कल "राम जी लंदन वाले" फिल्म का अंत देखा और उस अंत का एक संवाद दिल को छू गया यूं तो यह फिल्म कई बार देख चुकी हूँ मैं ,मगर पहले कभी शायद इस संवाद पर ध्यान ही नहीं गया कि इंसान का "असली सुख और अस्तित्व उसके अपनों के बीच ही है" उसके अपनों के बिना उसका जीवन बिलकुल खाली है, सूना है, हर खुशी बेगानी है।
वैसे तो हम लंदन वाले यहाँ आकर अपनी नयी दुनिया बना ही लेते हैं आज पहली बार खुद को लंदन वाला कह रही हूँ दोस्तों क्यूँ...यह फिर कभी.... खैर मैं लंदन में बहुत कम और यहाँ के अन्य शहरों में ज्यादा रही हूँ जहां हिंदुस्तानियों की संख्या लंदन की तुलना में बहुत कम रही है। शायद इसलिए मैंने उस संवाद को उतनी गहराई से महसूस किया और देखा जाये तो ठीक ही तो है, जब हम अपने अपनों के बीच रहकर एक छोटी सी गाड़ी भी ख़रीदते है तो हमारे मन में लोगों की प्रतिक्रिया जानने का अपना एक अलग ही उत्साह होता है। जब तक हमारे अपने लोग हमारी चीजों का झाँकी मंडप अर्थात चीजों का आकर्षण न देख लें, या फिर उसकी तारीफ न कर दें, तब तक दिल को सुकून नहीं आता। कहने को सब यही कहते हैं कि वह जो भी करते हैं अपने लिए करते हैं दुनिया के लिए नहीं, इसलिए कौन उनकी चीजों के विषय में क्या सोचता है, क्या नहीं...जैसी बातों से उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता। जबकि वास्तविकता कुछ और ही होती है :) हाँ माना कि सारी दुनिया से हमें फर्क नहीं पड़ता। मगर हमारे अपने दोस्त, नाते रिश्तेदार, करीबी, आस पड़ोसीयों से तो फर्क सभी को पड़ता है
और क्यूँ ना पड़े आखिर जमाना चाहे कितना भी मोर्डन अर्थात आधुनिक क्यूँ न हो जाये, इंसान रहेगा तो सामाजिक प्राणी ही। तो सामाजिक प्रतिक्रिया से फर्क तो पड़ता है भाई...:)
उस संवाद में नायक कहता है कि अरे जब तक हम अपनी गाड़ी में अपने गाँव वालों को सेर न करा दें तो भला क्या फायदा ऐसी गाड़ी का, जब तक हमको देखकर लोग यह न कहें कि वो देखो वो जा रहे हैं, "राम जी लंदन वाले" तब तक लंदन में रहकर आने का क्या फायदा ? और यह सुनकर मुझे ऐसा लगा कि यह हर उस हिन्दुस्तानी के दिल की टीस है जो यहाँ पैसे की ख़ातिर या फिर अपनी कोई निजी परेशानी के कारण यहाँ रह रहे हैं। क्यूंकि यहाँ रहकर आज की तारीख में सब कुछ संभव तो है मगर वो अपनापन शायद आज भी नहीं है यहाँ जो इंडिया में है। कहने को यहाँ भी सभी त्यौहार मनाए जाते है। फिर क्या होली और क्या दशहरा और क्या दिवाली। मगर मुझे तो सब औपचारिक सा लगता है। अरे जब तक कोई बिंदास तरीके से आपकी इजाजात के बिना भी आपको रंग से सराबोर न कर दे तो कैसी होली, या फिर जब तक आपके घर कोई दिवाली के दिन दिये लेकर ना आए तो कैसी दिवाली। जब तक आपकी गाड़ी को आपके दोस्त, नाते रिश्तेदार, खुद अपने हाथों से चलाकर न देख लें आपके सामने उसकी समीक्षा न कर दें, आपसे उसकी ट्रीट न लें लें, तो गाड़ी खरीदने का मज़ा ही क्या है
कुल मिलकार कहने का मतलब यह है कि जब तक आप अपने जीवन की कोई भी छोटी से छोटी उपलब्धि अपने अपनों के साथ ना बाँट सकें तब तक वो उपलब्धि कोई मायने नहीं रखती कम से कम मैं तो यही मानती हूँ। हाँ दिखावा करना गलत बात ज़रूर है, करना भी नहीं चाहिए। मगर जब तक अपनी कोई चीज़ अपने अपनों को ना दिखाई जाये तब तक उसकी सार्थकता का भी तो पता नहीं चलता न :) आपका क्या ख़्याल है। ....