मुझे शिकायत है और शायद यह आलेख पढ़ने के बाद आप सबको भी हो, कि क्यूँ हमारे समाज में हर चीज़ का घड़ा केवल स्त्री के सर ही फोड़ा जाता है। वजह चाहे जो भी हो, किसी न किसी रूप में उसके पीछे हमेशा कोई न कोई स्त्री को ही जिम्मेदार क्यूँ ठहराया जाता है। ऐसा नहीं है कि मैं कोई नारी मुक्ति मोर्चा के किसी सदस्य कि तरह बात कर रही हूँ। या फिर स्त्री को बेचारा दिखाने का मेरा कोई इरादा है। ना बिलकुल नहीं!!! स्त्री बेचारी नहीं है वह तो लोगों ने उसकी परिस्थितियों को मार्मिक ढंग से लिख-लिख कर उसे बेचारा बना दिया है। क्यूंकि जो खुद अंदर से कमजोर होता है, वही सामने वाले को कमजोर और बेचारा दिखाने की कोशिश करता है। जैसा कि हमारा यह पुरुष प्रधान समाज किया करता है। क्यूंकि वह खुद बहुत अच्छे से जानता है कि नारी शक्ति क्या है। यदि अपने पर उतर आए तो क्या नहीं हो सकती।
मगर क्या करने हम स्त्रियाँ होती ही ऐसी बेबकूफ़ हैं,कि हमेशा खुद से पहले औरों के बारे में सोचती है, कि कहीं हमारे कारण किसी और को तो कोई परेशानी नहीं हो रही है। इसलिए उदाहरण के तौर पर हम से जब कभी भूल वश भी यदि कोई रोटी जल जाती है तो उसे हम खुद ले लिया करते है और सामने वाले को हमेशा अच्छी-अच्छी ही दिया करते है फिर वो चाहे हमारे परिवार का कोई भी सदस्य क्यूँ ना हो, आपने भी यह साधारण सी बात अपने-अपने घरों में अवश्य देखी होगी, जबकि यह तो केवल एक उदहारण मात्र है। हम ऐसे परित्याग बचपन से कर रहे होते हैं कभी बहन बनकर तो कभी बेटी बनकर...मगर तब भी हमेशा हमें सुनने को क्या मिलता है, कोई बात नहीं यह तो तुम्हारा धर्म है कर्तव्य है। क्या सारे कर्तव्य और धर्म केवल स्त्री के लिए ही हैं पुरुष के लिए नहीं??? यह सब पढ़कर आप सभी को लग रहा होगा शायद कि मैं किसी नारी मुक्ति मोर्चा केंद्र के सदस्य की तरह बात कर रही हूँ। जबकि मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ कि ऐसा क्यूँ होता है कि हर बुरी बात के पीछे स्त्री की सोच का होना ही माना जाता है। लेकिन हर अच्छी बात में स्त्री का हाथ होते हुए भी बहुत कम ही मुद्दों पर किसी स्त्री को सराहा जाता है। अभी कुछ दिन पहले की बात है मैंने कहीं पढ़ा था कि
"हर स्त्री अपने पुत्र को श्रवणकुमार बनाना चाहती है
किन्तु अपने पति को श्रवणकुमार बनते हुए देख नहीं सकती"
यह पढ़कर मुझे कितना अफसोस हुआ यह मैं आपको बता नहीं सकती। क्यूंकि मैं खुद भी एक स्त्री हूँ। ऐसा कहने वाले ने एक बार भी क्या यह सोचा होगा कि कभी यही बात उसकी अपनी माँ पर भी लागू हुई होगी। शायद नहीं....क्यूंकि यह पुरुष प्रधान समाज अपने पर कोई बात आने ही कहाँ देता है। यह तो सदैव उस ही मौके की तलाश में रहता है, कि कब किसी भी घटना का दारोमदार किसी स्त्री पर डाला जा सके और अपना दामन साफ हो जाये। जैसा कि इस कथन के रचियता ने किया। यह किसने कहा मुझे नहीं मालूम, न ही मुझे यह मालूम करना है। मगर जिसने भी कहा ठीक नहीं कहा क्यूंकि इस बात के लिए केवल एक स्त्री जिम्मेदार नहीं हो सकती। पहले अपने बच्चे को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और अच्छी नौकरी दिलाने के चक्करों में अभिभावक ही अपने बच्चे को अपने आप से दूर भेजते हैं और जब उनका बच्चा अलग रहकर उस माहौल में पूरी तरह ढल जाता है तब उसकी शादी के बाद जब वही बच्चा नौकरी के कारण और शायद कुछ हद तक परिवारिक जिम्मेदारियों के चलते ,चाहते हुए भी अपने माता-पिता के साथ नहीं रह पाता तो भी लोगों की नज़रों बहू ही बुरी बनती है लोग यही कहते है और सोचते हैं, कि हो न हो बहू नहीं चाहती होगी, कि हमारा बेटा हमारे पास रहे वगैरा-वगैरा....
यानि इस बात का घड़ा भी इस समाज ने एक स्त्री के सर ही फोड़ा चाहे भले ही इसमें उस स्त्री का कोई हाथ हो या न हो, आखिर यह कहाँ तक सही है। माना कि बदलती जीवन शैली और आधुनिकता की होड में कुछ लोग भटक गए हैं। उनमें कुछ स्त्रियाँ भी हैं जो हकीकत में यही चाहती है। मगर कुछ मुट्ठी भर लोगों के लिए घर परिवार की हर एक स्त्री को एक ही नज़र से देखना भी भला कहाँ तक ठीक है। मुझे तो यह समझ नहीं आता कि बदलाव की उम्मीद हम हमेशा सामने वाले से ही क्यूँ किया करते हैं। आज कल सयुंक्त परिवार तो रहे नहीं लेकिन जब थे तब भी आधी से ज्यादा समस्याओं का कारण स्त्री को ही ठहराया जाता था और अब जब एकल परिवार हो गयें हैं तब भी उसका जिम्मेदार अधिकतर स्त्री को ही ठहराया जाता है। आखिर क्यूँ ? और कब तक ? क्या सबके पीछे केवल स्त्री ही होती है पुरुष नहीं हो सकता किसी समस्या का कारण ?
मैं कहती हूँ, कि श्रवण कुमार बनना आखिर है क्या ?? यह एक सोच है या एक भावना और यदि यह एक भावना है तो ऐसी भावना का भला क्या फायदा जो किसी के समझने या कहने मात्र से बदल जाए। क्यूंकि लोग तो यही मानते हैं, कि यदि कोई ऐसा श्रवणकुमार नहीं बन पा रहा है, तो उसके पीछे ज़रूर उसकी पत्नी का ही हाथ होगा ज़रूर उसने ही बहकाया या भड़काया होगा हमारे बेटे को साथ न रहने के लिए, जबकि यह तो ऐसी भावना होनी चाहिए जो अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा के समान हो। जो किसी के कहने से बदल न सके फिर कहने वाला इंसान आपकी पत्नी ही क्यूँ न हो। क्यूंकि श्रद्धा भी ऐसी भावना है, जो किसी दूसरे के कहने से उत्पन्न नहीं हो सकती और ना ही किसी दूसरे के कहने से ख़त्म ही हो सकती है। वह अपने आप ही ह्रदय से उत्पन्न होती है और यदि ऐसा न हो तो भक्ति करना महज़ एक दिखावा होता है। जिसका कोई मूल्य नहीं करो या ना करो सब बराबर है। बल्कि सच तो यह है कि सच्ची भक्ति-भावना के लिए इंसान को भगवान की मूर्ति की भी जरूरत नहीं, ना ही दिशा की ही जरूरत है, जरूरत है तो केवल सच्ची श्रद्धा और विश्वास की होती है। फिर आप जहां चाहें वही उस परमात्मा के प्रति उसका आभार प्रकट कर सकते हैं। तब न आपको किसी मंदिर की जरूरत है ना ही मस्जिद की, ना ही वहाँ मूर्ति का होना जरूरी है और न ही समय और दिशा का होना। क्यूंकि ईश्वर या खुदा को तो केवल सच्ची श्रद्धा के दो फूल चाहिए ...ठीक उसी तरह अभिभावकों के प्रति श्रवणकुमार सी श्रद्धा रखने के लिए भी उनके पास रहना ज़रूर नहीं दूर रहकर भी उनके बताये हुए आदर्शों पर चलते हुए उनके मान सम्मान का ख़याल रखना ही अपने-आप में श्रवणकुमार की सी भावना रखता है।
आपको क्या लगता है ? :-)