Monday, 23 September 2013

ऐसा भी होता है दोस्तों ...:-)

अभी कुछ दिन पहले यहाँ के एक अखबार में एक तस्वीर देखी मगर पहली नज़र में देखकर कुछ समझ नहीं आया फिर जब दुबारा उस तस्वीर को देखा तब बात समझ आई आप भी देखिये ....


इस तस्वीर में पहली नज़र डालते ही आपको क्या लगता है ?  या क्या नज़र आता है मुझे तो यह लगा था कि आखिर इतनी सारी बोतलों में से यहाँ कुछ टूटी हुई बोतलों को रखने से भला क्या लाभ लेकिन जब बहुत ध्यान से देखा तब जाके समझ आया कि बोतले टूट हुई नहीं है बल्कि एक बंदा खड़ा है जिसने अपने ऊपर ऐसा सब पेंट किया हुआ है। बताइये हद हो गई कि नहीं मार्केटिंग की, भई कमाल है जनाब लोगों को आकर्षित करने के लिए क्या कुछ नहीं करते यह व्यापारी जिनके बड़े-बड़े माल है या सुपर मार्किट है जनता को बेवकूफ बनाकर पैसा कैसे कमाया जाता है यह इन्हीं लोगों से सीखना चाहिए हमें और यही तो चाल होती है, इन व्यापारियों की जिसे हम आकर्षण समझ लेते हैं इस न्यूज़ का अहम मुद्दा यह था कि कई बार हम भ्रमित हो जाने की वजह से भी वो देखते हैं जो हम देखना नहीं चाहते और वही खरीद भी लेते हैं और यही तो चाहती है कंपनियाँ इस आलेख में ऐसी कई सारी छोटी-छोटी बातें लिखी थी कि यदि उन बातों पर गौर किया जाये, तो हम बेवजह के खर्चों से आसानी से बच सकते है।

जैसे अपने शायद ध्यान दिया हो कभी तो यहाँ के शॉपिंग माल या सुपर मार्किट में अक्सर घुसते ही सबसे पहले आपको ताज़ा फल फूल और सब्जियाँ नज़र आती है ताकि आप ताजगी महसूस कर सके फिर हर एक चीज़ के अलग अलग भाग होते हैं (सेक्शन) जैसे मिल्क प्रॉडक्ट जहां आपको चाय कॉफी से लेकर दूध में मिलाये जाने वाले सभी तरह की चीज़ें मिलेंगी जैसे बौर्नविटा, होरलेक्स इत्यादि-इत्यादि अब आप यह सोच रहे होंगे कि लो कर लो बात अब इसमें क्या खास है, यह तो यहाँ भी ऐसा ही होता है। तो मैं यह बताती चलूँ कि यहाँ हर भाग में आपको उस भाग में रखे सामान की ऐसी महक आयेगी जैसे बिलकुल अभी ताज़ा ही बन रहा हो वहाँ, जबकि यह सारी सुगंध वहाँ डाली जाती है। यक़ीन नहीं आता न लेकिन यही सच है ठीक किसी रूम स्प्रे की भांति ताकि आपको लगे चीज़ें एकदम ताज़ा है। जैसे ब्रेड के सेक्शन में ताज़ा बेकिंग की खुशबू, चीज़ के सेक्शन में चीज़ की ख़ुशबू, बिस्कुट के सेक्शन में उसकी ख़ुशबू, इसी तरह चावल के सेक्शन तक में आपको बासमती चावल की ऐसी ख़ुशबू आयेगी कि आप लिए बिना नहीं रह पाएंगे।

इतना ही नही वाइन के सेक्शन में बेहतरीन वाइन की और इत्र के सेक्शन में बेहतरीन इत्र महकेगा वहीं महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधन भी रखे होंगे :-) और सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि पूरे सुपर मार्किट की व्यवस्था क्लॉक की तरह की गयी होगी क्यूंकि खोज की गई थी कि क्लॉक वाइज़ खरीददारी करने वाले लोग ज्यादा खर्च करते हैं इसलिए बाईं तरफ फूल ताज़ी सब्जियाँ रंगीन फल से लेकर हर वो चीज़ जो आपकी लिस्ट में नहीं होगी उसे ऐसे सजाया गया होगा कि आप लिए बिना न रहे सकें और काम की चीज़ें जैसे दूध ब्रेड अंडे यह सब सबसे आखिर में होगा। ताकि आप पूरा घूमकर उस सेक्शन में जाये क्यूंकि जब ऐसा होगा तो स्वाभाविक है आपको रास्ते में कई और ऐसी चीज़ें दिखेंगी जिनकी आपको जरूरत नहीं होगी, मगर जिन्हें देखकर आपका मन ज़रूर करेगा कि ले लें।

ऐसे ही सस्ते सामान ज्यादातर नीचे रखे होते हैं, जहां आमतौर पर लोग ध्यान नहीं देते और महंगे सामान हमेशा आपकी आँखों के स्तर पर रखे होते हैं जिन्हें देखते ही आप सीधा उठाकर चलते बनते हैं। छोटी-छोटी दुकानों का अस्तित्व तो पहले ही ख़त्म हो चुका है। अब यदि आप अपना बजट सही रखना चाहते हैं, तो कुछ चीजों का ध्यान रखें। जैसे हमेशा घर से ही अपनी लिस्ट बनाकर ले जाये और जब तक लिस्ट में लिखी सामग्री पूरी न हो जाये, तब तक किसी और चीज़ पर ध्यान ही ना दें। शॉपिंग करते वक्त हमेशा छोटी ट्रॉली या बास्केट का इस्तेमाल करें और यदि संभव को तो रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाली वस्तुएं इक्कठी ही खरीद कर रख लें जैसे रसोई में इस्तेमाल किए जाने वाले मसाले, दालें, चावल, नहाने के साबुन, सर्फ, बर्तन साफ करने का जेल या साबुन जो भी आप इस्तेमाल करते हों, वैगरा-वगैरा कुल मिलकर कहने का अर्थ यह है, कि जो भी ऐसा सामान है जो आपको लगभग हर महीने लगता हो, उसे इक्कठा ही खरीद लें। इस तरह करने से जब आप दुबारा खरीददारी करने जाएँगे, तो केवल हफ़्ते भर का ही सामान लाएँगे। जैसे दूध ब्रेड अंडे वगैरा-वैगरा..

एक बात और भी लिखी थी कि इस आलेख में यदि संभव हो तो बच्चों को घर गृहस्थी की ख़रीददारी करते वक्त न ले जायें क्यूंकि बच्चों का मन हर चीज़ के लिए ललचाता है और आपका बजट बिगाड़ देता है। फिर चाहे वह खिलौनो की ज़िद हो, या खाने पीने के किसी भी ऐसे समान की जिसकी जरूरत नहीं होती, केवल इच्छा होती है और बच्चों को मना किया नहीं जाता। वैसे भी किसी भी चीज़ की बिक्री के लिए ज्यादातर बच्चों को ही टार्गेट बनाया जाता है फिर चाहे वो टूथपेस्ट हो या कोई अन्य सामाग्री जिसे देखकर बच्चे हर चीज़ के लिए ज़िद करते हैं। फिर चाहे वो आपके बजट में हो या न हो।

तो कोशिश करके देखिये भला कोशिश करने में क्या हर्ज़ है क्या पता शायद आप लुटने से बच जायें... जय हिन्द

Monday, 16 September 2013

क्या इंसाफ हुआ है ?


दोस्तों आपको क्या लगता है क्या दामिनी के आरोपियों को फाँसी की सजा सुनाकर अदालत ने सही इंसाफ किया है शायद नहीं, क्यूंकि ऐसा करने से पापी को सजा ज़रूर मिल गयी मगर पाप ख़त्म नहीं हुआ और ना ही होगा। मेरी नज़र में इस तरह के अपराध तभी कम हो सकते हैं जब हम खुद की सोच को बदलें आज यानि 13 सितंबर को जब सुबह से ही पूरे देश और दुनिया को इंतज़ार था दामिनी कांड के मामले में होने वाले फैसले का, अदालत ने आज इस मामले में लिप्त आरोपियों को फाँसी की सजा सुना दी जिससे लोग दो भागों में बंट से गए क्यूंकि कुछ चाहते थे फांसी तो कुछ चाहते कैद-ए-बामुशक्कत या उसे भी कड़ी यदि कोई सजा होती हो तो वो हो उन आरोपियों को, न्यूज़ इंडिया चैनल पर इस मामले पर बहस भी सुनी तब ऐसा लगा जैसे इस मामले में सभी लोग, इस मामले की आड़ में अपना-अपना कैरियर भुनाने में लगे हैं। यह सब देखकर तो ऐसा लगा जैसे कुछ लोगों को फिर एक नया मुद्दा मिल गया भुनाने के लिए, कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा खासकर बचाव पक्ष के वकील का बयान और बीजेपी की नेता सुश्री आरती मेहराजी एवं मुकेश नायकजी की बात सुनकर, आप भी देखिये सुनिए और बताइये कि मुझे जो लगा वह कहाँ तक सही है। मुझे तो इस बहस में केवल सामाजिक कार्यकर्ता रंजना कुमारी जी और प्रोफेसर डीयू की बातें थोड़ी ठीक लगी लेकिन उन्हें ज्यादा बोलने का मौका ही नहीं दिया गया।  


खैर मैं कोई पत्रकार नहीं कि किसी भी खबर को बढ़ा चढ़कर या उसमें नमक मिर्च लगा कर आपके समक्ष रख सकूँ मैं एक आम नागरिक हूँ और इस मामले में मेरी सोच यह कहती है, कि निर्भया के अपराधियों के लिए फाँसी की सजा, सजा नहीं मुक्ति है, क्यूंकि एक ज़हरीले साँप को मार देने से उस साँप की प्रजाति ख़त्म नहीं हो जाती। अब कसाब का मामला ही ले लीजिये उसे भी तो फाँसी दी गयी थी। मगर उससे हुआ क्या ?? आतंकवादी घुसपैठ तक में, कोई कमी नहीं आयी। सब ज्यौं का त्यों ही तो है बाकी सब तो दूर की बातें हैं इसलिए मेरी नज़र में ऐसे हैवानों को तो कोई ऐसी सज़ा मिलनी चाहिए जिससे यह ज़िंदगी भर भुगतते रहे और रो-रो कर मौत की भीख मांगे तभी भी इन्हें मौत न मिले कभी ....

लेकिन यदि गंभीरता से इस पूरे मामले पर गौर किया जाय तो मुझे ऐसा लगता है कि कब तक हम, हमारे देश में होने वाली किसी भी आपराधिक गतिविधि का घड़ा सरकार या प्रशासन के सर फोड़कर खुद के कर्तव्यों की इतिश्री करते रहेंगे। माना कि दामिनी कांड में लिप्त यह चार अपराधियों ने जो हैवानियत दिखाई उससे ज्यादा मानवता और इंसानियात के लिए शर्मसार बात और कोई हो नहीं सकती। यह चार लोग किसी भी तरह से इंसान कहलाने लायक नहीं है। इन्हें तो शायद शैतान कहना भी शैतान की बेज़्जती होगी। लेकिन क्या आदालत का यह फैसला हमारी मानसिकता बदल पाएगा ?? क्या आपको नहीं लगता कि इस सब में हम भी कहीं न कहीं उतने ही अपराधी नहीं है, जितने की यह लोग हैं। ज़रा सोचकर देखो सड़क पर पड़ी दामिनी और उसके मित्र की सहायता के लिए गुहार वहाँ जमा भीड़ में से किसी ने नहीं सुनी और आज हम बात कर रहे हैं इंसाफ के लिए...शायद यही हमारे समाज की एक कमजोरी है कि जब हम हाथ के हाथ या यूं कहिए कि मौका ए वारदात पर इंसाफ कर सकते हैं, तब तो हम कुछ करते नहीं और फिर बाद में सरकार और प्रशासन पर सारा दोष मढ़कर अपनी भड़ास निकालते रहते हैं कि सरकार को यह करना चाहिए, वो करना चाहिए, कानून व्यवस्था बदलनी चाहिए वगैरा-वगैरा, सब बदलना चाहिए, मगर हम नहीं बदलेंगे। अरे कभी अपने अंदर झांक कर कोई क्यूँ नहीं देखता कि इन सबके साथ -साथ आपको भी बदलना होगा।

इस पूरे घटना कृम में मुझे अब तक दामिनी के मित्र की बातें सही लगी समस्या यह नहीं है कि कानून व्यवस्था में कोई कमी है इसलिए अब तक इस तरह के अपराधों में कोई सुधार नहीं हो पाया है, बल्कि समस्या यह है कि हमारा समाज ही आपस में कन्नेक्टेड नहीं है, जुड़ा हुआ नहीं है। इसलिए कोई किसी कि मदद नहीं करता, सब सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं। कानून के पचड़ों में कोई नहीं पड़ना चाहता इसलिए हादसों के वक्त अधिकांश लोग अफसोस ज़ाहीर करके घटनास्थल से धीरे से खिसक लेते हैं और बदनाम किया जाता है पुलिस विभाग को, जबकि बदलाव की जरूरत पुलिस विभाग से ज्यादा हमें है, सर्वप्रथम हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। आज मुझे तो उसी की सबसे ज्यादा जरूरत नज़र आती है। यहाँ मैं एक बात और बताती चलूँ मेरा किसी भी राजनैतिक पार्टी या पुलिस विभाग से कोई खासा लगाव नहीं है। मगर किसी भी विभाग में या परिवार में या यूं कहो कि किसी भी समुदाय में पांचों उँगलियाँ एक सी नहीं होती फिर ऐसे में हमें पूरे विभाग को गालियां देना का अधिकार कहाँ से मिल गया जो हम जब तक दिया करते है यह भी तो ठीक बात नहीं, कहने का मतलब यह है कि यदि सरकार ने कुछ नहीं किया तो आपने भी कहाँ कुछ किया....अन्तः हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि

"जब भी हम किसी पर उंगली उठाते हैं, 
तब तीन उँगलियाँ खुद हमारी ओर इशारा करती है"

ठीक उसी तरह जैसे वो कबीर दास जी ने कहा है ना कि

"बुरा जो देखन मैं चला 
बुरा न मिलया कोय 
जो मन खोजा 
अपना मुझसे बुरा न कोय"  

कुल मिलाकर बस इतना ही कहना चाहूंगी कि यदि हम एक अच्छे, साफ सुथरे, सुरक्षित एवं सभ्य समाज का निर्माण करना चाहते है तो सबसे पहले हमें ही अपने आप को बदलना होगा बाद में दूसरों की बारी आती है तभी कुछ संभव हो पाएगा अन्यथा वर्तमान स्थिति को देखते हुए तो ऐसा लगता है कि हालात और भी बद से बदतर ही होते चले जाएँगे... अब भी वक्त है, जाग सको तो जागो और सिखाओ अपने बच्चों को मानवता का पाठ हम आज बदलेंगे तभी हमारा आने वाला कल बदल सकेगा... जय हिन्द        

Sunday, 8 September 2013

जागो भक्तों जागो ....




वर्तमान हालातों को देखते हुए तो ऐसा लगता है अब अपने देश में जो न हो वो कम है। पता नहीं जो कुछ दिखाया जा रहा है उसमें कितनी सच्चाई है। कौन सच बोल रहा है, कौन झूठ, मगर फिर भी यदि दिल की माने तो "धुआँ तभी उठता है जब आग लगी हो कहीं। इन सब बातों को देखते हुए तो यही लगता है कि हमारे चारों और बेईमानी और भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया है कि किसी की भी बात पर हम चाहकर भी आँख बंद करके विश्वास नहीं कर सकते। फिर चाहे वो एक आम इंसान हो, या फिर कोई नेता या अभिनेता या फिर कोई खुद को साधू संत या धर्म गुरु समझने वाले ऐसे ठग ही क्यूँ न हो, आज चारों और केवल एक ही खबर, एक ही समाचार है आसाराम बापू की गिरफ़्तारी जिसके चलते और कुछ हो ना हो मगर मीडिया ज़रूर अपनी TRP बढ़ा रहा है खैर, आज मैं यहाँ मीडिया का रोना नहीं रोना चाहती। क्यूंकि उसका तो काम ही यही है कि केवल वो खबरें दिखाओ जिसमें टीआरपी बढ़ सके। बाकी चाहे सारी दुनिया में आग लगे तो लगे।  

अब जब आसाराम जी का नाम आया है तो कई आबा बाबाओं का नाम आना भी स्वाभाविक सी बात है। जैसे निर्मल बाबा और राधा माँ और भी जाने कौन-कौन जिनके कारनामे सुनकर तो अंधविश्वास की जय हो, कहने का मन करता है। वैसे, विवाद और आसाराम बापू का पुराना नाता है। उन्होंने कुछ महीने पहले गाजियाबाद में भी एक पत्रकार के सवाल पूछने पर उसे थप्पड़ रसीद कर दिया था। इसके कुछ दिनों बाद उन्होंने दिल्ली के बहुचर्चित गैंग रेप प्रकरण में पीड़ित लड़की को भी दोषी बता दिया था। जब मीडिया उनके बयान को दिखाने लगा था तो उन्होंने मीडिया को भी कुत्ता कह डाला था। क्या धर्म गुरु होने की यही निशानी होती है। मेरी समझ में तो यह नहीं आता कि क्यूँ हम अपनी अक्ल से काम नहीं लेते जो इन बाबाओं के चक्करों में पढ़कर स्वयं अपने ही हाथों से अपना ही जीवन नष्ट कर लेते है। क्यूँ केवल ईश्वर में विश्वास रखते हुए अपने कर्मो को अंजाम नहीं दे पाते हम, जो हमें इन सो कॉल्ड बाबाओं की जरूरत पढ़ने लगती है। जो सिर्फ दान धर्म के नाम पर सभी से पैसा ऐंठना चाहते है और ऐंठते भी है और लोग खुशी खुशी मूर्खों की भांति अपना सर्वस्व लुटा देते हैं।

एक तरफ तो जब कोई बलात्कार या एसिड हमले की खबर पढ़कर या देख, सुनकर हम स्वयं ही यह कहते नज़र आते हैं कि भई कलयुग है, कलयुग इसमें जो ना वो कम है। तो फिर दूसरी और हम यह क्यूँ भूल जाते हैं कि यह सारे बाबा भी तो कलयुग में ही हैं, फिर यह कैसे सतयुगी व्यक्ति की तरह व्यवहार कर सकते हैं। जो हम आँख बंद करके इनकी बात पर विश्वास करने लग जाते है और फिर जब इस तरह भांडा फूटता है तब भी आँखें नहीं खुलती हमारी, ऐसा क्या पाठ पढ़ते हैं यह बाबा जो हक़ीक़त पर भी विश्वास नहीं कर पाते हम, अनपढ़ लोगों का इन बाबाओं पर विश्वास एक बार फिर भी समझ आता हैं। लेकिन पढे लिखे व्यक्तियों का यह अंधविश्वास मेरी समझ में तो आज तक नहीं आया। मेरा एक उसूल रहा है, मैं जिन चीजों पर विश्वास नहीं करती उनकी आलोचना करना भी पसंद नहीं करती। क्यूंकि मैं नहीं चाहती कि मेरे कडवे बोल से किसी का व्यर्थ ही दिल दुखे। मगर वो कहते हैं ना कभी-कभी किसी के प्राण बचाने के लिए उसे जहर भी देना पड़ता है या यूं कहिए कि होश में लाने के लिए कई बार थप्पड़ मारना भी दवा का काम करता है।

मेरा तो आसाराम जी में या उन जैसे सो कॉल्ड धर्म के ठेकेदार बने बैठे धर्म गुरुओं में कभी किसी भी तरह का विश्वास रहा ही नहीं है क्यूंकि मैं ईश्वर में श्रद्धा रखने वालों में से हूँ। मेरी नज़र में तो यह बाबा लोग गुरु कहलाने लायक भी नहीं है। पता नहीं लोग इन्हें इंसान समझने की समझदारी क्यूँ नहीं दिखा पाते इसलिए जो लोग भी इस तरह के बाबाओं में विश्वास रखते हैं उन सभी से मैं यह कहना चाहती हूँ कि यह बाबा भी हम आप जैसे आम इंसान ही हैं इनकी भी वही सब जरूरतें हैं जो एक आम इंसान की होती हैं इसलिए इन पर अंधी भक्ति मत दर्शाइए, भक्ति ही करनी है तो ईश्वर की करें मगर आँखें और दिमाग खोल कर करें। आँख बंद करके नहीं, और जो सलाह आप अपनी बहू बेटियों को रास्ते चलते मनचले लड़कों या पुरुषों से सतर्क रहने के लिए देती हैं, वही इन बाबाओं के पास जाने से भी दें। यह कोई भगवान नहीं है बल्कि इंसान के रूप में छिपे भेड़िये है। आसाराम जी की बातें तो बहुत बड़े लेवल पर चल रही हैं। क्यूंकि वह एक पैसे वाले तुच्छ इंसान है, फिर चाहे उन्होंने वह पैसा गरीब या मासूम बल्कि, मैं तो कहूँगी मूर्ख जनता को उल्लू बना बनाकर ही क्यूँ ना कमाया हो। कहलायेंगे तो वह पैसे वाले ही, इसलिए उन्हें इतना हाइ लाइट किया जा रहा है और फिर भी लोग लगे हैं अनशन करने की, उन्हें छोड़ दो।  

यहाँ तक कि कई जगह महिलाएं भी अनशन कर रही है। अब उनसे जुड़ी बलात्कार वाली खबर कितनी सच्ची है यह तो राम ही जाने मगर यदि एक प्रतिशत भी सच है तो फिर धिक्कार है उन महिलाओं पर जो उन्हें छुड़वाने के लिए अनशन कर रही है। क्यूंकि जैसा मैंने पहले भी कहा की यदि दिल की सुने तो "धुआँ तभी उठता है जब कहीं आग लगी हो" कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि हो सकता है यह कॉंग्रेस की चाल हो, तो कहीं यह भी सुना कि आसाराम जी ने एक वर्ष पूर्व ही अपने साथ ऐसा कुछ होने की घोषणा कर दी थी अरे जब ऐसा ही था तो फिर क्यूँ उन्होंने जोधपुर के कमिश्नर के कहने पर उसी दिन आत्म समर्पण नहीं किया क्यूँ ज्यादा समय की मांग की, वैसे तो मुझे इस तरह के लोगों में कोई दिलचस्पी कभी रही ही नहीं, मगर दामिनी कांड के बाद जो बयान उन्होने दिया था, उसके बाद से तो जैसे मुझे उनसे नफरत ही हो गई थी। मगर हमारे देश में तो धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले और घिनौनी सोच रखने वाले शैतानों की भी कोई कमी नहीं है। यह अनुभव शायद आपने भी किया होगा और यदि नहीं किया तो जाकर देखिये कभी किसी धार्मिक स्थल पर जहां विशेष रूप से कोई घाट हों, सारे धर्म के पुजारियों की हक़ीक़त यदि आपके सामने ना आ जाए तो कहना। 

मेरे श्रीमान जी को तो नफरत है ऐसे धार्मिक स्थलों से क्यूंकि उन्हें भी वहाँ के पंडो की आँखों में वो दिखता है जो एक स्त्री को दिखाई देता है औरों को भी दिखता ही होगा ना उसके बावजूद भी हम उसी मंदिर में जाकर उसी पंडित से आशीर्वाद लेते हैं क्यूँ ? भगवान के सामने सिर झुका दिया फिर किसी इंसान के सामने झुकाने की ऐसी कौन सी आवश्यकता पढ़ जाती है जो हम सच्चाई जानते हुए भी उस पंडित के सामने अपना शीश झुका देते हैं। इस मामले में मुझे वह "कुछ कुछ होता है" फिल्म का संवाद बहुत सही लगता है यदि सिर झुकाना ही है तो केवल तीन लोगों के सामने ही झुकाओ "एक अपनी भारत माता के सामने" दूसरा अपनी माँ (माता-पिता) के सामने" और तीसरा "केवल ईश्वर के सामने" और किसी के सामने आपका मस्तक कभी झुकना ही नहीं चाहिए। मगर जाने क्यूँ यह साधारण सी बात लोगों के समझ में नहीं आती और हम इन बाबाओं के गुलाम बन जाते हैं। 

अरे दान धर्म ही करना है तो गरीबों का भला करो, जानवरों की देखभाल करो किसी रोते हुए को हंसाकर करो, किसी दुखी का मन बहलाकर करो, मगर इन बाबाओं पर विश्वास दिखाकर मत करो...जय हिन्द                 

Monday, 2 September 2013

इत्ती सी हंसी, इत्ती सी खुशी....


इत्ती सी हंसी, इत्ती सी खुशी, इत्ता सा टुकड़ा चाँद का....काश हर एक की बस यही जरूरत होती इस दुनिया में तो कितना अच्छा होता। यूं तो यह ख़बर अब पुरानी है मगर फिर भी, कुछ दिन पहले मैंने बर्फ़ी देखी जो मैं उस समय नहीं देख पायी थी जब यह फिल्म रिलीज़ हुई थी इस फिल्म को थिएटर में देखना का बड़ा मन था मेरा, लेकिन उन दिनों ऐसा हो न सका। खैर आजकल इस बात से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है क्यूंकि अब सभी नयी फिल्में बहुत ही जल्दी छोटे परदे पर आजाती है तो बस रिकॉर्ड करो और बिना ब्रेक के मज़े से देख लो हम तो ऐसा ही करते हैं और ऐसा ही इस बार भी किया जब यह फिल्म पहली बार छोटे पर्दे पर आई तब हमने इसे रिकॉर्ड कर लिया था और फिर आराम से सबकी सहूलियत के अनुसार एक दिन तय कर के देख लिया ऐसा इसलिए किया क्यूंकि मुझे अकेले फिल्म देखना बहुत ही बोरिंग काम लगता है मैं चुप चाप बैठकर फिल्म देखने वालों में से नहीं हूँ। फिल्म देखने के दौरान मुझे अपनी विशेष टिप्पणी देते रहने की आदत सी है :) इसलिए मैं अकेले कभी कोई फिल्म नहीं देखती हूँ। 

खैर गरमा-गरम समोसों के साथ हमने घर पर ही फिल्म का भरपूर आनंद लिया, फिल्म थी भी अच्छी खासकर उसका वो गीत इत्ती सी खुशी, इत्ती सी हंसी, इत्ता सा टुकड़ा चाँद का ....लेकिन यह फिल्म देखते देखते मन में न जाने कितनी बार यह प्रश्न उठा कि क्या वाकई इस दुनिया में बर्फी और झिलमिल जैसे लोगों को दुनिया इतने चैन और सुकून से रहने देती है या फिर ऐसे लोग अपनी कमी को जानते हुए भी इतना खुश रह सकते है। फिल्म के अनुसार तो बर्फी जैसे लोगों को सभी बेहद पसंद करते हैं मगर वास्तव में ऐसा है नहीं मेरी एक सहेली की छोटी बहन भी बिलकुल झिलमिल की ही तरह थी लेकिन उसमें और झिलमिल में केवल इतना फर्क था कि वह घर आए मेहमान को देखकर खुशी के मारे इतनी उत्तेजित हो जाती थी जिसके चलते उसके व्यवाहर को आम इंसान समझ नहीं पता था और लोग डर जाते थे। मगर जब समझ में आता कि वह क्या चाहती है तो बस प्यार आता था उस पर उसकी मासूमियत पर और ना चाहते हुए भी कभी कभी दया भी, जो कि नहीं आनी चाहिए। कभी कभी तो उसकी मासूमियत को देखकर उसे मिलकर ऐसा लगता था कि बच्चे सभी मासूम होते हैं यह बेरहम दुनिया ही सबको क्रूर बना देती है। काश यह भोलापन यह मासूमियत सभी में सारी ज़िंदगी बरकरार रह पाती तो आज दुनिया की सूरत ही कुछ और होती।         

लेकिन जैसा कि मैंने उपरोक्त कथन में भी कहा है कि ऐसा लगता है कि वास्तविकता इससे बिलकुल विपरीत है क्यूंकि वास्तविक ज़िंदगी में तो बर्फ़ी और झिलमिल जैसे लोग दुनिया को बोझ लगते हैं और हर कोई उन से कटना चाहता है। यहाँ तक के लोग ऐसे इन्सानों या बच्चों के माता-पिता तक को ऐसी दयनीय नज़रों से देखते हैं कि उन्हें अपने ऐसे बच्चों को जिनमें किसी तरह की कोई कमी हो जैसे (शारीरिक या मानसिक विकलांगता हो) समाज में लाने-ले जाने में शर्म महसूस होने लगती हैं। हालांकी इस फिल्म में बर्फ़ी केवल सुनने और बोलने से वंचित था। लेकिन दिमाग एकदम ठीक था उसका, मगर झिलमिल दिमागी रूप से पूरी तरह से ठीक नहीं थी। अब चूंकि यह फिल्म पुरानी हो चुकी है तो यहाँ यह बताना ज़रूरी तो नहीं लगता। मगर फिर भी बर्फी का किरदार निभाया है (रणबीर कपूर) ने और झिलमिल का (प्रियंका चोपड़ा) ने इसके अलावा एक और हीरोइन हैं इसमें (इलयाना) जिसने श्रुति नाम की लड़की का चरित्र निभाया है लेकिन मैं उसकी बात नहीं करूंगी। क्यूंकि मैं यहाँ केवल बर्फी और झिलमिल जैसे लोगों की बात करना चाहती हूँ। 
     
मगर फिर भी इस फिल्म में बफ़ी और झिलमिल दोनों की जुगलबंदी कमाल की दिखाई है अनुराग बासु ने आपको इस फिल्म में नि:स्वार्थ प्यार और छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ ढूंढने की कहानी ‘बर्फी’ में देखने को मिलेगी। जो यह बताती है कि जिंदगी में कितनी ही मुश्किलें आएं, आप कहें ‘डोंट वरी, बी बर्फी’ और चैन से जिंदगी का मजा लें। हालांकी ज़िंदगी यदि फिल्मों की तरह इतनी ही आसान होती तो फिर बात ही क्या थी। तब शायद इस पूरी दुनिया में कोई दुखी ही ना होता। इस फिल्म को देखकर जाने क्यूँ बरसों बाद मुझे ऋषिकेश
मुखर्जी का ज़माना याद आगया उनकी बनाई हुई लगभग सभी फिल्में मेरे दिल के करीब हैं और मुझे बेहद पसंद भी है। शायद इसलिए क्यूंकि उनकी फिल्म के लगभग सभी किरदार ज़मीन से जुड़े हुए हुआ करते थे। उनकी किसी भी फिल्म में किसी भी तरह का दिखावा नहीं होता था। 

हालांकी यदि इस फिल्म की पुरानी फिल्मों से तुलना की जाये तो मैं जया बच्चन और संजीव कुमार की फिल्म कोशिश को ज्यादा पसंद करूंगी। जिसमें वह दोनों ही बोलने और सुनने में असमर्थ थे। लेकिन अपने बेहतरीन अभिनय के दम अपर उन्होंने जैसे इस फिल्म में जान फूँक दी थी। लेकिन फिर भी आजकल बन रही अन्य फिल्मों की तुलना में वाकई बर्फ़ी अपने आप में एक बहुत ही बढ़िया फिल्म हैं जिसमें हास्य में करुणा और करुणा में हास्य दिखने का बहुत ही बढ़िया और सफल प्रयास किया गया है जो दिल को छू लेता है और एक दर्शक को एक फिल्म से चाहिए भी क्या...सिर्फ यही कि फिल्म में दिखाई जाने वाली बाते सीधे दिल तक पहुंचे। जो इस फिल्म में हुआ। इस बात को मद्देनज़र रखते हुए मुझे यह फिल्म पसंद आई आप सबकी क्या राय है।