लेकिन राजस्थान में ऐसा नहीं है। वहाँ के लोगों में आज भी उनके पहनावे, उनकी बोली, उनके लोक नृत्य और संगीत में उनकी पहचान बखूबी दिखायी देती है। जिसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये कम है। उसी राज्य का एक छोटा सा शहर चित्तौड़गढ़ जो ना जाने अपने अंदर कितनी ही गौरव गाथाओं को समेटे हुए है। यूं तो इसका इतिहास आपको इंटरनेट पर ढूँढने से भी मिल जायेगा। किन्तु मैं यहाँ अपने राजस्थान भ्रमण की यात्रा के कुछ अनुभव सांझा करने जा रही हूँ। लेकिन खुद को उस गौरव शाली इतिहास का अंश मात्र भी समझने के लिए, उसे महसूस करने के लिए और उस पर गर्व से सर उठाकर यह कहने के लिए कि आप उस देश के वासी हैं, जहां भारत माता के ऐसे सपूतों ने जन्म लिया, जिनका नाम भर सुनने मात्र से आपके के मन में देश भक्ति की भावना जागृत हो उठती है।
महाराणा प्रताप के पिता जी उदयसिंग जी का शहर चित्तौड़गढ़, रानी पद्मावती का गढ़ चित्तौड़गढ़ और क्या कहूँ बस यादें ही घूम रही है आँखों में इस वक़्त।
खैर बात 2016 की है जब हम ने राजस्थान घूमने का तय किया दिसंबर का महिना था। घर से निकलते ही अर्थात हमें अपने शहर पुणे से निकलर मुंबई जाना था। यूं तो हम हवाई यात्रा भी कर सकते थे पर मुझे अधिकतर रेल यात्रा ही पसंद आती है। उस रोज़ भी हमें मुंबई से ट्रेन पकडनी थी रात में ही ना जाने कहाँ खो गया था मन, इसी बीच मुंबई पुणे हाइवे पर वाहनों की आवा जाही को देखते हुए भी महसूस हुआ ईश्वर का नाम और उसके प्रति लोगों का अटूट विश्वास देखकर ही मन में यह विचार आया कि वाहन आदि पर अंकित ईश्वर का नाम या फिर उन महानुभाव का नाम को आम जन के लिए ईश्वर तुल्य हैं, सिर्फ दिखावे या अंधविश्वास का प्रतीक नहीं होते। बल्कि वह प्रतीक होते हैं उस अटल विश्वास और आस्था का, कि चाहे उनकी यात्रा कहीं की भी हो, कैसे भी हो किन्तु उनका ईश्वर उनका गुरु, सदा उनके साथ है ,उनके पास है। गोल घुमावदार रास्तों और ऊँची ऊँची चट्टानों को पीछे छोड़ते हुए हम बस आगे की और चले जा रहे थे।
बीच में पड़ती लम्बी अँधेरी टनल और उसमें चल रही गाड़ियों की टिम टिमाती लाल पीली बातियाँ कुछ कुछ बचपन के वह दिन याद दिला रही थी जब सर्दियों में रज़ाई के अंदर टॉर्च जलाकर घंटो बातें किया करते थे। कुछ ऐसी ही यादों में कट गया समय और हम पहुँच गए मुंबई के बांद्रा स्टेशन। वहाँ यात्रियों का कोलाहल और राजस्थान जाने की उत्सुकता ने एक अजीब सी खुशी का संचार कर दिया था मेरे अंदर और इसलिए यह कह पाना बहुत कठिन है मेरे लिए कि मैं उस वक्त क्या महसूस कर रही थी। बस इतना कह सकती हूँ कि मैं बहुत उत्साहित थी किसी छोटे बच्चे की तरह, फिर क्या था कुछ ही समय बाद रेल चली रास्ते भर ना जाने कितने गाँव, शहर और प्राकृतिक सुंदरता का रसपान करने को मिला। तीन अलग राज्यों के विभिन्न संस्कृति को देखने समझने का अनुभव हुआ।
महाराष्ट्र का तो पहले से ही था क्यूँकि हम रहते वही हैं। किन्तु इस यात्रा के दौरान गुजरात और राजस्थान का भी अनुभव हुआ। हालांकि गुजरात के तो कुछ ही शहरों को छुआ रेल ने लेकिन वहाँ के लोगो जो हमारे साथ उसी रेल में यात्रा कर रहे थे, उनकी बोली और पहनावे से गुजरात की सभ्यता और संस्कृति की झलक देखने को मिल रही थी। कहीं एक दम मीठा तो कहीं एकदम तीखा जैसा मुझे पसंद है। जैसा स्वाद भी मिला खाने को, भला इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। नहीं....! जैसे जैसे रेल आगे बढ़ती गयी, वैसे वैसे यात्रियों की बोली और पहनावा ही उनकी पहचान बताने लगा था।
यूँ ही यात्रा का आनंद लेते-लेते हम लोग रात के तीन बजे पहुँचे चित्तौड़गढ़, अब आप लोग सोच सकते हैं एक तो पहले ही राजस्थान, ऊपर से दिसंबर का महिना और रात के तीन बजे का समय भाई साहब...कड़ाके की ठंड और हम महाराष्ट्र वासी जो बिचारे कभी ठंड का अनुभव ही नहीं कर पाते। उनके लिए कैसी ठंड रही होगी, ऊपर से देर रात के चलते वहाँ कि आम जनता कंबल और वह पतली वाली राजई वो क्या कहते हैं उसे ....वही ओढ़े घूम रहे थे सब के सब ऐसे संदिग्ध दिखाई दे रहे थे, कि पूछिये ही मत। गर्म कपड़े एवं कंबल आदि से इतने ज्यादा ढके हुए थे लोग कि ना तो उनका चेहरा ही दिखाई देता था ना शरीर केवल आवाज़ ही सुनाई देती थी।
हम लोग उतरते ही ठंड से काँप उठे थे। इसलिए पहले यह तय हुआ कि पहले चाय पी जायेगी फिर होटल की ओर रवाना हुआ जाएगा। सो भईया पहले चाय पी गयी। फिर वहीं गरम कपड़े जैसे जैकेट, स्वेटर आदि निकाले गए जो मैंने पहले ही ऊपर रखे हुए थे और डटा लिए गए। सो चाय के समापन के बाद चला कारवां आगे। जो सीधा होटल पहुंचा चार बजे। वहाँ पहुँचते से ही चेक-इन करने के बाद दो घंटे आराम करने के उठे, फिर नहा धोकर नाश्ता किया और सबसे पहले चित्तौढ़गढ़ का किला घूमना तय हुआ। सफर की थकान के कारण हमें निकलने में देर हो गयी निकलना था 9 बजे किन्तु 10 बज चुके थे। राजस्थान में उन दिनों, दिन तो गरम था, किन्तु रात उतनी ही ठंडी हुआ करती थी।
खैर वहाँ पहुँचकर मन का उत्साह इतना था मानो आज ही किसी एतिहासिक व्यक्ति से भेंट हो जायेगी। सब जानते हैं ऐसा कुछ नहीं होना था, यह तो बस मन का उत्साह और कहानियाँ पढ़-पढ़कर कल्पनाओं में बने चरित्रों की देन थी।
अब बात आती है मेवाड़ की राजधानी कहे जाने वाले उस शहर की जिसे हम सब चित्तौड़गढ़ के नाम से जानते हैं और वहीं बना है वो भव्य चित्तौड़ का किला जिसे देखने के लिए आज भी सैलानी हर साल दूर दूर से आते हैं। जहां का गौरव शाली इतिहास आज भी उन्हें अपनी ओर खींच खींच कर बुलाता है। वह भव्य किला जो 700 एकड़ ज़मीन में फैला हुआ है। जिसे देखने के लिए आपको सर्व प्रथम नीचे से टिकट लेना होगा। किले तक पहुंचने का रास्ता आसान नहीं है। आपको यहाँ पहुँचने के लिए एक खड़े और गुमादार रास्ते से एक मील चलना होता है। इस किले के 7 नुकीले दरवाजे हैं। जिनका नाम हिन्दू देवताओं के नाम पर रखा गया है। इतना ही नहीं इस किले के अंदर महारानी पद्मिनी और महाराणा कुंभा के भव्य महल भी है। दुर्ग के मुख्य द्वार में प्रवेश करने से पहले आपको सात 7 द्वार पार करने पड़ते है, जिन्हे पोल कहा जाता है। पदन पोल, भैरों पोल, हनुमान पोल, गणेश पोल, जोरला पोल, लक्ष्मण पोल और आखिरी राम पोल। जो नीचे से शुरू होते हैं, अरे...अरे घबराई ये नहीं ...टॅक्सी/टेम्पो ऊपर तक जाती है। आपको पैदल चलने की जरूरत नहीं है। यह सात द्वार पार कर लेने के बाद ही मुख्य द्वार में प्रवेश मिलता है। इन सातों द्वारों को पार करने का रास्ता घुमादार बनाया गया है। ताकि दुश्मन आसानी से किसी भी द्वार को भेद कर किले के अंदर प्रवेश ना कर सके।....सो हमने भी अपनी यात्रा नीचे से आरंभ की और बीच-बीच रुककर देखा हर एक द्वार को और पहुँच गए ऊपर फिर क्या हुआ यह जानने के लिए प्रतीक्षा कीजिये ।
आगे आँखों देखा हाल अर्थात अपना अनुभव अगले भाग में ....