Sunday, 18 January 2015

तनाव मुक्त हो बच्चों का बचपन ...


यूं तो सुखद बचपन की कोई परिभाषा नहीं होती। मगर फिर भी जहां निजी जरूरत की पूर्ति के साथ-साथ बड़ों का आशीर्वाद हो, उनका प्यार दुलार डांट डपट सभी कुछ मौजूद हो, जीवन के वो हँसते गाते पल हों जो जीवन शब्द को सार्थक बनाते हैं। वही तो सही मायने में बचपन कहलाता है। 
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तनाव मुक्त हो बच्चों का बचपन


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तनाव मुक्त हो बच्चों का बचपन यह पंक्ति देखने सुनने और पढ़ने में जितनी सुंदर और सार्थक प्रतीत होती है ना, वास्तव में उतनी ही जटिल है। क्यूंकि चाहते और सोचते तो हम सब भी यही हैं कि हमारे बच्चों का बचपन पूरी तरह से तनाव मुक्त रहे। वह अपने जीवन के इस बालकाल में एक ऐसी सुनहरी ज़िंदगी जी लें, जो आगे जाकर जीवन की कठिनाइयों का सामना करते वक्त भी उनके होठों पर एक प्यार भरी मुस्कान बिखेर देने में समर्थ हो। जो उन्हें कुछ ऐसे पल दे जो उनके मानस पटल पर कुछ इस तरह अंकित हो जाये कि जिसे अपने बच्चों को सुनाते वक्त उन्हें अपने आप पर गर्व महसूस हो।

यूं तो सुखद बचपन की कोई परिभाषा नहीं होती। मगर फिर भी जहां निजी जरूरत की पूर्ति के साथ-साथ बड़ों के आशीर्वाद हो, उनका प्यार दुलार डांट डपट सभी कुछ मौजूद हो, जीवन के वो हँसते गाते पल हों जो जीवन शब्द को सार्थक बनाते हैं। वही तो सही मायने में बचपन कहलाता है। हम सब भी तो अपने बच्चों को एक ऐसा ही बचपन देना चाहते है। जहां एक सव्छद वातावरण हो पंख फैलाने के लिए। मगर हर एक बच्चे के नसीब में नहीं होते यह सुखद एहसास। क्यूंकि यह सिर्फ किताबी बातें हैं। वास्तविकता तो ठीक इसके विपरीत है।

आज बच्चों के लिए ऐसी कल्पना करना भी एक सपने जैसा है। क्यूंकि आज के बच्चे बचपन से ही तनाव जैसे भयानक रोग का शिकार है। और यह तनाव केवल पढ़ाई लिखाई या शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। बल्कि इसके पीछे बहुत से ऐसे कारण है जिन्हें सोचकर भी आश्चर्य होता है कि बच्चे भी इस विषय को लेकर इतनी गंभीरता से सोच सकते हैं। किन्तु फिर भी बच्चों पर उन बातों का एक ख़ासी असर देखा जा सकता है। इसके लिए भी शायद जिम्मेदार केवल हम ही हैं। जो अपनी इस तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में केवल पैसा कमाने और बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाने के विचार में ही सिमटकर रह गए हैं। जिसके चलते पैसे और शिक्षा के अलावा भी ज़िंदगी में बहुत कुछ है करने को, सीखने को और उन्हें सीखने को भी मगर अपनी रोज़ मररा की ज़िंदगी में उन छोटी-छोटी बातो पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। पर बच्चे उन बातों को बहुत ध्यान से सुनते हैं। और कहीं न कहीं वह बातें उनके कोमल मन में हमेशा के लिए घर कर जाती है।

पिछले कुछ दिनों में ऐसा ही एक अनुभव मुझे भी हुआ। अपने पिता की कंपनी को लेकर अपने सहपाठियों में अपनी जगह या स्थान का अंतर उनके मासूम मन पर भारी प्रभाव डालता है। मसलन यदि किसी बच्चे/बच्ची के पापा किसी बड़ी या नमी ग्रॅमी कंपनी में काम नहीं करते है तो ठीक, पर यदि किसी छोटी-मोटी कंपनी में काम करते हैं तो बच्चा अपने सहपाठियों एवं मित्रों के बीच अपने आपको दीन हीन महसूस करता है। है न आश्चर्य की बात ! कम से कम मुझे तो यही लगता था कि इन सब बातों से बच्चों को क्या फर्क पड़ता है। मगर मैं गलत थी। उन्हें भी हम बड़ों की तरह इस सब से बहुत फर्क पड़ता है।

यूं भी देखा जाए तो सर्वप्रथम शिक्षा का दुशाला ओढ़े परीक्षा परिणामों के अंकों में सिमटी कर रह गयी है आज उनकी ज़िंदगी। उससे ही उबर नहीं पाये बच्चे और दूसरी ओर यौन शोषण से लेकर बाल मजदूरी और घरेलू हिंसा जैसे अपराधों का शिकार बन गया है उनका बचपन। ऐसे में तनाव नहीं होगा तो और क्या होगा। जिन छोटे-छोटे नन्हें-नन्हें हाथों में किताबों और खिलौने शोभा देनी चाहिए, उन नन्हें कंधों पर आज परिवार का बोझ दिखाई देता है। जहां आँखों में शिक्षा की चमक होनी चाहिए। आज वहाँ उन आँखों में रोटी की ललक दिखाई देती है। यह सब देखकर बुरा भी बहुत लगता है मगर हो कुछ नहीं सकता। क्यूंकि ऐसा जीवन जीते-जीते उन्हें भी ऐसे ही जीवन की आदत पड़ चुकी होती है। या एक तरह से ऐसा भी कहा जा सकता है कि कमाई थोड़ी ही होती है, मगर इन्हें कमाई की आदत पड़ चुकी होती है। इसलिए इनका पढ़ने का दिल नहीं करता और जिनका दिल करता भी है उनके माता-पिता उन्हें आय के चक्कर में इस भंवर से उबरने नहीं देते और इसी तरह ज़िंदगी जीते-जीते एक दिन यह बच्चे अवसाद का शिकार हो जाते है। और वक्त के हाथों मजबूर होकर अपराध करने पर उतर आते है।

बच्चों के तनाव का अंतिम और सबसे बड़ा कारण तो हमारी शिक्षाप्रणाली है ही। माना कि प्रतिस्पर्धा का ज़माना है। आगे बढ़ना है, तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। लेकिन इसका अर्थ मानसिक तनाव का लगातार बने रहना तो नहीं होना चाहिए न ! मगर हो यही रहा है। पूछिये क्यूँ ? क्यूंकि आजकल की शिक्षा हमारे बच्चों को केवल शिक्षित बना रही है सभ्य नहीं।

जबकि वास्तव में होना यह चाहिए कि शिक्षा बच्चों को भले ही एक बार को शिक्षित बनाए न बनाए। मगर सभ्य तो बनाए। पर ऐसा है नहीं। आप सभी को शायद याद हो जब हम बच्चे थे तब हमारे जमाने में अन्य विषयों के साथ-साथ एक नैतिक शिक्षा (मॉरल साइन्स) नाम का विषय भी हुआ करता था। जिसके अंतर्गत हमें यह सिखाया जाता था कि समाज में हमे कब कहाँ किससे कैसा व्यवहार करना चाहिए। तब विषय कम थे मगर अच्छे थे। आज तो ऐसा लगता है जैसे विषयों की बाढ़ आयी हुई है और ज्ञान लोप हो गया है। बच्चे भी केवल अंक हासिल करने के लिय पढ़ते हैं। उस विषय को जानने और समझने के लिए नहीं। ऐसा नहीं है कि यह बात सभी बच्चों पर लागू होती है। मगर यह वो बात है जो बच्चों के जीवन में तानव का एक अहम कारण बन गयी है।

कभी-कभी तो समझ ही नहीं आता कि क्यूँ हम अपने बच्चों का दिमाग महज़ अक्षरज्ञान से भर रहे है। जबकि उसकी समझ में कुछ नहीं आरहा है और ना ही वो इस तरह कि शिक्षा से कुछ सीख ही पा रहा है। लेकिन हम बस गधे घोड़े की तरह उसके सामने विषय रूपी घास डाले जा रहे है और उस बेचारे को तो इस बात का भी भान नहीं है कि उसका दिमाग रूपी पेट भरा भी है या नहीं। वो भी बस बिना कुछ सोचे-समझे बस उस विषय रूपी घास को खाये जा रहा है। भला ऐसी शिक्षा का भी क्या फायदा ! क्या आपको नहीं लगता ऐसी ही छोटी-बड़ी कमियों ने मिलकर बच्चों को इतना तनावग्रस्त कर दिया है कि वो अपनी सोचने समझने कि शक्ति ही खो बैठे हैं।

इसी सब का नतीजा है वक्त से पहले बड़े होते बच्चे जो राह भटककर बलात्कार, तेजाबी हमले, चोरी आदि जैसे बड़े अपराधों को बढ़ावा दे रहे हैं। क्यूंकि ज़िंदगी के तनाव ने उनकी सोचने समझने वाली वो ग्रंथी जो उन्हें सही और गलत में अंतर दर्शा सके को पूर्ण रूप से सुन्न कर दिया है। जिसके चलते ज़िंदगी की सबसे बड़ी कमी उन्हें केवल पैसा ही दिखाई देता है। और जब उसकी पूर्ति सही तरीके से नहीं हो पाती तो यही बच्चे गलत रास्ते पर चले जाते है। इसलिए ही तो कम उम्र में आपराधिक प्रवर्ती का आसानी से शिकार बन जाते है यह बच्चे, बाकी जो ऐसा नहीं कर पाते वो आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध का सहारा ले लेते हैं। कहीं न कहीं शायद इसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। क्यूंकि सामाजिक स्तर पर खुद को श्रेष्ठ दिखने कि अभिभावकों की लालसा ने बच्चों से उनका मासूम बचपन ही छीन लिया है।

इसलिए यदि हमें शीर्षक की इस पंक्ति को सार्थक करना है कि ''तनाव मुक्त हो बच्चों का बचपन'' तो उसकी शुरुआत सर्वप्रथम हमे अपनी ही सोच को बदलकर करना होगा। सबसे पहले हमें स्वयं ज़मीन पर आना होगा और विदेशों की नकल कर रहे अनतर्राष्ट्रीय विद्यालयों से अपने बच्चों को निकालकर किसी साधारण विद्यालय में भेजना होगा और कोशिश करनी होगी कि हमारे यहाँ भी सरकारी स्कूल का स्तर इतना ऊपर उठ सके कि हमें अपने बच्चों को वहाँ भेजने में शर्म नहीं बल्कि गर्व महसूस हो। क्यूंकि जबतक हम दिखावे से ऊपर उठकर अपने बच्चों का मन नहीं पढ़ सकेंगे। तब तक इस जैसी सभी बातों का प्रभाव उनके कोमल मन पर पढ़ता रहेगा और अपना दुश प्रभाव छोड़ता रहेगा।