Saturday, 22 June 2019

कैसी प्रगति कैसा विकास



जिस अखंड भारत का सपना कभी हमारे पूर्वजों ने देखा था आज वही भारत अपनी अपनी निजी समस्याओं को लेकर खंड-खंड में विभाजित होता दिखाई देता है। कहते है भारत एक प्रगतिशील देश है जिसे विकसित बनाने की निरंतर प्रक्रिया में हर क्षेत्र में विकास होना अनिवार्य है। लेकिन क्या वास्तव में विकास हो रहा है। कदाचित नहीं परंतु हाँ कागज पर तो हर क्षेत्र में विकास अवश्य हुआ है। फिर चाहे मामला रोटी कपड़ा और मकान का ही क्यूँ न हो। सरकारी दस्तावेज़ों की माने तो विकास अवश्य हुआ है। लेकिन यदि प्रामाणिक तौर पर देखा जाये तो यह विकास कहीं कहीं किसी-किसी क्षेत्र में ही देखने को मिलता है। किन्तु हाँ उस विकास का मापदण्ड हर एक व्यक्ति के दृष्टिकोण से अलग अलग प्रतिशत में कितना होगा यह कहना मुश्किल है। कहते हैं इंसान को अपने जीवनयापन हेतु तीन महत्वपूर्ण चीजों की जरूरतें होती हैं जैसे रोटी कपड़ा और मकान किन्तु मेरा मानना है कि तीन चीजों के बावजूद इंसान को इंसान बने रहने के लिए दो और महत्वपूर्ण चीजों कि आवशयकता है जिस से वह इंसान कहला सकता है और वह दो चीजें हैं चिकित्सा और शिक्षा सही समय पर चिकत्सा प्राप्त होना एक जीव के जीवित रहने के लिए जितना आवश्यक होता है उतना ही मानव जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए शिक्षा भी जरूरी है।

किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि वर्तमान में शिक्षा प्रणाली द्वारा दी जाने वाली शिक्षा अपने आप में पूर्णतः सही नहीं है। क्यूंकि आज कि शिक्षा बच्चों को एक अच्छा इंसान बनाने के बजाए पैसा कमाने कि मशीन कैसे बना जाये यह ज्यादा सिखा रही है। माना कि पैसा भी जीने के लिए अत्यंत जरूरी है। लेकिन पैसे के इतर भी कई ऐसी चीजें हैं जिनके बिना मानव जीवन अधूरा ही कहलाएगा। एक सफल जीवन तभी संभव है जब एक इंसान पैसा कमाने के साथ-साथ बेहतर इंसान कहलाने लायक भी बने। जिसमें मानवता जिंदा हो, एक दूसरे के प्रति लगाव हो, प्रेम हो सहानभूति जैसे शब्द भी उसके शब्दकोश में आते हों। पर अफसोस कि आज ऐसा नहीं है। आज की पीढ़ी से आप पैसा कैसे कमाया जाये, व्यापार कैसे आगे बढ़ाया जाये जैसे सवाल पूछकर देख लीजिये आपको ऐसे ऐसे समाधान मिलेंगे कि आपको अपने बच्चे पर गर्व महसूस होगा। लेकिन यदि आप बात आदर, सम्मान, संस्कार, शिष्टाचार कि करने लगे तो आज कि पीढ़ी बगुले झाँकती नज़र आएगी और आपको एक पुराने ख़यालों वाला दक़ियानूसी रूढ़िवादी परंपरा को मनाने वाला व्यक्ति घोषित कर दिया जाएगा। इतना ही नहीं धीर-धीरे आपसे दूरी बना ली जाएगी। परंतु इस सबका जिम्मेदार हम केवल उन्हीं को नहीं ठहरा सकते क्यूंकि इस सब में कहीं ना कहीं दोषी अभिभावक ही होते है। जो संतान मोह में सही समय पर अपनी संतान को समय रहते सही दिशा नही दिखा पाते।

खैर सब समय का फेर है, बदलाव ही जीवन है। इंसान को हमेशा समय के साथ चलना चाहिए। ऊसी में समझदारी है। वरना समय किसी के लिए नहीं रुकता। शिक्षा कैसी भी हो जरूरी होती ही है। जब समाज शिक्षित होगा तभी बदलाव आएगा । लेकिन आज जैसा बदलाव देखने को मिल रहा है अर्थात जिस तरह से अपराधों और उनसे जुड़े अपराधियों कि दरों में जिस तीव्र गति से हिजफा हो रहा है उसे देखकर तो यूं लगता है अपराध करने वालों ने कभी विद्यालयों का मुख देखा ही नहीं होगा। तभी तो आज इंसान हैवान बन गया है। यह कैसी प्रगति है और कैसा विकास है ? न किसी को किसी कि हत्या करते डर लगता है। न किसी को किसी मासूम पर बालात्कार को अंजाम देते किसी का कलेजा काँपता है। न किसी कि आँखों में शर्म ही दिखाई देती है। सब के सब बस बेशर्मी से कुकृत्यों को अंजाम देते ही दिखाई देते हैं। क्या विद्यालयों में आज अच्छे बुरे कामों कि पहचान नहीं सिखायी जाती। या फिर आज पेट कि भूख से ज्यादा शरीर कि भूख बढ़ गयी है। बच्चों को हम विद्यालय क्यूँ भेजते हैं इसलिए न ताकि वह वहाँ से अच्छी शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छे इंसान बन सकें। तो क्या सभी अपराधी कभी स्कूल गए ही नहीं या फिर उन्होने वहाँ से कुछ सीखा ही नहीं आखिर आभाव किस चीज़ का है मेरी तो समझ में ही नहीं आता जो आमतौर पर अपराध दर इस कदर बढ़ गयी है और हम बात करते हैं विकास की प्रगति की माना के हम चाँद को छोड़कर अब मंगल तक जा पहुंचे हैं। कैसे ? शिक्षा कि ही बदौलत इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन उनका क्या जो आज भी चाँद में रोटी को देखते हैं।

विकास के नाम पर तो हम आज भी पुराने ढर्रे पर चलते हुए ऊँच नीच छोटे बड़े के भेद भाव से उबर नहीं पाये हैं और बात करते हैं बदलाव की, कि "सबका साथ सबका विकास", पर क्या वास्तव में सब साथ है शायद नहीं अभी कुछ ही दिनों पहले की ही घटना है मध्यप्रदेश के किसी एक गाँव में एक दलित परिवार ने अपनी बेटी की शादी धूमधाम से कर दी। तो ऊंचे लोगों को उसमें ही समस्या हो गई किउस वर्ग ने उन लोगों कि बराबरी करने कि हिम्मत कैसे की तो उन्होने उन गरीबों के कुए में मिट्टी का तेल मिला दिया। बिना कुछ सोचे,समझे,जाने कि इसके बाद उन गरीबों का क्या होगा, उन्हें पीने का पानी कहाँ से प्राप्त होगा। भीषण गर्मी के चलते,उनके मासूम बच्चों का क्या होगा,उनके घरों कि महिलाओं को पीने का पानी लाने के लिए कितनी दूर तक पैदल चलकर जाना होगा। इस सब से किसी को कोई सरोकार नहीं है। बस बदला लेना था सो ले लिया गया। उधर चेन्नई में भी जल संकट लोगों का जीना हराम किए हुए है। मानव से लेकर जानवर तक हर कोई आज इस धरती पर जल संकट का सामना कर रहा है। लेकिन इंसान एक ऐसा जानवर है जिसे यह समझ ही नही आता है कि जहां एक और लोग पानी के संकट से जूझ रहे हैं। पानी ना मिलने के कारण मर रहे हैं। वहाँ ऐसे में कुए में तेल मिला देने से बड़ा पाप और क्या होगा। पर नही पाप पुण्य का अब मोल कहाँ !

न जाने अभी और कितना समय लगेगा एक इंसान को मात्र यह समझने में कि एक दूजे के साथ के बिना सब कुछ अधूरा है। आज जब आप किसी कि सहायता करोगे तब कल कोई आपकी सहायता के लिए आगे आयेगा। मेरा सवाल है उन वर्ग भेद वालों से कि कल को जब घर के निजी कामों को पूर्ण करने के लिए आपको किसी कि जरूरत पड़ती है, तभी आप सबको इस वर्ग कि याद क्यूँ आती है। यह आप भी जानते हैं कि उन लोगों कि सहायता के बिना आपका काम नहीं चल सकता। तो क्यूँ आप इन लोगों को सताते हो। आपको भी इनकी उतनी ही जरूरत है जितनी उन्हें आपकी जरूरत है। क्यूंकि जाब आप उन्हें काम देते हो तभी उनका परिवार पलता है। अब गुजरात कि घटना ही लेलों किसी होटल का सीवर साफ करने वाले चार लोगों की दम घुटने से मौत हो गयी थी। तब कहाँ थे यह उच्च वर्ग वाले यह वर्ग भेद रखने वाले, इतनी ही छूत पाक और ऊँचे नीच का ख्याल हैं उन्हें तो स्वयं ही क्यूँ ना साफ कर ली उन्होंने अपनी गंदगी।यह सब कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आपको उनकी और उन्हें आपकी जरूरत है। तभी काम बनेगा और तभी सही मायने में सार्थक होगा यह जुमला कि सबका साथ सबका विकास और तभी पूर्ण होगी यह प्रगति यह विकास

अन्यथा सब व्यर्थ ही है। अब यदि बात की जाए चिकित्सा के क्षेत्र की तो आज भले ही हम ने पोलियो पर विजय प्राप्त कर भारत को पोलियो मुक्त देश घोषित कर दिया हो। लेकिन आज जब की बिहार में चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों की मौत की संख्या 100 अधिक हो चुकी है और प्रशासन है कि चुप्पी साधे बैठा है और कठग्रह में खड़ाकर दिया है बेचारी लीची को तब से ना सिर्फ बिहार में बल्कि हर राज्य और हर शहर में लीची को संदिग्ध नज़र से देखा जा रहा है। जब कि सही मायनों में अभाव है सही चिकित्सा पद्धति का जिसके चलते आपातकालीन परिस्तिथि से निपटने के लिए अस्पतालों में पर्याप्त व्यवस्था ही नही है। उसी का परिणाम है जो आज इतने बच्चे महज एक बुखार से पीड़ित हो मौत की नींद सो गए। भले ही स्वस्थ संस्थाओं ने इस बीमारी को ला इलाज घोषित कर दिया हो, क्योंकि इसका अब तक कोई टीका नही बन पाया है। लेकिन यदि चिकित्सालयों में व्यवस्था पर्याप्त हो तो मुझे लगता है ऐसे संकट के समय समस्या का सामना करने में आसानी हो जाती है। अब यह चिकित्सा के क्षेत्र में कैसी प्रगति है कैसा विकास है। हद तो तब हो गयी जब कोलकाता में चिकत्सकों को मारा पीट दिया गया। वह भी एक प्रकार का बदला ही था। सोचिए ज़रा यदि चिकत्सक ही ना हो तब क्या होगा। दूसरे पर दोषारोपण करना बहुत आसान होता है। लेकिन ऐसा ना हो और सभी संस्थाए ठीक से अपना अपना काम करें कि जिम्मेदार किस कि होती है। सरकार एवं प्रशासन कि ना ? लेकिन यदि वही इन चीजों को बढ़ावा देंगे, तो गरीब जनता का क्या होगा। यह सोचने वाली बात है।

यह सब मेरी समझ से तो परे है। जानती हूँ कुछ भी कार्य यूँ हीं नही हो जाता समय लगता है कोई जादू की छड़ी घुमाने जितना आसान नही है सब कुछ लेकिन फिर विचार तो आता है।आज हम सभी को हर एक क्षेत्र में एक दूसरे के सहयोग कि बेहद जरूरत है और जब हम मेरा तेरा भूल कर बदला लेने कि नियति भूलकर एक दूसरे के लिए कार्य करेंगे। तभी होगी सही मायनों में देश कि प्रगति और तभी होगा सही मायनों में देश का विकास।
    

Monday, 10 June 2019

मृत होती संवेदनाएं



आज बहुत दिनों बाद एक मित्र के कहने पर कुछ लिख रही हूँ। अन्यथा अब कभी कुछ लिखने का मन नहीं होता। लिखो भी तो क्या लिखो। कहने वाले कहते है अरे यदि आप एक संवेदन शील व्यक्ति हो तो कितना कुछ है आपके लिखने लिए कितना कुछ हो रहा है, कितना कुछ घट रहा है और आप तो अपने अनुभव लिखते हो फिर क्यूँ लिखना छोड़ दिया आपने, क्या आस पास घट रही घटनाओं से आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अब क्या कहूँ किसी से कि मुझे किस चीज़ से कितना प्रभाव पड़ता है। मन तो करता है की समंदर किनारे जाऊँ और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाऊँ की मन की सारी पीड़ा समाप्त हो जाए। मन हल्का हो जाए। किन्तु अगले ही पल यह विचार आता है कि दर्द और पीड़ा इतनी अधिक तीव्र और गहरी है कि अपनी अंदर की चित्कार को यूँ समंदर की लहरों में घोल देने से भी मन शांत नहीं हो सकता मेरा, क्यूंकि जब आपको अपने भीतर ही कुछ जीवंत महसूस न हो तो आप क्या लिख सकते हो। भले ही लिखना भी एक तरह से आपने मन को हल्का करने का एक साधन ही है मेरे लिए। लेकिन जब चारों ओर शोर हो, चित्कार हो, शोक को, भय हो, पीड़ा हो,उदासी हो, तो कोई क्या लिखे कैसे लिखे । ऐसा लगता है सब मर रहे है। कोई जीवित नहीं है सभी केवल चलती फिरती लाशें है। जिनके पास शरीर तो है, किन्तु आत्मा नहीं है, पुतला है पर प्राण नहीं है। मुझे तो कभी-कभी  ऐसा भी लगने लगता है कि मुरदों की दुनिया है जहां केवल चलती फिरती लाशें विचर रही हैं । 

संवेदनाएं तो अब किसी में शेष नहीं है।  जिनमें है वह इस असंवेदन शील समाज में चंद आत्माय हैं। जो अपने अतिरिक्त अन्य लोगों के विषय में भी सोच लिया करते हैं। लेकिन इस असवेदन शील समाज के समंदर में ऐसे लोग मुट्टी भर ही होंगे जिनका आने वाले समय में कितना पतन होगा यह न उन्हें पता है न हमें, मुझे तो ऐसा भी लगता है कि बस अब बहुत होगया अब यह दुनिया समाप्त हो जानी चाहिए अथवा जब तक जैसा चल रहा है वह सब तो हमें झेलना ही है। क्यूंकि इस असंवेदन शील दुनिया में मंदिर में भगवान नहीं है, मस्जिद में कुरान नहीं है, गुरुद्वारे में गुरु नहीं है और गिरिजा घरों में इशू नहीं है। इसलिए हर विषय पर लोग जाती, धर्म, समुदाय को लेकर लड़े मर रहे हैं। न पीड़ित से किसी को मतलब है, न पीड़ित के परिवार से फिर चाहे वह पीड़ित किसी भी समस्या से पीड़ित क्यूँ ना हो। देखीए न बच्चे मर रहे हैं। प्रकृति क्रोधित है, क्षुब्ध है, रो रही है। इसलिए शायद हादसे बढ़ रहे हैं, हिंसा बढ़ रही है इंसान हैवान बन गया है। तभी तो बलात्कारी बढ़ रहे हैं।  

अब कहीं मासूम सी हंसी किसी का मन नहीं मोह लेती, कोई नन्ही सी किलकारी किसी को सुख नहीं पहुँचती बल्कि उसके अंदर के जानवर को जगा देती है। अब किसी बुजुर्ग का चेहरा देखकर किसी के मन मे उनके प्रति मान-सम्मान या सदभावना नहीं आता। बल्कि उनके प्रति क्रूरता आती है। कदाचित इसलिए ही वृद्धाश्र्म धड़ल्ले से चल रहे हैं। ऐसी बेरहम दुनिया में जीने से क्या लाभ ! मेरा तो मन करता है प्रलय हो और सारी दुनिया डूब जाये। फिर एक नयी संरचना हो तो कदाचित कुछ अच्छा हो जाए। तब शायद यह जाती धर्म समुदाय समाप्त हो सकेंगे वरना वर्तमान में तो यह असंभव सी बात है। अन्यथा यूं तो साँसे मिली है सब को, सो लिए जा रहे हैं। स्वार्थ का है ज़माना सो स्वार्थी हो सभी बस जिये जा रहे हैं। मैं जानती हूँ यह सब पढ़कर आप को लग रहा होगा की जाने मुझे क्या होगया है जो मैं आज इतनी निराशा जनक नकारात्मक बाते लिखे जा रही हूँ। लेकिन मैं क्या करूँ यही तो चल रहा है मेरे चारों ओर समवेदनाएं इस हद तक मर चुकी हैं कि अब तो लगता है की जैसे ज्ञान विज्ञान प्रगति तकनीकें सब के सब मिलकर मानव जीवन का नाश करने में ही लगी है। प्रकृति का प्रकोप पेड़ों का कटना, जानवरों का मारना, पानी की कमी,सूखा ग्रस्त गाँव शहर,नगर किसान भाइयों का मरना खेती के हज़ार संसाधन होने के बावजूद किसानो पर कर्जा और वो न चुका पाने के नतीजे आत्महत्या।  

यह सब कम नहीं था ऊपर से हम जैसे पढे लिखे लोगों का सोशल मीडिया पर जाकर गूगल से एक तस्वीर उठाना और दुख व्यक्त करते हुए आर.आई.पी लिख आना ही हमारे कर्म की इतिश्री और हमारी संवेदन हीनता को दर्शाता है। ऐसे समाज में किसी से क्या संवेदना की उम्मीद रखेगे आप और क्यूँ ? परीक्षा में अनुतीर्ण हुआ बच्चा जब आत्महत्या का सहारा लेता है तो हम में से ही कुछ लोग उस बच्चे की जाती धर्म समुदाय पहले देखने लगते है लेकिन उसकी उस समय क्या मनोदशा रही होगी जिसके कारण उसे जीवन मृत्यू से अधिक कठिन लगा होगा उसने मृत्यू को चुना होगा।   

यही हाल इन दिनों मासूम बच्चियों का हुआ पड़ा है। दरिंदे बढ़ रहे हैं उन्हें सिवाए शरीर के कुछ नज़र नहीं आरहा बल्कि यदि में यह कहूँ की शरीर भी नहीं उन हैवानो को बस दो इंच का चीरा दिख रहा है ऐसे लोग तो जानवरों को भी नहीं छोड़ते। ऐसे लोगों को सिर्फ यह कहकर छोड़ देना की वह दरिंदे है, मानवता के नाम पर कलंक है, हैवान है, शैतान है उनको जल्द से जल्द सख्त से सख्त सजा मिलनी ही चाहिए हमारे कर्तव्यों की इति श्री नहीं है। सोश्ल मीडिया पर जाकर अपनी इस तरह की टिप्पणी दर्ज करा देने भर से ही हम अपना पक्ष साफ नहीं कर सकते। पर होता यही है सिर्फ सजा की गुहार लगाने से ऐसे दरिंदों को सजा नहीं मिलेगी। हमें ही हिम्मत दिखनी होगी गांधी के नहीं बल्कि भगत सिंह के कदमों पर चलना होगा। तब जाकर शायद कुछ हो पाये। लेकिन मेरा उन सभी लोगों से यह कहना है जो लोग इस तरह की घटनाओं पर पीड़ित व्यक्ति की जाती धर्म और समुदाय को देखने की हिमाकत करते हैं। वह यदि वास्तव में कुछ देखना चाहते हैं और मानवता के प्रति नाम मात्र की भी संवेदना रखते हैं तो सबसे पहले यह देखें कि बच्ची, बच्ची होती है हिन्दू की या मुसलमान की है से फर्क नहीं पड़ना चाहिए वह इंसान की बच्ची है या थी इस बात से फर्क पड़ना चाहिए। इस तरह की घटना जब भी हमारे सामने आती है तब हम में से कुछ धर्म के ठेकेदार सबसे पहले खबर में मसाला ढूंढ ने निकल पड़ते है कि अरे पीड़ित बच्ची हिन्दू थी या मुसमान, दलित थी या आदिवासी और घटना जब ही हमारे सामने आती है जब उसमें क्रूरता की पराकाष्ठा हो,या दर्शायी गयी हो। जैसे निर्भाया से लेकर ट्विंकल तक खबरें वही सामने आयी जो दर्ज कराईं गयी लेकिन जो किसी भी कारण से दर्ज न हो पायी उनका क्या ? क्या उनका दुख उनकी पीड़ा बकियों से कम थी। ???

ऐसे नजाने कितने किस्से कितने जुल्म है जिनके विषय में यदि विस्तार से बात करने निकलें तो शायद शब्द कम पड़ जाएँगे लेकिन हादसे खत्म न होंगे। चाहे हत्या के मामले में प्रद्युमान ह्त्या कांड हो या पुलवामा हत्या कांड हमारे हजारों जवान शहीद हो गए और लोग उनमें वर्दी ढूंढ रहे थे की कौनसे जवान थे क्या उन्हें जवानों का दर्जा हंसिल था क्या कागज़ पर भी उनकी गिनती जवानों में होती है क्या उनके शहीद होने पर उन्हें पेंशन वगैरा मिलती है अरे मैं कहती हूँ क्या फर्क पड़ता है कि वह आर्मी से थे या नेवी से बी एस फ के थे पुलिस वाले थे या किसी और सेना के थे, थे तो आखिर हमारे ही देश के जवान ना ? जो अपना परिवार छोड़कर हमारे लिए हमारे देश, हमारे शहर, हमारे नगर कि सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। माना के यह एक दुर्घटना थी जैसे अभी हाल ही में सूरत में हुई थी जिसमें कोचिंग जाने वाले मासूम बच्चे अग्नि कांड का शिकार हुए और हमने क्या किया रोते हुए नरमुंड के साथ एक बार फिर आर आई पी लिख आए और होगया।  

सुना है आज कल एक हवाई जहाज भी गायब है। न जाने उसमें कितने लोग होंगे और नजाने उन सभी के परिवारों का क्या हाल होगा। कैसे एक अंजान डर के साय में गुज़र रही होगी उनकी ज़िंदगी हम और आप तो शायद ऐसी भयावा परिस्त्तिथी के विषय में सोच भी नहीं सकते। क्यूंकि हम इंसान हैं। किसी का दुख बाँट सकते हैं परंतु उस दुख को महसूस करने के लिए जब तक हम स्वयं उस दुख से नहीं गुजरते हम अनुमान भी नहीं लगा सकते  कि उस व्यक्ति विशेष या उसके परिवार पर क्या बीत रही होती है। यह सब संवेदन हीनता नहीं है तो और क्या है दिन प्रति दिन के यह समाचार देखते, पढ़ते और सुनते हुए मेरा तो मन ही नहीं करता कि कुछ लिखूँ क्या लिखूँ और क्यूँ लिखूँ। जब कोई पढ़कर मेरी भावनाओं को समझने वाला ही नहीं है। जब मेरी बात सिर्फ मुझ तक ही रहनी है तो मैं मौन ही अच्छी।