Monday, 25 March 2013

एक सादा सी सोच ....


कल "राम जी लंदन वाले" फिल्म का अंत देखा और उस अंत का एक संवाद दिल को छू गया यूं तो यह फिल्म कई बार देख चुकी हूँ मैं ,मगर पहले कभी शायद इस संवाद पर ध्यान ही नहीं गया कि इंसान का "असली सुख और अस्तित्व उसके अपनों के बीच ही है" उसके अपनों के बिना उसका जीवन बिलकुल खाली है, सूना है, हर खुशी बेगानी है।

वैसे तो हम लंदन वाले यहाँ आकर अपनी नयी दुनिया बना ही लेते हैं आज पहली बार खुद को लंदन वाला कह रही हूँ दोस्तों क्यूँ...यह फिर कभी.... खैर मैं लंदन में बहुत कम और यहाँ के अन्य शहरों में ज्यादा रही हूँ जहां हिंदुस्तानियों की संख्या लंदन की तुलना में बहुत कम रही है। शायद इसलिए मैंने उस संवाद को उतनी गहराई से महसूस किया और देखा जाये तो ठीक ही तो है, जब हम अपने अपनों के बीच रहकर एक छोटी सी गाड़ी भी ख़रीदते है तो हमारे मन में लोगों की प्रतिक्रिया जानने का अपना एक अलग ही उत्साह होता है। जब तक हमारे अपने लोग हमारी चीजों का झाँकी मंडप अर्थात चीजों का आकर्षण न देख लें, या फिर उसकी तारीफ न कर दें, तब तक दिल को सुकून नहीं आता। कहने को सब यही कहते हैं कि वह जो भी करते हैं अपने लिए करते हैं दुनिया के लिए नहीं, इसलिए कौन उनकी चीजों के विषय में क्या सोचता है, क्या नहीं...जैसी बातों से उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता। जबकि वास्तविकता कुछ और ही होती है :) हाँ माना कि सारी दुनिया से हमें फर्क नहीं पड़ता। मगर हमारे अपने दोस्त, नाते रिश्तेदार, करीबी, आस पड़ोसीयों से तो फर्क सभी को पड़ता है
और क्यूँ ना पड़े आखिर जमाना चाहे कितना भी मोर्डन अर्थात आधुनिक क्यूँ न हो जाये, इंसान रहेगा तो सामाजिक प्राणी ही। तो सामाजिक प्रतिक्रिया से फर्क तो पड़ता है भाई...:)

उस संवाद में नायक कहता है कि अरे जब तक हम अपनी गाड़ी में अपने गाँव वालों को सेर न करा दें तो भला क्या फायदा ऐसी गाड़ी का, जब तक हमको देखकर लोग यह न कहें कि वो देखो वो जा रहे हैं, "राम जी लंदन वाले" तब तक लंदन में रहकर आने का क्या फायदा ? और यह सुनकर मुझे ऐसा लगा कि यह हर उस हिन्दुस्तानी के दिल की टीस है जो यहाँ पैसे की ख़ातिर या फिर अपनी कोई निजी परेशानी के कारण यहाँ रह रहे हैं। क्यूंकि यहाँ रहकर आज की तारीख में सब कुछ संभव तो है मगर वो अपनापन शायद आज भी नहीं है यहाँ जो इंडिया में है। कहने को यहाँ भी सभी त्यौहार मनाए जाते है। फिर क्या होली और क्या दशहरा और क्या दिवाली। मगर मुझे तो सब औपचारिक सा लगता है। अरे जब तक कोई बिंदास तरीके से आपकी इजाजात के बिना भी आपको रंग से सराबोर न कर दे तो कैसी होली, या फिर जब तक आपके घर कोई दिवाली के दिन दिये लेकर ना आए तो कैसी दिवाली। जब तक आपकी गाड़ी को आपके दोस्त, नाते रिश्तेदार, खुद अपने हाथों से चलाकर न देख लें आपके सामने उसकी समीक्षा न कर दें,  आपसे उसकी ट्रीट न लें लें, तो गाड़ी खरीदने का मज़ा ही क्या है

कुल मिलकार कहने का मतलब यह है कि जब तक आप अपने जीवन की कोई भी छोटी से छोटी उपलब्धि अपने अपनों के साथ ना बाँट सकें तब तक वो उपलब्धि कोई मायने नहीं रखती कम से कम मैं तो यही मानती हूँ। हाँ दिखावा करना गलत बात ज़रूर है, करना भी नहीं चाहिए। मगर जब तक अपनी कोई चीज़ अपने अपनों को ना दिखाई जाये तब तक उसकी सार्थकता का भी तो पता नहीं चलता न :) आपका क्या ख़्याल है। ....
         

Friday, 15 March 2013

यह कैसा कानून?


सुना है एक और बेवकूफ़ी भरा कानून पारित होने जा रहा है अपने यहाँ, जिसके अंतर्गत अब 16 साल की कम उम्र के बच्चों को शारीरिक संबंध (सेक्स) करने की अनुमति दे दी गयी है। यह तो भगवान ही जाने कि इस कानून से किसका भला होने वाला है मुझे तो इस कानून में दूर-दूर तक कोई अच्छाई नज़र नहीं आती, कैसे भी सोचो यह बात हर तरह से गलत ही नज़र आती है। बच्चों पर बुरा असर डालने के लिए पहले ही बहुत सी चीजों की कमी नहीं थी और अब तो कानून ने भी उस सब पर अपनी मोहर लगा डाली। अब क्या होगा इस देश का भविष्य पहले ही जनसंख्या कम नहीं है और अब शायद इस मामले में विश्व कीर्तिमान स्थापित करेंगे हम। हद होती है बेवकूफ़ी की, ड्राइविंग लाईसेंस के लिए 18 साल, शराब पीने या नशा करने के लिए 21 साल और शादी करने के लिए भी लड़का 21 का और लड़की 18 की होनी चाहिए मगर शारीरिक संबंध बनाने के लिए 16 वाह रे...वाह!!! हमारी सरकार, जय हो ....

अरे अगर गलत कानून को ही पारित करना था तो, बाल विवाह को ही जायज़ करार दे देते...कम से कम अच्छा या बुरा उसका जो भी परिणाम होता माता-पिता की निगरानी में तो होता और कुछ नहीं तो एड्स का खतरा तो कम से कम कुछ प्रतिशत घट ही जाता और उससे भी अहम बात यह बुरे परिणामों का खामियाज़ा कम से कम अकेली लड़की और उसके घर परिवार को तो नहीं भुगतना पड़ता क्यूंकि कहीं न कहीं अभिभावकों पर भी उसकी पूरी ज़िम्मेदारी होती

मगर अब इस कानून के पारित होने से सिर्फ और सिर्फ बुरे परिणाम ही नज़र आएंगे जैसे ना जाने और कितनी ही लड़कियां बिन ब्याही माँ बनेंगी, ना जाने कितने ही बच्चे नाजायज़ और अनाथ बनेंगे और ना जाने कितनी ही भूर्ण हत्यायें होंगी। क्योंकि 16 वर्ष की उम्र में अगर बच्चे अपनी मर्ज़ी से शारीरिक संबंध बनाते हैं और उन्हें गर्भ ठहर जाता है तो लड़का 21 और लड़की 18 से पहले शादी नहीं कर सकते, तो ऐसी स्थिति में लड़की के पास 4 रास्ते होंगे :-

1) या तो वो एक बिनब्याही माँ बनकर ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी जिए।
2) या तो वह अपने बच्चे को जन्म देकर उसे अनाथ होने के लिए किसी कचरे के डब्बे में या अनाथालय की सीढ़ियों पर छोड़ दे।
3) या वो गर्भपात करा दे।
और अगर वो इन तीनों को करने में असफल होती है तो आखिरी विकल्प बचेगा
4) आत्महत्या।

यह सब होने से भला किसका भला होने वाला है जिसे ध्यान में रखकर यह कानून बनाया गया है। मैं तो यही सोच-सोच कर हैरान हूँ कि यह बात भला किसी के दिमाग आई भी कैसे कि ऐसा करने से वर्तमान हालातों में कुछ या फिर किसी भी प्रकार का कोई सुधार आ सकता है। दामिनी कांड के बाद पहले ही लड़कियों का जीना हाराम हो गया है जहां एक और यह हालात है कि लड़की घर से बाहर निकली नहीं कि हर कोई उसे अपने बाप की जागीर समझता है। जिसके चलते दिन प्रतिदिन महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। ऐसी परिस्थितियों में इस कानून के बाद तो लड़कियां और भी ज्यादा असुरक्षित हो जाएंगी आखिर क्या चाहता है यह समाज, कि लड़कियां हो हीं नहीं इस धरती पर, ताकि "ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी" हमारे समाज के लिए इस से ज्यादा शर्मसार और क्या बात हो सकती है। जहां एक ओर हमारे समाज में पहले ही महिलाओं और लड़कियों को समान अधिकार नहीं है। उन्हें हमेशा एक वस्तु की तरह ही समझा जाता है अधिकतर मामलों में उसे इंसान नहीं बल्कि केवल भोग की वस्तु ही समझा जाता है। जहां एक ओर महिला सशक्तिकरण के लिए हजारों संस्थाए दिलो जान से काम कर रही है। लोग महिला उत्पीड़न और बलात्कार के खिलाफ आज भी कानून का मुंह देख रहे हैं।

जहां लोग कानून व्यवस्था में सुधार चाहते हैं वहाँ इन हालातों में इस तरह के कानून को पारित करके आखिर क्या साबित करना चाहती है सरकार ?  

Tuesday, 5 March 2013

थ्रेडिंग....


यूं तो अमूमन ऐसा माना जाता है कि अच्छा लगना या अच्छा दिखना ज़्यादातर महिलाओं के शौक होते हैं लेकिन अब ऐसा नहीं, अब तो पुरुषों के लिए भी ब्यूटी पार्लर खुल गए हैं। आज की तारिख में सभी अच्छे दिखना चाहते है चाहे बच्चे हों या बड़े या फिर स्त्री हो या पुरुष और ऐसा हो भी क्यूँ ना, आखिर अच्छे दिखने में बुराई ही क्या है। :) मेरा एक दोस्त है आनंद, उसने एक बार कहा था कि हर लड़की और लगभग हर स्त्री पार्लर में जाकर और कुछ कराये या न कराये (थ्रेडिंग) अर्थात भवों को आकार देना तो सभी करवाते हैं मैंने कहा, हाँ क्यूँ नहीं, उसमें क्या बुराई है। मैं खुद और कुछ करूँ या न करूँ पर मेरी कोशिश रहती है कि कम से कम मेरी थ्रेडिंग ठीक ठाक हो।

वैसे यदि सुंदरता की बात की जाये तो इंसान का मन ज्यादा खूबसूरत होना चाहिए तन नहीं, लेकिन यहाँ बात अंदरूनी सुंदरता अर्थात मन की नहीं हो रही है बल्कि बाहरी सुंदरता अर्थात चेहरे की हो रही है। आमतौर पर लोगों का ऐसा मानना है कि त्वचा का अच्छा होना ज्यादा मायने रखता है। क्यूंकि उसके बाद आपको किसी भी तरह के सौंदर्य प्रसाधन की कोई अवश्यकता ही नहीं होगी। आप स्वाभाविक तौर पर खूबसूरत नज़र आएंगे, बात बिलकुल सही है ऐसा हो जाये तो फिर क्या कहने। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि त्वचा की कमी को तो फिर भी कुछ देर के लिए ही सही सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल करके छुपाया जा सकता है मगर (भवों) का क्या करेंगे आप, वो तो जैसी हैं वैसे ही नज़र आएँगी ना, हालांकी अब तो उसके लिए भी बहुत सारे जोड़ तोड़ उपलब्ध है बाज़ार में, लेकिन यदि स्वाभाविक दिखने की बात है तो फिर तो थ्रेडिंग की ही सबसे ज्यादा आवश्यकता महसूस होती है। 

खैर इस मामले में होने वाले अनुभव मुझे नजाने क्यूँ हर बार चौंका जाते हैं। शादी के बाद जब अपने ही घर के पार्लर में मैंने पहली बार एक काम वाली बाई और एक किन्नर को थ्रेडिंग करवाते देखा तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। जबकि उसमें कोई आश्चर्य वाली बात है नहीं, आखिर वह भी इंसान है और हर इंसान की तरह वह भी खूबसूरत लगना और दिखना चाहते हैं। मगर तब मुझे यह बहुत अजीब लगा था, शायद पहली बार ऐसा कुछ देखा था इसलिए, क्यूंकी ज़िंदगी में कभी न कभी हर बात पहली बार होती है लेकिन यह सब में किसी सौंदर्य पत्रिका को पढ़कर नहीं कह रही हूँ बल्कि इसलिए बता रही हूँ क्यूंकि मेरे तो घर का पार्लर है फिर भी मुझे कोई खास शौक नहीं है कुछ करने का या ज्यादा सजने सँवरने का, मैं तो उनमें से हूँ जो कॉलेज के दिनों में भी केवल वार त्यौहार ही पार्लर की शक्ल देखा करते थे, अन्यथा नहीं, उसमें भी केवल थ्रेडिंग और कुछ करवाया ही नहीं था कभी, शादी के समय जाना कि कितनी चीज़ें होती हैं करवाने के लिए :-)

खैर यह सारी कहानी इसलिए कही क्यूंकि थ्रेडिंग के लिए लाइन लगते मैंने यहाँ पहली बार देखा इसके पहले कभी महज़ थ्रेडिंग के लिए इतनी मारा मारी मुझसे देखने को नहीं मिली क्यूंकि यहाँ पहले ही सौंदर्य से जुड़ी चीज़ें बहुत मंहगी है इसलिए हर कोई सब कुछ घर में ही करना पसंद करता है। आप को जानकार आश्चर्य होगा जहां अपने यहाँ मात्र 10-20 रूपये में बढ़िया थ्रेडिंग हो जाती हैं। वही थ्रेडिंग यहाँ यदि आप मॉल में जाकर  करवाओ तो 7 -8 पाउंड में होती है और खुले में मतलब बिना किसी दुकान के ऐसे ही कुर्सी रखकर थ्रेडिंग करने वाले मात्र 3-4 पाउंड में ही थ्रेडिंग करते नज़र आते है जिसके चलते लोग लाइन लगा कर घंटों इंतज़ार करने को भी तैयार रहते हैं।

मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ, मैं तो घर में ही कर लेती हूँ यहाँ तक के घर में इस समस्या से निदान पाने के लिए बहुत सारे अच्छे-अच्छे और सस्ते टिप्स भी हैं जिनकी सहायता से अब कम दर्द के भी आसानी से थ्रेडिंग की जा सकती हैं फिर भी आजकल घर में रहकर इन सब चीजों को करने का टाइम किसके पास है। सब busy without work की तर्ज़ पर बस चले जा रहे है आँख बंद करके, कुछ तो वास्तव में व्यस्त है मगर अधिकांश केवल विंडो शॉपिंग करने में ही समय बिताते नज़र आते है इधर पति देव और बच्चा गया स्कूल उधर मैडम चली विंडो शॉपिंग करने क्यूंकि हर रोज़ तो कोई कुछ खरीदता नहीं और खाना बनाने की अब कोई टेंशन नहीं क्यूंकि यहाँ तो फास्ट फूड का ज़माना है रोटी से लेकर दाल सब्जी सब बनी बनाई उपलब्ध है बाज़ार में, बस लाओ सब्जी डालो ओवन में और रोटी डालो मिक्रोवेव में खाना तैयार है। 

अब गया वो ज़माना जब आटा है लगाना 
और दाल है पकाना 
अब न सब्जी को है धोना न काटना न पकाना 
बस पैकेड फूड लाओ ज़रा गरम कर 2 मिनट पकाओ 
खाने का लुत्फ़ उठाओ   

वही समय यदि कोई एक बार भी अपनी रसोई में जाकर देखे तो सेहत और सुंदरता दोनों का खज़ाना केवल आपकी रसोई में ही छुपा है जरूरत है तो केवल आपके अपने थोड़े से वक्त की वो भी केवल आप ही के लिए :)