Wednesday, 4 October 2023

सुखी ~



कुछ भी शुरु करने से पहले यह बताती चलूँ कि मैं कोई फ़िल्म समीक्ष नहीं हूँ इसलिए कृपया इस पोस्ट को समीक्ष की दृष्टि से ना देखा जाय पर हाँ मैं 'जनता' जरूर हूँ. तो मुझे अपना मत रखने का पूर्ण अधिकार है. तो बस मैं अपने उसी अधिकार का निर्वाह करते हुए इस फ़िल्म को केवल तीन ही सितारे दूँगी. हाँ हाँ....मैं जानती हूँ जिस फ़िल्म को एक ओर आठ सितारे मिल रहे हों, वहाँ तीन का अंक शंका पैदा करेगा ही करेगा. वैसे इस फ़िल्म की निर्देशक सोनल जोशी है जिन्होंने इस फिल्म से पूर्व कई और फिल्मों में सहायक निर्देशक के रूप में काम किया हैं. पर फिर भी उनकी यह फ़िल्म 'सुखी' मुझ जैसों को बहुत सुखी ना कर सकी.

लेकिन वो कहते है ना "रहिमन इस संसार में भांति भांति के लोग" तो बस उन्ही में से मैं भी एक हूँ. मुझे लगता है बड़े सितारों से फ़िल्म में बहुत फर्क पड़ता है क्यूंकि कुछ भी हो बड़ा कलाकार बड़ा ही होता है. ग्रहणीयों के महत्व को दर्शाने वाली यह कोई पहली फ़िल्म नहीं थी. इससे पहले भी इस विषय पर बहुत सी फिल्मे बन चुकी हैं. जिसमें मुझे "इंग्लिश वइंग्लिश" बेहद पसंद है. उस फ़िल्म को लेकर एक खासा सा जुड़ाव है मेरे मन में, उसके दो कारण है. एक तो यह कि वो श्रीदेवी अभिनीत फ़िल्म है और वो मेरी पसंदीदा अदाकारा में से एक रही हैं. दूजा उस फ़िल्म को देखते हुए मुझे यह महसूस होता है कि यह कहीं ना कहीं मेरी अपनी ही कहानी है.

लेकिन इस फ़िल्म 'सुखी' को देखते हुए मुझे ऐसा जरा भी महसूस नहीं हुआ. जबकि मैं भी एक ग्रहणी ही हूँ पर जो सादगी जो अपनापन उसमें था जिसके कारण वो फिल्म बहुत अपनी सी लगी थी वो इस फ़िल्म में मुझे जरा भी महसूस नहीं हुई. जैसा अभिनय श्रीदेवी ने किया था शिल्पा जी शायद उस किरदार को वैसा छू भी नहीं पायी. बाकी तो सब का अपना-अपना नज़रिया है। विशेष रूप से उन चार सहेलियों के बीच की बौंडिंग को लेकर. जिसे हर तरह से ऐसा दर्शाने की कोशिश की गयी है कि फिल्म देखने आने वाली महिलाएं उसे अपने से जुड़ा हुआ महसूस कर सकें. इसलिए उसमें थोड़ी सी गलाइयाँ और दोआर्थि संवाद भी डाले गए हैं. ताकि दोस्ती वाली फीलिंग आए. लेकिन जो दोस्ती की गर्माहट महसूस होनी चाहिए थी वो फिर भी ना हो सकी. वैसे भी जहाँ तक मेरा मानना है, दोस्ती पर आधारित फ़िल्म श्वेत श्याम वाली 'दोस्ती' या 'शौकीन' 'जो जीता वही सिकंदर' 'दिल चाहता है' 'ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा' फ़िल्म वाली दोस्ती से लेकर 'थ्री इडियट' तक जो गर्माहट, जो अपना पन लड़कों की मित्रता में महसूस होता है. वो लड़कियों की फिल्मों में जाने क्यूँ नहीं हो पता.
इस फ़िल्म में भी सब बहुत औपचारिक सा लगा. बाकी रही बात कहानी की तो बीस साल बहुत होते हैं, एक इंसान में हर तरह के परिवर्तन के लिए. लेकिन इस फ़िल्म की अभिनेत्री 'शिल्पा शेट्टी' जोकि बीस साल बाद अपने दोस्तों से मिलती है अपने जीवन को जीने के लिए. या यूँ कहें की खुद को रिचार्ज करने के लिए तो उसमें कोई परिवर्तन ही नहीं आता है. जो कि अमूमन एक स्त्री के जीवन मे माँ बन जाने के बाद स्वाभाविक रूप से आ ही जाता है, जो की इस फिल्म के किरदार में जरा भी नहीं दिखाया गया है जबकि आजकल तो मेकअप के माध्यम से क्या कुछ नहीं किया जा सकता. लेकिन नहीं सहाब ....ऐसा कैसे, वो तो आज भी उतनी ही खूबसूरत और उतनी ही परफेक्ट है, हर उस काम में जितना की बीस साल पहले थी. हाँ यह बात अलग है ही कि शिल्पा शेट्टी वास्तविक जीवन में भी उतनी ही प्रफेक्ट हैं जैसा की किरदार में दिखाया है लेकिन फिल्म मे तो उन्होने एक आम स्त्री की भूमिका निभाई है ना तो उसके हिसाब से मुझे थोड़ा संदेह हुआ की ऐसा कैसे, भई असल ज़िंदगी में ऐसा थोड़ी ना होता है.

अरे भई, कोइ ग्रहकार्य को लेकर ऐसा कुछ दिखाते तो मैं एक बार को मान भी लेती. हाँ यह बात अलग है की हर कोई गृहकार्य में भी दक्ष नहीं होता. कुछ होती है, टॉमबॉय टाइप लड़कियां. लेकिन बीस साल एक ग्रहणी का जीवन जीने के बाद उनमें भी वो पहले जैसी बात नहीं रह पाती. लेकिन घुड़सावारी....! ना ना भई मुझ से तो यह बात बर्दाश ना हुई क्यूंकि ऐसे खेलों में आपका स्टेमना भी होना चाहिए और प्रैक्टिस भी. तभी जाकर आप रेस जितने का हौसला रख सकते हो...नहीं ? पर भईया मैडम को तो इतना चतुर दिखया गया है कि मैं क्या ही बोलूं. मात्र गिनती के कुछ ही दिनों में ही मैडम ने जैसे बीस साल पहले थी वैसी के वैसी ही हो गयी. इतनी की घुड़सवारी की रेस भी जीत ली "भई वाह गजब"....! इस मामले में तो मुझे 'साक्षी तंवर' अभिनित एक शार्ट फ़िल्म 'घर की मुर्गी' ज्यादा अच्छी लगी थी. जिसमें यही ग्रहणीयों के महत्व का मुद्दा इस 'सुखी' फ़िल्म से ज्यादा प्रभावशाली तरीके से दिखाया गया था और साक्षी तंवर तो हैं ही एक बेहतरीन अदाकारा इसमें तो कोई दोराय नहीं है. आप यूट्यूब पर ढूंढेगे तो आपको वो फ़िल्म आसानी से मिल भी जाएगी. तब आप खुद ही तुलना कर के देख लेना कि मैंने सही कहा था या गलत.

बाकी तो हम ग्रहणीयोंनका महत्व, कभी आज तक किसी को समझ में ना आया था, ना आया है, ना आने वाले समय में आएगा. इसलिए तो हम गृहनियाँ अपने जीवन से जुड़े विषयों पर जैसे ही कोई फ़िल्म आती है देख लेती है और बस उसे तुरंत हिट करा देती है. इस उम्मीद से कि शायद यह फिल्म हमारे परिवार वालों को हमारा महत्व समझने में कारगर साबित हो. क्यूंकि हम हमेशा ही एक दूसरे से सांत्वना रखती है और यह सोच लेती है कि चलो यह हमारी कहानी ना सही किन्तु हमारे जैसी ही किसी और बहन की कहानी तो होगी ही. तो उसके लिए ही सही. पर अफ़सोस की हमें अपने ही परिवार में आज भी जब, भारत चाँद को अपना बना चुका है अपने ही लोगों को अपना महत्व समझाने के लिए फ़िल्म दिखानी पडती है. इससे ज्यादा और दयनीय स्त्तिथी और क्या हो सकती है एक ग्रहणी के लिए. जरा सोचिये.

इस फिल्म को देखने के बाद मेरे मन मे जो विचार आए मैंने आपके समक्ष रखे हैं. यह पूर्णतः मेरे अनुभव ही हैं. आगे फ़िल्म देखकर फैसला करना आपके हाथ में है कि आप इस फिल्म को कितने सितारे देना पसंद करेंगे. राम राम 🙏🏼

Saturday, 22 April 2023

मशीनी युग और मानसिक शांति

 

मशीनी युग और मानसिक शांति

आधुनिक युग में मशीनों के बिना जहां जीवन की कल्पना भी नहीं कि जा सकती, वहाँ मानसिक शांति की बात करना शायद एक ना समझी ही साबित होगा। लेकिन बदलते वक़्त ने अब हर चीज़ के मायने बदल दिये हैं, फिर चाहे वह मनोरंजन के साधन हो या मानसिक शांति। अब लगभग सभी चीजों की परिभाषा बदल रही है या बदल गयी है। आप इस विषय में क्या सोचते हैं, यह पूरी तरह आप पर निर्भर करता है। मैं यहाँ जो कुछ भी कहना चाह रही हूँ । वह पूर्णतः मेरे विचार है। जिस तरह आजकल सस्ती लोकप्रियता का चलन चल रहा है, जिसे पाने कि खातिर लोग अपने स्तर से गिर रहे है। ठीक उसी तरह मानसिक शांति पाने के लिए भी अब लोग को प्रकृति का सामीप्य नहीं चाहिए, बल्कि मशीने चाहिए एक यंत्र चाहिए जिसे वर्तमान हालातों में यदि अलादीन का चिराग कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। क्यूंकि आजकल कि दुनिया में हो रहे सभी तरह के क्रियाकलाप इसी यंत्र में समाहित है। फिर चाहे वह हितकर हों या अहितकर लोग उसे अपनी अपनी सुविधाओं के अनुसार उपयोग में लाते हैं। बस ज़रा उँगलियाँ फेरी और बस आपके जिन ने आपके समक्ष सम्पूर्ण जानकारी परोस दी जो आपने चाही थी।

कितनी अजीब बात है, आज लोग हरियाली वाला वाल पेपर लगाना तो बहुत पसंद करते हैं किन्तु सुबह जल्दी उठकर उस प्रकृतिक सौंदर्य का अपनी आँखों द्वारा साक्षात आनंद लेना कोई नहीं चाहता । सब को जैसे सभी कुछ चाहिए तो है मगर असलियत में नहीं नकली पने में, जंगल, खेत, नदियां, समंदर, फूल, पत्ती, बाग बगीचे, सभी को बहुत पसंद होते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। इनके समीप जाकर कुछ देर शांति से बैठकर जिस मानसिक शांति का अनुभव होता है उसकी तो कोई उपमा दी ही नहीं जा सकती। परंतु यह केवल वही जान सकता है जिसने यह सब वास्तव में अनुभव किया हो। मुझे खेद है कि आज की पीढ़ी इन बहुत ही साधारण और छोटे छोटे अनुभवों से वंचित है। बाकी ना सिर्फ आज की पीढ़ी बल्कि हम सब भी तो वैसे ही हो गए हैं, “मशीनी युग के गुलाम” हमें भी तो खुद को मनोरंजित करना हो तो या किसी भी प्रकार का चिंतन मन्नन करना हो तो, सर्वप्रथम मशीन ही दिखाई देती है। अब उसका रूप कोई भी होसकता है फिर चाहे वह स्मार्ट फोन हो, टीवी हो, लैपटाप हो, आईपेड हो, वो कोई भी मशीन हो सकती है। लेकिन हम में से किसी के दिमाग में यह नहीं आता कि चलो किसी बाग में घूमकर आते है या किसी नदी किनारे चलते हैं या नदी न मिले तो झील ही सही मगर प्रकर्ति के निकट चल के बैठते हैं।

नहीं साहब, ऐसा कुछ करने लगे तो दकियानूसी ना कहलाने लग जाए कहीं, इसलिए यह सारे सुख जो हमें ईश्वर ने मुफ्त दिये हैं अपना तनाव कम करने के लिए उस पर भी पैसा डालो और ऐसी एप्लिकेशन खरीदो जो तनाव कम कर सकती हो क्यों? वह भी किसी खेल के साहारे क्यूंकि आजकल लोग बहुत व्यस्त हैं। किसी के पास समय नहीं है, ऐसा सब करने के लिए। जबकि मेरी नज़र में लोग “बिज़ि विदाउट वर्क” ज्यादा है। तभी तो खाली समय में भी मशीन में घुसकर ही समय काटते हैं और कहते है हमारे पास समय का अभाव है।  दोगली दुनिया के दोगले लोग, खुद ऑफिस में बैठकर खाली समय में भी एक मशीन से निकलकर दूसरी मशीन में ही घुसने का मौका ढूंढते फिरते हैं और वहीं यदि घर की ग्रहणी अपना सारा काम निपटने के बाद अपने लिए मिले हुए समय में से थोड़ा सा समय अलादीन के चिराग में लगा दे, तो कोई कहने से नहीं चुकता कि इनके पास कोई काम नहीं है, जब देखो जब फोन में ही घुसी रहती है। जबकि घर की गृहनियों के यदि छोटे बच्चे हों तो आधे से ज्यादा समय तो आज के यह मशीनीयुग के बच्चे खा जाते हैं।  मानो पैदा इंसान ने नहीं मशीन ने ही किया हो इन्हें और तंज़ झेलती है ग्रहणी, यह भी कोई बात हुए भला।

खैर अब युग मशीनी है तो तनाव होना तो निश्चित ही है। इसलिए तो आजकल मशीनों पर भी तरह तरह कि एप्लिकेशन और सॉफ्टवेअर उपलब्ध है। बच्चों के स्कूल से लेकर ऑफिस तक में तनाव कम कैसे किया जाये को लेकर आए दिन सेमिनार होते रहते हैं। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि यदि थोड़ी देर के लिए यह समय के अभाव के नाटक को एक ओर रख के सोचा जाये तो तनाव मुक्त जीवन जीना इतना भी बड़ी समस्या नहीं है, जितना इसे गा गाकर बना दिया गया है। तनाव का कारण केवल काम का भार ही नहीं होता, तनाव का मुख्य कारण होता आपके अंदर का डर जो किसी भी प्रकार का हो सकता है। जिसका कोई एक रूप निश्चित नहीं होता। पर अधिकतर हार अर्थात पराजय का डर और उसके बाद सामाजिक दबाव ही इंसान को गलत कदम उठाने पर मजबूर कर देते हैं। जबकि इस डर को मिटाने का सीधा सा उपाए है डर के कारण को जानकार उस पर काम किया जाये। और अधिकतर मामलों में इन सब चक्करों के चलते सबसे पहले यदि कुछ खोता है तो वह है इंसान के मन की शांति और जहां तक मेरा मानना है, हर इंसान को खुद यह बहुत अच्छे से पता होता है कि उसे उसके मन की शांति कहाँ और कैसे मिलेगी। जैसे मुझे लिखने से मानसिक शांति मिलती है।

ठीक इसी तरह हर एक इंसान के मन की शांति, किसी ना किसी काम में होती है, पर कई बार या तो उन्हें पता नहीं होता या फिर उन्हें समझ ही नहीं आता कि अपनी रुचि पर काम करके भी अपने तनाव को बहुत ही आसानी से कम किया जा सकता है। जैसे किसी को खाना बनाकर उसके मन शांति मिलती है, तो किसी कोई तस्वीरें बनाना पसंद होता है, किसी को संगीत से लगाव होता है, तो किसी को नृत्य से, पर अफसोस की हम तनाव के वक़्त केवल समस्या पर ध्यान देते है उसके समाधान पर नहीं और फल स्वरूप तनाव बना रहता और लगातार बढ़ता रहता है। ऐसे में हमें अपने मन की शांति के लिए कुछ उपाय करना बेहद जरूरी होता है जो समान्यता हम नहीं करते जिसे अंगेजी में "माइंड डाइवर्ट" करना कहते हैं और यह काम हम अपनी रुचि के आधार पर बहुत ही आसानी से कर सकते हैं। जैसा की मैंने उपरोक कथन में कहा कि हर किसी को पता होता है कि उसकी उसकी 'रुचि' उसके 'मन की शांति' उसे क्या करके मिलेगी। मगर अपनी समस्या और तनाव के चलते वह व्यक्ति उस पर ध्यान नहीं दे पाता। तब भी यदि वह थोड़ी देर के लिए प्रकृतिक रूप से प्रकर्ति के समीप जाकर अपनी समस्या का समाधान खोजेगा ना तो उसे कोई न कोई हल मिल ही जाएगा क्यूंकि जो सुकून, जो शांति प्रकृति के समीप्य में जाकर मिलती है न, उसका कोई तोड़ नहीं है। फिर भी एक बार को में यह मान भी लूँ कि आजकल की भाग दौडभाग भरी ज़िंदगी में किसी के पास समय ही नहीं बचता। तो भी उसे अपनी रुचि के लिए समय ज़रूर निकालना चाहिए । ताकि वह बिना किसी मशीन के सहारे अपने तनाव को कम कर सके। यह उतना भी कठिन नहीं है कि इस काम के लिए भी आपको मशीनों की अवश्यकता पड़े। याद रखिए इंसान ने मशीनों को बनाया है, मशीनों ने इंसान को नहीं।          

Friday, 24 March 2023

नवरात्र और मैं ~



मार्च का महीना यानी हिंदू नववर्ष का प्रारम्भ जो माता रानी जगत जननी माँ अम्बे के आशीर्वाद के साथ प्रारम्भ होता है। यानी "गुड़ी पड़वा" अर्थात "चैत्र नवरात्र" का प्रथम दिवस और पूरे नो दिन धूम मचाने के बाद हमारे हम सब के प्रिय श्री राम लला का जन्मोत्सव और क्या ही शुभ शगुन चाहिए नववर्ष के आरंभ के लिए. यूँ तो साल में चार नवरात्र आते है मगर मुझे इस विषय में अब तक कोई जानकारी नहीं थी जैसे 
1. शारदीय नवरात्र 
2. गुप्त नवरात्र 
3. चैत्र नवरात्र 
4. गुप्त नवरात्र 
ऐसा माना जाता है कि मंत्र तंत्र और सिद्धि प्राप्ति के लिए इन "गुप्त नवरात्रों" का विशेष महत्व है. पर ऐसा कोई ज़रूरी नहीं है कि ऐसा कुछ करना हो तो ही आप यह नवरात्र मनाए इन्हें भी कोई भी मना सकता है अर्थात बाकी नवरात्रों की तरह साधारण पूजन आदि इन नवरात्रों में भी कि जासकती है. ठीक इसी तरह हर महीने "महाशिवरात्रि" जिसे "मासिक शिवरात्रि" भी कहते हैं हर माह ती है. यह भी मुझे पता नहीं था, यह जानकारी मुझे शिवपुराण सुनने और पढ़ने के बाद प्राप्त हुई. दोस्तों मैं मध्यप्रदेश की रहने वाली हूँ. जहाँ सभी त्यौहारों को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. फिर चाहे वह किसी भी धर्म का त्यौहार ही क्यों ना हो. मैंने भी हर त्यौहार को खूब हर्षोल्लास के साथ मनाया है. लेकिन फिर भी मेरा अनुभव यह कहता है कि एक स्त्री के लिए त्यौहारों का जो महत्व है या यूँ कहिये कि त्यौहारों का जो असली मजा है वह केवल माता पिता के संरक्षण में ही आता है. विवाह उपरांत नहीं, क्यूंकि फिर तो जैसे सारा मजा रसोई घर के चुल्ले में ही फुक जाता है. कम से कम सयुंक्त परिवार में तो ऐसा ही होता है और रही बात एकल परिवारों कि तो होली, दिवाली जैसे त्यौहार तो वह भी परिवार के संग ही मनाना पसंद करते है. बाकि तो आजकल स्विग्गी और ज़ोमेट्टो वालों ने घर के बने खाने या पकवानों कि एहमियत पहले ही खत्म कर दी है, तो आगे कुछ कहना ही बेकार है. खैर वह मुद्दा अलग है. आज तो मैं बात कर रही हूँ अपने जीवन के उन सुनहरे दिनों की जब गन्नू भईया अर्थात हमारे प्यारे "गणपति बाप्पा" के जन्मदिन से जो त्यौहार शुरु होते थे तो दिवाली तक मन एक अलग ही ऊर्जा से भरा रहता था. 
विशेष रूप से शारदीय नवरात्र को लेकर तो पागल ही हो जाया करते थे सब, झाँकियां देखने जाना, माता रानी के दर्शन के लिए घंटों लाइन में खड़े रहना, प्रसाद के लिए मरे जाना. मेले का आनन्द जम के उठाना चाट पकोड़ी पालकी का झूला, लॉटरी के टिकट, जो आज तक कभी नहीं लगा पर फिर भी दस बीस रुपए से अधिक लेने की अनुमति नहीं होती थी. कितना सुकून, कितना आनंद था इन छोटी छोटी खुशियों में, और तो और घर में माता रानी की भक्ति से सकारात्मक ऊर्जा का घर घर विचरना, सुबह शाम की आरती में शामिल होना सिर्फ मेवे के प्रसाद के लिए क्यूंकि नवरात्री में विशेष रूप से मम्मी पंच मेवा का भोग लगाया करती थी. घर में हवन सामग्री और धुपबत्ती की महक जैसे हर रोज जीवन में एक अदबुद्ध रस का संचार कर दिया करती थी. उन दिनों व्रत करने का बहुत मन किया करता था मगर अनुमति नहीं हुआ करती थी. ना उन दिनों घर में मांसाहार बनेगा ना कोई बाहर जाकर खायेगा. जैसी हिदायतें भी बहुत सख्ती के साथ दी जाती थी और सभी उसका नियम पूर्वक पालन भी किया करते थे सच वो समय ही कुछ ओर था. 
ऐसे में अधिकतर लोग दशहरे का इंतजार किया करते थे. बाकि वर्णों का तो पता नहीं लेकिन कायस्थ बंधुओ के यहाँ तो ज्यादा तर ऐसा ही होता था. तब यह सुन सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ करता था कि लोग,  लोंग पर, तुलसी के पत्ते पर, केवल चाय पर, व्रत कैसे रख लिया करते थे...! तब मम्मी कहती थी कि यदि श्रद्धा सच्ची हो तो खुद माता रानी आपको हिम्मत देती है और उन दिनों आपको बिलकुल भी भूख नहीं लगती. जबकि आप अपने लिए छोड़कर पूरे घर के लिए भोजन बनाते हो पर तब भी आपका मन भोजन के प्रति नहीं लालाचाता. पहले तो इस बात पर यकीन नहीं होता था. लेकिन फिर जब शादी के बाद खुद यह व्रत रखे,  तो बिलकुल वही अनुभव हुआ जो मम्मी ने कहा था और आज भी यह प्रथा कायम है. वैसे तो माता रानी के सभी नवरात्र अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं. लेकिन उन सब में यह "चैत्र नवरात्रोन" का विशेष महत्त्व है. यह उन दिनों समझ में नहीं आता था क्यूंकि इन नवरात्रो के समय अधिकांशतः वार्षिक परीक्षा हुआ करती थी तो ज्यादा कुछ जोश ओखरोष या हर्षोल्लास महसूस नहीं होता था.  उपर से स्पीकर पर बजते भजन से पढ़ाई में और मन नहीं लगता था. 
लेकिन त्यौहार मानाने का जोश कभी खत्म नहीं होता था. एक वो दिन थे और एक आज के दिन है. जब हर त्यौहार को मनाने की सिर्फ औपचारिकता ही शेष रह गयी है. विशेष रूप से उन घरों में जहाँ बेटियाँ नहीं है ,सिर्फ बेटे ही हैं. वहाँ कब कौन सा त्यौहार आया और आकर चला गया का पता ना पहले कभी चल पाता था ना आज चल पाता है.सच बेटियों से ही घर घर कहलाता है.   

Thursday, 23 February 2023

तुम करती ही क्या हो ...? व्यंग

 

आज सुबह सवेरे में प्रकाशित 


तुम करती ही क्या हो...?

एक औरत दूसरी से तुम क्या करती हो...? मैं एक गृहणी हूँ. हाँ वो तो ठीक है, पर तुम करती क्या हो.? ‘आई मीन यू नो...? तुम घर में कैसे रह लेती हो यार, मेरा तो जी घबराता है, बुखार आजाता है. अच्छा, तो तुम क्या जंगल में रहती हो.? व्हाट रबिश... मेरे कहने का मतलब था कि "घर के काम एंड ऑल" ओह.! तो उसमें क्या है, तुम जैसों के लिए घर को घर बनाते है और क्या. अरे घर में काम ही क्या होता है.आजकल तो सभी घरों में अधिकतर झाड़ू पोंछे और बर्तन के लिए बाई लगी होती है. बस सिर्फ खाना ही तो बनाना होता है और थोड़ी बहुत साफ सफाई, बस और तुम फ्री.अच्छा...! तुम्हें कैसे पता कि उसके बाद हम फ्री..? तो और क्या बढ़िया खाओ और सौ जाओ चैन की नींद. ओह...! तो बच्चों को लाना, उनके आने के बाद उन्हें समय से खिलाना, पढ़ना, उनके साथ समय बिताना, खेलना और समय से उन्हें सुलाना. यह सब तो अपने आप ही हो जाता है. है ना...! और कपडे भी खुद ही अपने आप चेक होकर मशीन में टेलीपोर्ट होकर खुद ही धुल जाते हैं और पता है कमाल की बात तो यह है कि खुद ही अपने आप बाहर जाके सूखकर, छटकर, प्रेस के लिए भी अपने आप ही चले जाते है. नहीं....! बताओ...! कित्ता ज़माना बदल गया है भई... मुझे तो सही में अब तक पाता ही नहीं था. एक कुटिल मुस्कान के साथ, नहीं ...?
खैर, मेरी छोड़ो तुम क्या करती हो...? मैं एक कंपनी में मैंजर हूँ. हो.....! मतलब तुम कुछ भी नहीं करती...? तुम्हारे लिए सब दूसरे ही कर के देते हैं. वाह...! क्या मतलब है तुम्हारा ? पूरी टीम को मैंनेज करती हूँ मैं, किसी से काम करवाना आसान नहीं होता. कभी करा के तो देखो, तब पता चले. कितना मुश्किल होता है इतने सारे लोगों को मैंनेज करना...ओह...! बाईयों से काम करना तो बहुत आसान होता है...वो भी जब, जब वो बहुत ही कम पढ़ी लिखी होती है. मगर दुनियादारी बखूबी जानती है और बच्चे संभालाना, वो तो चुटकीयों का काम है. क्योंकि वो तो नासमझ होते है, तो दिन भर सवाल करते हैं... और उनके सभी सवालों का सही सही जवाब देना तो....दिमाग लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती “यू नौ” कुछ भी नहीं रखा है इसमें, नहीं...! और तुम तो पढ़े लिखे बहुत ही समझदार लोगों को संभालती हो...सही है. तो अब तुम मुझे बताओ कि तुम करती ही क्या हो...?

Sunday, 19 February 2023

कुछ तो गड़बड़ है तारा ~एक व्यंग ~

~कुछ तो गड़बड़ है तारा ~ 
सुबह सवेरे में प्रकाशित मेरा लिखा एक व्यंग 


अरे सीमा तुम यहाँ रसोई में क्या कर रही हो बेटा जाओ जाके पढ़ाई करो. कितनी बार कहा है तुम से, यह जगह तुम्हारे लिए नहीं है.... एक बार पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ. फिर इस काम के लिए हज़ारों पड़े है अपने हिंदुस्तान में, पर माँ मुझे यह सब करना अच्छा लगता है, यह तड़के की खुशबु, यह फूली फूली गुब्बारे नुमा रोटियाँ मुझे बहुत आकर्षित करती हैं. मैंने कहा ना तुम से....नहीं मतलब नहीं. एक बार में बात समझ नहीं आती है क्या तुमको...? चलो जाओ अपने कमरे में, फिर थोड़ी देर बाद तुषार लाओ माँ मैं बना देता हूँ. रसोई में खाना बनाना तो मुझे भी बहुत पसंद है. पता है कल ही मैंने खाना खज़ाना वाले संजीव कपूर का वीडियो देखा. क्या लाजवाब दम आलू बनाया था उन्होंने, देखकर ही मुँह में पानी आगया. हे भगवान....! क्या होगा इस घर का सभी खाँसामा ही बनाना चाहते हैं यहाँ, यह नहीं कि कोई पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनने की बात करे.

"कुछ तो गड़बड़ है तारा" मन ही मन तारा ने सोचा. चलो ना माँ आज ट्राइ करते हैं बड़ा मज़ा आएगा. मैं खाना बनाऊंगा और तुम मेरा वीडियो बनाना, ठीक है ? फिर अपन इसे यूट्यूब पर डालेंगे. पागल हो गया है क्या....? यह सब तेरे काम नहीं है. इतना भी नहीं जनता क्या कि यह सब औरतों के काम है. तेरी बीवी आएगी ना, उससे करना यह सब काम. अच्छा..? और जो उसकी रूचि ना हो इन सब कामों में तो, तो क्या, घर के काम तो बेटा तब भी करने ही पड़ते हैं हम औरतों को, छोड़ो ना माँ क्यों झूठ बोलती हो. अरे मैंने क्या झूठ बोला, सच ही तो कहा। अच्छा तो फिर दीदी को क्यों नहीं करने दिया तुमने....माँ एकदम चुप कहे तो क्या कहे...खून का घूंट पीके रह गयी। अरे दीदी तुम्हारी नेल पेंट कितनी अच्छी है, मुझे भी दो ना मैं भी लगाऊंगा...और फिर तुम्हारा दुपट्टा ओढ़कर डांस भी करूँगा। यह देखते ही अब तो जैसे तारा के पैरों तले मानो ज़मीन ही निकल गयी। यह मेरा बेटा क्या कह रहा है। अब तो पक्का कुछ गड़बड़ है तारा, इससे पहले कि सच में कुछ गड़बड़ हो, कुछ कर तारा... कुछ कर.....! हाय राम...! एकता कपूर के धारावाहिक कि तरह उसने मन ही मन तीन बार कहा नहीं....नहीं....नहीं.....ऐसा नहीं हो सकता...बेबसी के भाव लिए, तारा ने तुषार से कहा यह क्या कह रहा है बेटा, भूल मत तू लड़का है....जरा तो लड़कों जैसी हरकतें कर बेटा....लड़कों जैसी....तारा की पड़ोन शीतल ने भी यह सब अपनी आँखों से देखा और कहा... तू कर क्या रही है तारा ? एक तरफ तो अभी अभी कॉलेज में महिला दिवस पर इत्ता कुछ कह रही थी अधिकारों के हनन को लेकर और अब खुद अपने ही घर में अपने ही बच्चों के अधिकारों का हनन... “कुछ तो गड़बड़ है तारा”.... जरुर कुछ तो गड़बड़ है...

Friday, 10 February 2023

कहानी लेलो कहानी ~व्यंग

 


भोपाल से निकलने "सुबह सवेरे" समाचार पत्र में प्रकाशित मेरा लिखा एक व्यंग 

कहानी ले लो भाई साहब, कितने की दी ? भईया एक कहानी मात्र ढाइसो कि है। अरे बाप रे ! यह तो बड़ी महंगी है। थोड़ी सस्ती में देते हो तो बताओ। अच्छा कितना दाम लगाओ गे आप बताओ ? डेढ़सौ में दे रहे तो बात करो। अरे नहीं नहीं...। इतने में तो केवल लघु कथा ही मिल सकती है, यह नहीं। यह तो बड़ी कहानी है, इतने में तो नहीं पड़ेगी। अच्छा तो ठीक है फिर, रहने दो कभी ओर देखेंगे। अच्छा ठीक है भाई साहब, कहानी लेलो भई कहानी छोटी बड़ी सभी तरह कि कहानियाँ...! आगे चलकर फिर किसी ने आवाज दी अरे भईया जरा सुनना तो सही, एक कहानी कितने में दी ? अरे दीदी ज्यादा नहीं बस ढाईसौ । क्या ....! इतनी महंगी ? कहाँ दीदी, यह तो केवल महनतना ही मांग रहे हैं। वरना असल कीमत तो हमने अभी तक लगायी ही नहीं है।

अरे नहीं भईया तब भी बहुत मंहगी है। हाँ तो दीदी बड़ी भी तो है, ऊपर से आप लोग शब्दों का प्रतिबंद अलग लगा देते हो, कभी सोचा है कि स्व्छंद लिखने वाले को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और एक आप हो उसमें भी मोल-भाव कर रही हो। लेलो न एक कहानी दीदी, आपका क्या जाएगा। आप तो खुद भी इतना लिखती हो कि आपके हाथ के नीचे  से निकलने वाली छोटी मोटी पत्रिका वह भी वो वाली जो अखबार के साथ अलग से आती है, तक में केवल दो पन्ने तो आपके ही होते हैं। ऐसे में हमारा लिखा भी थोड़ा सा लेलोगी तो आप क्या बिगड़ जाएगा। 

बस बस ज्यादा बकवास करने कि जरूरत नहीं है। जितना पूछा जाए उतना ही बताओ और हाँ ठीक ठीक भाओ लगाओ वरना और भी बहुत लोग हैं लाइन में, जिन्हें अपनी कहानियाँ और कवितायें बेचनी है हमें। एक तुम ही  अकेले नहीं हो। हाँ हाँ...! दीदी यह बात तो हम बहुत अच्छे से जानते है। आप यह लघु कथा लेलो मात्र डेढ़सौ कि है। नहीं भाई तुम अब तक मेरी बात का सही अर्थ नहीं समझे। लघु कथा वह भी डेढ़सौ कि बहुत महगी है। ऐसा करो एक बड़ी कहानी के साथ एक लघु कथा नहीं तो एक व्यंग या फिर एक कविता मुफ्त दे दो तो हम यह कहानी अभी खरीद लेते हैं। नहीं दीदी, यह न हो पाएगा। सोच लो भईया...! जो मैंने कहाँ वही सबसे अच्छा सौदा है कम से कम कुछ नहीं से कुछ तो मिल रहा है। नहीं दीदी, ना हो पाएगा। आगे चलेते हुए फिर कहानी ले लो कहानी...

सुनो भईया मेरे पास तुम्हारे लिए एक योजना है कहो तो बताऊँ ? अरे साहब सुबह से कहानियाँ बेचने निकला हूँ अब तक बौनी नहीं हुई और आप एक और नयी योजना ले आए हो, न ना मेरे पास टेम ना है। अरे कम से कम योजना सुन तो लो, नहीं जमे तो ना लेना। अच्छा ठीक है, बताओ क्या है आपकी योजना। द्खो मैं भी यही रहता हूँ और एक अखबार चलता हूँ। जिस तरह तुम्हारी कहानियाँ नहीं बिक रही उसी तरह मेरा अखबार भी कोई खास नहीं बिक रहा है। तो क्यूँ ना साथ में मिलकर धंधा किया जाये। तुम हमारे अखबार कि सदस्यता लेलो हम तुम्हारी कहानियाँ वहाँ छाप दिया करेंगे जिससे थोड़े ही दिनों में तुम्हारा नाम भी हो जाएगा और हमें भी कंटेन्ट मिल जाएगा। अरे बाबू जी, तो इसमें मेरा क्या भला होगा। सारी मलाई तो आपको मिल जाएगी। अरे तुम्हारा भी तो भला हो रहा है, रोज़ छपोगे और यदि प्राइम मेम्बर शिप लोगे तो एक ही पेज पर तुम्हारी एक से अधिक रचनाओं को स्थान दिया जाएगा।

अरे वाह रे बाबू जी आपको हमारे माथे पे क्या लिखा दिखा जो आप यह योजना हमारे पास लेकर आए हैं। हमारी ही कहानी हम से ही पैसा लेकर, यदि आपने छाप भी दी तो कौना सा बड़ा अहसान किया बात तो तब होती जब आप मुझे मेरे महंताने के साथ मेरी कहानी को अपने अखबार में स्थान देते। रहने दो बाबू जी रहने दो।

कहानी ले लो कहानी एक कहानी के साथ एक कविता, एक कविता के था एक लघु कथा, और एक लघु कथा के साथ एक व्यंग मुफ्त ..... 

Friday, 13 January 2023

फेसबुक वाल और व्हाट्सप्प स्टेटस के बीच उलझी ज़िंदगी~


फेसबुक वाल और व्हाट्सप्प के स्टेटस में उलझी ज़िंदगी सुनने में अजीब लगता है है ना ! लेकिन आज की जीवन शैली का यही सर्वभोमिक सत्य है। क्यूंकि सोश्ल मीडिया आज के समय की शायद सबसे बड़ी अवश्यकता है। इंसान एक दिन बिना भोजन के रह सकता है, बिना जल के भी रह सकता है। लेकिन बिना इंटरनेट के नहीं रह सकता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो आपको समस्त स्त्रियॉं के निर्जले वर्त और त्यौहारों पर बड़ी ही सुलभता से देखने मिल जाएंगे। इन वर्तों में या उपवासों में भले ही पूजा जरूरी हो या न हो, किन्तु फोटो खींचना और उसे सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्मों पर डालना सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध होगया है। दूजा आप यदि किसी भी वजह से खुश है, जो कि ईश्वर करे आप सदा खुश रहें। तो भी दुनिया को कैसे पता चलेगा कि आप आज बहुत खुश हैं। तो भई फेसबुक और व्हाट्सप्प स्टेटस से ही तो सब को पता चलेगा ना कि आज आप बहुत खुश है। वहीं दूसरी और यदि आप किसी कारण वश बहुत परेशान है या दुखी है तो यह भी तो सब को पता चलना चाहिए न है कि नहीं ? नहीं आप बताओ है ना ! तो इसके लिए भी फेसबुक की दीवार और इंसटाग्राम हैं ना दुख भरी पोस्ट सांझा करने के लिए।

तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यदि आपको ऐसा लगे कि आज आप बहुत ही खूबसूरत लग रहे हैं। तब तो फिर बात ही क्या जनाब...! अब इतनी जोरदार बात भी तो सभी को पता चलनी चाहिए, है कि नहीं! तो बस ज्यादा कुछ नहीं करना है आपको, बस सेल्फी टाइम का टेग चिपकाकर अपनी तसवीरों कि भरमार से भर दीजिये अपनी फेसबुक की दीवार, व्हाट्सप्प स्टेटस, इंसटाग्राम आदि पर, और क्या चाहिए। वैसे इसमें कोई बुराई नहीं है। ना ना, मैं इस सब के खिलाफ नहीं हूँ। मैं तो खुद भी इस सब का हिस्सा हूँ । आखिर मैं भी आप सब में से ही एक हूँ। हालांकि मैंने तो यहाँ बहुत ही आम उपयोग में आने वाले केवल दो एप्स्स को ही सम्मिलित किया है। वरना आज कि तारिक में तो न जाने कितने ऐसे प्लेटफॉर्म है सोश्ल मीडिया पर जिन पर जाकर लोग अपनी भावनाएं प्रकट किया करते है। पर असल मुद्दा यह नहीं है कि ऐसा कुछ भी करना उचित है या अनुचित है।

बात तो यह है कि इस सोश्ल मीडिया ने हमारी जिंदगी जितनी आसान बना दी, उतना ही कहीं न कहीं हमे वास्तविकता से दूर कर दिया है। इतना दूर कि आज हम कैसा महसूस कर रहे है उसकी भी तस्वीरें ले लेकर दूसरों को दिखाना पड़ रहा है। जरा सोचिए, भावनात्मक स्तर पर जब हमारा यह हाल है तो इस आभासी दुनिया में जीते जीते हम खुद आभास हीन होते चले जा रहे हैं और हमे पता भी नहीं चल रहा है। बस भेड़चाल में भेड़ बने, बिना कुछ सोचे, बिना कुछ समझे, बस चले जा रहे हैं। ना रस्तों का पता है, न मंजिल का पता है। सबसे ज्यादा अफसोस तो तब होता है, जब इन्ही माध्यमों पर हमें अपने उन लोगों कि झूठी तस्वीरें दिखाई देती है, जिनकी असल ज़िंदगी के बारे में हम बहुत करीब से जानते है कि वह व्यक्ति वास्तव में अंदर से कितना दुखी है। यही से एक सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि उत्पत्ति होती है कि आखिर ऐसी क्या बात है इस दुनिया में कि यह आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गयी है।

जहां तक मेरी समझ कहती है, जीवन की अपूर्णता ही इस आभासी दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत है। जब आपको अपने निजी जीवन में ऐसे लोग नहीं मिलते, जो आपके लिए थोड़ा सा समय निकालकर आपसे बात कर सकें, आप पर ध्यान दे सकें, आपसे दो बोल प्यार के बोल सकें। ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम इतना ही पूछ लें कि आज आप कैसे हो, या आज आप बहुत अच्छे लग रहे हो, या ऐसी कोई भी बात जो आप चाहते हो कि कोई आप से पूछे, आप किसी से मिलो, तो आप उससे पूछो और बातों का सिलसिला चले। कुछ मन बदले, यह आम जीवन की वह बातें हैं, जिसकी आशा हम अक्सर अपने आस पड़ोस वालों से या अपने घरवालों से रखते हैं।

लेकिन जब आजकल की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में जहां किसी को किसी के लिए समय नहीं है। यहाँ तक के परिवार के सदस्यों तक के पास इतना समय नहीं है कि वह एक साथ मिलकर खाएं, बैठें और आपस में एक दूसरे से इस तरह कि बातें पूछें और बताएं, बात करें और जब यही छोटी छोटी बातें हमें यह सोश्ल मीडिया के किसी प्लेटफार्म पर मिलती हैं। तब बहुत ही आसानी से हम वास्तविक दुनिया को भूलकर इस आभासी दुनिया कि ओर मुड़ जाते है। या यूं कहे कि इस दुनिया में खुश रहना सीख जाते हैं, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। फिर धीरे-धीरे ज़िंदगी इस फेसबुक कि दीवार और इस व्हाट्सप्प  के स्टेटस में उलझ के रह जाती है और वास्तविक रिश्तों में दूरियाँ आती चली जाती है। इसी से यह पता चलता है कि जीवन में इन छोटी छोटी बातों का कितना बड़ा महत्व होता है। तो इन्ही बातों का ध्यान रखते हुए, अपने रिश्तों को बचाइए क्यूंकि रिश्ते दिखावे से नहीं बल्कि प्यार से निभाय जाते हैं।  

Wednesday, 4 January 2023

~अश्लीलता परोसता इंटरनेट ~

 

बात गंभीर है इसे हल्के में ना लिया जाये पर आज का कटु सत्य यही हैं। माना कि इंटरनेट आज हमारी सबसे बड़ी जरूरतों में से एक है इसके बिना जीवन संभव नहीं है। आज इंटरनेट है तो हम है और उसी की कृपा से मैं आज यहाँ यह सब लिख पा रही हूँ।  इंटरनेट ना होता तो पेंडमिक साल में लोग मानसिक रूप से गंभीर बीमारियों की चपेट में आसानी से आ गए होते। लेकिन इस इंटरनेट ने ऐसा होने से सभी को बचा लिया। बड़ी कृपा है इस इंटरनेट कि जिसके माध्यम से हमारे बच्चों की शिक्षा छूटने से बच गयी। अगर सभी अध्यापकों ने ऑनलाइन क्लासेस ना ली होती तो दसवीं और बारहवीं वाले बच्चों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाती।  बच्चों के साल बर्बाद होते वो अलग, इसलिए सभी अध्यापकों का आभार सहित धन्यवाद है।  इंटरनेट के बिना अपनी दुनिया की कल्पना तक नहीं की जा सकती। यदि यह ना होता तो महिलाओं के अंदर छिपा हुनर बाहर निकल के ना आ पाता। कई लोगों को पेंडमिक के दौरान इसी इंटरनेट ने भूखों मरने से बचाया है। यूँ देखो तो आज की आधुनिक जीवन शैली का ना सिर्फ एक अहम् हिस्सा है इंटरनेट बल्कि कइयों के लिए तो यह भगवान है इंटरनेट। यदि मैं ऐसा कह रही हूँ तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए और मैं यदि इसके इस मोबाइल नामक यँत्र की जितनी तारीफ़ करूँ कम ही होगी। लेकिन वही दूसरी ओर अब जो कुछ भी मैं कहने जा रही हूँ, वह भी इस इंटरनेट के इस मोबाइल नामक खतरनाक यँत्र की वह देंन है, जो इंटरनेट का एक बहुत ही घिनौना और भयावह रूप लेकर हमारे सामने आता है।

यह कोई आज की बात नहीं है, लेकिन आजकल इन बातों का प्रचलन पहले की तुलना में इतना अधिक बढ़ गया है कि सोचते ही रोंगटे खड़े हो जाते है। आजकल जहां देखो वहाँ हर वैबसाइट पर इस तरह के विज्ञापन आने शुरू हो जाते हैं और गलती से भी यदि मोबाइल देखते वक्त आपके अंगुलियों के स्पर्श से ऐसे किसी लिंक पर हाथ लग जाये। तो फिर तो, कहना ही क्या। तब जैसे इस तरह की सामग्री की तो जैसे बाढ़ ही आ जाती है। हर जगह बस उसी से संबन्धित विडियो ही आपके सामने आकर आपको शर्मिंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। यूं तो हम देश के विकास की बात करते है, गाँव के सुखद जीवन और ज़मीन से जुड़े रहने की बातें करते हैं, हमारे और आपके लेखन में भी गाँव की गलियों से लेकर गाँव की पगडंडियों तक का ज़िक्र होता है, खेत खलियानों का ज़िक्र होता है, गाँव की शुद्ध हवा और साधारण से देखने वाले नेक लोगों का जिक्र होता है। खेतों की बात निकलते ही हम अपने बचपन की स्मृतियों में खो जाना चाहते है। लेकिन आज इस इंटरनेट की दुनिया ने जैसे यह सब धूमिल कर के रख दिया है। आज वही गाँव के रहने वाले और साधारण से दिखने वाले लोग ही खेतों में जाकर ऐसे ऐसे अश्लील विडियो बना रहे हैं कि देखते ही, सर चकराने लगता है, आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है या फिर आँखें इस कदर चौंधिया जाती है कि दिखाई देना बंद हो जाता है और गाँव के लोगों के संस्कारों की धज्जियां बिखर जाती है। हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता की बातें जैसे मुंह छिपाने लगती है। और ऐसा सिर्फ गांवों में नहीं होता शहरों में भी बहुत बड़े दर्जे पर हो रहा है और शहरों की ही यह जहरीली हवा है जिसने गाँव की शुद्ध हवा को भी दूषित कर कचरे में गिरा दिया है।  

अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे यह सब कैसे पता ? है ना ! तो मैं यहाँ यह बताती चलूँ कि मुझे ऐसी सामग्री देखने में कोई दिलचस्पी नहीं है। लेकिन आजकल जो यह “रील” बनाने और देखने का सिलसिला चल निकला है ना ! यह बस उसी की देन है। अब कोई माने या ना माने पर सच तो यही है कि हर कोई जब भी अकेले बैठता है तो मोबाइल पर चाहे खुद रील बनाए या ना बनाए लेकिन समय काटने के लिए रील देखता ज़रूर है। और बस यही से उसकी जिंदगी बर्बाद होने की शुरुआत हो जाती है।  क्यूंकि जब तक आप अच्छी सामाग्री देख रहे हो, तब तक तो ठीक है।  लेकिन इस बीच यदि ऐसा कोई भी कनटेंट आ गया जिसे हम अश्लील की श्रेणी में रखते है तो बस समझ लीजिये फिर आपका मोबाइल इस तरह की सामग्री परोसने का गढ़ बन जाएगा और आपके मान सम्मान और प्रतिष्ठा की लंका लगा देगा। कभी कभी सोचती हूँ तो लगता है जब हम जैसों का यह हाल है तो जरा उन उम्र दराज़ व्यक्तियों के विषय में सोचिए। जिन्हें ठीक से दिखाई नहीं देता या फिर जिनकी अगुलियाँ ठीक से काम नहीं करती। जब वह बुजुर्ग लोग इंटरनेट के माध्यम से खुद को मनोरंजित करने का प्रयास करते हैं या समय काटना चाहते हैं, तो वह क्या करें ? उनके हाथों से तो अक्सर ऐसी गलतियाँ हो जाया करती हैं और हम उनके चरित्र पर तुरंत उँगलियाँ उठाने और अपशब्द कहने में देर नहीं करते।

अभी तो बात बुज़ुर्गों तक ही है। जरा युवा पीढ़ी के बारे में सोचिए। वह तो दिन रात इंटरनेट पर ही बिताते हैं। चौबीसों घंटे उनका समय चाहे पढ़ाई से संबन्धित हो या खेल से संबन्धित इंटरनेट पर ही बीतता है। क्या उनकी आँखों के सामने से यह सब नहीं गुज़रता होगा ? बिलकुल गुज़रता होगा। कई युवा तो इसी पर ध्यान देते भी होंगे, तो कई इसे नज़र आंदज करके आगे भी निकल जाते होंगे। अब जरा उन छोटे बच्चों के विषय में सोचिए, जिनके स्कूल का बहुत सा काम इंटरनेट से जुड़ा होता है। आमतौर पर हम इतने छोटे बच्चों को अलग से मोबाइल देना उचित नहीं समझते। तो वह या तो अपनी मम्मी या पापा के मोबाइल पर ही अपना सारा काम देखते समझते और करते हैं। वैसे अधिकतर मम्मियों का मोबाइल ही होता है पापा लोग अपना मोबाइल बच्चों को देना पसंद नहीं करते। शायद “चोर की दाढ़ी में तिनका” वाली कहावत यहाँ सच बैठती हो। खैर यह तो मज़ाक वाली बात हो गयी। तो हम बात कर रहे थे बच्चों की, तो बच्चे अपना सारा काम मम्मी के मोबाइल पर करने के बाद फिर थोड़ी देर मोबाइल पर खेलने की ज़िद भी करते हैं। कई बार यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म पर अपनी पसंद की कोई कार्टून फिल्म देखना भी पसंद करते हैं और आपको गाहे बगाहे उन्हें अपना मोबाइल देना ही पड़ता है। तो आपको क्या लगता है ऐसे में आपका बच्चा इस प्रकार की सामाग्री देखने से कितना सुरक्षित है क्यूंकि आप एक व्यस्क है और यूट्यूब पर कब कौन से लिंक के नीचे आपको क्या लिंक देखने को मिल जाये इस बात की गारंटी शुरू से ही यूट्यूब पर नहीं होती।   

चलिये एक बार को मान लेते हैं कि इतने छोटे बच्चे तो फिर भी इस सब से बचे रहते हैं क्यूंकि उन्हें उस दौरान केवल अपने कार्टून से मतलब होता है और किसी चीज़ से नहीं। लेकिन हमारे युवा होते बच्चों का क्या ? उनके मन में तो हार्मोनल लोचों के चलते इन सब चीजों के प्रति वैसे ही बहुत कोतूहल और जिज्ञासा पनपती रहती है। ऐसे में बिना सही जानकरी प्राप्त किए उन्हें यह सब इंटरनेट पर खुल्लमखुल्ला देखने को मिल रहा है। जिसके कारण सही जानकारी के अभाव में उन्हें पथभ्रष्ठ होने में जरा समय नहीं लगता। भले ही दिखाये जाने वाले विडियो में लड़का और लड़की किसी भी तबके या प्रांत के क्यूँ ना दिखाई दे रहे हों, भले ही लड़की को देखकर यह साफ पता चल रहा हो कि वह सभ्य परिवार की ना होकर किसी देहव्यपार वाली जगह से लायी गयी है। कौन जाने उसकी ऐसी क्या मजबूरी है जो उसे अपने काम के बदले में मिलने वाले पैसे के लिए यूं इस तरह, वीडियो में भी शामिल होकर देह प्रदर्शन भी करना मंजूर किया होगा।

खैर कारण चाहे जो भी हो, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि महिलाओं के प्रति बढ़ते बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के पीछे कहीं न कहीं इस तरह के विडियो, रील्स आदि भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जितना कि ऐसा कुकृत्य करने वाला अपराधी। क्यूंकि कहीं न कहीं पैसा कमाने के चक्कर में आज गाँव से आया सीधा सदा आदमी जब अपना परिवार गाँव में छोड़कर शहर आता है और जब यहाँ आकर उसके हाथ सफलता कम और निराशा ही ज्यादा हाथ लगती है तो वह अपराधबोध का शिकार हो जाता है फिर शहर में रहना है तो मोबाइल रोटी से अधिक अवश्यक चीज़ बन जाता है। क्यूंकि अब तो किसी कि मेहनत का मेहनताना हो या वेतन केवल मोबाइल पर ही दी जाती है। फिर यदि मेहनत करने वाली स्त्री हो तो फिर भी पैसा बचाकर अपना स्तर ऊपर उठाने का प्रयास करती है। लेकिन वहीं जब कोई पुरुष हो तो वह नशे की लत में पड़ अपना पूरा वेतन नशे की सामग्री में ही उड़ा दिया करता है और ऊपर से यह मोबाइल पर परोसे जाने वाली अश्लील सामाग्री उसे कहीं का नहीं छोड़ती। फिर वो अपना फ्रस्टेशन मिटाने के लिए मासूम लड़कियों को अपना शिकार बना डालता है।

वैसे तो इस प्रकार की भूख मिटाने के लिए ही शायद यह देहव्यापार के अड्डे बनाए गए हों। लेकिन वहाँ भी पैसा ही बोलता है और नशे में पड़े व्यक्ति के पास पैसा बचता ही कहाँ है, जो वहाँ जाकर अपनी भूख मिटा सके। फिर भूख तो भूख ही होती है जो कब  इंसान को इंसान से जानवर बना दे इस बात का पता खुद इंसान को भी नहीं चलता। अफसोस की इन भूखे भेड़ियों का शिकार बन जाती है हमारी मासूम बेटियाँ। इसलिए मैं चाहती हूँ कि साइबर सिक्योरिटी वाले इस सिलसिले में ऐसा कोई कदम उठाएँ कि इस तरह का वयस्क कंटैंट सभी के हाथों इतनी आसानी से ना पड़े  जितनी आसानी से आज के समय में उपलब्ध है ।   

वैसे तो यह बहुत ही गंभीर विषय है पर एक स्त्री होने के नाते मैंने यह विषय उठाया है तो निश्चित ही मुझ पर बहुत से सवाल उठेंगे और मेरा इस आलेख को कहीं कोई स्थान नहीं मिलेगा। क्यूंकि इसकी सामग्री में अश्लील शब्द जुड़ा है। यूं भी हमारे देश में लोग अश्लीलता देखना पसंद कर लेते हैं लेकिन पढ़ना पढ़ना कोई पसंद नहीं करता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं हमारी आजकल की फिल्में  खैर वह एक अलग मुद्दा है। लेकिन मैं तो बस इतना चाहती हूँ कि इस आलेख को कहीं ऐसी जगह स्थान अवश्य मिले जहां से यह विषय जन जन तक पहुँच सके और लोग इस विषय को गंभीरता से सोच सकें। मेरा इस आलेख के माध्यम से खुद का प्रचार प्रसार करने का कोई इरादा नहीं है। मैं तो बस विषय कि गंभीरता को आमजन तक पहुंचाना चाहती हूँ। 

तो जो कोई भी पत्र पत्रिका या समाचार पत्र मेरे ब्लॉग से ब्लॉग उठाए कृपया सूचित अवश्य करें। ताकि मुझे यह पता चल सके कि मेरा विषय आमजन तक पहुंचा या नहीं। धन्यवाद