कहाँ से शुरू करूँ कुछ समझ ही नहीं आ रहा है मन मैं कई तरह के विचारों का कोलाहल मचा हुआ है इस विषय पर लिखने को बहुत कुछ है मगर सभी लिखना शुरू किया तो वह लेख नहीं कहानी बन जायेगी J

मेरा मानना है की यह एक ऐसा विषय है जिसमें हर एक व्यक्ति की अपनी एक अलग परिभाषा होती है या यूं कहिए कि अपना एक अलग नजरिया होता है। कुछ लोग पहनावे को आधुनिकता का प्रमाण समझते है तो कुछ लोग विचारों में आये हुए परिवर्तनों को आधुनिकता मानते है कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि पश्चिमी परिधानों का प्रभाव केवल महिलाओं पर पड़ता है क्यूँकि जब भी पश्चिमी सभ्यता की बात आती है तो लोगों के मन में सब से पहले वहाँ के परिधानों का ही चित्र उमड़ता है।

हमारे इस पुरुष प्रधान समाज में अधिक तर लोगों का मानना यही है कि पश्चिमी सभ्यता का सब से अधिक प्रभाव महिलाओं पर ही पड़ता है अगर एक तरह से देखा जाये तो यह बात गलत भी नहीं है क्योंकि पूरी दुनिया में केवल स्त्रियों के परिधान ही हैं जो कई प्रकार के होते हैं किन्तु पुरुषों के लिए पूरी दुनिया में लगभग एक ही तरह का पहनावा होता है और इस के आधार पर यह प्रभाव पड़ना मेरे विचार से तो स्वाभाविक सी बात है। आप का क्या मत है इस विषय पर क्या आप लोग इस बात से सहमत हैं ??

 यह बात मैं यहाँ इसलिए नहीं कह रही हूँ कि मैं स्वयं एक स्त्री हूँ इसलिए स्त्रियों के पक्ष में बोल रही हूँ बल्कि इस आधार पर बोल रही हूँ क्योंकि मैं स्वयं भारत से बाहर रह रही हूँ। मैं भी पाश्चात्य परिधान पहनती हूँ और समय अनुसार यदि जरूरत पड़े तो खान-पान को भी अपना लेती हूँ और मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई बुराई है। कहा जाता है, कि बदलते वक्त के साथ बदल जाने में ही समझदारी है जो वक्त के साथ नहीं बदलता वो या तो टूट जाता है, या अकेला रह जाता है। तो फिर यदि यही बदलाव जब कोई स्त्री अपना लेती है, तो फिर यह पुरुष प्रधान समाज उस बात को क्यूँ नहीं अपना पाता।
खैर मेरा मानना तो यह है कि कोई भी इंसान हो स्त्री या पुरुष अपने विचारों से बड़ा होता है ना कि परिधानों से ,कुछ लोगों का मानना यह भी है पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता को मानने वाले हिन्दुस्तानी लोग अकसर खुद की संस्कृति और सभ्यता को भूल जाते है मगर ऐसा नहीं है, हर एक कि जिंदगी में हर एक बात के लिए अपनी एक अलग जगह होती है। विदेश में रहने वाले लोग विदेशी हो जाते है यह बात ठीक नहीं है कभी-कभी वक्त की मांग को देखते हुए कई बार कुछ चीजें ऐसी करनी पड़ जाती हैं जैसे बहुत अधिक ठंड के मौसम में वक्त की नजाकत को देखते हुए जीन्स पहनना ही पड़ती है अन्यथा हिन्दुस्तानी परिधान (साड़ी) में आप बीमार पड सकते हैं    

 इस आधार पर किसी महिला को गलत ठहराना यह कहना गलत होगा क्यूँकि वो कहते है ना तुलसी इस संसार में भांति-भांति के लोग जैसा मैंने उपर पहले भी कहा है कि कोई भी इंसान अपनी सोच एवं विचारों से बड़ा होता है पहनावे से नहीं, इसलिए यह कतई जरूरी नहीं कि एक आधुनिक कपड़े पहने वाली महिला के विचार बहुत ही आधुनिक हो, लेकिन ठीक इसी तरह यह भी कतई जरूरी नहीं कि उसके विचार ऐसे हों जिनके कारण उसे यह कहा जाये कि वो अपने संस्कारों को खो चुकी है। क्यूँकि मेरा ऐसा मानना है कि यह जरूरी नहीं है कि पाश्चात्य संस्कृति को मानने वाला कोई व्यक्ति यदि स्वयं संस्कारित हैं तो वह पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति में रहकर भी सभ्य ही रहेगा। फिर चाहे उसका परिधान कितना भी आधुनिक क्यूँ ना हो फिर चाहे वो कोई स्त्री हो या कोई पुरुष, अर्थात जैसे पांचों उँगलियाँ एक बराबर नहीं होती, ठीक उसी तरह सभी लोग एक जैसे नहीं होते। हाँ यह बात सच है कि विदेश में रहने वाले लोग अकसर विदेशी चीजों को अपना कर खुद को बहुत आधुनिक समझने लगते है, आधुनिक परिधानों को पहन कर खुद को अन्य लोगों से बहुत अधिक आधुनिक मानने लगते है, लेकिन विदेश में रहने वाले सभी लोग एक ही तरह की सोच रखते है, यह सही नहीं है।

यह तो थी कपड़ों में आए बदलाव की आधुनिकता, लेकिन आज कल के दौर में न सिर्फ परिधानों में परिवर्तन आया है बल्कि हमारे आस पास की सभी खास और आम चीजों में भी बहुत परिवर्तन आ गया है जैसे अगर में यहाँ कि बात करुँ तो घरों कि बनावट और उस में इस्तेमाल में लाया जाने वाले सभी उपकरणों में भी बहुत आधुनिकता आ गई है जैसे यहाँ के घरों मे पहले अलग प्रकार के चूल्हे इस्तेमाल में लाये जाते थे और अब हॉट प्लेट और हेलोजन का ज़माना है। ठीक इसी तरह पहले घरों को गरम रखने के लिए चिमनियों का प्रयोग किया जाता था और आज आधुनिक से आधुनिक हीटर बाज़ार में उपलब्ध हैं। हाँ मगर यह बात जरूर सही है कि एक आम इंसान कि सोच का दायरा भी तभी बड़ा हो पता है जब वो दुनिया देख सके अपने घर से बाहर आकर जब वो अलग-अलग लोगों से मिलता है, उनके विचारों से अवगत होता है तभी उसकी खुद की सोच में भी बदलाव आता है।

ऐसा बदलाव यदि कोई अपने जीवन में अपनाता है तो उस में कोई बुराई नहीं है और ऐसे बहलावों को आधुनिकता का नाम देना सही भी है तो जब लोग इस  परिवर्तन को आधुनिक  मान का स्वीकार करने के लिए उत्सुक हो सकते है  तो नारी के द्वारा अपने निजी जीवन में लाये  गये परिवर्तनों को भी लोगों को खुशी –खुशी अपना लेना चाहिए न की यह सोच कर उस पर उँगली उठाते रहना चाहीये कि सारी आधुनिकता का प्रभाव केवल महिलाओं पर ही पड़ता है   नये अनुभवों के साथ सोच में परिवर्तन आना तो स्वाभाविक सी बात है किन्तु उसका भी एक सीमित दायरा होता है लेकिन सोच में उस बदलाव का अर्थ, संस्कारों को भूल जान नहीं होता और यदि उस सोच को Broad minded होना कहा जाये तो वो गलत नहीं होगा यह मेरा मत भी है और मेरा अपना अनुभव भी जय हिन्द ...

Wednesday, 22 June 2011

कभी खुशी कभी गम

कहते हैं खुशियाँ जलती हुई फुलझड़ियों की तरह होती है जो थोड़ी देर जल कर बुझ जाया करती है और दुःख एक सुलगती हुई अगरबत्ती की तरह है जो देर तक जलता रहता है और बुझने के बाद भी महकता है

यह बस केवल मेरे विचार हैं जिनकी व्यापक रूप से व्याख्या करने का मैंने प्रयत्न किया हैं। मैंने यह बात किसी फिल्म के संवाद में सुनी थी। मुझे यह बात दिल को छू लेने वाली लगी तो क्या आप सभी लोग भी इस बात से हमत हैं, कितना सुंदर और गहरा विचार है ना, मुझे तो यह बात बहुत सच्ची और सही लगी, माना कि जब कोई इंसान बेहद खुश होता है तो उसे किसी भी तरह के नशे की कोई आवश्यकता ही नहीं होती क्यूँकि उस वक्त उस इंसान को अपनी खुशी का ही नशा इतना होता है कि वह उसी में खोया रहता है। लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है कि कोई भी इंसान नशा क्यूँ करता है?

वैसे देखा जाये तो नशा करने के लिए हर एक इंसान के पास अपनी एक वजह होती है कोई ग़म में नशा करता है तो खुशी में लेकिन आजकल के दौर में तो चाहे खुशी हो या गम दोनों ही सूरतों में लोग खूब पीते हैं अर्थात नशा करते हैं। यहाँ मेरे कहने का तात्पर्य यह की लोग अपने गम को मिटाने के लिए या औरों से छिपाने के लिए, लेकिन यदि साधारण आदमी के नज़रिये से देखा जाये तो शायद वो इसलिए ही पीता है ताकि थोड़ी देर के लिए ही सही वह आपने दुखों से, चिंता से, परेशानीयों से छुटकारा पा सके, मगर मुझे ऐसा लगता है कि जब कोई आदमी जरूरत से ज्यादा दुःखी होता है तब भी वो एक तरह के नशे में ही होता है क्योंकि गम भी तो एक प्रकार का नशा ही तो है जिसका असर लोगों पर कम नहीं होता। हाँ यह उस बात पर ज्यादा निर्भर करती है कि उस इंसान को किस बात का दुःख है। किसी को इश्क का ग़म होता है वो सभी लोग ज्यादातर नशा कर-कर के ही खुद को खत्म कर लिया करते हैं, या हम मज़दूरों का भी उदाहरण ले सकते हैं वह लोग ज्यादातर अपनी थकान मिटाने के लिए पीते है थोड़ी देर के लिए ही सही अपनी परेशानीयों से छुटकारा पाने के लिए पीते है। जिन लोगों को पीने से भी राहत नहीं मिलती तो वह या तो आत्महत्या कर लिया करते हैं या अवसाद में चले जाते हैं। मेरे विचार से तो यह भी एक तरह का नशा ही हुआ।  

खैर यह मेरा मत है। इसलिए मुझे यह पंक्ति बहुत खूबसूरत लगी जिन से मैंने अपने इस ब्लॉग कि शुरू वात की है सुख और दुःख की इस पहेली को किसी ने ऊपर लिखें शब्दों में कितनी खूबसूरती से बांधा है ना, जैसे किसी शायर की कोई शायरी हो। आसान शब्दों में कितनी अच्छी तरह से सुख और दुःख को परिभाषित कर दिया है।

काश हर इंसान इस बात को इतनी ही आसानी से समझ पाता या समझ सकता तो कितना अच्छा होता। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि जितनी आसान यह बात दिखती है उतनी है नहीं। लिखित पंक्तियों में कहा गया है कि खुशियाँ तो पल भर की होती है और गम बहुत लंबा। एक पुरानी किसी फिल्म के गीत में भी यह कहा गया है कि राही मनवा दुःख की चिंता क्यूँ सताती है दुःख तो अपना साथी है और इसलिए शायद ज्यादातर लोगों को भी अपनी जिंदगी में सुख से ज्यादा दुःख का ही आभास होता है और इसलिए शायद आज तक कोई भी इंसान किसी भी सूरत में कभी पूर्ण रूप से खुश नहीं देखा गया। किसी न किसी बात का दुःख हर इंसान को हमेशा रहता ही है, कभी उस बात को दुःख का नाम दिया जाता है तो कभी मलाल का, मगर रहता सभी को है इसलिए खुशी चाहे जितनी हो हमेशा कम ही लगती है और दुःख चाहे जितना कम हो मगर बहुत लगता है इसलिए कई बार लोग खुश होकर भी खुश नहीं रह पाते। कहते हैं ना कि लोग अपने सुखों से कम खुश होते हैं और पड़ोसी के सुखों से ज्यादा दुखी होते हैं।
  
जबकि सभी यह बात बहुत अच्छे से जानते हैं कि सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह बात मानते तो सभी हैं किन्तु फिर भी इस बात को पूर्णरूप से अपना नहीं पाते, अन्ततः मैं बस इतना ही कहना चाहती हूँ कि ज़िन्दगी प्यार का गीत है जिसे हर दिल को गाना पड़ेगा, जिंदगी ग़म का सागर भी है हँसके उस पर जाना पड़ेगा जय हिन्द ....   

Thursday, 16 June 2011

X-Factor India

याद आ गयी तो में आपको बता देती हूँ अभी-अभी जो यह एक संगीत का कार्यक्रम शुरू है न जिसका नाम x-factor है सोनी चैनल पर आप ने भी देखा होगा अभी कुछ दिन पहले मैंने Twitter पर लता मंगेशकर जी की एक tweet ढ़ी थी जिसके ज़रिये उन्होने अपने विचार प्रस्तुत किये थे जिसमें उन्होने कहा था कि उनको भी यह कार्यक्रम बहुत पसंद आया, मुझे भी यह कार्यक्रम बहुत ही अच्छा लगा क्योंकि इसमें उन लोगों को भी अपनी किस्मत और अपने शौक को लोगों के सामने लाने का मौका मिलता है जिसने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा या तालीम नहीं ली है.

खैर मैं आप सभी के साथ इस विषय पर बात करना चाहती हूँ कि संगीत क्या है वो जो शास्त्रीय संगीत, जिसकी तालीम के बिना कोई भी या किसी भी प्रकार का संगीत अधूरा होता है या, वह जो आप के कानों को अच्छा लगता है। फिर चाहे उसमें शास्त्रीय संगीत की तुलना में कितनी भी त्रुटि क्यूँ न हो या फिर, वह जो हम बिना किसी वाद्य के सुनते है या कभी-कभी खुद ही गुनगुनाते हैं। कहने वाले कहते हैं संगीत प्यार की तरह होता है जिसका कोई धर्म नहीं होता। कोई जाति भी नहीं होती, होता है तो सिर्फ संगीत जो मन को सुकून देता है जो मन को खुशी देता जो ग़म को भी मधुर बना देता है संगीत एक ऐसी चीज है जिसे जब आप खुश होते हैं तब भी पसंद करते है और जब दुःखी होते है तब भी पसंद करते है। यह कुछ ऐसी बात है जैसे एक पुरानी हिन्दी फिल्म का नाम था दुल्हन वही जो पिया मन भाये और यदि यही बात संगीत के विषय में कही जाए तो संगीत वही जो जिया मन भायेJ है ना

मुझे ऐसा लगता है की संगीत और प्रेम में कोई फर्क नहीं है जिस तरह आप का प्यार हो जाता है तो फिर कोई और मन को नहीं भाता फिर चाहे वह किसी भी जाती या धर्म का ही क्यूँ ना हो ठीक उस ही तरह जब एक बार संगीत की धुन लग जाती है तो फिर कुछ और पसंद नहीं आता फिर चाहे वो पाश्चात्य संगीत हो या हमारे हिन्दी फिल्मों के नये पुराने गीत। बस एक बार यदि गाने सुनने का चसका लग या तो फिर आप कहीं भी हो कभी बोर नहीं हो सकते और यहाँ (U.K) का तो फैशन भी यही है यहाँ बसों में ट्रेन में लोग पूरे समय अपने कानों में Head  phone के ज़रिये संगीत सुनते रहते हैं। खैर यह तो संगीत के प्रति मेरा मत है।

यही बात इस कार्यक्रम में बहुत अच्छी तौर पर उभर कर सामने आई है इसमें वो लोग भी चुने गए हैं जिसने कभी किसी प्रकार की कोई संगीत शिक्षा नहीं ली और वो भी चुने गए हैं जिसने पूर्ण रूप से संगीत की शिक्षा गृहण की है और शायद यही वजह है कि आम लोगों में भी यह कार्यक्रम लोक प्रिय हो रहा है। जिसमें कई सालों से संगीत के क्षेत्र में काम कर रहे लोग को भी चुना गया है और एक साधारण से आटो चलाने वाले को भी उसके गाने को सुन कर चुना गया। उसकी आवाज को सुन कर उसे चुना गया यही बात मुझे बहुत अच्छी लगी कई लोगों को उन की आवाज़ अच्छी होने के कारण चुन लिया गया तो कुछ ऐसे भी थे जिनको सुर की त्रुटि के कारण निकाल दिया गया, कुछ के साथ जज का दिया गया निर्णय एक दम सही लगा, तो कई बार ऐसा लगा की गलत हुआ। ऐसा मेरा अपना मत है। अन्ततः बस यही कहा जा सकता है की जिस तरह प्यार को परिभाषित नहीं किया जा सकता, ठीक उसी तरह संगीत को भी कभी भी किसी भी भाषा में परिभाषित नहीं किया जा सकता इसलिए सुनो सुनाऔ लाइफ बनाओजय हिन्द.....