Monday, 21 October 2013

जाने कब खुलेंगी हमारी आँखें...


मेरा बहुत ज्यादा दिमाग खराब हो जाता है जब ऐसा कुछ कहीं पढ़ने को मिले। आखिर कब समझेंगे हम यह इतनी सी बात कि सच्चा दान वही होता जिसका प्रचार न किया जाये। क्यूंकि दिखावे और आडंबरों से ना तो भगवान प्रसन्न होते हैं न इंसान, यहाँ तक कि जिस उद्देश्य को लेकर दान किया जाता है अर्थात मन की शांति वह भी दिखावे से हासिल नहीं होती।




गांधीनगर गुजरात के रूपाल गांव में नवमी पर पल्ली के रूप में माता की सवारी पर भक्तों ने साढ़े पांच लाख किलो घी चढ़ाया जिसकी कीमत करीब 16 करोड़ रुपए आंकी गई। जिसके चलते सड़कों पर मानो घी की नदियाँ बह गयी ...

हम क्या आस्था के नाम पर इतने अंधे हो गए हैं कि हमें सही और गलत में फर्क दिखना भी बंद हो गया है। खुद को पढ़ा लिखा और समझदार समझने वाले हम आप जैसे लोग ऐसी हरकतें करेंगे, मुझे तो यह सोचकर भी शर्म आती है। क्या यही एक प्रगतिशील देश की निशानी है। एक तरफ तो रुपया गिरा जा रहा है जिसके चलते महँगाई की मार से पूरा देश आहत है वहाँ दूसरी और ऐसी बरबादी। मेरी समझ में तो यह नहीं आता कि आखिर हम साबित क्या करना चाहते हैं। आस्था के नाम पर यूं भी हम खाने की बरबादी सदियों से करते चले आ रहे हैं। वह क्या कम था, जो अब घी की नदियाँ बहाने पर आमादा हो गए हैं। क्या मिलेगा इस सब से, अगर इस सब से लोग यह मानते है कि देवी प्रसन्न होंगी। तो मुझे तो यह लगता है कि बजाय इस सब से प्रसन्न होने के देवी और ज्यादा नाराज़ हो जाएंगी। अरे कभी भगवान के बारे में भी तो सोचो, उन्हें कैसा लगता होगा। वह भी तंग आ जाते होंगे एक सीमा के बाद इस तरह के अंधविश्वास और ढकोसलों से, मगर वह बोल नहीं सकते और हम मूर्खों की भांति बस लगे रहते हैं उन पर इस प्रकार अत्याचार करने। आखिर क्या वजह है, हम सब कभी यह क्यूँ नहीं सोच पाते है कि यह सब करके हम स्वयं बाक़ी देशों के सामने अपनी छवि खराब कर रहे हैं। यह सब देख सुनकर या पढ़कर हँसते होंगे अन्य देशों के लोग हमारी मूर्खता पर, यूं भी हम पहले ही सरकार, प्रशासन और कानून के मामलों को लेकर दुःखी हैं। क्यूंकि उन्हें तो आम जनता की न कभी फिक्र थी, न है। वह सदा ही केवल अपना उल्लू सीधा करने का मार्ग तलाशते रहते हैं। तो ऐसे हालातों में कम से कम हमें तो अपने आस पास के लोगों के विषय में सोचना चाहिए, पित्रपक्ष के चलते बुज़ुर्गों के श्राद्ध के बहाने न जाने कितनी बड़ी संख्या में हम अन्न की बरबादी करते है उसके बाद नवरात्रि में कन्या भोज और फिर दीपावली पर घर की साज सज्जा से लेकर आतिशबाज़ी एवं पकवान आदि का दिखावा वह भी विदेशी चीजों को लेकर यह सब क्या कम था। जो लोग अब इस तरह से घी की नदियाँ बहाने पर आमादा है। अरे अगर इतना ही पैसा है लोगों के पास तो उसे किसी महत्वपूर्ण कार्य करने में इस्तेमाल क्यूँ नहीं किया जाता हैं। 16 करोड़ कोई छोटी मोटी बात नहीं है। इतने में तो एक शहर या एक पूरे गाँव का उद्धार किया जा सकता था। कितने ही ग़रीबों को न केवल भोजन बल्कि रहने के लिए एक सुरक्षित स्थान और पहनने के लिए ढंग के कपड़े मुहैया कराये जा सकते थे। कितने ही अनाथालयों की निजी ज़रूरतों को पूरा किया जा सकता था। कितने ही बेरोज़गारों को रोजगार दिया जा सकता था। कितने ही किसान भाईयों का कर्ज़ चुकाया जा सकता था। कितने ही स्कूल खोले जा सकते थे या फिर और कुछ नहीं तो कम से कम सरकारी स्कूलों की व्यवस्था में तो सुधार लाया ही जा सकता था। हज़ारों मसले है जिन पर यदि गौर किया जाता तो शायद भगवान इस घी की नदी की तुलना में इस सबसे ज्यादा प्रसन्न होते। पर नहीं बेजान मूर्तियों पर पैसा पानी की तरह बहाना मंजूर हैं हमें, लेकिन किसी जरूरतमंद की मदद् करना तो हमारी शान के खिलाफ है। क्यूंकि किसी गरीब जरूरतमंद की मदद करने से भला हमें क्या मिलेगा। उसे तो मीडिया भी कवर नहीं करता। किसी को पता ही नहीं चलेगा कि हमने किसी के लिए कुछ किया, तो फिर इस सब का फायदा ही क्या होगा। इसे तो भगवान के नाम पर सोना चढ़ा देने से या फिर घी की नदियाँ बहाने से तो अपने आप ही मीडिया को पता चल जाएगा। तो पब्लिसिटी मिलना तय है और क्या चाहिए। आजकल तो इंसाफ़ भी बिना पब्लिसिटी के नहीं मिलता तो फिर नाम कमाने के लिए तो पब्लिसिटी अनिवार्य है और हम कह रहे हैं हो रहा भारत निर्माण वाह !!! 
जय हो... जय हिन्द..

Tuesday, 15 October 2013

क्या किसी दिन एक दशहरा ऐसा भी होगा ??


सबसे पहले तो अपने सभी मित्रों एवं पाठकों को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें



दोस्तों आज दशहरा है यानि विजय पर्व असत्य पर सत्य की विजय, पाप पर पुण्य की विजय, बुराई पर अच्छाई की विजय एवं अंहकार का नाश शायद इसलिए यह कहावत बनी होगी कि

 "घमंड तो स्वयं लंकापति रावण का भी नहीं रहा 
तो भला हम तुम क्या चीज़ हैं" 

खैर हम सब हर साल यह त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाते है, मस्ती करते हैं, आतिशबाज़ी का मज़ा उठाते है और रावण के मारे जाने का जश्न मनाते है। हम सब कुछ देखते हैं लेकिन कभी अपने अंदर ही झांक कर नहीं देख पाते कि हमारे अंदर जो अहंकार और क्रोध नामक रावण छिपा बैठा है उसका क्या ? उसका नाश कौन करेगा ?  सतयुग में उस लंकापति रावण को मारने के लिए तो स्वयं प्रभु श्री राम ने जन्म लिया था। मगर इस कलयुग में कहाँ है और कितने हैं ऐसे राम जो अपने अंदर छिपे इस रावण को मार सके। देखा जाये तो सिर्फ युग बदला है, मगर हालात आज भी वही है। पहले केवल एक रावण था इसलिए उसे मारने के लिए एक ही राम काफी थे। मगर आज हजारों लाखों नहीं बल्कि शायद इसे भी कहीं ज्यादा रावण फैले हुये हैं हमारे समाज में, मगर राम का कहीं आता पता नहीं, पग-पग पर सीता का हरण हो रहा है, कहीं हरण तो कहीं बलात्कार तो कहीं एसिड हमले, तो कहीं भूर्ण हत्याएँ, तो कहीं दहेज के नाम पर आहुति या तंदूर, चारों ओर से सीता आहत है और सहायता के लिए चीख चीख कर गुहार कर रही है कि "हे राम एक बार फिर जन्म लो इस धरती पर, और यदि नहीं आ सकते तुम तो अपने किसी दूत को ही भेज दो और बचा लो इस लोक की हर सीता की लाज ....

मगर जाने क्यूँ खामोश है राम शायद मौन रहकर भी यह कहना चाहते है वह कि

 हे मनुष्य राम और रावण दोनों तेरे अंदर ही है, 
खोल अपने मन की आँखें और देख, कर खुद से इंसाफ 
और
 हे सीता तेरे अंदर भी है वास स्वयं माँ दुर्गा का, अरी तू तो खुद वह शक्ति है 
जिसका आशीर्वाद पाकर ही मैं लंकेश पर विजय पा सका था। 
 तुझे तो किसी राम की जरूरत ही नहीं है 
अगर तुझे जरूरत है, 
तो केवल खुद को पहचानने की जरूरत है

मगर आज का मानव जैसे बहरा हो गया है। उसे अब न कुछ दिखाई देता है और ना ही कुछ सुनाई देता है।चंद सिक्कों की खनक में सब कुछ कहीं खो सा गया है, तो कहीं आत्म केन्द्रित हो गया है मन, जहां सिर्फ अपने घर की सीता की फिक्र तो सभी को है। पर राह चलती स्त्री तो जनता का माल है। ठीक बहती हुई उस नदी की तरह जिसमें सब हाथ धो लेना चाहते है। मगर उस आम सी नदी को कोई गंगा बनाना नहीं चाहता। अरे बनाना तो दूर की बात है उसे तो कोई आगे बढ़कर मैली होने से बचाना भी नहीं चाहता। कहने में बहुत कड़वा है मगर सच यही है। एक कड़वा और खौफ़नाक सच जिसे अनदेखा, अनसुना कर हम मनाते हैं हर रोज़ जश्न विजयपर्व का, मगर अब इस पर्व के मायने पूर्णतः बदल गए हैं। अब पाप पर पुण्य की विजय नहीं होती, बल्कि अब पुण्य पर पाप की विजय होती है। 

अरे माना कि वक्त किसी के लिए नहीं ठहरता, वक्त का पहिया सदा ही चलता रहता है। फिर चाहे कोई भी आए इस दुनिया में या कोई भी चला जाये, वक्त को कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर हमें तो इंसान होने के नाते फर्क पड़ना चाहिए न? किन्तु क्यूँ हमें फर्क क्यूँ पड़े... जाने वाला यदि हमारे परिवार का सदस्य होता तो शायद हमें एक बार को थोड़ा बहुत फर्क पड़ भी जाता। मगर ऐसा तो है नहीं, तो फिर हम भला क्यूँ अपनी खुशियाँ मनाने से रुकें। खुद ही देख लो पिछले कुछ सालों में क्या-क्या नहीं हो गया कहीं 26/11, कसाब कांड, 16 दिसंबर 2012 दामिनी कांड, 2013 में केदारनाथ कांड और आए दिन होते सहसत्रों अपराध और पाप जिसके कारण हर दूसरे से तीसरे परिवार में कोई न कोई प्राणी दुखी है। खासकर एसिड हमले से पीड़ित सभी लड़कियों से मेरी दिली हमदर्दी है। किसी की पूरी ज़िंदगी उजड़ गयी और हम खुशियाँ माना रहे है। सच किस मिट्टी के बने हैं हम, कि अब हमें कोई फर्क ही नहीं पड़ता है। कितने कठोर, कितने असंवेदनशील कब से और कैसे हो गए हैं हम...    

अरे मैं यह नहीं कहती कि त्यौहार मत मनाओ, मनाओ, खूब मनाओ, मगर क्या सादगी और शांति से कोई त्यौहार नहीं मनाया जा सकता। हर बार, हर साल, हर त्यौहार पर क्या शोर शराबे के साथ दिखावा करना ज़रूरी है। क्या सादगी और शांति के साथ कोई त्यौहार नहीं मनाया जा सकता। मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना है दोस्तों कि जब देश और उसके देशवासी हर रोज़ किसी न किसी भयंकर घटना या दुर्घटना से जूझ रहे हों, तब क्या हम सभी देशवासियों का यह फर्ज़ नहीं बनता कि हम अपने उन देशवासियों के दुख में शरीक होकर उन्हें सांत्वना एवं सहानुभूति के रूप में कुछ खुशी दे। ताकि वह भी अपने दुख से बाहर आकर जीवन में आगे बढ़ सकें जिन्होंने उस आपदा को झेला है। ज्यादा कुछ ना सही मगर इतना तो कर ही सकते हैं आज हम सब एक प्रण लें कि जिस दिन, एक भी साल ऐसा आयेगा जब देश किसी विकट समस्या या त्रासदी से नहीं गुजरेगा, जब कहीं किसी भी स्त्री के मन में असुरक्षा का भाव नहीं होगा। जब न मारी जाएंगी बेटियाँ खोख में,जब न जलेंगी लड़कियां दहेज की आग में, जब न होगा फिर कभी किसी सीता का हरण,जब न कहलायेंगी एक बोझ बेटियाँ... तब उस साल मनायेंगे, हम सभी "त्यौहार ज़िंदगी का" तभी होगी सही मायने में बुराई पर अच्छाई की विजय और तभी मनेगा, सही मायनों में दशहरा ....क्या कभी कोई दशहरा ऐसा भी होगा ?? जय हिन्द.. 

Wednesday, 2 October 2013

आखिर क्यूँ ? और कब तक ?


सच न जाने कब बदलेगी हमारी मानसिकता, कभी बदलेगी भी या नहीं ?? वर्तमान हालातों को देखते हुए तो यही लगता है कि हमारी स्थिति धोबी के कुत्ते की तरह हो गयी है "ना घर की न घाट की" यह लिखते हुए भी अच्छा नहीं लग रहा है। मगर क्या करूँ जब कभी कहीं ऐसा कुछ पढ़ने या सुनने को मिल जाता है तो दिमाग खराब हो जाता है मेरा और ऐसी स्थिति में लिखे बिना भी दिल नहीं मानता। अभी निर्भाया कांड का मामला पूरी तरह शांत भी नहीं हुआ और टीवी वाले लगे हैं अपनी TRP बढ़ाने। यह सब देखकर लगता है कितने असंवेदन शील हो गए हैं हम और हमारा समाज आपस का जुड़ाव तो जैसे अब बिलकुल ही खतम हो गया है। सही कहा था निर्भया के दोस्त ने कि सिर्फ कानून को बदलने से कुछ नहीं होने वाला है, जरूरत है हमें अपनी मानसिकता बदलने कि क्यूंकि वर्तमान हालातों में हम ही एक दूसरे से जुड़े हुए ही नहीं है। तो भला ऐसे में हम किसी और से बदलाव की उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं। 

रोज़ महिला उत्पीड़न से जुड़ी कोई न कोई ख़बर पढ़ने को मिलती है। कहीं किसी को जला दिया कहीं किसी को मारा पिटा गया, कहीं बलात्कार, तो कहीं एसिड हमले यह सिलसिला कहीं थमने का नाम ही नहीं लेता उलटा रोज़ कोई नया ही किस्सा सामने लाता है। कब तक चलेगा ऐसा, कहने को हम सो कॉल्ड आधुनिक समाज में जी रहे हैं। पर वास्तविकता यह है कि आज हम ना तो पूरी तरह हिन्दुस्तानी ही बचे है और ना ही पूरी तरह विदेशी ही हो पाये हैं।

खासकर जब बात बच्चों की परवरिश पर आती है, तब सभी खुद को बहुत मोर्डन और खुली मानसिकता वाला दिखाना चाहते हैं। हर कोई यही कहता नज़र आता है कि देखो हमने आज तक कोई फर्क नहीं किया अपने बच्चों में हमारे लिए तो बेटा-बेटी एक समान है। मगर वास्तविकता कुछ और ही होती है। लड़कों के मामले में हम बहुत खुले होते हैं। मगर लड़की की बात आते ही कहीं न कहीं थोड़ी सिकुड़ जाती है, हमारी यह सो कॉल्ड खुली मानसिकता। कुछ लोग लड़कियों को लड़कों की तरह पालते है। यह सच है और कुछ हद तक सही भी, लेकिन कोई भी लड़कों को लड़कियों की तरह क्यूँ नहीं पलता ??? कहने का तात्पर्य यह है कि लड़कियों को संवेदनशील बनाने के चक्कर में हम उनकी परवरिश में ना चाहते हुए हुए भी वो सब बातें भरते चलते जाते हैं, जिनकी शायद अब जरूरत भी नहीं रही है। मगर लड़कों के साथ हम ऐसा नहीं कर पाते...क्यूँ ?? मुझे ऐसा लगता है कि शायद यह भी कारण हो सकता है आज के असंवेदन शील समाज का जिसके चलते लड़कों के अंदर इतनी क्रूरता भर गयी है कि वह लड़की को इंसान तक नहीं समझते, इसलिए ज़रा-ज़रा सी बातों पर इतना चिड़ जाते हैं कि बात उनके अहम पर आ जाती है। जिसके चलते उनमें इतना आक्रोश भर जाता है कि उन्हें सही गलत अच्छे बुरे परिणाम तक की परवाह नहीं रहती और नतीजा या तो एसिड अटैक या फिर बलात्कार...

आखिर ऐसा क्यूँ ? और कब तक ? कब तक किसी दूसरे की गलतियों की सज़ा भुगतेंगी लड़कियां लेकिन विडम्बना देखिये की आए दिन ऐसे घिनौने अपराधों के बाद भी लोग बातें करते हैं कि बलात्कार जैसी समस्या से निपटने का सही तरीका है बाल विवाह कर दो...अब यह कौन सी बात हुई भला ?? पहली बात तो यह कि यह बात ही सरासर गलत है। लेकिन फिर भी यदि एक बार को सोचना भी चाहो तो ऐसा लगता है कि मसले के हल में भी केवल लड़कों के विषय में सोचा गया लड़कियों के विषय में नहीं...फिर चाहे वो हल गलत है यहा सही यह तो दूर की बात है और हम बड़े गर्व से कहते हैं कि हम प्रगतिशील देश के नागरिका है। मैं जानती हूँ कोई भी परिवर्तन एक दिन में नहीं लाया जा सकता। किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए सामाजिक एकता का होना सब से ज्यादा अनिवार्य बात होती है। मगर इन मामलों में मुझे नहीं लगता कि कुछ भी परिवर्तन कभी आयेगा या आ सकता है कभी, क्यूंकि जब तक यह पुरुष प्रधान मानसिकता नहीं बदल जाती, तब तक हम चाहे कुछ भी करलें, लड़के लड़कियों का भेद कभी नहीं मिट सकता।

चारों और बस मतभेद ही मतभेद हैं, कहीं लड़के लड़कियों के बीच के मतभेद कहीं पारिवारिक मतभेद कहीं राजनैतिक मत भेद...ऐसा लगता है पूरे देश में केवल समस्याएँ ही समस्याएँ फैली हुई हैं। मगर उनका समाधान कोई नहीं है। जबकि शायद आधी से ज्यादा ऐसी समस्याएँ हैं जिनका समाधान सिर्फ और सिर्फ हमारे पास हैं। मगर हम हमेशा की तरह अपनी जिम्मेदारियों से मुँह फेर कर, अपने किए का घड़ा सरकार और प्रशासन पर फोड़कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। क्यूँ ?? कब वो दिन आयेगा जब हम अपने बेटों को भी बेटियों कि तरह व्यवहार करना सिखाना शुरू करेंगे। कब हम हमेशा यह कहने के बाजये कि यह हमारी बेटी नहीं यह तो हमारा बेटा है कि जगह यह कहेंगे कि यह हमारा बेटा हमारे लिए दोनों हैं। क्या कभी मिट पाएगा हमारे देश और हमारे समाज से, यह बेटे बेटी का फर्क ? 

अरे इस सब से तो यहाँ के लोग अच्छे हैं कम से कम यहाँ किसी भी बात को लेकर लोगों के मन में किसी भी तरह का दुराव छुपाव तो नहीं है। जो है सो है, फिर चाहे वो लिविंग रिलेशन शिप हो, या इंटर कास्ट मैरेज, या फिर समलैंगिक विवाह, जो भी होता है खुले आम होता है। यह सोचकर और देखकर कम से कम एक बात की संतुष्टि तो मिलती है मुझे कि चाहे जो भी है, मगर कम से कम अधर में तो नहीं लटके हैं न यह विदेशी, हमारी तरह...काश इनकी नकल करने के बजाये हम इनसे यह समानता का भाव सीख पाते तो शायद आज हमारे देश की बेटियाँ भी कुछ हद तक खुद को सुरक्षित समझ पाती और अपनी ज़िंदगी खुद अपने ढंग और मन मर्ज़ी से जी पाती।

माना के यहाँ भी सब कुछ इतना अच्छा भी नहीं है, बहुत सी बुराइयाँ भी है यहाँ, समानता के चक्कर में लोग आन्धे यहाँ भी हैं। बलात्कार जैसे घिनौने अपराध यहाँ भी होते हैं। मगर बुराइयाँ कहाँ नहीं होती। यह तो हमारी समझ पर निर्भर करता है कि हम क्या चुनते हैं और हमने जो चुना वह थी केवल नकल, मात्र दिखवा। उसके पीछे जुड़े लॉजिक को तो हमने कभी देखने समझने की कोशिश ही नहीं कि केवल लड़कियों को पढ़ा देने से या जीन्स पहना देने से आप खुली मानसिकता के दायरे में नहीं आ जाते। क्यूंकि खुली मानसिकता का अधार आधुनिक चाल चलन को अपना लेना मात्र नहीं है, बल्कि अपने दिमाग को खोलना है। उसका कपड़ों या पढ़ाई लिखाई से कोई संबंध नहीं है। बड़े बड़े विद्वान और ज्ञानियों की कमी नहीं है हमारे यहाँ, मगर यदि खुली मानसिकता कि बात करें, तो शायद वह आज भी नाम मात्र की ही मिलेगी वह भी वक्त और जरूरत के मुताबिक बदलती हुई। मैंने पहले भी कई बार लिखा है और आज एक बार फिर मैं यह कहना चाहूंगी कि इसे तो अच्छे और कहीं ज्यादा मोर्डन हम पहले थे। कम से कम एक तरफ तो थे। आज तो हम कहीं के नहीं है ना पिछड़े ना आधुनिक और यही हाल रहा, तो अब वो दिन दूर नहीं जब इसी तरह एक दिन हमारी संस्कृति और सभ्यता जिस पर हम नाज़ करते हैं वह हमेशा-हमेशा के लिए कहीं गुम हो कर रह जाएगी। जय हिन्द