Monday, 28 May 2012

एक बार फिर मौसम ने ली अँगड़ाई


विदेशी गर्मियों का एक और सुनहरा दिन वह भी कई दिनों की बारिश और ठंड के बाद, यहाँ सूर्य नारायण का अपने रोद्र रूप में निकलना यानि खुशियों का त्यौहार जैसे धूप न निकली हो कोई महोत्सव हो रहा हो। या फिर इस संदर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि धूप निकलना मतलब यहाँ के लोगों के लिए एक तरह का कपड़े उतारू महोत्सव जिसमें यहाँ के सभी नागरिक बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं फिर क्या महिलाएं, क्या पुरुष और क्या बच्चे सभी में एक होड़ सी लग जाती है कि कौन कितने ज्यादा और किस हद तक कपड़े उतार कर सड़क पर घूम सकता है।

लेकिन फिर भी दूर तक जाती लंबी सड़क उस पर चिलचिलाती तेज़ धूप में भी ठंडी हवा है ठंडे-ठंडे थपेड़े कम से कम आपको चुभती हुई धूप से राहत पहुँचाते रहते हैं। क्यूंकि यहाँ की गर्मियों के हिसाब से यहाँ का तापमान कितना भी ज्यादा क्यूँ न हो चाहे। यहाँ की तेज़ धूप आपकी त्वचा को जला कर काला ही क्यूँ न कर दे, मगर हवा यहाँ की हमेशा ठंडी ही रहती है। जो तपती गर्मी में एसी (A .C) नहीं तो कम से कम पंखे नुमा आराम तो देती ही रहती है। क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है, कि यहाँ अपने इंडिया की तुलना में प्रदूषण कम होने के कारण आसमान ज्यादा साफ रहता है। जिसके कारण ऐसा महसूस होता है, कि सूर्य की अल्ट्रा वाइलेट किरनें आपकी त्वचा पर ज्यादा और बहुत तेज़ी से असर करती है। ऐसा मुझे लगता है ज़रूर नहीं कि आप सब भी इस बात से सहमत ही हो, मगर जो मुझे लगा वो मैंने बता दिया।

अब इन सब चीजों को मद्देनज़र रखते हुए यदि बात की जाये मेरे अनुभव की, तो भई यहाँ रहते-रहते हम तो सदाबहार टाइप के हो गए हैं। यानि बोले तो साल के बारह महीने अपना तो एक ही तरह का फिक्स आउटलुक है जीन्स टी शर्ट वाला फिर चाहे कोई सा भी मौसम आए जाये हम अपने पहनावे से कोई खास बड़ा समझोता कभी नहीं करते। बस ज्यादा हुआ तो ठंड के दिनों में ओवर कोट ,और सड़ी गर्मी हुई तो टी शर्ट की जगह शर्ट बस इसे ज्यादा ओर कुछ नयापन, अपने पहनावे को लेकर  हमको पसंद ही नहीं आता । लेकिन हाँ बाकी विदेशियों की तरह यहाँ सूर्य महाराज की उपस्थिती में बाहर घूमने में हमें भी बड़ा मज़ा आता है। क्यूंकि गरमियों के चलते गरम कपड़ों के बोझ से राहत जो मिल जाती है। एक अजीब सी आज़ादी और खुलेपन का एहसास होता है। आज़ादी बोले तो गरम कपड़ो से आज़ादी :) वरना तो साल के 6-8 महीने ज़िंदगी कोट और जेकिट के भार तले दबे-दबे ही गुज़र जाती है। बस यही कुछ महीने होते हैं आज़ादी के जब खुल कर जीने और बिंदास घूमने को मिलता है।
इतना ही नहीं बल्कि सूर्य नारायण के खुल कर सामने आते ही लोग चूहों की तरह अपने-अपने बिलों से बाहर निकल आते हैं। उस वक्त ऐसा नज़ारा नज़र आता है जैसे नमी और ठंडक वाली जगह जब धूप दिखाई जाती है है न...अपने इंडिया में तब कैसे कीड़े मकोड़े निकल-निकल कर भागते हैं, अपने घरों से वैसे ही कुछ नज़ारा यहाँ इन्सानों के बीच देखने को मिलता है। उस वक्त यहाँ नए-नए आए हुये व्यक्ति को तो ऐसा लगता है जैसे सूरज न निकला हो, मानो कोई अजब गज़ब की बात हो गई हो। वैसे भी बड़े नाजुक होते हैं यह अंग्रेज़ कल ही की बात है एक दिन भी पूरा नहीं हुआ सूर्य महाराज की कृपा का, कि लोगों की नाक से खून भी आना शुरू हो गया बताइये अब इस पर आप क्या कहंगे। एक दिन की गर्मी झेल नहीं पाते यहाँ के लोग और यह हाल हो जाता है जबकि तापमान सिर्फ 28 C रहा होगा जो इंडिया के हिसाब से तो सुहाना और यहाँ के हिसाब से बहुत ज्यादा गर्म।
लेकिन कुछ भी हो तेज़ चिलचिलाती धूप के आने की खुशी मनाते बदहवास से लोगों के चेहरों में भी दिनों एक अलग सी आलौकिक चमक आ जाती है। धूप में तपता गोरा रंग मानो आग में तापी हुई कोई धातु हो जैसे नीली और भूरी आँखों में समंदर के पानी सी चमक, खूबसूरती की नज़र से देखा जाये यदि तो इस गर्मियों के मौसम में जैसे कुदरत की सारी खूबसूरती सिमट कर इन लोगों में समा जाती है। खास कर यहाँ के बच्चों में, वैसे तो मुझे बच्चे बहुत पसंद हैं चाहे कहीं के भी हों, मगर यहाँ के बच्चे भी मुझे बड़े प्यारे लगते हैं। एक दम गोल-गोल गुड्डे गुड़िया के जैसे खिलौनो की तरह सर्दियों में देखो तो मारे ठंड के गोरे रंग पर लाल-लाल छोटी सी नाक सुर्ख़ होंट जैसे खून टपक रहा हो, नर्म-नर्म कंबल में लिपटे बाबा गाड़ी बोले तो प्रैम(Pram) में लेटे-लेटे आते जाते लोगों को टुकुर-टुकुर देखते बच्चे और कोई उन्हे देख कर मुस्कुरा दे तो खिलखिला कर हँसते और अपने कंबल में दुबक जाते। एक दम फूल से कोमल बच्चे इन गर्मियों में भी विटामिन डी लेने के चक्कर में तेज़ धूप में खेलते लाल मुंह के बंदर समान लाल-लाल चेहरा लिए, सर पर टोपी और सन स्क्रीन पोते खेलते खिलाते शोर मचाते मस्ती करते बच्चे, जाने क्यूँ यहाँ के लोग मुझे क्रिसमस से ज्यादा खुश इन गर्मियों में नज़र आते हैं। :)

कमाल है न!!! केवल तेज़ धूप और सड़ी गर्मी के आने का भी जश्न मानते हैं लोग :)  

Tuesday, 22 May 2012

शर्मनाक हरकतें और बुज़ुर्ग

फेसबुक पर कभी कुछ लोगों के द्वारा लगाये हुए कुछ चित्रों को देखकर मेरा मन खिन्न हो जाता है। खासकर तब, जब लगाया गया चित्र विभत्स हो या फिर अश्लील। मुझे यह सोचने पर मजबूर कर देता है,कि ऐसी सोशल साइट पर लोग ऐसा कर कैसे लेते हैं और ऊपर से उस चित्र पर लिखी गई टिप्पणियाँ उसे और भी घिनौना बना देती हैं। माना कि जब लगाने वाले को शर्म नहीं तो टिप्पणी लिखने वालों को क्यूँ शर्म आने लगी। जैसे लोग आजकल की अभिनेत्रियों के विषय में कहते हैं जब उनको अंग प्रदर्शन करने और अश्लील दृश्य देने में कोई हिचकिचाहट नहीं तो देखने वालों को क्यूँ हो। मगर क्या वाकई यही सच है ? ऐसे चलचित्रों और तसवीरों को देखने के बाद जो देखने में अश्लील हों, लोगों की अपनी बुद्धि और विवेक घास चरने चला जाता है। जो वह टिप्पणी भी ऐसी लिखते हैं कि किसी तीसरे को पढ़ने भर से ही शर्म आ जाये। मेरे लिए तो यह और भी ज्यादा हैरानी की बात तब हो जाती है, जब कोई बुज़ुर्ग व्यक्ति फेसबुक जैसे सोशल साइट पर इस तरह की कोई हरकत करता है।

एक तरफ ब्लॉग पोस्ट पर लोग बात करते हैं बुज़ुर्गों को सम्मान देने की, वृद्ध आश्रम जैसी संस्थाओं को कम करने का प्रयास करने की ताकि लोगों के दिलों में अपने घर के बुज़ुर्गों के प्रति सम्मान जाग सके। वह उनके महत्व को समझ सकें, उनको अपने पास रख सकें, वगैरा-वगैरा लेकिन कोई यह बताये जब बुज़ुर्ग ही ऐसी शर्मनाक हरकतें करने लगे तो फिर क्या किया जाये। सज़ा तो उन्हें दी नहीं जा सकती। तो फिर कैसे उन्हें समझाएँ कि आप जो कर रहें हैं, वह सब अब आपको इस उम्र में शोभा नहीं देता। इस उम्र में क्या मेरे हिसाब से तो ऐसी हरकतें किसी भी उम्र में शोभा नहीं देती। लेकिन इस पुरुष प्रधान समाज में युवावस्था में ऐसे सौ खून माफ़ होते हैं और बात यह कह कर टाल दी जाती है, कि यह सब तो शरारतों में आता है अभी नहीं करेंगे तो कब करेंगे। "सत्यमेव जयते" में भी बाल शोषण वाले एपिसोड में यह बात सामने आयी थी कि इस बाल शोषण जैसे घिनौने और गंभीर अपराध में भी ज्यादातर बुज़ुर्ग ही शामिल पाये गए। मैं यह नहीं कहती कि उस कार्यक्रम में जो भी दिखाया गया वो सब सौ प्रतिशत सही ही था। लेकिन यदि वह सब यदि पूरी तरह सही नहीं भी था, तो पूरी तरह गलत भी नहीं था। ऐसा हकीकत में भी होता है और इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता।

हांलांकी अभी हाल ही में यह बात भी सामने आयी थी कि उस एपिसोड में जिस बंदे ने यह कहा था कि उसके साथ यह शोषण उसके बालकाल से लेकर पूरे ग्यारा वर्ष तक चला। उसी व्यक्ति ने टीवी पर आने वाले एक और कार्यक्रम "हैलो ज़िंदगी" में खुद को समलेंगिक बताया। यानि व्यक्ति एक और बातें दो अब इनमें से उसकी ज़िंदगी का सच कौन सा है यह कोई नहीं जानता। हो सकता है बचपन में हुए इस शोषण के कारण ही वह आगे जाकर समलेंगिकता में पड़ गया हो। लेकिन हाँ यह बात इस बात की ओर इशारा ज़रूर करती है कि शायद जो दिखाया जा रहा है वह पूरी तरह सच भी न हो, खैर हम तो बात कर रहे थे बुज़ुर्गों के दवारा की हुई इस तरह की शर्मनाक हरकतों पर, तो इस बात से जुड़े ऐसे ना जाने कितने किस्से हैं जो आप को सच्चाई का आईना दिखा सकते हैं। आज भी हमारे समाज में कुछ कुरीतियाँ अब भी विद्धमान हैं जैसे एक अधेड़ उम्र के व्यक्ती से एक जवान लड़की का विवाह करा दिया जाता है क्यूँ ??? यह भी तो एक तरह की शर्मनाक हरकत ही है। भला किसी को क्या हक बनता है कि जब उसके खुद के पैर कब्र में लटक रहे हों तब वह बूढ़ा किसी युवती से विवाह कर उसकी ज़िंदगी भी नरक बन दे।
लेकिन जहां तक मैंने बाल शोषण के बारे में किताबों में पढ़ा, देखा, सुना और जाना है वहाँ मैंने अधिकाधिक किस्सों में बुजुर्गों का शामिल होना ही देखा, सुना। आज की ही बात ले लीजिये आज ही फेसबुक पर भी किसी महाशय ने एक तस्वीर लगाई हुई थी एक युवती झुक कर कुछ उठा रही है और उसकी साड़ी का पल्लू गिरा हुआ है। ऊपर शीर्षक लिखा हुआ था सावधान यह पब्लिक प्लेस है। उस पर कुछ दिगज्जों ने टिप्पणी में लिखा था अरे हमें तो कुछ दिखा ही नहीं, कुछ तो दिखना चाहिए था। तो कुछ ने लिखा था भई वाह मज़ा आ गया कसम से और ऐसा लिखने वाले सभी बुज़ुर्गों की श्रेणी में आने वाले लोग ही थे। अब आप ही बताइये इस तरह के चित्र लगाना और इस तरह के कमेंट देना इस उम्र में शोभा देता है क्या ??  ऐसे बुज़ुर्गों को सम्मान देने से मुझे सख्त इंकार है। माना कि इसमें कुछ हद तक खुद लड़कियां भी शामिल है जो लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जानबूझकर ऐसी हरकतें करती है। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम भी उनकी देखा देखी खुद अपनी मर्यादा भूल जाएँ और उसी कीचड़ में गिर जाएँ जहां वो गिर रही हैं।

सच ही कहा था आमिर ने बुज़ुर्गों की इज्ज़त करना अच्छी बात है, लेकिन उनसे ज्यादा उनके व्यवहार की इज्ज़त करो, लोग कुछ भी कहें कि यह कार्यक्रम ऐसा है, वैसा है, लेकिन मुझे तो यह कार्यक्रम बहुत पसंद आया कितनी अच्छी सीख दी आमिर ने हमारे बच्चों को ,यह सब देखकर यदि एक बच्चा भी इस शोषण से बच जाये तो इसमें बुराई क्या है। नहीं ? खैर यहाँ मैंने इस कार्यक्रम या आमिर की पेरवी करने के लिए यह सब बातें नहीं लिखी हैं ना ही मेरा ऐसा कोई इरादा है। मैं तो बस इतना पूछना चाहती हूँ कि जब इस देश की नींव हमारे बुज़ुर्ग ही ऐसी हरकतों पर उतर आयें तो हमें क्या करना चाहिए ? नींव इसलिए कहा क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है कि यदि देश एक मकान है तो नींव हुए बुज़ुर्ग, दीवारें हुई आने वाली पीढ़ी, क्यूंकि बच्चे जो देखते हैं वही सीखते हैं। लेकिन शायद आजकल हो उल्टा ही रहा है बुज़ुर्ग जो देख रहे हैं उस पर बजाए रोक लगाने का प्रयास करने के खुद ही उसे अपनी इन शर्मनाक हरकतों से बढ़ावा दे रहे हैं। आजकल लोग सड़क छाप रोमियों से ज्यादा बुजुर्गों से डरते हैं। सड़क पर चलते हुए जब कोई लड़का किसी लड़की को छेड़ता है या कंमेंट मारता है, तो उस वक्त उस लड़की को बुरा ज़रूर लगता है। मगर शायद उतना नहीं जितना की तब, जब छेड़ने वाला व्यक्ति कोई बुज़ुर्ग हो, रास्ते पर, बस में, ट्रेन में सारे दिलफेंक बूढ़ों को बहुत ही आसानी से मौका मिल जाता है। इस तरह कि घिनौनी हरकतें करने का, बड़ों को छोड़ो ऐसे लोग बच्चियों को भी नहीं बक्षते।

मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है भरी हुई बस में जब किसी बच्चों वाली महिला को बैठने के लिए जगह नहीं मिलती तब अक्सर लोग बच्चों को अपने पास बिठा लिया करते हैं। जो शरीफ होते हैं वो स्वयं उठ जाते हैं जो थोड़े कम शरीफ होते हैं वह बच्चों को कम से कम बिठा लेते हैं। ताकि ब्रेक लगने पर ज्यादा भीड़ हो जाने पर बच्चों को चोट न लग जाये। मगर कुछ तो बच्चों को भी भरी भीड़ में ....क्या कहूँ मुझे तो लिखते हुए भी शर्म आती है। हम हमेशा देश के नोजवानो को आगे आने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। जबकि होना तो यह चाहिए कि हम सभी को इस देश का सच्चा नागरिक होने का फर्ज़ अदा करना चाहिए। फिर चाहे वो कोई बुज़ुर्ग हो या जवान। हैं तो सभी एक ही समाज का हिस्सा इसलिए मेरे नज़रिये से तो ऐसा कुछ होते देख बुज़ुर्गों को भी आगे आना चाहिए और ऐसा कुछ करने वाले अपराधी को समझाना चाहिए कि यह ठीक नहीं, फिर चाहे वो अपराध करने वाला कोई भी क्यूँ न हो, और जैसा कि मैंने ऊपर कहा कुछ हद तक महिलाएं खुद भी जानबूझ कर ऐसी हरकतें करती हैं। मुझे ऐसा लगता है वहाँ भी बुज़ुर्गों को ही आगे बढ़कर उनको टोंकना और रोकना चाहिए। फिर चाहे वो आपके घर परिवार का कोई सदस्य हो या रास्ते पर चलता कोई अंजान व्यक्ति...

ज्यादा से ज्यादा क्या होगा कोई आपकी बात नहीं सुनेगा लोग चार बातें सुनाकर निकल जाएँगे यही ना??? तो वो तो सीधी सी बात है एक दिन में कोई भी क्रांति नहीं लाई जा सकती सब कुछ बदलने में वक्त तो लगता ही है और किसी भी चीज़ की शुरुवात के लिए प्रयास तो करना ही पड़ता है।  वह भी अपने ही घर से लेकिन यदि आप बाहर भी ऐसा कुछ नेक काम करते हैं, तो उसमें आपका ही सम्मान बढ़ेगा। क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है ज़माना भले ही बहुत खराब है लेकिन आज भी आम लोग भरी सड़क पर बुज़ुर्गों के साथ बदतमीज़ी नहीं करेंगे। सिवाये आवारा लोगों के ऐसा मुझे लगता है अब हकीकत में भी ऐसा है या नहीं यह तो मैं यहाँ विदेश में बैठकर पूर्णरूप से नहीं कह सकती। लेकिन हाँ यह भी सच है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। मगर यदि कोई संस्था टाइप कुछ बनाकर इस और प्रयास किया जाये तो शायद कुछ सकरात्मक परिणाम सामने आयें। ऐसा मेरा सुझाव है। अब आप लोग ही बताइये कि मेरा सुझाव कहाँ तक सही है जय हिन्द ....

Wednesday, 16 May 2012

बच्चों समेत सामूहिक आत्महत्या सही या गलत ??

पोस्ट शुरू करने से पहले ही मैं बतान चाहूंगी कि यहाँ मैंने जिन घटनाओ का वर्णन किया है। उसकी प्रेरणा मुझे किसी और की पोस्ट को पढ़कर मिली जिसे पढ़कर मेरे मन में आए विचारों  को मैंने लिखा है न की किसी तरह की कोई चोरी उस पोस्ट को पढ़कर मुझे जो लगा वही मैंने लिखा, वो भी इसलिए की वहाँ उस पोस्ट पर केवल एक टिप्पणी में सारी बातें लिख पाना संभव नहीं हो सकता था। इसलिए उसे आज एक पोस्ट बनाकर लिख रही हूँ कृपया इस पोस्ट को चोरी ना समझे धन्यवाद.... 


कहाँ से शुरुआत की जाये इस विषय की कुछ समझ नहीं आ रहा है। अभी कुछ दिन पहले कहीं किसी का एक आलेख पढ़ा था, लेखक का नाम तो याद नहीं मगर उस आलेख को पढ़कर मन इस आम मगर गंभीर विषय पर सोचने के लिए विवश हो गया। आम इसलिए कहा क्यूंकि  आज कल यह खबरें बहुत आम ही हो गई हैं। लगभग रोज़ ही हर समाचार पत्र में आप इस तरह की दो चार खबरों को पढ़ते ही होंगे। जैसे फलां स्त्री ने लगातार दहेज की मांग को लेकर प्रताड़ना झेलते रहने के कारण अपने बच्चों समेत आत्महत्या कर ली। तो कभी किसी पुरुष ने अपनी बेवफ़ा पत्नी के कारण अपने बच्चों समेत आत्महत्या कर ली। कुल मिलाकर पैदा करने वाले अभिभावकों ने ही परिस्थितियों के चलते स्वयं अपने बच्चों की ही जान ली और बाद में खुद को भी मार डाला। इस तरह की घटनायें गरीब परिवारों में ज्यादा देखने, सुनने और पढ़ने को मिलती है। क्यूंकि शायद उनकी ज़िंदगी में जीवन यापन हेतु या अपने बच्चों की सही परवरिश हेतु पर्याप्त साधन नहीं है। जैसे अच्छी नौकरी, पैसा खुली हुई मानसिकता इत्यादि इस विषय पर गंभीरता से सोचने पर मुझे तो इन घटनाओं के पीछे यही सब कारण नज़र आए हो सकता है आपका नज़रिया अलग हो। खैर वह आलेख पढ़कर मुझे कुछ देर के लिए ऐसा लगा था कि सचमुच बहुत ही महत्वपूर्ण एवं विचारणीय मुद्दा है। क्यूँ यह बातें आज के समाज में बहुत ही आम बातें हो गई है।

फिर कुछ सवाल उमड़े मन में, कि एक तरफ तो हम कहते हैं, कि बच्चे जब तक इतने परिपक्व नहीं हो जाते कि वह अपनी ज़िंदगी का फैसला खुद कर सकें। तब तक बच्चे अपने माँ बाप की अपनी जागीर के समान होते हैं। वह जैसा चाहे करे अपने बच्चों के भविषय के साथ यह उनका पूर्ण अधिकार है और दूरी तरफ हम ही उन अभिभावकों को यह कहते नज़र आते हैं, कि उनको कोई हक नहीं बनता कि वो अपने साथ अपने बच्चों को भी सजा दें। क्यूंकि मरना जीना तो ऊपर वाले के हाथों में है, उसने हमें केवल थोड़ा बहुत जीवन देने का अधिकार दिया है। मगर किसी की जान लेने का आधिकार हमें अब तक प्राप्त नहीं हो सका है। यहाँ मेरा तात्पर्य भूर्ण हत्या से नहीं बल्कि सामूहिक आत्महत्या से है। एक तरफ बच्चों को पैदा करने से लेकर उनके लालन पोषण की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी उनके माता-पिता पर होती है। सभी यही कहते है और इसी नियम पर चलने की शिक्षा दी जाती है। बच्चे पैदा किये हैं, तो अब उनका अच्छा बुरा सोचना भी आप पर निर्भर करता है, कि उनके लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा, क्या सही है, क्या गलत सब कुछ, यानि उनकी सम्पूर्ण परवरिश तो फिर यदि इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए जब कोई अपने बच्चों को अपने साथ ही ख़त्म कर लेता है तो उस वक्त हम सभी को वह बात गलत नज़र क्यूँ आने लगती है।  

आखिर ख़त्म करने से पहले भी उसके माता या पिता ने अपने उस बच्चे के भविष्य के बारे में सोचा ही होगा तभी इतना बड़ा और कठिन कदम उठा पाते हैं लोग और फिर इस तरह की घटनाओं में हो रही वृद्धि का कारण केवल वो माता या पिता नहीं, जो अपने बच्चों के साथ ऐसा करते हैं। माना कि आत्महत्या करना किसी समस्या कोई हल नहीं, मगर यह बात यदि पूरी तरह गलत है, तो कुछ हद तक शायद सही भी हो। क्यूंकि आत्महत्या का अहम कारण यदि बढ़ती आबादी है तो कहीं न कहीं उसका एक अहम कारण आज के हालात भी हैं जैसे बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, आजकल का डरावना और असुरक्षित वातावरण जहां सिर्फ पैसे वालों का राज हैं गरीब की कोई कीमत नहीं, न सिर्फ गरीब बल्कि आम आदमी यानि मध्यम वर्ग की भी कोई खास सुरक्षा व्यवस्था नहीं है। वहाँ यदि इन सब परिस्थितों के बारे में सोचते हुए अपने बच्चों का भविष्य देखते होंगे गरीब माँ-बाप, तो शायद उन परिस्थितियों में यही एक कदम ठीक नज़र आता होगा उन्हें, वरना यूं ही अपने हाथों से अपने ही बच्चों की जान ले लेना इतना भी आसान नहीं, उनके बाद उनके बच्चों का क्या होगा? कौन उनका ख़्याल रखेगा? कौन उनकी देख भाल करेगा? यह सब सोचकर ही शायद उनके माता पिता यह कदम उठाने के लिए खुद को बेहद मजबूर पाते होंगे। नहीं?? तभी वह ऐसा करने के लिए विवश हो जाते होंगे। वैसे भी देखा जाये तो जब किसी के मन में एक बार ज़िंदगी की मार झेलते-झेलते आत्महत्या का विचार घर कर ले तो लगभग उस व्यक्ति का दिमाग काम करना बंद ही कर देता है। फिर आप लाख समझालो ज़्यादातर व्यक्ति आत्महत्या कर ही लेते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है, कि इस नज़रिये से देखा जाये तो इसमें क्या गलत है, मैं जानती हूँ यहाँ शायद आप सबको यह सब पढ़कर ऐसा लग रहा होगा कि मैं आत्महत्या जैसे अपराध को बढ़ावा दे रही हूँ। मगर ऐसा है नहीं, बात दरअसल यह है कि हमारे समाज में लोग दो मुंही छुरी की तरह व्यवहार करते हैं। यदि कभी किसी का कोई जवान बेटा आत्महत्या कर ले, तो भी लोग यही कहते हैं, कि देखो अपने बूढ़े माता-पिता के बारे में एक बार भी नहीं सोचा और इतना बड़ा कदम उठा लिया और यदि किसी कि जवान बेटी ऐसा कुछ कर ले तो और सौ (100) तरह की बातें होने लगती हैं। लेकिन आत्महत्या करने जैसे उठाये गए इतने बड़े कदम के पीछे कारण क्या रहा होगा कि सामने वाले ने ज़िंदगी जीने से ज्यादा मौत को अपनाना ज्यादा आसान समझा इस बात पर ना तो कोई ध्यान देता है ना ही कोई ध्यान देना चाहता है इसी तरह जब कोई पुरुष आत्महत्या कर ले तो लोग कहते हैं परिवार के बारे में सोचना चाहिए था छोटे-छोटे बच्चे हैं उनका क्या होगा वगैरा-वगैरा....और स्त्री कर ले तो भी वही पचास तरह की पच्चीसियों बातें। यानि मरने के बाद भी लोग ताना मारने और बुराई करने से बाज़ नहीं आते और इतना ही नहीं कई बार तो लोग उस मरने वाले व्यक्ति के परिवार का जीना भी हराम कर देते हैं। तो ऐसे में यदि कोई अपने पीछे समाज का नज़रिया और उसकी संकीर्ण मानसिकता को सोचते हुए अपने बच्चों के साथ खुद को ख़त्म कर लेता है तो इसमें गलत क्या हुआ।?

हांलांकी में यहाँ आत्महत्या के पक्ष में नहीं बोल रही हूँ और ना ही मैं इस तरह कि हो रही घटनाओं से सहमति रखती हूँ, कि जो हो रहा है वह सब सही है और मैं उस से सहमत हूँ ना!!! बिलकुल नहीं मेरी नज़र में तो आत्महत्या से बड़ी कायरता ओर कोई नहीं।  

मगर फिर भी जिस व्यक्ति ने ऐसा कुछ किया यदि उसकी नज़र से देखो या सोचने का प्रयास करो कि आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी रही होगी कि जिसके आगे उसे अपने साथ-साथ अपने परिवार की जान लेना ज्यादा आसान लगा होगा तो कभी-कभी किसी विषय, विशेष को लेकर कई बार लगने भी लगता है, कि शायद उसके पास वाकई इसके अलावा और कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं होगा परिस्थितियों ने वरना तो, अपनी जान सभी को प्यारी होती है। इतना भी आसान काम नहीं है आत्महत्या कर लेना। हांलांकी इन सब बातों के बावजूद भी यह कहना गलत नहीं होगा कि "जहां चाह हो वहाँ राह भी निकल ही आती है" बस ज़रूरत होती है थोड़े से होंसले और सब्र की, मगर शायद ऐसा करने वाले व्यक्ति को यही सब्र और जीने का होंसला उस वक्त नहीं मिल पाता होगा। जब उनको इसकी सबसे जरूरत होती होगी। इसलिए वह ऐसा कदम उठाने पर मजबूर हो जाते है।   
आप सभी को क्या लगता है अपने साथ अपने बच्चों की भी जान लेनी वाली घटनाओं में होती वृद्धि कहाँ तक सही है।

Sunday, 6 May 2012

क्या करें और कहाँ जाएँ स्त्रियाँ

कल समाचार पत्र में एक खबर देखी थी चितौड़ के विषय में आपने भी देखी हो शायद, देखी इसलिए कहा क्यूंकि वहाँ एक वीडियो था जिसमें एक गाइड के द्वारा चितौड़ के किले का इतिहास बताया जा रहा था। मेवाड़ की पूर्व राजधानी चितौड़ आज भी अपने दामन में इतिहास की अमर कहानी समेटे हुए सैलानियों को अपनी और आकर्षित कर रहा है। वैसे तो वह सम्पूर्ण जानकारी या यूं कहिए कि वहाँ उस गाइड के द्वारा दी गई जानकारी सभी ने पहले स्कूल में पढ़ी है लेकिन उस गाइड ने बहुत ही प्रभावशाली ढंग से वहाँ के गौरवपूर्ण इतिहास को लोगों के सामने रखा। सच बहुत ही गौरवशाली रहा है हमारा इतिहास, जिसे पढ़कर देख सुनकर सर गर्व से ऊंचा हो जाता है, कि हम उस देश के वासी हैं जहां जगह-जगह का इतिहास स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। उस वीडियो का लिंक नीचे दे रही हूँ।

http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=-pTrmsJoOys

लेकिन तब भी, उस वीडियो को देखने के बाद दो बातें ज़हन में घूमती रही, कि आखिर क्यूँ हमारे यहाँ हमारी सरकार हमारे इस गौरवपूर्ण एतिहासिक इमारतों को विदेशों की तरह सजह कर नहीं रख पाती। क्यूँ विदेशों में जाने अंजाने खंडहर भी पर्यटकों के अहम आकर्षण का कारण बने रहते हैं और क्यूँ हमारे यहाँ जाने पहचाने स्थल भी खंडर में तब्दील  होते जा रहे हैं। जैसे मानो उस खंडर होती इमारतों की दीवारें राहगीरों से कह रही हो, कि आओ देशवासियों खत्म होने से पहले एक नज़र देख लो हमें और जानलो हमारा वह सम्मान जनक इतिहास जो अब थोड़े ही दिनों का मेहमान हो चला है। जो अब नजर आयेगा शायद केवल बच्चों की किताबों के पन्नो पर,  इससे पहले कि ख़त्म हो जाये हमारा अस्तित्व, एक बार जान लो हमें, पहचान लो हमें।

दूसरी बात जब उस गाइड ने चितौड़ का इतिहास बताते हुए, वहाँ हुए तीन जौहर (एक तरह का सामूहिक आत्मदाह) की कहानी सुनाई तो सच में मेरी आंखे नम हो गई थी। सदियों से हर महायुद्ध का कारण स्त्री ही क्यूँ रही है। बस यही सवाल घूमता रहा मेरे अंदर क्यूँ हमेशा हर वक्त चाहे इतिहास हो या वर्तमान, स्त्री को ही दोषी दिखाता आया है यह समाज। क्यूँ ? महाभारत और रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथ भी गवाह हैं इस बात के और चितौड़ में रानियों के द्वारा किए हुये जौहर भी, कि हर महायुद्ध के पीछे कारण रही है केवल स्त्री और खासकर यहाँ जब हम चितौड़ की बात कर रहे हैं तो वहाँ तीन बार मुगल शासकों के हमलों के कारण वहाँ की रानियों को मुग़ल शासकों की गन्दी नज़र से खुद को बचाने के लिए करना पड़े वो जौहर।

वह स्थान जहां रानी पद्मिनी ने लगया था अपना जौहर  

पहला जौहर जब अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मिनी को हासिल करने के लिए आक्रमण किया तब रानी पद्मिनी ने जौहर जलाया, दूसरा जौहर जब गुजरात के बहादुर शाह ने आक्रमण किया तब राणा सांगा की रानी कर्णावती ने खुद को बचाने के लिए जौहर जलाया वो भी उन्हें अपने एक साल के बच्चे को छोड़कर जलना था, तब उन्होंने अपने एक साल के बेटे उदय सिंह को अपनी एक दायी (जिसका नाम था पन्ना दायी नाम सुना होगा आप सभी ने उनका) उनको को दे दिया, उस के बाद रानी खुद तो जल गई मगर उस दायी ने अपनी वफादारी निभाते हुए रानी के उस बेटे को एक आम के टोकरे में रखकर दूर भिजवा दिया और उस वक्त वहाँ के ही एक गद्दार सेनापति बनवीर सिंह के मन में आया कि क्यूँ न राजकुमार को भी ख़त्म कर मैं ही यहाँ का राजा बन जाऊं तब उस पन्ना दायी ने राजकुमार को बचाने की खातिर वहाँ अपने बेटे चंदन सिंह को खड़ा कर दिया और तब बनवीर सिंह ने उसे राजकुमार समझ कर उसके टुकड़े कर दिये। बहुत बड़ा दिल चाहिए ऐसी वफादारी के लिए भी, ज़रा सोचिए केवल उस राजकुमार को बचाने के लिए एक माँ ने स्वयं अपने बेटे को कटवा दिया। तब कहीं जाकर उस राजकुमार के रूप में हमें मिले महाराजा उदय सिंह जैसे राजा जिन्होंने आज के उदयपुर की स्थापना की । फिर तीसरा जौहर अकबर के आक्रमण के समय जलाया गया।


आज लोग राजाओं को जानते हैं मगर इन वीरांगनाओं के बारे में कितनों को पता है ? शायद इसलिए चितौड़ का इतिहास खींचता है अपनी ओर, क्यूंकि चितौड़ के किले ने अपने आँगन में यह जलते हुए जौहर तीन बार देखे हैं मगर सवाल यह उठता है कब तक दूसरे की करनी का फल भुगतती रहेगी स्त्रियाँ यह तो इतिहास की बात थी। मगर आज तो उसे भी बुरा हाल है न जाने क्या चाहते हैं लोग, जो आज की तारीख में हमारे ही देश में सुरक्षित नहीं है स्त्रियाँ, इस बात का सबूत है दिनों दिन बढ़ती स्त्रियॉं के प्रति घटती घटनाएँ, जहां अब जरा भी महफूज़ नहीं है स्त्रियाँ। यहाँ तक कि छोटी-छोटी लड़कियां भी नहीं, कब कहाँ किस के साथ क्या घट जाये आज कल कोई भरोसा नहीं, एक तरफ भूर्ण हत्या जैसे मामलों में बढ़ता इज़ाफ़ा तो दूसरी तरफ आए दिन होता बलात्कार, छेड़छाड़, बसों में होती बदसलूकी, न जाने क्या-क्या। आखिर कहाँ जाएँ और क्या करें स्त्रियाँ, क्या आज के इतने आधुनिक दौर में भी पुरुषों की गंदी नज़र से खुद को बचाने के लिए जौहर लगाना होगा स्त्रियॉं को ?आखिर क्यूँ और कब तक ......