Sunday, 26 January 2014

केवल एक सोच

मृत्यु जीवन का एक शाश्वत सत्य, जिसे देख जिसके बारे में सुन आमतौर पर लोग भयभीत रहते हैं। लेकिन मेरे लिए यह हमेशा से चिंतन का विषय रहा। इससे मेरे मन में सदा हजारों सवाल जन्म लेते हैं। जब भी इस विषय से जुड़ा कुछ भी देखती या पढ़ती हूँ तो बहुत कुछ सोचने लगती हूं। या इस विषय को लेकर मेरे मन में सोचने-समझने की प्रक्रिया स्वतः ही शुरू हो जाती है।

कल अपनी एक सहेली से बात करते वक्त अचानक उसने बात काटते हुए कहा, ‘यार...! मैं बाद में बात करती हूं। कुछ गंभीर बात है। यहाँ अपना करीबी रिश्तेदार गुजर गया है।’ सुन कर मैंने कह तो दिया कि ठीक है बाद में बात करेंगे लेकिन दिमाग में जैसे बहुत कुछ घूमने लगा। बाल्यकाल में अपनी नानी, दादी और फिर उसके बाद अपने नाना की मृत्यु देखी। चारों ओर ग़मगीन माहौल में माँ का रो-रोकर बुरा हाल देखा लेकिन यह सब देखने के बाद भी मेरी आँखों में कभी आँसू की एक बूंद भी नहीं उभरी। ऐसा क्यूँ, इस बात का जवाब मेरे पास भी नहीं है। उस वक्त बड़ों को लगा होगा कि बच्ची है, इसे समझ नहीं है अभी कि अपनों को खो देने का दर्द क्या होता है। या शायद इतने सारे लोगों को रोता देख चकित हो कि ऐसा क्या हो गया जो सभी लोग रो रहे हैं।

लेकिन सच कहूँ तो 4-5 साल की छोटी उम्र में भी मेरे मन में यह विचार कभी नहीं आए। बल्कि यह सब देख मन में एक कौतूहल रहता कि बस एक बार किसी तरह मृत शरीर का मुख देखने का अवसर मिल जाये बस। बड़ों के लाख समझाने, यह बताने पर भी कि मृतक का मुख देख कर तुम्‍हें केवल यही लगेगा कि वह निद्रालीन है, उसे देख कर भला मुझे क्या मिलेगा जो मैं इतनी बेचैन हो रहती हूं किसी दिवंगत आत्मा के मृत मुखमंडल देखने के लिए। मुझे भी आज तक समझ नहीं आया कि मुझे ऐसा क्‍यों लगता था और आज भी लगता है। लेकिन ऐसा मुझे मेरे अपनों के लिए ही महसूस नहीं होता है। बल्कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु पर मेरे मन में उसका चेहरा देखने मात्र की उत्सुकता स्वतः ही उत्पन्न होने लगती है। उस वक्त जाने क्‍यों मेरे मन में अजीब-अजीब विचार आने लगते। सब कुछ रहस्यमय लगने लगता। ऐसा क्‍यों हुआ? और यदि हुआ तो अब इस अवस्था में क्या सोच रहा होगा उसका मृत शरीर। हालांकि मुझे  भलीभांति पता है कि मृत है तो सोच कैसे सकता है। फिर भी मन में रह-रह कर यही विचार आता है कि कैसा लग रहा होगा उस मरे हुए व्यक्ति को उस वक्त, जब वो अपने आस-पास प्रियजनों को इस तरह रोते-बिलखते बंद आँखों से भी देख रहा होगा। क्या उसका ध्यान सभी पर जा रहा होगा! या उनमें से कोई एक खास होगा, जिसे भरी भीड़ में भी ढूंढ लेंगी उसकी वो बंद आंखें और पढ़ लेंगी उसके मन का सच। क्या सच में 13 दिनों तक मृतक की आत्मा घर में रहती है। शायद सही ही है। यह मोह-माया का संसार यों एक ही पल में छोड़ कर चले जाना भी संभव नहीं इंसान के लिए। इसलिए शायद विधाता भी तेरह दिन की मोहलत और दे देता होगा इंसान को कि देख ले तेरे चले जाने से भी, न दुनिया रुकी और ना रुकेगी कभी। लेकिन फिर भी कुछ तो होता है उन दिनों। ऐसे ही एहसास नहीं होता उस व्यक्ति की मौजूदगी का हमें कि वो यही कहीं है हमारे आस-पास लेकिन हम उसे देख नहीं पाते। इसलिए शायद मेरे मन में यह कौतूहल रहा करता है। या शायद सभी को ऐसा लगता है। क्या सभी ऐसा सोचते हैं? यदि सोचते हैं तो फिर बच्चों को क्‍यों कहानियाँ बना कर सुनाते हैं। सच क्‍यों नहीं बताते उन्हें। मेरा तो मन श्मशान जाने को भी करता है।

मुझे लगता है कि एक बार देखूं तो जलती हुई चिता किसी की। कैसा लगता है उस वक्त। मन में तो खयाल आता है कि उस चिता की लपटों से भी कोई आवाज जरूर आती होगी। बातें करना चाहती होंगी वो आग की लपटें भी। मरने वाला व्यक्ति भी वो सब कहना चाहता होगा जो वह अपनी जिंदगी में कह नहीं पाया। कैसी अजीब छटपटाहट होती होगी ना वो। चिता के धुएँ में घुट कर रह जाती होगी उसकी आवाज क्योंकि शरीर जो साथ नहीं है उसके। लेकिन क्या कभी कोशिश की जाती है ऐसी किसी आवाज को सुनने की, उसे महसूस करने की। क्या चल रहा होता है उस वक्त उस व्यक्ति के मन में और वहाँ उपस्थित सभी लोगों के मन में जो श्मशान जाते हैं। क्या उन्हें सुनाई देती है कोई आवाज या महसूस भी होता है ऐसा कुछ कि उनके आस-पास की हवा में कुछ है। जो उनसे बहुत कुछ कहना चाहता है। शायद नहीं! अगले ही पल फिर ख्याल आता है कि जाने वाले के चले जाने का उसकी चिताग्नि के कम होने के साथ ही दुःख कम होने लगता होगा। कैसा होता होगा वो मंजर। कहाँ तो हमें आग की एक चिंगारी मात्र से जल जाने पर इतनी पीड़ा होती है। और कहाँ किसी अपने को आग के हवाले करने की पीड़ा और घर लौटते वक्त जैसे सब खत्म...और फिर सभी की जिंदगी आ जाती है पुराने ढर्रे पर...क्या कोई जवाब है मेरे इन प्रश्नों का? ऐसा सिर्फ मुझे ही लगता है या सभी ऐसा सोचते हैं? मेरे दोस्त कहते हैं इस मामले में मैं पागल हूँ। कुछ भी सोचती हूँ, कुछ भी कहती हूँ। आप सबको क्या लगता है।

Wednesday, 15 January 2014

एक शाम ऐसी भी..

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अभी कुछ दिन पहले की बात है शाम को पीने के पानी का जग (जिसमें फिल्टर लगा हुआ है) भरने के लिए जब मैंने अपनी रसोई का नल खोला तो उस समय नल में पानी ही नहीं आ रहा था। घर में पानी का ना होना मेरे मन को विचलित कर गया कि अब क्या होगा। लंदन(या तथाकथित विकसित देशों) में रहने का और कोई फायदा हो ना हो मगर बिजली पानी की समस्या से कभी जूझना नहीं पड़ता। कम से कम इसके पहले तो मुझे यहाँ कभी ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ।

खैर पानी न होने के कारण एकदम से ऐसा लगा कि अब क्या होगा। घर में तो ज़रा भी पानी नहीं है। पीने का पानी तो चलो बाज़ार में मिल जायेगा किन्तु अन्य कार्य कैसे होंगे। यह सोचते-सोचते जैसे मैं कहीं गुम हो गई थी। फिर जैसे अचानक मुझे मेरे ही दिमाग ने निद्रा से जगाते हुए कहा कि अरे इतना क्या सोचना, थोड़ी देर में सब ठीक हो जाएगा। यह लंदन है कोई हिंदुस्तान नहीं है कि जहां कई जगहों पर कई-कई दिनों तक पानी ही नहीं आता।

जबकि यह तो इंसान की सबसे बड़ी जरूरत है। राजा हो या रंक पानी तो सभी को चाहिए ही। फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि यहाँ पानी ही न आए। चिंता करने से अच्छा है, पहले अपने घर का पानी का मीटर अच्छे से देख-परख लो कई बार पानी के कम ज्यादा दबाव के कारण भी पानी होते हुए भी नल में पानी आ नहीं पता है।

दिमाग की बातों से दिल को ज़रा हौसला मिला और मैंने अच्छे से जाँच पड़ताल भी की, मगर यह क्या पानी तो सच में नदारद था। अब तो मुझे चिंता हो ही गयी, क्या करुँ क्या ना करुँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। जल्दबाज़ी में श्रीमान जी को फोन घुमा दिया और समस्या बतायी तो उन्हें भी सुनकर ज़रा अचंभा हुआ कि आज ऐसा कैसे हो गया। फिर उन्होंने कहा ज़रा देर ठहरो मैं मकान मालिक से बात करता हूँ। शायद उन्हें इस समस्या का कोई हल पता हो। उनकी बात सुनकर मैंने खुद को एक चपत लगायी कि अरे मेरे दिमाग यह बात पहले क्यूँ नहीं आयी।

लेकिन मैंने सहमति दर्शाते हुये हाँ कहकर फोन रख दिया। इधर अभी मैंने फोन रखा ही था कि घर के दरवाजे पर दस्तक हुई। देखा तो पड़ोस में रहना वाला गोरा (अँग्रेज़) पड़ोसी भी यही पूछने आया था कि आपके घर में पानी आ रहा है क्या ? मैंने कहा नहीं शायद आज यह समस्या अपने पूरे क्षेत्र की है। यह सुनकर वह धन्यवाद कहकर चला गया। किन्तु यह सुनकर मेरे मन को यह तसल्ली हुई कि यह अकेले मेरे घर की समस्या नहीं है। इतने में श्रीमान जी का फोन दुबारा आया और उन्होने बताया कि मकान मालिक से बात हो गयी है। उनका कहना है कि उनके यहाँ भी पानी नहीं आ रहा है। आमतौर पर जब कभी ऐसी कोई समस्या होती है तो पहले ही घर पर पत्र आ जाता है।

किन्तु आज अभी तक तो कोई पत्र आया नहीं, इसका मतलब है ज़रूर कोई अकस्मात आयी हुई समस्या होगी। चिंता न करें शायद थोड़ी देर में आ जाएगा।

मैंने कहा ठीक है देखते हैं कितना समय लगता है मगर मन ही मन दिमाग में यह विचार कौंध रहा था कि अरे लंदन में भी ऐसा होता हैं क्योंकि इसके पहले मैं जहां कहीं भी रही, वहाँ मैंने ऐसा कभी ना देखा न सुना। यहाँ (लंदन) यह मेरे लिए यह पहली बार था।

हालांकी कुछ महिनों पहले यहाँ बिजली भी गयी थी। तब तो मेरा दिमाग चल गया था अर्थात चिंता नहीं हुई थी। तब मुझे लगा था शायद एमसीबी गिर गया होगा वापस उठा देने से बिजली आ जाएगी। मगर तब ऐसा कुछ हुआ नहीं था। उस दिन वास्तव में अपने हिंदुस्तान की तरह यहाँ भी बिजली गयी थी। बाहर भी एकदम घुप्प अँधेरा था, क्यूँ ना होता ! यहाँ अपने यहाँ कि तरह तो होता नहीं कि बिजली गुल होते ही लोग बाहर। यहाँ तो उस वक्त चारों तरफ सन्नाटा था सिवाय आने जाने वाली गाड़ीयों के शोर के और कोई आवाज़ ही नहीं थी। लेकिन तब जल्द ही बिजली आ गयी थी। ज्यादा देर परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा था। यूं भी बिजली बिना तो फिर भी रात गुजारी जा सकती है। मगर पानी बिना तो बहुत ही मुश्किल है।

लेकिन सिवाय इंतज़ार के और क्या किया जा सकता था। मैंने श्रीमान जी को पहले ही पीने का पानी लाने को कह दिया था। मगर फिर भी मन ही मन रह –रहकर यह ख्याल मेरे दिमाग में खलबली मचा रहा था कि यदि पूरी रात पानी ना आया तो क्या होगा। यहाँ तो पानी जमा करके रखने का प्रचलन भी नहीं है। सो हम भी ऐसा नहीं करते और यहाँ की व्यवस्था की मेहरबानी से कभी ऐसा करने की जरूरत भी नहीं पड़ी। अशांत मन के कारण बार-बार अपने यहाँ की याद आ रही थी। सच कितनी समझदारी और सूझबूझ से चलते हैं वहाँ लोग, आज से नहीं बल्कि हमेशा से, जब अथाह पानी था तब भी पानी को बचाकर रखने की परंपरा थी और वर्तमान हालातों से तो आप सभी भली-भांति परिचित हैं ही। तब बस यूँ ही एक विचार आया कि भारत के लोग कितने भी आधुनिक क्यूँ ना हो जाये कुछ मामलों में तो ज़मीन से जुड़े रहेंगे ही।

हालांकी एक बात तो यहाँ की भी माननी ही पड़ेगी कि यहाँ की ज़िंदगी कितनी भी भौतिकतावादी क्यूँ न हो। मगर आम लोगों की सुविधा और रोज़ मररा ही की ज़िंदगी से जुड़ी जरूरतों का यहाँ भरपूर खयाल रखा जाता है। यदि उनसे पैसा लिया जाता है तो सुविधाएं भी वैसी ही दी जाती है। ताकि जनता को कम से कम परेशानी हो और इसी बात का नतीजा यह था कि हमारे क्षेत्र में जिस कंपनी के माध्यम से पानी आता है उन्होने अपनी वैबसाइट पर खेद व्यक्त करते हुये ना सिर्फ क्षमा याचना की थी बल्कि समस्या का कारण भी बताया था और समय भी कि कब तक पानी आ जाएगा और ठीक उसी वक्त पानी आ भी गया था। और क्या चाहिए...

तब जाकर मेरे मन को चैन मिला और दिल से एक बात निकली कि काश अपने यहाँ (हिंदुस्तान) में भी सरकार और प्रशासन के लिए जनता की जरूरत और उनकी सहूलियत सर्वोपरि हो जाए और वहाँ भी लोगों को रोज मररा की ज़िंदगी से जुड़ी अहम जरूरतें और ऐसी सुख सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हो सकें। तो कितना अच्छा हो...

Saturday, 11 January 2014

स्मार्ट फोन का ज़माना क्या कभी होगा पुराना...?


यह एक ऐसा विषय है जिस पर यदि बात की जाये तो बात कभी खत्म ही ना होगी। एक ऐसा विषय जिस पर "जितने मुंह उतनी बातें" इसलिए इस विषय पर मतभेद होना स्वाभाविक सी बात है। यूं तो मुझे खुद स्मार्ट फोन के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं है। इसलिए मैं जो भी लिख रही हूँ केवल अपनी सोच और अनुभव के आधार पर ही लिख रही हूँ। एक दौर था जब बिना फोन के भी जीवन बहुत ही सुखमय तरीके से बीत रहा था। फिर धीरे-धीरे फोन आए तो पत्रों के माध्यम से मिलने वाले सुख का भी अंत हो गया, एक तरह से देखा जाये तो जहां एक और फोन ने दूरियाँ घटा दी वहीं दूसरी ओर आपसी मेल मिलाप को बहुत कम कर दिया। इसके बाद भी लोग कहीं न कहीं संतुष्ट थे। फिर आया मोबाइल फोन इसने जैसे हमें तनाव मुक्त ही कर दिया। ऐसा हमें लगा मगर ऐसा हुआ नहीं, और फिर आए यह स्मार्ट फोन जिन्होंने पूरी दुनिया ही हमारे हाथ में रख दी।       

इस बात को यदि फायदे और नुकसान सामने रखकर देखा जाये तो शायद हमें सही नतीजे पर पहुँचने में आसानी हो सकती है। तो पहले हम फोन से होने वाले फायदे की बात करेंगे। जब से फोन आए तब से सभी की ज़िंदगी ही बदल गयी। दूर बैठे अपने अपनों से जब मर्ज़ी बात करना आसान हो गया। यहाँ हम बात कर रहें है 'लैंड लाइन' वाले फोन की, फिर आया मोबाइल। जिससे हमें अपने बच्चों की पल पल की खबर रखना आसान हो गया। जिस के कारण बहुत हद तक हम चिंता मुक्त हो गए। मोबाइल आने से न सिर्फ बच्चों और परिवार वालों की बल्कि घर में काम करने आने वाली बाई से लेकर सब्जी बेचने वाला/वाली तक के आने या ना आने की जानकारी पहले ही मिल जाने की वजह से हम और भी कई तरह के कामों से चिंता मुक्त हो गए और सब से ज्यादा जो फायदा हुआ वो यह था कि किसी को भी फोन करने से पहले समय का ध्यान रखना या ट्रंकाल बुक करके घंटो इंतज़ार करने का रोना खत्म हो गया। मोबाइल फोन के आने से जब चाहे जहां चाहे किसी भी वक्त और कहीं भी अपनों से बात करना पलक झपकाने जितना आसान हो गया। फिर आया स्मार्ट फोन का ज़माना। इसके आने से न सिर्फ फोन पर जब तब बात करना बल्कि घर में कंप्यूटर ना होते हुए भी फोन पर ही मेल चैक करने और ऑनलाइन बात करने की सुविधा भी मिल गयी। जिसे साइबर कैफ़े जाने का झंझट भी खत्म हो गया। इसके आने से लोगों का अकेलापन भी कुछ हद तक दूर हो गया। सब को अपनी पसंद और मन मर्ज़ी के मुताबिक गाने सुनने, खेल, जानकारी, रास्ते का पता, बात करने की सुविधा और मेल चैक करने तक की सभी सुविधायें हाथ में ही मिल गयी। अब न किसी से बात करने के लिए किसी का मुंह देखने की जरूरत है और न मेल चैक करने के लिए किसी कंप्यूटर की अब सब कुछ आपके हाथ में...और क्या चाहिए? 

अब यदि हम बात करे फोन से होने वाले नुकसान की तो वो भी कम नहीं है। पहला नुकसान अपने आस पास की दुनिया से संपर्क खत्म हो जाना, दूजा संयम का खत्म हो जाना, नतीजा तनाव जैसे रोग से चौबीसौं घंटे घिरे रहना। क्यूंकि जब से यह स्मार्ट फोन आए लोगों का जैसे सारा संयम ही ख़त्म हो गया। जहां एक ओर पहले शांति पूर्ण संतुष्ट जीवन की पहली शिक्षा संयम और धैर्य रखना सिखाया जाता था, वहीं आज इन स्मार्ट फोन के उपयोग ने इस बात को हमारे अंदर से पूरी तरह ख़त्म कर दिया है। आलम यह है कि टीवी देखते वक्त या फोन पर कोई वीडियो देखते वक्त भी हम कुछ क्षणों का सब्र भी नहीं कर पाते और विलम्ब होने पर ज़रा में परेशान हो जाते हैं। तीजा पूरा समय उसी में लगे रहने के कारण आँखों और कानो पर बुरा प्रभाव पड़ना। क्यूंकि आमतौर पर लोग ज़्यादातर फोन पर गाने सुनते हुए गेम खेलते रहते है या किसी न किसी से ऑनलाइन बात करते रहते है। जिसके कारण उनकी आँखों पर ज्यादा ज़ोर पड़ता है और कानो में लंबे समय तक इयर फोन लगे रहने कि वजह से कानों को नुकसान पहुंचता है सो अलग। इतना ही नहीं मोबाइल फोन के आ जाने से लोगों की याददाश्त पर भी बुरा असर पड़ा है। पहले लोगों को अपने प्रिय जनो के नंबर मुंह जवानी याद रहते थे। समय देखने से लेकर समाचार पढ़ने तक, लोग समाचार पत्र और घड़ी का इस्तमाल करते थे। मगर अब सब कुछ हाथ में ही है। इसका मतलब आपकी दुनिया का सुकड़कर छोटा हो जाना नहीं है, तो और क्या है। आम मोबाइल की तुलना में स्मार्ट फोन बेट्री भी ज्यादा खाते है। तो जब तब बेट्री खत्म होने का डर अलग लगा रहता हैं। चौथा और सब से महत्वपूर्ण कारण या नुकसान, कुछ भी कह लीजिये। फोन पर इन्टरनेट का होना। मेरी नज़र में इंटरनेट एक ब्रह्मास्त्र की तरह है। यदि सही हाथों में है तो फायदा ही फायदा और यदि गलत हाथों में पड़ जाये तो सर्वनाश निश्चित है।

जैसा कि मैंने उपरोक्त कथन में भी कहा, जहां एक और हम अपने बच्चों की पल पल की खबर रख कर खुद को चिंता मुक्त समझते हैं वहीं दूसरी और बच्चे इंटरनेट का गलत फायदा उठाते हुए उस पर वो सब देखते, सुनते और करते हैं, जो उनके लिए सही नहीं है। उसी का परिणाम है MMS का दुरुपयोग जो आजकल आए दिन लड़के लड़कियां अपने स्कूल कॉलेज में एक दूसरे का वीडियो बना बनाकर एक दूसरे को भेजते रहते हैं। जब तक यह स्मार्ट फोन नहीं आए थे। तब तक मोबाइल में केवल बात करने, संदेश भेजने, रिंगटोन सेट करने और गेम खेलने, तक ही सब कुछ सीमित था। जो शायद ज्यादा अच्छा था। मगर अब ऐसा नहीं जो एक बेहद गंभीर और चिंता जनक बात है। ऐसा मुझे लगता है। हो सकता है आप सब इस बात से सहमति न भी रखते हो। 

अब सवाल यह उठता है कि इतनी समस्याओं के बावजूद भी ऐसी क्या वजह है जो हम अपनी इतनी मेहनत से कमाई हुई गढ़ी कमाई को पानी की तरह बहाने पर मजबूर हो जाते हैं और फिर भी खुश नहीं होते। जबकि पहले फोन के बिना ही क्या, मोबाइल फोने के बिना भी हम बहुत खुश रहा करते थे।

इसके पीछे भी दो वजह है पहली कि पुराने जमाने में केवल घर का मुखिया धन अर्जन के लिए और समाज में सर उठा के जीने के लिए नौकरी करता था ताकि वह अपना और अपने परिवार का सही और सीमित ढंग से पालन पोषण कर सके। देखा जाये तो एक तरह से यह सही भी था इसके कारण घर के अन्य सदस्यों को पैसे की सही अहमीयत पता होती थी। जिसके चलते उन्हें अपनी जरूरत का भी ख्याल रहता था। शायद इसी वजह से उस दौर में लोगों का आचरण भी आज की तुलना में ज्यादा अच्छा रहा करता था। क्यूंकि जब हाथ में सीमित पैसा होगा तो आप स्वतः ही गलत मार्ग पर चाहकर भी नहीं चल सकते। फिर चाहे वो शोक पूरे करने वाली बात ही क्यूँ ना हो। फिर भी लोग अपनी चादर देखकर ही पैर फैलाते थे। शायद इसी वजह से तब बड़े पैमाने में अपराध भी कम होते थे। ऐसा मेरा मानना है।  


मगर आज ऐसा नहीं है। आज हर कोई जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है। आत्मनिर्भर बनाना चाहता है, जो एक तरह से बहुत ही अच्छी बात है इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसका नुकसान यह है कि आज लगभग घर के सभी सदस्यों के हाथ में पैसा आगया है जिसके कारण उन्हें ऐसा लगता है कि उन्होंने दुनिया जीत ली है। अब वो अपनी मर्ज़ी के मालिक है और उनके द्वारा कमाया गया पैसा, पूरी तरह से उनका है। इसलिए उस पैसे को मन चाहे ढंग से खर्च करने का भी अधिकार केवल उनका ही है। उस पैसे पर और किसी का कोई अधिकार नहीं, इस सबके चलते लोग सबसे पहले अपने शोक पूरे करना चाहते है। महंगे-महंगे कपड़े, नयी गाड़ी और नया फोन आज के दौर की सब से ज्यादा चर्चित प्राथमिकतायें हैं। जिन्हें हर कोई जल्द से जल्द हर हालत में पूरा करना चाहता है। फिर चाहे उसके लिए लोगों को कर्जा ही क्यूँ न लेना पड़े। लेकिन फोन हाथ में आते ही फोन लेने की अहम वजह खत्म होती सी मालूम होने लगती है और लोगों का अपने आस-पास की दुनियाँ से संपर्क जुडने के बजाए पूरी तरह टूट जाता है। नतीजा के लोगों की सम्पूर्ण दुनिया केवल स्मार्ट फोन में सिमटकर ही रह जाती है। जैसा आजकल हो रहा है। जहां उस दौर में लोगों की सुबह ईश्वर के नाम के साथ या बड़ों के आशीर्वाद के साथ या फिर सुबह की सैर में प्राकृतिक सुंदरता के साथ दिन की शुरुआत किया करते थे। वही आजकल सुबह की शुरुआत फोन पर अपडेट देखकर होती है।

लेकिन मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि हर दिन आते नए फोन के पीछे लोग पागल ही क्यूँ है। जब से स्मार्ट फोन आए हैं तब से मैंने तो केवल एक ही चीज़ महसूस की वही तीन चार चीजों को हर बार नए ढंग से स्पीड बढ़ाकर आम जनता के सामने लाना और उन्हें लुभाना यही तो काम करती हैं यह फोन बनाने वाली कंपनियाँ और हम अक्ल के अंधे लोगों को यह बात नज़र ही नहीं आती। आप खुद ही सोचकर देखिये आज की तारीख़ में जब कभी आप फोन लेने जाते है तो सबसे पहले क्या देखते हैं। उसका वजन, आकार प्रकार, मोटा पतला, कैमरा, 3G/4G  नेटवर्क, संदेश भेजने की नयी नयी एपलिकेशन जैसे वाट एप ,वाइबर या टेंगो ज्यादा हुआ तो GPS और ज्यादा हुआ तो फोन में डाटा सेव करने की स्पेस कितनी है और इसके अतिरिक्त साधारण फोन करने और संदेश भेजने की सुविधा तो हर फोन में अहम होती ही है। इसमें से सबसे महत्वपूर्ण चीज़ तो आपकी फोन की सिम पर निर्भर करती है। जैसे आपके फोन का नेटवर्क,वो ही सही नहीं होगा तो बाकी सब बेकार ही हो जायेगा। बस केवल इन्हीं बातों के आधार पर हम फोन खरीदते है ना। फिर कुछ दिन बाद वही कंपनी या कोई नयी कंपनी इन्हीं चीजों को नए ढंग से आपके समक्ष पेश करती है। सिर्फ नए रंग रूप के साथ असलियत तो वही होती है जो आपके पास मौजूदा फोन में पहले से है। फिर भी ऐसी क्या बात होती है, जो हम नए फोन की तरफ इस कदर आकर्षित हो जाते हैं कि हमें अपना प्यारा फोन जो बिना किसी गड़बड़ी के हमारा साथ निभा रहा होता है जिसे हमने बड़े अरमानो से खरीदा था वो ही फोन बुरा और ओल्ड फैशन लगने लगता है और हम झट से जाकर खट से अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई को दिखावे की चकाचौंध में अंधे होकर फूँक आते हैं। 

यही एक अहम वजह है कि स्मार्ट फोन का ज़माना कभी होगा न पुराना ... ज़रा सोचिए क्या यह सही है ?

इस आलेख को आप सब यहाँ इस लिंक पर क्लिक करके ज़ी न्यूज़ की साइट पर भी पढ़ सकते है।

http://zeenews.india.com/hindi/news/zee-special/what-would-be-the-oldest-set-of-smart-phone-ever/197941

Saturday, 4 January 2014

आखिर क्यूँ ???

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कुछ दिनों पूर्व सोनी चेनल पर आने वाले धारावाहिक “मैं न भूलूँगी” का एक भाग देखा। सुना है यह नया धारावाहिक अभी-अभी शुरू हुआ है। मैंने इसके पहले इस धारावाहिक का अब तक का कोई एपिसोड नहीं देखा। लेकिन जो देखा उसने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया। उस दिन मैंने देखा नायिका सड़क पर खड़ी है और रास्ते से गुज़रता हुआ कोई लड़का अचानक उस पर स्याही फेंकता हुआ निकल गया। यह दृश्य देखकर मैं सिहर उठी न जाने क्यूँ मेरे मुँह से एक प्रकार की चीख सी निकल गयी। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे साथ ही ऐसा कुछ हुआ हो और तेजाब हमले का एहसास मेरे अंदर बिजली की तरह कौंध गया। लेकिन मैं हैरान हूँ कि मात्र इस धारावाहिक के एक दृश्य से मैंने वो महसूस किया जिसके बारे में, मैं आज तक केवल सोचती आयी थी।

यह दृश्य देखने के बाद मेरा मन किया कि किसी के गले लग कर रो लूं तो शायद मेरा मन हल्का हो जाये। ऐसा लगा जैसे कुछ है, जो मेरे अंदर रिस रहा है। जैसे किसी चोट में लगा हुआ कोई कांटा या काँच जो आँखों से दिखाई नहीं देता, मगर अंदर ही अंदर चुभता रहता है। जिसके चुभने से रह-रहकर एक टीस सी उठती रही है। ठीक उसी प्रकार मुझे इस दृश्य को देखने बाद महसूस होता रहा।

पतिदेव भी मेरे ठीक बगल में ही बैठे यह दृश्य देख रहे थे। उन्होंने भी यह सब देखा, सुना, मगर उनकी प्रतिक्रिया कुछ ऐसी आयी थी कि 'अरे उसके हाथ में किताब थी न! उसको चाहिए था उस से अपने चेहरे का बचाव कर लेती, कम से कम चेहरा तो बच जाता'। मैं सोच रही थी कोई ऐसा कैसे कह सकता है। स्याही की जगह यदि तेजाब होता तो ? क्योंकि जब कभी किसी के साथ ऐसी कोई घटना या दुर्घटना घटती है तो उस वक्त उस व्यक्ति को इतना सोचने समझने का अवसर ही कहाँ मिलता है कि वो कोई समझदारी वाला कदम उठा सके।

कहने वाले कह कर निकल जाते है, करने वाले करके निकल जाते है और भुगतना केवल पीड़ित व्यक्ति को पड़ता है। समझ नहीं आता आखिर कब बदलेगी हमारी यह मानसिकता। जब हम अपराधी को सज़ा देंगे ना कि पीड़ित व्यक्ति को समझदारी का पाठ पढ़ाते हुए उसे प्रवचन देते रहेंगे। मगर फिर बाद में लगा कि अमूमन सभी तो ऐसा ही सोचते हैं। घटना हो जाने के बाद जन समूह सिवाय ऐसी बातों के और करता ही क्या है। यह तो एक आम सोच है। अगर उन्होंने भी ऐसा सोचा तो क्या नया किया। लेकिन अब इस सोच को बदलना ही होगा और यह शायद तभी संभव होगा जब हम खुद को उस पीड़ित व्यक्ति की जगह पर रखकर सोचेंगे और अपने आने वाली पीढ़ी को भी इसी तरह सोचना सिखाएँगे।

सच कैसा लगता होगा उस व्यक्ति को जिस पर इस तरह के तेजाबी हमले होते हैं। इसका मात्र अनुमान लगा पाना भी संभव नहीं है। बहुत बहादुर है वो महिलाएं जिन्होंने यह सब झेलते हुए भी आत्महत्या को नहीं ज़िंदगी को चुना। आसान नहीं है ऐसा जीवन जीना, रोज़ दुनिया की कड़वी और तीखी नजरों का सामना करना। जिनमें हमेशा या तो दया दिखे या घ्रणा। सोचकर देखो जब हमारे चेहरे पर किसी सौंदर्य प्रसाधन का विपरीत प्रभाव पड़ जाता है और उस वजह से हमारे चेहरे पर किसी प्रकार के दाग धब्बे या त्वचा रोग हो जाता है तो हम कितना बैचन हो जाते हैं। चेहरे पर लगी मात्र एक छोटी सी खरोंच भी हम से बरदाश नहीं होती। तो ज़रा सोचो उन्हें कैसा लगता होगा जिनका पूरा चेहरा ही नहीं बल्कि पूरी ज़िंदगी हमेशा के लिए खराब होकर रह गयी। लेकिन फिर भी वो ज़िंदा है।

कभी सोचा है क्यूँ ? क्यूँकि  वह महिलाएं इंसाफ चाहती हैं, जीना चाहती है।  अपने सपनों को पूरा करना चाहती है। समाज और लोगों की नज़रों में खोया हुआ अपना मान और स्थान वापस पाना चाहती है और क्यूँ न चाहे, जो भी हुआ इसमें भला उनका क्या दोष। फिर हम क्यूँ उन्हें प्रोत्साहित नहीं करते। क्यूँ उन्हें अपनेपन का एहसास नहीं दिला पाते। क्यूँ उन्हें ऐसा लगता है कि उनके साथ हुए इस घिनौने अपराध के पीछे केवल एक वो व्यक्ति ही अकेला जिम्मेदार नहीं है, जिसने उनके साथ ऐसा किया। बल्कि पूरा समाज जिम्मेदारी है। शायद इसके पीछे भी एक बड़ा कारण है पैसा। पुण्य कमाने के नाम पर हम भगवान के मंदिर में लाखों का चढ़ावा चढ़ा देते है। पंडितों को खाना खिलाते है। शादी ब्याहा में पैसा पानी की तरह बहा देते हैं। लेकिन ऐसी किसी संस्था के कामों के लिए देने को हमारे पास पैसा नहीं होता। जो तेजाब हमलों या अन्‍य दुर्घटनाओं में घायल पीड़ितों की मदद करती हो। क्यूँ ? कारण है अंधविश्वास और पूर्वाग्रह से जकड़ी हुई हमारी खोखली मानसिकता जो हमें चाहकर भी इंसान को इंसान नहीं समझने देती।

मगर पूरी तरह गलत हम भी नहीं है। क्यूंकि लोगों की भावनाओं से खेलने वाली संस्थाओं की भी समाज में कमी नहीं है। जो लोगों को उल्लू बनाकर पैसा ठग लेती है। ऐसे में यूँ ही किसी भी संस्था पर आँख बंद करके विश्वास करना ज़रा मुश्किल है। लेकिन फिर भी में यह कहूँगी कि पंडितों को भोज कराने और शादी ब्याहा में अन अनावश्यक पैसा खर्चा करने से अच्छा है ऐसी किसी संस्था से जुड़कर किसी मरते हुए इंसान की मदद कर देना! नहीं ? फिर चाहे बदले में आपका थोड़ा बहुत नुकसान ही क्यूँ न हो जाये। लेकिन कम से कम मन में यह संतोष तो रहेगा कि आपने जो किया उसको करने के पीछे आपकी मंशा और आपका रास्ता दोनों ही अच्छे और सच्चे थे।

इस सब के चलते यदि देखा जाये तो वह पीड़ित महिलाएं पूरी तरह गलत भी नहीं है। कहीं न कहीं देश की कानून व्यवस्था और प्रशासन की लापरवाही के अलावा हम सब भी इसके जिम्मेदार हैं। सोचने वाली बात यह है कि आखिर कहाँ कमी है, जो हम इस तरह के अपराधों को रोक पाने में असमर्थ है। क्या वजह है जो लोग इस तरह से बदला लेने पर आमादा हो जाते है कि उनके बदले की आग में किसी मासूम की पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो जाती है। हम हमेशा अपराध, अपराध करने वाले और पीड़ित व्यक्ति को देखते हैं और अपनी प्रतिक्रिया देते है। देश समाज कानून- व्यवस्था और प्रशासन को गरियाते है। मगर हम में से ऐसे कितने लोग है, जो इस अपराध के पीछे के कारण को जानने या समझने की चेष्टा करते है। यह काम ना तो सरकार करती है और न हम। इस तरह के अपराध करने वाले को हम मानसिक रोगी समझ लेते हैं और कुछ महीनों बाद भूल जाते हैं। कानून भी यही समझकर उन्हें बेल पर रिहा कर देता है और वो खुले आम घूमते फिरते रहते है। लेकिन पीड़ित व्यक्ति का क्या? उसे न तो सही चिकित्सा प्रदान की जाती है न इंसाफ ही दिया जाता है।

इसी बात को यदि अपराधी की नज़र से देखा जाये तो! आखिर क्या कारण होगा जिसने उसे ऐसा घिनौना और संगीन अपराध करने पर विवश कर दिया। मुझे लगता है इस के पीछे हमेशा मानसिक रोग जिम्मेदार नहीं है। इसके पीछे और भी कई कारण है जैसे नशा करना, गरीबी, बेरोजगारी समाज से मिली दुत्कार निराशा और इन सब चीजों से उत्पन्न होने वाला तनाव, कुंठा, क्रोध जो इंसान की सोचने समझने की शक्ति को खा जाता है। जिसके वशीभूत होकर इंसान सही और गलत में फर्क नहीं कर पाता और बदले की आग में ऐसे संगीन अपराध कर बैठता है।हालांकी यह सरासर गलत है। यह कोई तरीका नहीं है अपनी बात रखने का या अपना क्रोध प्रकट करने का, लेकिन क्या आप को नहीं लगता उपरोक्त लिखे सभी कारण इस सब के जिम्मेदार हो सकते हैं ? रही सही कसर न सिर्फ सरकार बल्कि हमारा आजकल का भौंडा चलचित्र और मिडिया पूरी कर रहा है जो शराब पीकर नशा करने और ब्लू फिल्म जैसी अवैध प्रसारण पर पाबंदी लगाने में नाकामयाब है।

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मैं मानती हूँ कि हर माता-पिता अपने बच्चों की अच्छे से अच्छी परवरिश करना चाहते है और करते भी है। कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को गलत संस्कारों से नहीं नवाजते। लेकिन फिर भी कहीं तो कोई ऐसी कमी है, जिसके कारण आज की पीढ़ी अंदर से खोखली है मजबूत नहीं। आज की तारीख में ज़रा–ज़रा सी बातें लोग झेल नहीं पाते। नतीजा या तो आत्महत्या कर लेते हैं या फिर इस तरह से बदला लेते हैं और सज़ा मिलती है किसी मासूम को जिसकी कोई गलती ही नहीं होती। इस तरह के मामलों में मैं सलाम करती हूँ उस “लक्ष्मी” को जिसने खुद अपने ऊपर यह सब झेला। मगर ज़िंदगी से हार नहीं मानी और ऐसे अपराधों को खत्म करने के लिए अपनी ज़िंदगी को एक नया मोड दिया और ऐसे हादसों के विरुद्ध एक लड़ाई की शुरुआत की और "स्टॉप एसिड अटैक" जैसे अभियान को चलाया। जिसके अंतर्गत तेजाब हमले से पीड़ित सभी महिलाओं को उनके इलाज के साथ –साथ जीने का नया हौसला मिलता है। जहां उन्हें यह एहसास होता है कि ज़िंदगी खत्म नहीं हुई है अभी, क्या हुआ जो तुम्हारे पास तुम्हारा चेहरा नहीं बचा, आत्मा तो अब भी बाकी है, तुम्हारे सपने, तुम्हारा हौसला तो अब भी बाकी है। जिसे तुम से कोई नहीं छीन सकता। सच ही तो है।

उस जज़्बे को मेरा सलाम और उन महिलाओं को भी जो इस कठिन परिस्थिति में भी हँसकर अपना जीवन जी रही है और उन्हें भी भाव भीनी विनम्र श्रद्धांजलि जो इस कुकर्म की भेंट चढ़ गयी।