Thursday, 25 April 2013

अब बस बहुत हो चुका ....



अभी लोग दामिनी कांड को भूले भी नहीं थे कि एक और शर्मनाक वाक्या हो गया (गुड़िया)। ना जाने क्या हो गया है दिल्ली वालों को, बल्कि अकेली दिल्ली ही क्यूँ, हमारे समाज में ऐसे अपराधों की वृद्धि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जा रही है। फिर क्या दिल्ली, क्या मुंबई और क्या बिहार, इस कदर संवेदन हीन हो गया है इंसान कि उसकी सोचने समझने शक्ति जैसे नष्ट ही हो गयी है। शर्म आनी चाहिए इस पुरुष प्रधान देश के पुरुषों को जो इस कदर गिर गए हैं कि एक पाँच साल की मासूम बच्ची तक को नहीं बख़्शा गया। हालांकी ऐसा पहली बार नहीं हुआ है पहले भी इस तरह के कई मामले सामने आ चुके हैं। खास कर दामिनी कांड के बाद तो जैसे अपराधियों ने इस बात की घोषणा ही कर दी है, कि हम नहीं रुकेंगे, जो बन पड़े वो कर लो।

समझ नहीं आता आखिर कहाँ जा रहे हैं हम ? एक वक्त था पहले, जब कभी ऐसा कोई किस्सा सुनने में आता था, तो ऐसा लगता था कि सेक्स के वशीभूत होकर नशे की हालत में किसी से यह अपराध हो गया होगा। क्यूंकि अक्सर पीकर बहक जाते हैं लोग, लेकिन फिर भी इस तरह के घिनौने अपराध कम ही सुनने को मिला करते थे। मगर आज तो इस तरह के समाचार जैसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन गए हैं। जिन्हें पढ़कर और सुनकर ऐसा लगता है कि यदि एक दिन भूल से भी ऐसा हो गया ना कि किसी भी समाचार पत्र में इस तरह की कोई खबर ही न हो, तो शायद खाना ही हज़म नहीं होगा।

सेक्स के लिए ऐसी घटनाओं का होना समझ आता है, लेकिन एक छोटी सी मासूम बच्ची के साथ यह वहशीपन करने के पीछे भला क्या कारण हो सकता है? आखिर कहाँ गलती हो रही है हमसे, जो आज के नव युवक इस कदर बहक रहे हैं कि अपनी हवस मिटाने के लिए उन्हें बस शरीर की जरूरत है। फिर चाहे वह विकसित हो या ना हो, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे तो यह हवस का कारण भी नहीं लगता। मेरी समझ से तो यह एक विकृत मानसिकता है जो दिनों दिन जंगल में लगी आग की तरह फैलती जा रही है। एक बीमारी एक महामारी की तरह जिसका इलाज होना बहुत ज़रूरी है और वो तभी हो सकता है। जब कुछ एक कारणो पर सख्ती बरती जाये।

समाज और कानून एक होकर आगे बढ़े और इस घिनौनी मानसिकता का इलाज करें। जैसे समाज को चाहिए कि एक जुट होकर ऐसे दरिंदों के खिलाफ आवाज उठाएँ और पीड़िता और उसके परिवार को यह होसला दें कि वह इस समाज में अकेले और असहाय नहीं है। बल्कि पूरा समाज उनसे सहानुभूति रखता है और उन्हें इंसाफ दिलाने में उनके साथ है और कानून को चाहिए कि ऐसे अपराधों को गंभीरता से लें और अपने सोये हुये ईमान को जगाकर जनता की मदद करें, साथ ही अपराधी को जनता के सामने ही कड़ी से कड़ी सज़ा दें। ताकि अन्य आपराधिक मानसिकता वाले लोगों में कानून के प्रति एक डर पैदा हो सके और जनता को क़ानून पर भरोसा बरक़रार रहे और कोई भी दरिंदा किसी भी महिला या बच्ची की अस्मिता से खेलने से पहले 100 बार नहीं बल्कि लाखों बार सोचे।

मगर आज जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए तो बस यही लगता है कि यह तो बस ख़्वाबों और ख्यालों की बातें हैं। क्यूंकि सच का चेहरा उतना ही भयानक है, जितनी किसी झूठ की खूबसूरती हुआ करती है। वर्तमान हालातों को देखते हुए अब कानून का मुंह देखना नासमझी होगी। अब तो महिलाओं को ही खुद कोई सशक्त कदम उठाना होगा। तभी कुछ होगा या हो सकता है। बस अब बहुत हो गया पीड़ित बनकर इस अंधे कानून के आगे रोना धोना और इंसाफ के लिए गिड़गिड़ाना। अब रोने की नहीं बल्कि रुलाने की बारी है, फिर चाहे कानून को ही हाथ में क्यूँ ना लेने पड़े। अब अपने लिए खुद ही लड़ने का वक्त आ गया है, फिर एक बार झाँसी की रानी को जगाने का वक्त आ गया है। अब करो या मरो वाली स्थिति उत्पन्न हो चली है दोस्तों, अब चूड़ियों से सजे हाथों में हथियार सजाने का वक्त आ गया है। क्यूंकि अब चूड़िया खुद नहीं पहननी है हमें, बल्कि उनको पहनाना है जो ऐसे घृणित और अमानवीय काम को अंजाम देने के बाद पुरुषार्थ का दंभ भरा करते है। अब उनको यह दिखाने और समझाने का वक्त आ गया है कि पुरुषार्थ का अर्थ बलात्कार करना नहीं होता। बल्कि हर नारी का सम्मान करना होता है और उसके मान सम्मान की रक्षा करना होता है। उस पर अत्याचार करना फिर चाहे वो घरेलू हिंसा हो या बलात्कार जैसे गंभीर मुद्दे पुरुषार्थ को नहीं दर्शाते, बल्कि एक पुरुष की कायरता को दर्शाते है।

कुछ लोग ऐसी कोई पोस्ट लिखते समय "जागो नारी जागो" जैसे जुमलों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन मैं आज इसका उल्टा लिखूँगी "जागो पुरुषों जागो" इस से पहले कि दुनिया भर की सभी नारियां हर एक पुरुष को शक की नज़र से देखना आरंभ कर दें, तुम खुद ही अपने समूह में झांक कर "भेड़ की खाल में छुपे भेड़ियों" को पहचानो और उन्हें सजा देकर अपनी पहचान बनाओ वरना जिस तेज़ी से वर्तमान हालातों में महिलाओं और बच्चियों पर जुल्म हो रहे है। ऐसे में वह दिन दूर नहीं जब शरीफों को भी शक की नज़र से देखा जाएगा। क्यूंकि वर्तमान हालातों के चलते महिलाओं के मन में पुरुषों के प्रति एक डर भर दिया है। जिसके चलते अब लोग अपने अपनों पर ही विश्वास करने से डरने लगे हैं, तो फिर परायों की तो बात ही क्या...

अरे तुम ने भगवान राम जैसे मर्यादा पुरुषोतम की सर जमीन पर जन्म लिया है और किसी का नहीं तो कम से कम उनका तो लिहाज़ करो। अगर इतना ही घमड़ है तुम्हें अपने पुरुषार्थ पर, अपने बाहुबल पर तो उसका इस्तेमाल अपने देश की तरक्की के लिए क्यूँ नहीं करते? अपने अपनों की सुरक्षा के लिए क्यूँ नहीं करते? बेगुनाह मासूम औरतों और बच्चियों पर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देकर भला कौन से पुरुषार्थ का दंभ भरते हो तुम ? और क्या मिल जाता है भला तुम्हें यह घिनौने काम को अंजाम देकर? क्या ऐसी झूठी जीत पर अपने अहम को संतुष्ट करते हो तुम...!!! या फिर पचा नहीं पा रहे हो, एक स्त्री का यूं तुम्हारे साथ-साथ कदम दर कदम चलना और आसमान की ऊंचाइयों को छु लेना। क्या महज़ अपनी इस एक कुंठा को संतुष्ट करने के लिए ईर्ष्या और बदले की आग में जल रहे अपने स्वः की संतुष्टि कर रहे हो तुम ? या फिर अपने अहम को एक झूठा दिलासा देने के लिए किया करते हो तुम यह कुकर्म ??? ताकि अब भी खुद को दिलासा दे सको कि यह समाज अब पुरुष प्रधान समाज न रहकर धीरे-धीरे ही सही मगर स्त्री प्रधान हो चला है जो तुम से देखा नहीं जा रहा है।

अगर उपरोक्त कथन में लिखी यह अंतिम पंक्तियाँ ही तुम्हारे जीवन की सच्चाई है तो उठो, अपनी आँखों के साथ-साथ अपना दिमाग भी खोलो और सोचो यह दुनिया, यह समाज सबके लिए हैं और जब ईश्वर ने सभी को समान रूप से बनाया है तो भला स्त्री और पुरुष में भेद करने वाले हम कौन होते हैं। क्यूंकि स्त्री और पुरुष तो एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह है। एक के बिना दूसरा पहलू हमेशा अधूरा था, अधूरा है और अधूरा ही रहेगा। यदि नारी न होगी तो तुम भी न होगे। इसलिए हर एक नारी का सम्मान करो, कोई नारी यह नहीं चाहती कि तुम उसे देवी बनाकर पूजो, बल्कि वह तो केवल इतना चाहती है कि उसे भी एक इंसान समझ कर जीने दो। उसे भी उसके हिस्से का आकाश दो, पंख फैलाने के लिए। उसे भी एक स्व्छंद माहौल दो, खुली हवा में सांस लेने के लिए। उसे भी खुलके जीने दो ज़िंदगी, देखने दो यह दुनिया अर्थात "जियो और जीने दो" की तर्ज़ पर चलो और एक बार फिर इस दुनिया को स्वर्ग बना दो जहां किसी को किसी से कोई डर न हो। अगर कुछ हो तो अमन हो, चैन हो, प्यार का पैगाम हो। जहां हर औरत, हर स्त्री, हर माता, हर बहन एवं हर बेटी की आँखों में हर पुरुष के प्रति केवल मान हो सम्मान हो।  डर ना हो। जय हिन्द।   

Monday, 15 April 2013

मास्टर शैफ़ और थोड़ा सा आश्चर्य


सोमवार को जब मास्टर शैफ़ इंडिया का पिज्जा वाला एपिसोड देखा और यह जाना कि खोकू नाम की एक प्रतिभागी ने कभी पिज्जा खाया ही नहीं तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ, ज्यादा इसलिए नहीं हुआ क्यूंकि मैं जानती हूँ कि हमारे देश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसे आमतौर पर दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती और जिन्हें होती है उनके लिए भी दो वक्त की रोटी जुटाना आसान काम नहीं है। तो फिर ऐसे में पिज्जा खाने के बारे में सोचना भी एक सपने के जैसी बात है।

खैर अब सभी यही कह रहे हैं कि हमारा देश तेज़ी से प्रगति की और बढ़ रहा है धीरे-धीरे न सिर्फ लोगों की सोच में परिवर्तन आ रहा है बल्कि लोगों के रहन सहन एवं खान पान में भी परिवर्तन हो रहा है अच्छी सेहत बनाने और स्वस्थ रहने की तरफ भी लोगों का रुझान बढ़ रहा है। हर कोई कैलौरी की तरफ ध्यान देकर ही खाना पीना पसंद कर रहा है। लोग वापस व्यायाम के पुराने तरीकों पर आकर स्वस्थ लाभ के लिए आयुर्वेद और योगा इत्यादि अपना रहे हैं।

लेकिन वहीं दूसरी और जिस विपरीत आबो हवा की नकल करने के चक्कर में हम बह रहे हैं जिसके चलते पिज्जा और बर्गर जैसी चीज़ें खाना मोर्डन होने की श्रेणी में आता है उसे भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन यदि यहाँ की बात कि जाये तो यहाँ उल्टा ही है। यहाँ की सरकार परेशान है कि यहाँ के गरीब तबके के बच्चे खाने के मामले में सस्ता होने के कारण इस कदर जंक फूड खा रहे हैं कि बच्चों में ओबेसिटी यानी मोटापे की समस्या दिनों-दिन तेज़ी से बढ़ रही है। जिसे न सिर्फ मोटापा बल्कि मोटापे से संबन्धित कई अन्य गंभीर बीमारियाँ भी बढ़ रही है। जैसे शक्कर की बीमारी अर्थात diabetes  ह्रदय संबंधी रोग इत्यादि क्यूंकि पहले ही यहाँ मौसम के चलते बच्चों का बाहर जाकर खेलना कूदना बंद रहता है। ऊपर से यह जंक फूड रही सही कसर पूरी कर रहा है और खाने के मामले में तो आप सभी जानते ही हैं कि यहाँ के लोग मांस के नाम पर कुछ भी खा सकते है, फिर क्या मुर्गा, मच्छी और क्या भेड़, सूअर और गाय और इस बार तो हद ही हो गयी कुछ कंपनियों के बर्गर में घोड़े तक के मांस के अंश पाये गये।

अब जहां खाने के मामलों में ऐसे हालात हों वहाँ किसी के विषय में ऐसा सुनो कि उसने पिज्जा जैसी आम चीज़ नहीं खाई तो थोड़ा आश्चर्य तो बनता है भाई :-) इसलिए भईया हमने तो यह सोचा है कि यह सब चीज़ें कभी-कभी मूड बदलने या मजबूरी के चलते खाने के लिए ही ठीक हैं और ज्यादा हो तो छोटी-मोटी पार्टी के लिए ठीक हैं। वो क्या कहते हैं उसे गेट टुगेदर के लिए ही ठीक हैं। रोज़ के खाने में तो अपना "सादा जीवन उच्च विचार" ही भला "दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ".... और वैसे भी जो बात अपने हिन्दुस्तानी घर के बने सादे खाने में है वो छप्पन भोग में भी कहाँ। वैसे घर में पिज्जा बनाने की अच्छी और आसान तरकीब सीखा गया यह एपिसोड अब कभी मैं भी कोशिश करूंगी शायद इस बहाने बदलाव के लिए अपने बेटे को हरी सब्जी खिला सकूँ। क्यूंकि पिज्जा और बर्गर हम कभी-कभी ही खाते है इंसलिए इन सब में तो जैसे उसकी जान बस्ती है।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है यदि गलती से भी मैंने उसको पिज्जा और बर्गर रोज़ खाने की अनुमति दे दी तो फिर वो कभी घर का खाना खाएगा ही नहीं, मगर मैं जानती हूँ कि ऐसा सिर्फ लगता है। ऐसा होगा नहीं क्यूंकि यह चीज़ें बच्चों के मन को आकर्षित तो बहुत करती हैं। लेकिन उनका मन भर भी उतनी ही जल्दी जाता है वैसे यदि यही चीज़ें घर में सेहत को ध्यान में रखते हुए चतुराई के साथ सेहतमंद चीजों से बनाई जाये तो उसमें कोई बुराई भी नहीं है क्यूंकि बच्चों को तो हर दो चार दिन में कुछ नया चाहिए होता है खासकर जब इन चीजों से मन भर जाये तब तो सादे दाल चावल भी पकवान से कम नहीं लगते है ना !!! :)

वैसे चलते-चलते एक छोटा सा टिप देने का बड़ा मन हो रहा है, आप भी यदि घर में पिज्जा बनाने के विषय में सोच रहें हैं तो क्यूँ न उसका बेस भी भरवां परांठे की तरह बनाया जाये और फिर उसे पिज्जा का रंग रूप दिया जाये फिर चाहे आप ऊपर से उसमें केवल चीज़ और टमाटर का ही स्वाद और रंग रूप क्यूँ न दें अंदर तो हरी सब्जी होगी ही इस तरह "एक पंथ दो काज हो जाएँगे"। है न कमाल की टिप ट्राइ कीजिये और अपने अनुभव बाँटिए फिलहाल अभी के लिए जय हिंद :)      
      

Tuesday, 2 April 2013

वैल्यू ऑफ लाइफ कहाँ है...देश में या विदेश में ?

आखिर क्या है यह "वैल्यू ऑफ लाइफ" इस विषय को लेकर हर एक इंसान की नज़र में उसके अपने मत अनुसार अलग-अलग अर्थ है या हो सकते है। जैसे किसी की नज़र में वैल्यू ऑफ लाइफ का अर्थ है असमानता में समानता का होना जैसे यहाँ हर काम को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है यहाँ काम के नज़रिये से कोई छोटा या बड़ा नहीं है या फिर कुछ लोग इस विषय को निजी जरूरत के आधार पर भी देखते हैं। जैसे यहाँ बिजली, पानी,सड़क यातायात व्यवस्था इत्यादि की कोई समस्या नहीं है ऐसे में बहुतों की नज़र में यह वैल्यू ऑफ लाइफ से जुड़े हुए मुद्दे का एक बड़ा कारण हो सकता है। लेकिन यदि मैं अपने नज़रिये और अपने अनुभव की बात करूँ तो मेरे लिए वैल्यू ऑफ लाइफ है अनुभव के आधार पर ज़िंदगी को सीखना। यानी  ज़िंदगी की जगदोजहद को खुद अनुभव करते हुए जीना ही वैल्यू ऑफ लाइफ है।

वैसे आज कल के माहोल का तो सिर्फ सुना-सुना है कि अब देश और विदेश में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। यह बात कहाँ तक सही है, यह मैं नहीं जानती। क्यूंकि मैं काफी समय से बाहर ही हूँ और यदि छुट्टियों में भारत आती भी हूँ, तो केवल एक महीने के लिए और उसमें भी अधिकतर समय नाते रिश्तेदारों से मिलने जुलने में ही निकल जाता है। इसलिए बहुत समय हो गया किसी भी एक शहर को या वहाँ की ज़िंदगी को करीब से देखे हुए अब तो मनस पटल पर केवल गुजरे हुए वक्त की छवि ही उभर कर आती है और ऐसा ही लगता है

"नदी सुनहरी अंबर नीला
 हर मौसम रंगीला 
ऐसा देस है मेरा हो ऐसा देस है मेरा" 

यूँ भी होली का त्यौहार नज़दीक आ रहा है तो रंगों का ज़िक्र होना स्वाभाविक ही है। क्यूंकि यह रंगों भरा त्यौहार अपने आप में बहुत सारे संदेश छिपाये हुए आता है और इन रंगों में हर दिल रंग जाने को चाहता है हालांकी अब तो त्यौहारों के मनाये जाने में भी बहुत फर्क आ गया है। अब शायद त्यौहारों में भी पहले की भांति वह सादगी और वह अपनापन नहीं बचा है जो किसी ज़माने में हुआ करता था। अब तो सब कुछ जैसे महज़ एक औपचारिकता रह गयी है, हर काम की फिर चाहे वह त्यौहार हों या नाते रिश्ते सभी पर प्यार का रंग कम और औपचारिकता रंग ज्यादा मात्रा में चढ़ा हुआ प्रतीत होता है।

यूँ भी आए दिन होते अपराधों में इजाफ़े के चलते अब केवल माता-पिता के आलवा किसी और रिश्ते पर विश्वास करने को दिल नहीं करता। अब तो बस ऐसा लगता है कि हर रिश्ते में राजनीति छिपी हुई है।  जिसको देखो बस अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। सभी जैसे शेर की खाल में छिपे हुए भेड़िये की तरह बर्ताव करते नज़र आते है। कब कौन कहाँ गिरगिट की भांति अपना रंग बदल ले कोई भरोसा नहीं, ऐसे हालातों में कभी-कभी यदि वापस आने के विषय में ख्याल भी आता है, तो लोगों से एक ही बात सुनने को मिलती है कि अब यहाँ पहले जैसा कुछ बाकी नहीं है। सब बदल चुका है, यहाँ तक कि भोपाल के लोग भी यह कहते है कि अब भोपाल भी महानगरों की ज़िंदगी के ढर्रे पर आ गया है और महानगर उस से भी दो कदम आगे बढ़ गए है। इसलिए यदि तुम पहले वाली दुनिया समझकर वापस आने का सोच भी रहे हो, तो मत सोचो जहां हो वहीं अच्छे हो। क्यूंकि यहाँ की स्थिति दिन-ब-दिन धोबी के कुत्ते की तरह होती जा रही है।

"न घर की ना घाट की" 

अर्थात विदेशी आबोहवा के चलते अब यहाँ के लोग न यहाँ के रह गए हैं और ना ही वहाँ के, बीच की स्थिति है जो कभी सही नहीं होती। सुनकर बहुत अफ़सोस हुआ, मन भी उदास हुआ, क्यूंकि मेरा मानना तो अब भी यही है कि ज़िंदगी का असली सुख इंडिया में ही है। क्यूंकि वहाँ इंसान अपने अनुभवों से ज्यादा सीखता है कि ज़िंदगी किस चिड़िया का नाम है और मैं भी वही चाहती हूँ कि मेरा बेटा भी ज़िंदगी के हर पड़ाव को हर परिस्थिति को खुद अपने अनुभवों से देखे, समझे और उससे कुछ सीखे क्यूंकि यहाँ ज़िंदगी मुझे वैल्यू ऑफ लाइफ की तरह नज़र आती है और अधिकतर लोगों को लगता भी ऐसा ही है कि यहाँ विदेश में इंसान की ज़िंदगी की कोई कीमत है जो हिंदुस्तान में नहीं है।

हो सकता है कुछ हद तक यह बात सच भी हो। क्यूंकि यहाँ हर चीज़ अनुशासनबद्ध है साथ ही यदि खाने पीने के विषय में भी बात की जाये तो अधिकतर चीज़ें यहाँ दूसरे देशों से  ही आती है अर्थात आयात होती है तो उनकी गुणवत्ता का अच्छा होना स्वाभाविक है और यदि उन्हें यहाँ के पैसों की नज़र से देखो तो बहुत मंहगी भी नहीं लगती। कई और भी कारण है जो इस वैल्यू ऑफ लाइफ के फर्क को दर्शाते हैं। ऐसा मुझे लगता है हो सकता है औरों को ऐसा ना भी लगता हो, आखिर अपना-अपना मत है इसलिए इस विषय पर विचारों का द्वंद भी स्वाभाविक है।

मगर मेरी नज़र में तो तजुर्बों और अनुभवों से सीखना ही ज़िंदगी है गिरकर संभालना और फिर एक नयी शुरुआत करना ही ज़िंदगी है और ऐसे अनुभव यहाँ कम ही देखने को मिलते हैं। वैसे ढूंढो तो शायद ऐसे किस्से यहाँ भी मिल जाये क्यूंकि वह कहते है ना कि "ढूँढने से तो भगवान भी मिल जाते है" लेकिन मैंने ढूंढा नहीं, क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है कि ऐसे बहुत ही कम अभिभावक होंगे जो अपने बच्चों को जानबूझकर गिरने और फिर संभालने का मौका देना चाहते होंगे। क्यूंकि माता-पिता प्यार की वो मूरत होते हैं, जो सपने में भी कभी अपने बच्चे को चोट लगते हुए नहीं देख सकते। तो फिर वास्तविक ज़िंदगी की बात तो बहुत दूर की बात है।

हालांकी अभी मेरा बेटा इन सब चीजों के लिए तैयार नहीं है। अर्थात अभी तो वह बहुत छोटा है, मगर कभी कभी जब वापस आने के विषय में सोचती हूँ तो उसकी बातों को लेकर लगने लगता है कि अब कहाँ रहना है यह गंभीरता से सोचना ही होगा। वरना अभी नहीं सोचा तो शायद बहुत देर न हो जाये। खासकर यह बात बड़े-बड़े त्यौहारों पर बहुत कचौटती है क्यूंकि मैं अकेली उसे लाख बताऊँ, समझाऊँ कि हमारे त्यौहार क्या है कब और क्यूँ मनाए जाते हैं। उसके पीछे कौन सी कहानी के रूप में कौन सा संदेश छिपा है उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्यूंकि उसे ऐसा माहौल ही नहीं मिलता कि वह इन बातों पर ध्यान दे और कुछ समझे, या सीख सके। न जाने और भी कितनी ही ऐसी बाते हैं जो इस असमंजस में डाल देती हैं मुझे कि वैल्यू ऑफ लाइफ यहाँ है या वहाँ अपने हिंदुस्तान में है या अब कहीं भी नहीं है।