Friday, 7 March 2014

दिवस नहीं अधिकार मनाएं महिलाएं...


हम अपने आसपास के लोगों के जीवन-स्तर को देखकर ही सम्‍पूर्ण समाज को उस स्‍तर पर ला खड़े करते हैं। और उसी स्तर पर हो रहे विकास को देखते हैं। जबकि उस निर्धारित स्तर से ऊपर या नीचे भी जीवन चलायमान होता है। उधर हमारी नज़र जाती ही नहीं। जाती भी है तो उस जीवन की कठिनाइयों को दूर करने के कोई प्रयास नहीं होते। आज कितने लोग होंगे, जो घर की बहू-बेटियों की तरह ही घर की कामवाली बाई की इज्‍जत करते होंगे। शायद उंगलियों में गिनने लायक। घरेलू हिंसा से पीड़ित बाई अपने नीले-पीले शरीर को दिखाकर जब हमारे सामने रोती-बिलखती है, तो भी सालों हमारी सेवा करनेवाली बाई के लिए हम कुछ नहीं कर पाते। क्योंकि हम कानूनी पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहते।

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दिवस नहीं अधिकार मनाएं महिलाएं

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महिला दिवस आने को है। हर वर्ष की तरह इस बार भी इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जाएगा। महिला मुक्ति मोर्चा या महिला सशक्तिकरण संस्थाएँ एक बार फिर खुलकर समाज विरोध-प्रदर्शन करेंगी। जगह-जगह महिलाओं के हक में अभियान चलाए जाएँगे। मीडिया भी ‘गुलाब गेंग’ फिल्म के साथ ना सिर्फ इस विषय को बल्कि इस दिन को भी भुनायेगा। कुछ दिनों के लिए लोग जोश और आक्रोश से भरकर इस दिशा में कुछ सकारात्मक कदम उठाने का प्रण भी लेंगे। लेकिन कुछ दिनों में ही सारा जोश ठंडा पड़ जाएगा और सभी की ज़िंदगी वापस ढर्रे पर जहां की तहां आ जाएगी। हर साल यही होता आया है और शायद यही होता रहेगा।

मेरे लिखे पर भी यह बात लागू होती है। अमूमन तो मैं इस तरह का दिवस मनाने में कोई विश्वास नहीं रखती लेकिन फिर भी कभी-कभी वर्तमान हालातों के बारे में सोचकर ऐसा कुछ मन में आने लगता है कि वह किसी न किसी दिवस के साथ स्वतः ही जुड़ जाता है। अब इस महिला दिवस को ही ले लीजिये। महिलाओं के अधिकारों के लिए क्या कुछ नहीं किया सरकार ने। फिर चाहे वो महिलाओं की सुरक्षा का मामला हो या फिर संसद से लेकर सभी निजी व सरकारी संस्‍थानों में कोटे का, लेकिन जो भी हुआ वो सिर्फ कागज़ों पर। हक़ीक़त में तो कुछ हुआ ही नहीं। हो भी कैसे। सरकार को तो राजनीतिक खेलों से ही फुर्सत नहीं। उनके लिए तो यह देश एक शतरंज की बिसात है और मासूम जनता उस बिसात की मोहरें। एक ऐसा जंग का मैदान जहां हर कोई राजनेता केवल अपने लिए खेलना चाहता है। जनता और देश जाये भाड़ में।  सभी को केवल अपना मतलब साधना है।  इसलिए तो आए दिन देश के टुकड़े हो रहे हैं। कभी खुद देशवासी ही आपस में लड़-लड़कर अपना एक अलग राज्य बनाने को आतुर हैं। तो कहीं बाहरी देशों के लोग अपने घर में घुसकर अपनी सीमा बाँध रहे हैं। जब जिसका जैसा जी चाहा, उसने जनता को प्यादा जानकार अपनी मनमर्ज़ी की और आज भी कर रहे हैं।

इसी तरह यह महिलाओं का मामला है। इनकी स्थिति में पहले से काफी सुधार है। यह बात जितनी कहने और सुनने में आसान लगती है,वास्तव में उतनी है नहीं। इसके अनगिनत उदाहरण हैं। जेसिका लाल हत्‍याकाण्‍ड हो या निर्भया कांड, किस्‍सों की भरमार है। ये क़िस्से महिलाओं की तथाकथित तरक्की या उन्नति पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं।

कहने को महिलाएं पहले की तुलना में पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बन गईं हैं, लेकिन मैं पूछना चाहती हूँ कि ऐसी पढ़ाई, आत्मनिर्भरता किस काम की, जो उन्‍हें हरदम असुरक्षा में होने का अहसास कराए। इससे अच्छा तो महारानी लक्ष्मी बाई का ज़माना था। तब औरतों को पढ़ाई-लिखाई के साथ शस्त्रविद्या भी प्रदान की जाती थी ताकि वक्त आने पर हर नारी अपने शत्रु को मुँह तोड़ जवाब दे सके। इसीलिए कोई अंग्रेज़ उनकी ओर आँख उठाकर देखने की हिम्मत भी न कर सका।

एक वो दौर था और एक यह दौर है। जब हम आज से ज्यादा पहले अच्छे थे तो फिर क्यूँ भूल गए अपनी वो सभ्यता, संस्कृति जिसमें एक स्त्री को पुरुषों के समान हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी जाती थी। ऐसे में सवाल उठने लाजिमी हैं कि क्‍यों आज की नारी पढ़-लिखकर केवल पैसा कमाने तक ही सीमित है? आज भी एक नारी को अपनी सुरक्षा के लिए किसी पुरुष या किसी न्याय व्यवस्था की जरूरत क्‍यों है? यदि ऐसा है तो फिर क्या फायदा नाममात्र का महिला दिवस मनाने का।

वास्तव में महिलाओं का कोई दिवस हो या न हो, मेरी नज़र में केवल पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े हो जाना ही नारी के सम्मान के लिए पर्याप्त नहीं है। जब तक नारी को घर-परिवार, समाज और कार्यक्षेत्र में सम्मान सहित एक सुरक्षित माहौल नहीं मिलता, तब तक महिला दिवस मनाना कोरी औपचारिकता ही रहेगा। महिला दिवस पर जिन महिलाओं पर ध्‍यानाकर्षण होता है वे केवल मध्यम वर्गीय परिवार की बहू-बेटियाँ ही नहीं है। बल्कि इनमें वे भी शामिल हैं, जो लोगों के घर-घर जाकर चौका-बर्तन, साफ-सफाई के कार्य कर रही हैं। निर्माणाधीन भवनों, घरों में ईंट-गारा, मिट्टी-पत्थर ढो रही हैं। उनके अधिकारों के लिए क्‍या महिला दिवस अलग से आयोजित किया जाएगा? उनकी सुरक्षा, स्वास्थ,  जीवन के बारे में कैसे सोचा जाएगा? उन बच्चियों पर कैसे विचार होगा, जो सड़कों पर भीख मांगा करती हैं या फिर बाल-विवाह में बंधकर परिवार का भार संभालती हैं? क्या वे हमारे समाज का हिस्सा नहीं हैं? क्या उनकी सुरक्षा, उनका जीवन हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है?

हम अपने आसपास के लोगों के जीवन-स्तर को देखकर ही सम्‍पूर्ण समाज को उस स्‍तर पर ला खड़े करते हैं। और उसी स्तर पर हो रहे विकास को देखते हैं। जबकि उस निर्धारित स्तर से ऊपर या नीचे भी जीवन चलायमान होता है। उधर हमारी नज़र जाती ही नहीं। जाती भी है तो उस जीवन की कठिनाइयों को दूर करने के कोई प्रयास नहीं होते। आज कितने लोग होंगे, जो घर की बहू-बेटियों की तरह ही घर की कामवाली बाई की इज्‍जत करते होंगे। शायद उंगलियों में गिनने लायक। घरेलू हिंसा से पीड़ित बाई अपने नीले-पीले शरीर को दिखाकर जब हमारे सामने रोती-बिलखती है, तो भी सालों हमारी सेवा करनेवाली बाई के लिए हम कुछ नहीं कर पाते। क्योंकि हम कानूनी पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहते।

सिर्फ आधुनिक कपड़े पहन लेने, पब में शराब-सिगरेट पीने, पुरुषों के साथ शिक्षा ग्रहण करने और उनकी तरह व्यवहार करने से महिलाओं की प्रगति प्रकट नहीं होती। यह सब उनके अधिकारों की श्रेणी में नहीं आता। फिर भी सभ्य कहा जानेवाला समाज का वर्ग इन्हीं सब बातों को महिला अधिकारों में गिनता है। जबकि सही मायनों में समान अधिकार का मतलब पुरुष-महिला के एकसमान सामाजिक व सरकारी अधिकार एवं कर्तव्‍य से है।  किसी भी स्त्री की प्रगति तब ही होगी जब उसे खुद को सफल दिखाने के लिए आधुनिक आडंबरों की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब बिन बताए, जताए हरेक पुरुष और खुद नारियां भी पूरे सम्मान के साथ उसके अधिकारों का पालन करेंगी।

Saturday, 1 March 2014

विज्ञापन का असर...


बहुत याद आता है वो गुज़रा ज़माना। वो होली के रंग, वो दीवाली के दिये। वो संक्रांति की पतंग, वो गणेश उत्सव की धूम, वो नवरात्रि में गरबे के रंग, वो पकवानों की महक, वो गली की चाट, वो मटके की कुल्फी और भी न जाने क्या-क्या....ज़िंदगी तो जैसे आज भी वहीं बस्ती है। 

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विज्ञापन का असर

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कल टीवी पर एक विज्ञापन देखा विज्ञापन एक आटा बनाने वाली कंपनी का था। नाम था चैंपियन आटा। शुरू-शुरू में जब यहां पर ऐसे आटा दाल चावल मसाले के विज्ञापन देखा करते थे तो बहुत हंसी आती थी। जाने क्यूँ तब इस तरह के विज्ञापन देखना बड़ा अजीब लगता था। हालांकी तब अपने यहाँ भी एम.डी.एच के मसालों के विज्ञापन और शायद पिल्सबरी आटे का विज्ञापन आया करता था। अब भी आता है या नहीं पता नहीं। तब यह उतना अजीब नहीं लगता था जितना यहाँ आने के बाद लगा। खैर उस विज्ञापन के माध्यम से यह संदेश दिया जा रहा था कि यदि आप इस आटे से बनी रोटियाँ बनाकर खाओगे तो अपने पिंड की याद में खो जाओगे और यहाँ ना सिर्फ अपने देश बल्कि अपने अपनों से हुई दूरी को भी कम महसूस करोगे।

यह सब देखकर कई बार सोचो तो आज भी यहाँ रहना ऐसा ही लगता है, जैसे किसी गाँव के व्यक्ति को अपना गाँव छोड़कर शहर में रहने में लगता होगा। हाँ यह बात अलग है कि हिंदुस्तान में भी अब वो पुराना भारत नहीं बसता। जिसकी मिट्टी से अपने देश की सभ्यता और संस्कृति की भीनी –भीनी महक आया करती थी। ठीक उसी तरह विदेश का यह शहर लंदन भी अब विदेश नहीं लगता। इसलिए नहीं कि अब मुझे यहाँ रहने की आदत हो गयी है। बल्कि इसलिए क्योंकि अब यहाँ विदेशी कहे जाने वाले (गोरे) खुद अपने ही देश में विदेशियों की भांति ही इक्का दुक्का नज़र आते है और जो वास्तव में यहाँ के लिए विदेशी है। जैसे हम हिन्दुस्तानी उनकी तो यहाँ जैसे भरमार है। लेकिन आज जब दोनों ही देशों में खान पान से लेकर रहन सहन तक सब एक सा हो चला है। उसके बावजूद भी भारतीय लोगों में विदेश आने का आकर्षण कम होता नज़र नहीं आता। देश प्रेम या अपनी मिट्टी से जुड़ी भावनाएं तो अब केवल किताबी बातें बनकर रह गयी है। वास्तविक ज़िंदगी से तो अब इनका दूर-दूर तक कोई नाता नज़र नहीं आता। आ भी कैसे सकता है क्योंकि अब तो किताबों का भी वास्तविक ज़िंदगी से कोई वास्ता ही नहीं रहा। तो फिर किताबी बातों का कहाँ से रहेगा।

लेकिन दुःख केवल इस बात का होता है कि आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हर इंसान का ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ही एक मात्र उदेश्य बनकर रह गया है। इसके अतिरिक्त किसी की भी ज़िंदगी में और कुछ बचा ही नहीं है। अब केवल पैसा ही ज़िंदगी है। पहले लोग जरूरत के लिए पैसा कमाते थे। अब पैसा ही जरूरत बन गया है। अब यह सरकार और प्रशासन की अनदेखी का नतीजा है। या विदेशों का आकर्षण ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। इस सब में बहुत से लोग (समूह या विभाग) जिम्मेदार है। इसलिए यहाँ किसी एक का नाम लेकर दोषारोपण करना उचित नहीं लगता। जाने क्यूँ आज भी आम लोगों को ऐसा लगता है कि विदेशों में तो जैसे पैसा बरसता है। मगर वास्तव में ऐसा है नहीं।  हाँ इतना ज़रूर है कि यहाँ और वहाँ की विनिमय दर में अंतर होने के कारण शायद आप यहाँ, वहाँ के मुकाबले थोड़ा ज्यादा पैसा बचा सकते हो। लेकिन फिर यहाँ के खर्चे भी तो वैसे ही होते है, जैसी आपकी आय। फिर क्यूँ हम भारतीय अपना देश छोड़कर बाहर विदेश जाने को व्याकुल हैं। भारतीय इसलिए कहा क्योंकि भारत के लोग ही ऐसे है जो दुनिया के लगभग हर देश में बसते हैं।

लेकिन यहाँ सोचने वाली बात यह है कि गाँव छोड़कर शहर आकर हमने या हमारे बुज़ुर्गों ने जो कुछ भी अनुभव किया वो क्या कम था जो अब हम देश छोड़कर विदेश जाकर करना चाहते है। जिस तरह एक गाँव से जुड़े व्यक्ति को शहर की आबो हवा रास नहीं आती और उसे हर पल अपने गाँव की याद सताती है। ठीक उसी तरह एक सच्चे हिन्दुस्तानी को यहाँ (लंदन) अपने देश की याद बहुत सताती है। जबकि अब यहाँ हर वो सुविधा है जो अपने यहाँ है (कुछ एक चीजों को छोड़कर) फिर भी अपना देश अपना ही होता है। लेकिन उसके बावजूद भी जब याद आती है अपने अपनों की, अपने समाज, अपने तीज त्यौहारों की, तब ऐसे ही अपने देश की बनी चीजों से काम चलाकर ही भारी मन से एक औपचारिक भाव लिए अपने मन के साथ-साथ घरवालों का दिल भी बहलाना पड़ता है।

default3तब बहुत याद आता है वो गुज़रा ज़माना। वो होली के रंग, वो दीवाली के दिये। वो संक्रांति की पतंग, वो गणेश उत्सव की धूम, वो नवरात्रि में गरबे के रंग, वो पकवानों की महक, वो गली की चाट, वो मटके की कुल्फी और भी न जाने क्या-क्या....ज़िंदगी तो जैसे आज भी वहीं बस्ती है। मगर यहाँ यह सब पूरा होता है ‘हल्दी राम के संग’ यानी ‘होली के रंग हल्दी राम के बने पकवानों के संग’ मिठाई हो या भरवा पराँठे हल्दी राम ही है यहाँ जो सब कुछ है बनाते, या फिर भारतीय पकवान बनाने वाली अन्य कंपनीयां। फिर क्या होली की गुजिया और क्या माँ के हाथों से बने आलू गोभी के भरवां पराँठे। ‘दूध दही और मक्खन घी की जगह तो अब (लो फेट) ने ले ली’। ‘चाय भी हो गयी अब केटली की सहेली’।

समझ नहीं आता जब इतना याद आता है अपना देश और मन को भाता नहीं परदेस तो फिर क्यूँ हमने मन मारकर जीना सीख लिया। क्यूँ ज़िंदगी को जीने के बजाय एक बोझ समझकर ढ़ोना सीख लिया। कहने वाले तो अब यही कहते है कि अब भारत में भी वो भारत नहीं बसता जिसकी बातें हम तुम करते है। यहाँ भी अब वही हाल है विदेशों की नकल करने में हो रही हड़ताल है। पर जाने क्यूँ अब भी मेरा मन कहता है। भारत , भारत ही रहता है। भारत में अब भारत ना भी रहता हो शायद, पर हर भारतीय के दिल में भारत अब भी रहता है। भारत का भारत में ही अब शायद कुछ ना रहा हो बाकी। जैसे किसी नेता या अभिनेता की खादी या कानून के रखवालों की ख़ाकी। किन्तु विदेश में रहना वाला कोई भी इंसान चाहे हिन्दुस्तानी हो या पाकिस्तानी, देसी हो या विदेशी, जिस तरह कभी अपना नाम पता, जाती धर्म नहीं भूलता। ठीक उसी तरह वह चाहे नागरिकता कहीं की  भी ले ले मगर अपने वतन को नहीं भूलता।

तभी तो लोग विदेशों में रहकर भी अपने बच्चों के दिलों में अपने देश धर्म की शमा जलाए रखना चाहते हैं। उन्हें अपने देश की सभ्यता और संस्कृति से वाकिफ़ कर के रखना चाहते है। फिर आगे भले ही उनकी वो संतान अपनी आने वाली पीढ़ी को वो धरोहर दे न दे। लेकिन मैं एक बात दावे के साथ कह सकती हूँ कि विदेशों में बसने वाले मुझ जैसे प्रवासी भारतीयों की चाहे जो भी मजबूरियाँ हों, जिनके चलते वह अपना देश छोड़कर विदेशों में रहने को मजबूर हैं मगर उनमें से जितने भी मेरी बात से सहमत है और मुझ जैसी सोच रखते है वह सभी आज न सही किन्तु अपने जीवन के अंतिम पड़ाव (बुढ़ापे) के क्षण अपने ही देश में बिताना पसंद करेंगे। नहीं ? जय हिन्द....