Monday, 30 January 2012

आखिर क्यूँ और कब तक ....



मुझे शिकायत है और शायद यह आलेख पढ़ने के बाद आप सबको भी हो, कि क्यूँ हमारे समाज में हर चीज़ का घड़ा केवल स्त्री के सर ही फोड़ा जाता है। वजह चाहे जो भी हो, किसी न किसी रूप में उसके पीछे हमेशा कोई न कोई स्त्री को ही जिम्मेदार क्यूँ ठहराया जाता है। ऐसा नहीं है कि मैं कोई नारी मुक्ति मोर्चा के किसी सदस्य कि तरह बात कर रही हूँ। या फिर स्त्री को बेचारा दिखाने का मेरा कोई इरादा है। ना बिलकुल नहीं!!! स्त्री बेचारी नहीं है वह तो लोगों ने उसकी परिस्थितियों को मार्मिक ढंग से लिख-लिख कर उसे बेचारा बना दिया है। क्यूंकि जो खुद अंदर से कमजोर होता है, वही सामने वाले को कमजोर और बेचारा दिखाने की कोशिश करता है। जैसा कि हमारा यह पुरुष प्रधान समाज किया करता है। क्यूंकि वह खुद बहुत अच्छे से जानता है कि नारी शक्ति क्या है।  यदि अपने पर उतर आए तो क्या नहीं हो सकती।

मगर क्या करने हम स्त्रियाँ होती ही ऐसी बेबकूफ़ हैं,कि हमेशा खुद से पहले औरों के बारे में सोचती है, कि कहीं हमारे कारण किसी और को तो कोई परेशानी नहीं हो रही है। इसलिए उदाहरण के तौर पर हम से जब कभी भूल वश भी यदि कोई रोटी जल जाती है तो उसे हम खुद ले लिया करते है और सामने वाले को हमेशा अच्छी-अच्छी ही दिया करते है फिर वो चाहे हमारे परिवार का कोई भी सदस्य क्यूँ ना हो, आपने भी यह साधारण सी बात अपने-अपने घरों में अवश्य देखी होगी, जबकि यह तो केवल एक उदहारण मात्र है। हम ऐसे परित्याग बचपन से कर रहे होते हैं कभी बहन बनकर तो कभी बेटी बनकर...मगर तब भी हमेशा हमें सुनने को क्या मिलता है, कोई बात नहीं यह तो तुम्हारा धर्म है कर्तव्य है। क्या सारे कर्तव्य और धर्म केवल स्त्री के लिए ही हैं पुरुष के लिए नहीं??? यह सब पढ़कर आप सभी को लग रहा होगा शायद कि मैं किसी नारी मुक्ति मोर्चा केंद्र के सदस्य की तरह बात कर रही हूँ। जबकि मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ कि ऐसा क्यूँ होता है कि हर बुरी बात के पीछे स्त्री की सोच का होना ही माना जाता है। लेकिन हर अच्छी बात में स्त्री का हाथ होते हुए भी बहुत कम ही मुद्दों पर किसी स्त्री को सराहा जाता है। अभी कुछ दिन पहले की बात है मैंने कहीं पढ़ा था कि

"हर स्त्री अपने पुत्र को श्रवणकुमार  बनाना चाहती है 
किन्तु अपने पति को श्रवणकुमार बनते हुए देख नहीं सकती" 

यह पढ़कर मुझे कितना अफसोस हुआ यह मैं आपको बता नहीं सकती। क्यूंकि मैं खुद भी एक स्त्री हूँ। ऐसा कहने वाले ने एक बार भी क्या यह सोचा होगा कि कभी यही बात उसकी अपनी माँ पर भी लागू हुई होगी। शायद नहीं....क्यूंकि यह पुरुष प्रधान समाज अपने पर कोई बात आने ही कहाँ देता है। यह तो सदैव उस ही मौके की तलाश में रहता है, कि कब किसी भी घटना का दारोमदार किसी स्त्री पर डाला जा सके और अपना दामन साफ हो जाये। जैसा कि इस कथन के रचियता ने किया। यह किसने कहा मुझे नहीं मालूम, न ही मुझे यह मालूम करना है। मगर जिसने भी कहा ठीक नहीं कहा क्यूंकि इस बात के लिए केवल एक स्त्री जिम्मेदार नहीं हो सकती। पहले अपने बच्चे को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और अच्छी नौकरी दिलाने के चक्करों में अभिभावक ही अपने बच्चे को अपने आप से दूर भेजते हैं और जब उनका बच्चा अलग रहकर उस माहौल में पूरी तरह ढल जाता है तब उसकी शादी के बाद जब वही बच्चा नौकरी के कारण और शायद कुछ हद तक परिवारिक जिम्मेदारियों के चलते ,चाहते हुए भी अपने माता-पिता के साथ नहीं रह पाता तो भी लोगों की नज़रों बहू ही बुरी बनती है लोग यही कहते है और सोचते हैं, कि हो न हो बहू नहीं चाहती होगी, कि हमारा बेटा हमारे पास रहे वगैरा-वगैरा....

यानि इस बात का घड़ा भी इस समाज ने एक स्त्री के सर ही फोड़ा चाहे भले ही इसमें उस स्त्री का कोई हाथ हो या न हो, आखिर यह कहाँ तक सही है। माना कि बदलती जीवन शैली और आधुनिकता की होड में कुछ लोग भटक गए हैं। उनमें कुछ स्त्रियाँ भी हैं जो हकीकत में यही चाहती है। मगर कुछ मुट्ठी भर लोगों के लिए घर परिवार की हर एक स्त्री को एक ही नज़र से देखना भी भला कहाँ तक ठीक है। मुझे तो यह समझ नहीं आता कि बदलाव की उम्मीद हम हमेशा सामने वाले से ही क्यूँ किया करते हैं। आज कल सयुंक्त परिवार तो रहे नहीं लेकिन जब थे तब भी आधी से ज्यादा समस्याओं का कारण स्त्री को ही ठहराया जाता था और अब जब एकल परिवार हो गयें हैं तब भी उसका जिम्मेदार अधिकतर स्त्री को ही ठहराया जाता है। आखिर क्यूँ ? और कब तक ? क्या सबके पीछे केवल स्त्री ही होती है पुरुष नहीं हो सकता किसी समस्या का कारण ?

मैं कहती हूँ, कि श्रवण कुमार बनना आखिर है क्या ?? यह एक सोच है या एक भावना और यदि यह एक भावना है तो ऐसी भावना का भला क्या फायदा जो किसी के समझने या कहने मात्र से बदल जाए। क्यूंकि लोग तो यही मानते हैं, कि यदि कोई ऐसा श्रवणकुमार नहीं बन पा रहा है, तो उसके पीछे ज़रूर उसकी पत्नी का ही हाथ होगा ज़रूर उसने ही बहकाया या भड़काया होगा हमारे बेटे को साथ न रहने के लिए, जबकि यह तो ऐसी भावना होनी चाहिए जो अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा के समान हो। जो किसी के कहने से बदल न सके फिर कहने वाला इंसान आपकी पत्नी ही क्यूँ न हो। क्यूंकि श्रद्धा भी ऐसी भावना है, जो किसी दूसरे के कहने से उत्पन्न नहीं हो सकती और ना ही किसी दूसरे के कहने से ख़त्म ही हो सकती है। वह अपने आप ही ह्रदय से उत्पन्न होती है और यदि ऐसा न हो तो भक्ति करना महज़ एक दिखावा होता है। जिसका कोई मूल्य नहीं करो या ना करो सब बराबर है। बल्कि सच तो यह है कि सच्ची भक्ति-भावना के लिए इंसान को भगवान की मूर्ति की भी जरूरत नहीं, ना ही दिशा की ही जरूरत है, जरूरत है तो केवल सच्ची श्रद्धा और विश्वास की होती है। फिर आप जहां चाहें वही उस परमात्मा के प्रति उसका आभार प्रकट कर सकते हैं। तब न आपको किसी मंदिर की जरूरत है ना ही मस्जिद की, ना ही वहाँ मूर्ति का होना जरूरी है और न ही समय और दिशा का होना। क्यूंकि ईश्वर या खुदा को  तो केवल सच्ची श्रद्धा के दो फूल चाहिए ...ठीक उसी तरह अभिभावकों के प्रति श्रवणकुमार सी श्रद्धा रखने के लिए भी उनके पास रहना ज़रूर नहीं दूर रहकर भी उनके बताये हुए आदर्शों पर चलते हुए उनके मान सम्मान का ख़याल रखना ही अपने-आप में श्रवणकुमार की सी भावना रखता है। 

आपको क्या लगता है ? :-)

Sunday, 22 January 2012

नैतिक मूल्य...


मानव जीवन में ना जाने कितने ऐसे पहलू होते हैं जिन पर नज़र डालने के बाद जब उन विषयों पर विचार करो तो जैसे आने वाले विचार आपस में उलझते चले जाते है और ऐसा लगने लगता है, कि कितना कुछ है इन विषयों पर लिखने के लिए ,इतना कि शायद पन्ने कम पड़ जाये मगर विचारों का अंत नहीं होगा। जाने क्यूँ मुझे ऐसा ही लगता है। आप सभी को भी ऐसा लगता है या नहीं, यह आप ही बता सकते हैं। खैर हम बात कर रहे थे मानव जीवन में आने वाले अलग-अलग पहलूओं की जैसे मानव जीवन पर पड़ता सामाजिक प्रभाव, परवरिश, अहम, संघर्ष सफलता, सुख-दुख, इत्यादि शायद इस सबसे मिलकर ही मानव की सोच बनी है वैसे देखा जाय तो सभी मानव प्रकृति के पाँच तत्वों से मिलकर ही बने है। मानव मन बहुत ही विचित्र होता है, लेकिन यह मन ही होता है जो उसको साधू या शैतान कुछ भी बना देता है। दया या घृणा कुछ भी भरा होता है मन में और मन के आधार पर ही इंसानी सोच बनती है फिर वह चाहे अच्छी हो या बुरी, अच्छी सोच वाला इंसान साधु बनता है और बुरी सोच वाला इंसान शैतान, यह सभी विषय ऐसे हैं जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

तो हम शुरुवात करते हैं परवरिश से क्यूँकि कोई भी इंसान आगे जाकर साधु बनेगा या शैतान यह सब कुछ उसकी परवरिश पर निर्भर करता है और कुछ हद तक वक्त और हालातों पर भी, मगर फिर भी हर इंसान की परवरिश ही उसके भावी जीवन की नींव होती है। ऐसा कहा जा सकता है। देखा जाए तो हर माता-पिता अपने बच्चे को अच्छी से अच्छी परवरिश देना चाहते हैं और दुनिया के सबसे अच्छे माता-पिता बनाना चाहते है। मगर कहीं न कहीं उन्हें हमेशा यह महसूस होता है, कि वो कोशिश तो बहुत करते हैं अपनी ओर से एक अच्छे अभिभावक बनने की, मगर बन नहीं पाते। क्यूंकि बाल मन अक्सर छोटी-छोटी बातों से बहक जाता है। ऐसी ही परवरिश पर ही वह सारे अन्य पहलू भी निर्भर करते हैं जिन का हमने ऊपर जिक्र किया था जैसे अहम, संघर्ष, सुख-दुख इत्यादि। अगर आपकी परवरिश मजबूत और बहुत अच्छी है तो आपका बच्चा जीवन के इन सारे पड़ावों को सफलता पूर्वक पार कर सकता है, मगर यदि यही-कहीं आप से कोई चूक हो गई तो आपको उसका भरी खामयाज़ा भी उठाना पड़ सकता है।

हांलाकी परवरिश कोई गणित नहीं है कि 2 और 2 हमेशा 4 ही हों, आज़माये गए तरीकों में फर्क भी हो सकता है। मगर उसी फर्क को ध्यान में रखते हुए आपको आगे बढ़ना होता है। क्यूंकि इस बढ़ती हुई उम्र के पड़ाव में एक पड़ाव ऐसा भी आता है। जब बच्चे खुद को आत्म निर्भर समझने लगते है, जबकि वो होते नहीं है बस उन्हें लगता है और माता पिता खुद को जरूरत से (ओवर कॉन्फिडेंट) समझने लगते है। इन सब चक्करों में आपसी तालमेल बिगड़ जाता है। जबकि तब ही सबसे ज्यादा ज़रूरी होता है आपसी तालमेल का बनाए रखना। क्यूंकि बच्चों की वही उम्र ऐसी होती है जिसमें उनके गलत राह पर चले जाने का खतरा बना रहता है। यदि उम्र के उस पड़ाव पर आपने बात को संभाल लिया तो फिर उसके बाद कोई टेंशन नहीं होती। क्यूंकि फिर उसके बाद आपके और आपके बच्चे में जो एक दूसरे के प्रति दोस्ती और भरोसे का जो रिश्ता बनता है वो सारी ज़िंदगी उसे अपने नैतिक मूल्यों से भटकने नहीं देता।

यह तो हुई सही और अच्छी परवरिश की परिभाषा। अब बात की जाये, उस दौरान जाने-अंजाने में हुई भूलों का जो अक्सर अभिभावक भावनाओं में बहकर कर बैठते हैं। जैसे लाड़ में बच्चे को कई सारी गलत बातों में शै:  दे देना। जो उस वक्त तो बचपने में अच्छा लगता है मगर आगे जाकर उसके लिए हानीकारक भी सिद्ध हो सकता है। उसी से जन्म लेता है अहम...और यह अहम ऐसी चीज़ है जो यदि एक बार आ गया तो बस सब कुछ वहीं खत्म, क्यूंकि रिश्तों में दरार पड़ने का सबसे बड़ा कारण यह अहम ही होता है जो सामाजिक ही नहीं बल्कि ज़ाती तौर पर भी इंसान को पूरी तरह बर्बाद कर डालता है। इसलिए यह बहुत ज़रूर हो जाता है, कि हम अपने बच्चे की परवरिश के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखें कि कहीं यह अहम हमारे बच्चे के अंदर भी तो जन्म नहीं ले रहा है। जहां तक मुझे लगता है बच्चे को जरूरत से ज्यादा ध्यान देने और ग़लत बातों पर भी देखकर अनदेखा करने पर ही यह मनोभाव उसके अंदर उत्पन्न होना शुरू होता है। जैसे कुछ लोगो अपने बच्चों की परवरिश करते वक्त बत्तमीजी और शरारत में फर्क भूल जाते हैं और बच्चा है कहकर उसकी की हुई गलती को नज़र अंदाज़ कर देते हैं। तब वही भूल आगे जाकर उनके अपमान का कारण बनती है।

वैसे तो मैं इस मुददे के दौरान कोई औरत मर्द का बवाल खड़ा करना नहीं चाहती ना ही मेरा ऐसा कोई उदेश्य है। हां मगर इतना ज़रूर कहना चाहूंगी, कि हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है। यह बात सभी जानते हैं और जिस प्रकार यह बात सच है, उसी प्रकार यह बात भी उतनी ही सच है, कि हमको रहना भी इसी समाज में है वो भी इस समाज के बनाए हुए सभी कानूनों का पालन करते हुए। जिसका सीधा प्रभाव आज भी सबसे ज्यादा औरतों पर ही पड़ता है। फिर चाहे वो बे पढ़ी लिखी, नीचे तबके की कोई औरत हो, या पढ़ी लिखी अच्छे खानदान से समबन्धित कोई महिला हो। समाज के नियमो का पालन तो सभी को करना होता है। माना की कुछ कानून ऐसे है जो महिलाओं के लिए ठीक नहीं जिनमें बदलाव आना बेहद ज़रूर है। मगर कुछ नियम ऐसे भी हैं जिन्हें ज़ाती तौर पर निभाना आना चाहिये और वो तभी आ साकता है जब अभिभावक बचपन से अपने बच्चे को वो चीज़ सही तरीके से बतायें और सिखाये।

जैसे एक लड़की के लिए जितना ज़रूरी है शिक्षित होना, उतना ही ज़रूरी है घर के काम काज आना और उससे भी ज्यादा ज़रूर है उसके अंदर इस भावना का होना कि जिस तरह उसका अपना घर उसका है उसी तरह उसका ससुराल भी उसका है और वहाँ भी उसे कोई भी काम करने में शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए। खासकर इस बात को लेकर तो ज़रा भी नहीं कि अरे मैं इतना पढ़ी लिखी हूँ या मैं नौकरी वाली हूँ मैं भला झाड़ू पौंछा कैसे लगा सकती हूँ। हांलाकी आज कल वो ज़माना नहीं रह गया है। जब घर के सभी काम घर की महिलायें खुद ही किया करती थी। अब तो इन सब कामों के लिए हर घर मे बाई उपलब्ध है। मगर कभी-कभी हो जाता है, जब बाई नहीं आती तो घर के सदस्यों को ही घर का हर छोटा-बड़ा काम करना पड़ता है। मगर कुछ लड़कियां हैं जो यह बात नहीं समझते हुए अपने अहम का हाथ थामे अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार लिया करती है। जबकि इस बात के लिए उन लड़कियों से ज्यादा जिम्मेदार उनके अभिभावक है। जो अपनी बेटियों को यह सिखाते हैं कि बेटा केवल पढ़ाई पर ध्यान दो, घर के काम सीखने की तुम्हें अभी कोई जरूरत नहीं है। जबकि मेरे अनुभव से आजकल ज़्यादातर लड़कों को घर के काम और खाना बनाना आता है ।

तुम पढ़ी लिखी हो यह सब काम तो नौकरों से भी करवाया जा सकता है। ऐसी गलत सोच क्यूँ ? माना, कि यह सब काम नौकर भी कर सकते है। मगर यह ज़रूरी नहीं, कि हर घर में हर काम के लिए नौकर रखा जाना उस घर के सदस्यों को पसंद हो, या उनके लिए संभव हो।  इसकी जगह यह भी तो सिखाया जा सकता है न कि बेटा जितना ज़रूरी पढ़ाई है उतना ही तुम्हारे लिए घर के काम काज आना भी ज़रूरी है। इसलिए दोनों के लिए वक्त निकालो और हो सके तो खाली समय में दोनों पर ध्यान दो आगे तुम्हारे लिए ही काम आयेगा। वैसे भी कोई भी अभिभावक रोज़ घर का काम नहीं करवाते अपनी बेटी से और ना ही करवाना चाहिए। मगर हां बेटी को सारा काम आना ज़रूर चाहिए ताकि वक्त पढ़ने पर वो सब कुछ कर सके और सबका दिल जीत सके। मगर आज कल जैसा मैंने देखा है लोग शायद ऐसी शिक्षा अब देते ही नहीं है। ऐसा ज्यादातर उन महिलाओं के साथ आसानी से देखा जा सकता है जो शादी के पहले नौकरी किया करती थी और शादी के बाद किसी भी कारणवश जब उनकी नौकरी छूट जाती है। तब उनके लिए घर में खुद को स्थापित करना बहुत ही मुश्किल होता है। बात -बात पर उनका अहम उनको अंदर से कचोटता है। जिसके कारण हर छोटी-बड़ी चीजों को लेकर खुद की बात ओरों से मनवाने के लिए उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ता है इस सबके चलते स्वभाव में हमेशा चिड़चिड़ा पन बना रहता है जिसके कारण परिवार के बाकी सदस्यों के साथ ताल-मेल बैठ नहीं पाता और नतीजा तलाक।

हांलाकी संघर्ष करना आना भी एक बहुत ही अहम बात है। यह भी एक बेहद ज़रूरी मनोभाव है जो बच्चे को आना ही चाहिए मगर किस बात के लिए संघर्ष किया जाना चाहिए और किस बात के लिए नहीं इसका सही निर्णय बच्चा तभी ले सकता है जब उसके अंदर आत्मविश्वास हो सही और गलत की पहचान हो और वो तभी पाता हो सकता है जब बचपन से उसे जीवन के मूल्यों की सही शिक्षा दी गई हो।क्यूंकि सही शिक्षा ही किसी भी इंसान के अंदर आत्मविश्वास पैदा कर सकती है। क्यूंकि भावी जीवन में केवल वही आगे बढ़ पाता है जिसके अंदर आंत्मविश्वास होता है। वरना आपने भी स्वयं देखा होगा कि जिन बच्चों में आत्मविश्वास की कमी होती है वही इंसान अक्सर सफलता न मिलने पर आत्महत्या का सहारा लिया करते हैं।    

अंतः बस इतना ही कहना चाहूंगी कि परवरिश के दौरान ही अपने बच्चे को उसके नैतिक मूल्यों की सही शिक्षा दीजिये। जिसके आधार पर वो सही और गलत का भेद समझ कर सही निर्णय ले सके। फिर चाहे वह निर्णय सामाजिक हों या आंतरिक और वो तभी संभव है, जब आपके और आपने बच्चे के बीच आपसी तालमेल ऐसा हो, कि बच्चा आपके सामने अपने मन की किताब बिना किसी झिझक और डर के खोल सके। इसलिए अभिभावक बनाने से पहले उसके सबसे करीबी और भरोसेमंद दोस्त बनकर उसका भरोसा जीतीये और उस ही भरोसे को कायम रखते हुए उसके सबसे अच्छे मित्र की भूमिका के साथ एक अच्छे अभिभावक की भूमिका निभाते हुए उसे सही राह दिखाइये। ताकि जीवन में आगे जाकर उसे आप पर और आपको उस पर गर्व महसूस हो सके। जय हिन्द    

Thursday, 12 January 2012

समय-समय की बात है प्यारे ....


कभी-कभी कुछ बातों के लिए कैसे समय गुज़र जाता है पता ही नहीं चलता और कभी-कभी कुछ बातों को लेकर ऐसा लगता है, जैसे वक्त चल नहीं रहा रेंग रहा है। कुछ बातों में मन करता है बस वक्त यही थम कर रह जाये और हम सारी ज़िंदगी उस एक क्षण में गुज़ार दें। वक्त के बारे में भी जब कभी गहनता से सोचो तो बस विचार आपस में उलझते ही चले जाते है। वक्त जिसने सदियाँ देखी हैं, हर अच्छा बुरा पल देखा है इस आधार पर ज़िंदगी को देखने में वक्त से ज्यादा अच्छा अनुभव और किसी का नहीं हो सकता न Smile काश वक्त के अनुभवों से भी हम कुछ सीख पाते तो शायद आज हम कहीं और ही होते। शायद इस दुनिया का नक्शा भी कुछ और ही होता। मगर हम तो उन में से हैं। जिन्हें वक्त की कद्र करना आता ही नहीं, तभी तो हम अपने अनुभवी बुज़ुर्गों की भी कद्र नहीं कर पाते।

खैर हम बात कर रहे थे वक्त की बचपन से लेकर ज़िंदगी में आने वाले हर एक पल में बस यही क्रम चला करता है। कभी किसी मोड़ पर उत्सुकता तो कभी बेहद निराशा। अब जैसे मेरे बेटे को ही ले लीजिये अभी 8 जनवरी को उसका जन्मदिन था। जिसके लिए वह इतना ज्यादा उत्साहित था कि रात भर उसे नींद ही नहीं आयी। सोचिए ज़रा मात्र 8 साल का बच्चा और खुशी के मारे उसकी नींद उड़ गई थी। रात को उठ-उठ कर पूछा उसने सुबह हो गई क्या Smile न वो खुद सोया, न उसने हमे ही सोने दिया। उस वक्त मुझे उसकी खुशी, उत्सुकता, उतावलापन, देखकर बहुत हंसी आ रही थी और साथ ही यह भी याद आ रहा था, कि शायद हम भी बचपन में अपने जन्मदिन को लेकर इतने ही उत्साहित होते होंगे जितना की वह है। हालांकि इस बार हम उसका जन्मदिन पहले की तरह बहुत धूम-धाम से नहीं मना सके क्यूंकि यहाँ उसके ज्यादा दोस्त ही नहीं है और अंग्रेजों के बच्चे हिंदुस्तानियों के घर आना पसंद नहीं करते। इस वजह से यह तो पहले ही तय था कि इस बार उसके जन्मदिन पर किसी को बुलाया नहीं जाएगा तब भी उसका उत्साह कम नहीं था। Smile

सुबह से उसने एक ही बात की ज़िद पकड़ रखी थी, कि बस सुबह ही केक काट लो और मुझे मेरे उपहार दे दो बस, और किसी चीज़ से मुझे मतलब नहीं है। बड़ी मुश्किल से हम लोगों ने शाम के 4 बजाए क्यूंकि सुबह से सबके फोन आ रहे थे और उस दिन काम भी बहुत था। साहबज़ादे की पसंद के पकवान जो बनाने थे मुझे,Smile हुकुम तो पूरा करना ही था। जिसके चलते उस दिन सुबह केक काट पाना संभव ही नहीं था, मगर उसने ऐसी ज़िद पकड़ी थी कि मेरे तो कान पक गए थे सुन-सुन कर, कि मम्मा मैं पहले उपहार खोल लूँ, फिर केक काट लूँगा। Smile सच्ची ऐसे वक्त में लगता है यह वक्त चल क्यूँ नहीं रहा है। घड़ी रुकी हुई सी नज़र आने लगती है और जब परिस्थितियाँ विपरीत हों तो लगता है इतनी जल्दी क्या है इस वक्त को, जो भागा चला जा रहा है जैसे जब छुट्टियों में किसी के घर जाते हैं तब समय का पता ही नहीं चलता और घर वापसी का दिन आ जाता है। तब ऐसा ही लगता है, अभी तो आए थे। इतनी जल्दी वापस घर लौटने का समय भी हो गया। रोज़-रोज़ किसी न किसी बात को लेकर रुकते चले वक्त के अनुभव लगभग रोज़ ही होते हैं।

आपको क्या लगता है घर का काम करते वक्त या फिर ऑफिस का काम करते वक्त आपको भी ऐसा ही अनुभव होता होगा न किसी काम में मन लग गया तो पता ही नहीं चला कब सुबह से शाम हो जाती है। वरना सारा दिन बस घड़ी देख-देख कर ही गुज़रता है कि अब 1 बाजा है अब 2 अब 3 ...है ना SmileSmileलगता है जैसे तैसे शाम हो और दिल से निकलता है "सुबह से यूं हीं शाम होती है उम्र यूं ही तमाम होती है" जैसे अक्सर कामकाजी महिलाओं को लगता है घर पर पूरा दिन कैसे बिताएँगे यार...उफ बहुत ही बोरिंग और असंभव काम है घर बैठना, रोज़ का वही काम ज़िंदगी में बहुत कुछ है करने के लिए, छुट्टी का नाम सुनकर ही उनको बुखार आजाता है.Smile और मुझ जैसी ग्रहणी को घर पर रहकर भी आने वाली छुट्टियों का इंतज़ार रहा करता है। ऐसे ही कभी तब भी लगा करता था। जब हम विद्यार्थी हुआ करते थे, खास कर परीक्षा के समय जब पर्चा लिखने की नौबत आती थी, तब 3 घंटे भी कम लगते थे और परीक्षा के वक्त ऐसा लगता था और कितने लम्बे समय तक चलेंगे, यह पर्चे तब पापा अक्सर समझाते थे। बेटा हाथी निकल गया है पूँछ बाकी है, यह भी निकल ही जाएगी हा हा हा Smile

उस दौरान ऐसा लगता था कब परीक्षा से छुटकारा मिले कब छुट्टियाँ आयें और कब जल्दी से कहीं घूमने जाने का मौका मिले।

ज़िंदगी में ऐसे ना जाने कितने ऊंचे नीचे पल आते जाते हैं
जब ऐसे अनुभवों से हम गुजरते हैं।
कुछ अनुभव अच्छी सीख देकर जाते हैं
तो कुछ बुरी भी, फिर भी हम
बहुत कम कुछ सीखकर 
उसे अपनी वास्तविक ज़िंदगी में अपना पाते है 
इस दौरान ना जाने कितने लोग
हमारे जीवन में आते हैं, चले जाते है 
और ज़िंदगी एक रेल की तरह 
वक्त कि पटरी पर दौड़ती चली जाती है 
जिसमें खिड़की से बाहर देखने पर लगता है 
जैसे सब कुछ पीछे छूटता चला जा रहा है 
और ज़िंदगी बस रेल के स्टेशन की तरह 
पड़ाव दर पड़ाव पार करके आगे ही चलती चली जा रही है 
सारे रिश्ते-नाते यार-दोस्त अपने-पराये 
सब पीछे छूट जाते हैं 
जिसे वक्त देख रहा होता है। 
और शायद जब ज़िंदगी का आखरी 
स्टेशन आता होगा 
तब हो न हो वक्त सवाल पूछता ज़रूर होगा 
कि तुमने इस ज़िंदगी नुमा रेलगाड़ी के सफर में 
क्या "खोया क्या पाया" 
जो अब तुम किसी बात पर अफसोस करते हो 
या खुश होते हो, 
तुम खाली हाथ ही आए हो, मैंने देखा था 
और खाली हाथ ही यहाँ से जाओगे  
हाँ फर्क सिर्फ इतना है कि 
जब तुम इस दुनिया में आए थे 
तब तुम्हारी अपनी कोई इच्छा नहीं थी 
खुशी और ग़म का तुम्हें एहसास नहीं था 
मगर अब जब तुम इस दुनिया से जाओगे 
तब ज़रूर तुम अपने साथ कुछ मीठी यादें तो कुछ कडवे अनुभव लेकर जाओगे
क्यूंकि इसी का नाम ज़िंदगी है और शायद वक्त और ज़िंदगी एक ही सिक्के के दो पहलू है.....
- पल्लवी                  

Wednesday, 4 January 2012

क्या खोया क्या पाया ...

यूं तो चारों ओर बस अभी नव वर्ष का ही माहौल है, जो मिलता है शुभकामनायें देता हुआ ही मिलता है। चाहे वो खुद अंदर से उतना प्रफुल्लित हो या न हो, उसका गया साल चाहे जैसा रहा हो। मगर हर कोई अपने चहरे पर एक झूठी मुस्कान लिए घूमता है। यह कहता हुआ नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें और ऐसा हो भी क्यूँ ना हर कोई यही चाहता है, कि उसकी अपनी परेशानियों का असर दूसरों पर न पड़े इसलिए सब ऐसा ही करते है। मगर मुझे हर बार नव वर्ष के आने पर एक सवाल खटकता है। नया साल आया हमने "क्या खोया क्या पाया" जिन्होंने पाया उनके लिए तो जाने वाले साल को लेकर थोड़ा बहुत अफसोस होना चाहिए। क्यूंकि पता नहीं आने वाले नए साल में उन्हें वो सब कुछ मिले ना मिले जो उन्हें गए साल में मिला, मगर ऐसा होता नहीं है। :) क्यूंकि उम्मीद पर दुनिया कायम है और आने वाले साल में जाने वाले साल के मुक़ाबले और भी ज्यादा पा लेने की उम्मीद जुड़ी होती है...जो होनी भी चाहिए। क्यूंकि जीना इसी का नाम है वक्त किसी के लिए नहीं रुकता सभी के लिए यही बेहतर होता है, कि वह पिछले समय को भुलाकर एक नई उम्मीद के साथ आगे बढ़ते रहें। फिर चाहे वो पिछला गुज़रा हुआ समय उनके लिए अच्छा रहा हो, या बुरा, मगर सभी के लिए यह उतना आसान नहीं होता जितना नज़र आता है।

जिन लोगों ने अपनों को खोया है, उनके लिए नया साल कोई मायने नहीं रखता। उनके लिए तो सभी साल अब एक बराबर ही हैं और सदैव ऐसे ही रहेंगे। क्यूंकि जो चला गया वो लौटकर दुबारा नहीं आ सकता। फिर चाहे वो वक्त हो या इंसान। साल के शुरुवात में जिनके परिवार के साथ ऐसा कोई घटना घटी वो शायद नया साल आने तक अपने दुख को सहते हुए भी ज़िंदगी जीना सीख ही जाते हैं। मगर जब भी नया साल आता है उनके ज़ख्म फिर से ताज़ा हो जाते हैं।

अभी कुछ दिनों से यहाँ ऐसा ही माहौल चल रहा है आए दिन समाचार पत्रों में कोई ना कोई दुखद समाचार पढ़ने को मिल रहा है। जिसके चलते एक इंसान होने के नाते नये साल की कोई खास खुशी महसूस नहीं हो सकी। कारण था "रंगभेद" आज के जमाने में भी यह चीज़ आज भी लोगों के दिल में बरकरार है। सोच कर भी आश्चर्य होता है। न जाने कहाँ जा रहे हैं हम यहाँ के लोगों में प्रवासियों को लेकर खासा गुस्सा है। प्रतिशोध की भावना है जिसके चलते पिछले साल अगस्त 2011 में भी मंचेस्टर में दंगे हुए थे और मामला बहुत गरमा गया था।
अभी फिर क्रिसमस के दौरान एक हिन्दुस्तानी विद्यार्थी को कुछ गोरे लड़कों ने मिलकर सारेआम गोली मार दी।  जिसके कारण उस विद्यार्थी कि घटना स्थल पर ही मौत हो गई। यही हादसा कल रात कनाडा में भी दौहराया गया और वहाँ भी एक हिंदुस्तानी विद्यार्थी को घटना स्थल पर ही गोली मार कर हत्या कर दी गई। पुलिस अभी तक कोई सबूत नहीं ढूंढ पाई है। क्या कारण था जिस वजह से यह घटना घटी यहाँ कि पुलिस ने तो 50,000 पाउंड का इनाम भी रखा है जो कि पता बताने वाले को दिया जायेगा। मगर अब तक तलाश जारी है। समझ नहीं आता हर जगह की पुलिस एक जैसी ही क्यूँ है। लेकिन जब इस विषय पर कुछ लोगों से बातचीत की तो पाया कि आज कल यहाँ की युवा पीढ़ी जान बूझकर हिंदुस्तानियों से पहले बात करते हैं, फिर बातों-हीं-बातों में उन्हें उकसाते है और बहस बढ़ जाने के बाद गोली मार देते हैं। ज्यादातर इस तरह उकसाने की घटनायें ट्रेनों में देखने और सुनने को मिल रही हैं। जहां इंसान चाहकर भी बेबस है। क्यूंकि लोगों दूसरों के मामलों में पढ़ना नहीं चाहते और दूसरा ट्रेन में पुलिस की मदद भी नहीं मिल पाती। जिसके चलते ऐसे उग्रवादी तत्व के लोगों को जुर्म करने का मौका बड़ी आसानी से मिल जाया करता है।

यह सब सुनने और पढ़ने के बाद तो जैसे नए साल का सारा माहौल मेरे लिए तो शांत ही हो गया था। कोई भी उत्साह नाम की चीज़ मन के अंदर से निकल कर सामने नहीं आयी बस एक ओपचारिकता का सा भाव था।  मगर कहीं कोई खुशी महसूस न हो सकी। ज़रा सोचिए कैसा लगा होगा उस विद्यार्थी के अभिभावकों को यह खबर सुनकर क्या गुज़री होगी उनके दिलों पर जब क्रिसमस जैसे बड़े और पावन दिन पर उनके बच्चे के साथ ऐसा हादसा हुआ मेरा तो सोच कर ही दिल कांप जाता है। क्या अब कभी माना पायेंगे वो किसी भी नये साल के आने का जश्न ? उनके लिए भला अब क्या मायने रह गए, साल बदलने के उनके लिए तो अब सब एक सा ही है।  गम में डूबा हुआ क्या नया क्या पुराना। इस सब के बावजूद भी, एक हमारे यहाँ के लोग हैं, जो देश छोड़कर बाहर आने के लिए बेताब है। यह सब देखकर, पढ़कर, सुनकर ऐसा लगता है जैसे आज की तारीख में दुनिया का कोई कोना सुरक्षित  नहीं है। जहाँ देखो दंगे फसाद हत्या यही सब नज़र आता है।

तो भला ऐसे माहौल में हम इंसानियत के नाते कैसे माना सकते हैं नए साल की खुशियाँ जहां हमारे ही देश के नजाने कितने ऐसे परिवार हैं जो ग़म में डूबे हुए हैं। हाँ यह बात अलग है, कि सभी का ग़म एकसा नहीं होता मगर हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा है, जो अपनी जरूरतों के चलते दिन रात वक्त के कड़े इम्तेहानों से गुज़ारता रहता है। मगर हममें से कभी कोई उनसे जाकर यह कहता तक नहीं की तुम को भी नया साल मुबारक हो। क्यूंकि हम खुद जानते हैं, उनके लिए क्या नया ,क्या पुराना उनके लिए तो सिर्फ संघर्ष है ज़िंदगी से, हर साल, हर पल, जिसमें कभी कोई बदलाव आता ही नहीं। जिससे उन्हें पहचान मिल सके नये और पुराने साल को लेकर परिवर्तन की, साल क्या उन्हे तो शायद परिवर्तन नाम की भी कोई चीज़ होती है। यह भी नहीं पता होता होगा। जिनकी ज़िंदगी के पल नहीं बदलते उनके लिए साल क्या बदलेगा भला!!!