Monday, 26 March 2012

इंटरनेट और आपके बच्चे ....


यूं तो अपने शहर से सभी को लगाव होता है। जो इंसान जहां रह कर पला बढ़ा होता है, उसे वहीं की मिट्टी से प्यार होना स्वाभाविक बात है। ठीक इसी तरह मुझे भी मेरे भोपाल से प्यार है। हालांकी यह बात अलग है, कि जबसे मैंने अपना देश छोड़ा है, तब से मुझे पूरे देश से ही प्यार होगया है। मगर फिर भी भोपाल से जुड़ी हर बात मुझे अपनी ओर खींच ही लेती हैं। वैसे तो साधारण तौर पर मुझे समाचार पत्र पढ़ने कि आदत अब नहीं रही लेकिन फिर भी कभी कभी ऑनलाइन समाचार पत्र या टीवी पर समाचार देख सुन लेती हूँ, अच्छा लगता है।  देश दुनिया की खबरों के साथ-साथ अपने शहर की खबर भी पढ़ने को मिल जाती है और इस बात का सारा क्रेडिट में इंटरनेट को देना चाहती हूँ और देती भी हूँ। घर बैठे सभी सुविधाओं की उपलब्धि बिना किसी झंझट के आसानी से उपलब्ध जो हो जाती है। अब तो इंटरनेट मेरी रोज़ मर्रा की ज़िंदगी का वो अहम हिस्सा बन गया है, कि उसके बिना जीना मुश्किल हो गया है। जिस दिन नेट काम न करे तो पूरा दिन बेचैनी रहती है। जब तक नेट का कनैक्शन ठीक न हो जाये ऐसा लगता है, जैसे दुनिया ही ख़त्म अब कुछ है ही नहीं करने के लिए। क्या करें कहाँ जाये। यह भी एक प्रकार का नशा है जैसे ब्लोगिंग 

इसी सिलसिले में एक दिन मैंने हिन्दी समाचार पत्र दैनिक भास्कर का ई-पेपर पढ़ा जहां इंटरनेट और चेटिंग से जुड़ा एक वाक्या देखा और पढ़ा भी ,सच कहूँ तो वह सब देखने और पढ़ने के बाद मुझे बहुत हँसी आयी। यह सोच-सोच कर जहां आज की तारिख़ में इंटरनेट पर फेसबुक, जीमेल, स्काइप और चेटिंग बहुत ही आम बात है वहाँ आज भी कुछ लोग खासकर छात्र छात्राएँ इतने बेवकूफ़ हैं कि चेटिंग के दौरान किसी अजनबी से हुई बातों को इतना अहमीयत देते हैं कि बात बिगड़ने कि नौबत आ जाये। मुझे तो यकीन ही नहीं हुआ कि आज भी छोटे शहरों में यह सब होता है या यह सब होना संभव है। आज के आधुनिक युग में जहां बच्चा-बच्चा इंटरनेट की सभी सुविधाओं से और उसके गुण-अवगुण से बखूबी परिचित है। वहाँ इस प्रकार के किस्से हँसी ही दिलाते हैं। वह भी छात्र छात्रों के द्वारा किया गया कारनामा अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसा क्या देख लिया मैंने या पढ़ लिया मैंने जिसके कारण इतनी लंबी चौड़ी भूमिका बना डाली। तो चलिए अब इस सस्पेंस को यही ख़त्म करते हुए आपके सामने उस वीडियो का व्याख्यान करती हूँ।

हुआ यूं कि एक 20-22 साल का लड़का और लड़की आपस में चेटिंग कर रहे हैं पहले hi ,hello से बात शुरू होती है और बातों ही बातों में मुलाक़ात तक बात पहुँच जाती है। लड़का लड़की से मिलने के लिए ज़ोर डालता है और लड़की से फिल्मी स्टाइल में संवाद मारते हुए कहता है, कि हनी तुम्हारे ख़यालों में मेरी रातों की नींद उड़ गयी है, मैं तुम्हारा खूबसूरत सा चेहरा देखना चाहता हूँ, हनी जिसकी कल्पना में, मैं न जाने कितने हसीन ख़्वाब बुन चुका हूँ। जब तुम मिलोगी और मैं तुम्हें देखुंगा तब कैसा होगा वो मंज़र वो हसीन नज़ारा। तब उधर से वह लड़की पूछती है अच्छा क्या करोगे मुझसे मिलकर? लड़का कहता है पहले तुम्हारे करीब आऊँगा और .....लड़की पूछती है और ??? लड़का कहता है और फिर तुमको अपनी बाहों में भरूँगा और ....लड़की लिखती है blush .....इस तरह बातों-बातों में मुलाक़ात का समय और स्थान तय हो जाता है। शाम के पाँच बजे फलां-फलां साइबर कैफ़ में कैबिन नंबर 5 में मिलते हैं तभी लड़के की माँ दरवाज़े खटखटाती हुई चाय का कप लिए अंदर आती है। लड़का, लड़की से थोड़ी देर रुकने को कहता है और चेट विंडो बंद कर देता है। ठीक ऐसा ही लड़की के साथ भी होता है। माँ के जाने बाद दोनों फिर से चेटिंग शुरू करते हैं और मिलने के प्रोग्राम के अनुसार तैयार होना शुरू कर देते हैं। लड़की बहुत सज संवरकर साइबर कैफ़े पहुँचती है। जैसा कि स्वाभाविक है, उस उम्र में लड़कियों को दूसरों का आकर्षण पाना वैसे ही बहुत अच्छा लगता है, तो हर लड़की दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की दिखना चाहती है।

खैर लड़का भी बेहद अच्छे से तैयार होता है, इत्र से लेकर जितना बेचारे लड़के जो कुछ लगा सकते है सब लगा लगू कर बाइक पर स्टाइल के साथ सवार होकर साइबर कैफ़े पहुंचता है। इधर कैबिन में लड़की का दिल भी ज़ोरों से धडक रहा है.....उधर लड़के का दिल भी ज़ोरों से धड़का रहा है!!!! ना जाने क्या होगा सोच-सोच कर दोनों  अंदर ही अंदर बेहद बेचैन हैं। लड़का साइबर कैफ़े पहुंचता है, अंदर जाने से पहले खुद को बहुत नर्वस महसूस करता है। उसके हाथ ठंडे पड़े जा रहे है दिल ज़ोरों से धड़क रहा है। लगता है जैसे अभी बाहर आ जायेगा, अंदर जाने से पहले लड़का खुद को ढाढस बंधाते हुये एक बार अपने चेहरे पर हाथ फेरता है बाल संवारता है और अपनी शर्ट ठीक करता है और हिम्मत कर साइबर कैफ़े के अंदर कैबिन नंबर पाँच की ओर बढ़ता है जैसे ही दरवाज़ा खोलता है ....बता सकते है आप क्या हुआ होगा....सोचिए-सोचिए क्या हो सकता है ? दरवाज़ा खुलते ही....अंदाज़ा लगाइए वो हुआ जो कोई सोच भी नहीं सकता है। चलिये मैं ही बता देती हूँ, जैसे ही दरवाज़ा खुलता है दोनों एक दूसरे को देखकर अवाक रह जाते हैं और लड़की के मुंह से निकलता है ...भईया आप.....और यह सब सुनते ही दोनों को ऐसा लगता है यह धरती फट क्यूँ नहीं जाती। ताकि हम इसमें समा जाएँ।

यह देखकर मुझे जाने क्यूँ बहुत हँसी आई हो सकता है आप मुझे पागल समझे  क्यूंकि मुझे ऐसा लगा कि आज के जमाने में नेट पर की हुई चेटिंग को लोग असल ज़िंदगी में आज भी इतना महत्व देते हैं ? दूसरी बात घर के घर में भाई बहनो के पास दो अलग-अलग सिस्टम है और तीसरा दोनों को आपस में एक दूसरे का आईडी तक नहीं पता जबकि मध्यम वर्गीये परिवारों में समान्य तौर पर लड़की को भले ही अपने भाई का ईमेल आईडी पता हो या न हो, मगर बड़े भाइयों को हमेशा अपनी बहन के विषय में सम्पूर्ण जानकारी रहा करती है। फिर चाहे वो ईमेल ही क्यूँ न हो, इसलिए यह सब देखकर यकीन ही नहीं हुआ मुझे और शायद इसलिए मैं हँसी, लेकिन इसमें गलती उन लड़के और लड़कियों से ज्यादा यहाँ मुझे उनके अभिभावकों की नज़र आयी। माना कि ज़िंदगी में सभी की अपनी एक निजी ज़िंदगी होती है बच्चों की भी, मगर इसका मतलब यह नहीं कि आपको यह भी पता न हो कि आपके बच्चे कमरा बंद करके क्या कर रहे हैं। आपने तो पढ़ाई की सुविधा को ध्यान में रखते हुए उन्हें इंटरनेट घर पर ही उपलब्ध करा दिया। मगर उसके साथ-साथ क्या आपको नहीं लगता कि आपकी यह भी ज़िम्मेदारी बनती है, कि आप यह भी देखें के कहीं आपके बच्चे दी गई सुविधा का जाने-अंजाने कहीं कोई गलत उपयोग तो नहीं कर रहे हैं या फिर आपके बच्चे आपसे झूठ बोलकर कहीं और तो नहीं जा रहे हैं। जानती हूँ एक वक्त ऐसा भी आता है सभी अभिभावकों की ज़िंदगी में जब उनको अपने बच्चों का भरोसा जीतने के लिए उन पर आँखें बंद करके विश्वास करने की जरूरत होती है।

मगर तब भी अभिभावकों को चाहिए कि वह कम से कम कुछ एक बातों का ख़्याल ज़रूर रखें जैसे उनके बच्चे उनके द्वारा दी गई ऐसी इंटरनेट जैसे सुविधाओं का कोई गलत फायदा तो नहीं उठा रहे हैं। इसके लिए ज़रूर है अपने बच्चों को दी गई इस प्रकार की सुविधा जहां जितना जानकारी का भंडार वहाँ उतनी ही सावधानी की भी जरूरत है। उस सुविधा से संबन्धित आपको भी सम्पूर्ण जानकारी हो और समय-समय पर आप भी उनके सिस्टम की जांच करते रहें। ताकि आपको उनके द्वारा किये गए कार्यों की सही जानकारी मिलती रहे और उनके मन में भी आपके प्रति हल्का सा डर भी बना रहे, ताकि वो गलत रास्ते पर न चले जायें। क्यूंकि अक्सर ऐसी उम्र में बच्चों का मन एक बे लगाम घोड़े की तरह होता है, जो ज़रा सा मौका पाते ही बस बेखबर दौड़ता चला जाता है। बिना यह जाने कि जिस राह पर वह जा रहा है वो सही है या नहीं, उसे सही वक्त पर सही दिशा दिखाना अभिभावकों की अहम ज़िम्मेदारी है। क्यूंकि यदि वक्त रहते ऐसा न किया गया तो नतीजा हानिकारक हो सकता है और आपके बच्चे आपके हाथों से बेकाबू हो सकते हैं

इसलिए ज़रा सोचिए कहीं आपके घर में भी तो ऐसा कुछ नहीं हो रहा है न  लगता है आज की पोस्ट में कुछ ज्यादा ही चिंतन और भाषण हो गया। इसलिए आज के लिए बस इतना ही, फिर मिलेंगे किसी नए विषय के साथ तब तक के लिए जय हिन्द.

Monday, 19 March 2012

आमना सामना ...


एक इतवार की बात है मैं बहुत बोर हो रही थी कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ, लिखने के लिए भी कोई विषय नहीं सूझ रहा था और ना ही पढ़ने को ही कुछ अच्छा मिल रहा था। तो सोचा चलो और कुछ नहीं तो टीवी ही दिखते हैं। हालांकी मुझे यह भी बहुत अच्छे से पता था, कि इतवार को तो, टीवी की भी छुट्टी होती है। उस पर भी कोई खास कार्यक्रम नहीं आते, मगर वो कहते है न "कुछ नहीं से कुछ भला" बस वही सोचकर मैंने टीवी ऑन किया था, इधर उधर कई जगह कई सारे चैनल देख डाले कहीं कुछ अच्छा नहीं आ रहा था, कि तभी कलर चैनल लग गया। उस वक्त उस पर एक कार्यक्रम आ रहा था। जिसका नाम था आमना-सामना, आप सभी लोगों ने भी कभी यह प्रोग्राम कलर चैनल पर देखा हो शायद, मैंने तो यह प्रोग्राम इस इतवार को पहली बार ही देखा था।

खैर फिर मैंने सोचा चलो यही देखते हैं थोड़ी देर, क्या है इस प्रोग्राम में, लोग क्यूँ इतनी बहस कर रहे हैं। आख़िर किस विषय को लेकर लोगों ने इतना बवाल मचा रखा है। सोचा चलो थोड़ी देर देखते हैं। समझ आया तो देखेंगे वरना बंद कर देंगे। तब साथ ही साथ एक ख़्याल और भी आया, काश ज़िंदगी भी कुछ इसी तरह की होती तो कितना अच्छा होता कि जब मन किया अपने हिसाब से तय कर लिया,कि ज़िंदगी के इस सफर में क्या देखना है क्या नहीं, खैर वो बात अलग है, फिर थोड़ी देर मैंने यह प्रोग्राम देखना शुरू किया तो क्या देखती हूँ। एक लड़की है रोशनी उसकी सगाई किसी मनीष नाम के लड़के साथ हुई थी। मगर अब दोनों परिवार एक दूसरे पर फरेब और धोखाधड़ी का इल्ज़ाम लगाते हुए इस प्रोग्राम में बहस कर रहे हैं। अब पता नहीं यह किसी प्रकार का रियलिटी शो था, या किसी और तरह का कोई कार्यक्रम, वैसे इस तरह के कार्यक्रमों में जो भी दिखाया जाता है। वो सच से कोसों दूर होता है और जो दिखाया जाता है वो महज़ टी. आर. पी बढ़ाने के लिए इसलिए इस प्रोग्राम में उठाए गए विषय पर गौर करना हो सकता है, एक बेवकूफी साबित हो। पहले लगा जाने दो यह तो महज़ एक दिखावा है हकीकत में ऐसा थोड़ी न होता है। फिर लगा, क्या पता आजकल होने लगा हो, मगर इस प्रोग्राम को देखने और उठाए गए विषय पर सोचने के बाद मेरे भी दिमागी कीड़े शिखा जी के दिमागी कीड़ों की तरह कुलबुलाने लगे और मन करने लगा कि इस विषय पर कुछ लिखा जाये।

तो बस लीजिये लिख डाला हमने, प्रोग्राम का विषय था, दो परिवारों के बच्चों के बीच हुये सगाई के रिश्ते को लेकर की गई धोखाधड़ी। लड़के वालों का कहना था,कि हमको लड़की वालों ने बहुत बड़ा धोखा दिया है। शादी की एक मेट्रीमोनियल साइट पर लड़की के प्रोफ़ाइल फ़ोटो को देखकर लड़के ने लड़की को पसंद कर लिया। बात आगे बढ़ी मगर लड़की वालों ने लड़के लड़की को कभी आपस में मिलने नहीं दिया, ना ही बात करने दी क्यूंकि लड़की का जैसा फ़ोटो लड़की के पिता ने उसकी प्रोफ़ाइल में लगाया था वो हकीकत से बहुत अलग था। अब इस बात से आप यह तो समझ ही गए होंगे, कि लड़की का प्रोफ़ाइल फ़ोटो कैसा और कितना खूबसूरत रहा होगा, जबकि लड़की का रंग वास्तव में बहुत काला था। यह तो था लड़के वालों का आरोप, उधर लड़की वालों का कहना था कि हमने कोई नया काम नहीं किया। हर ऐसी लड़की की जो देखने में सुंदर ना हो अर्थात जिसके पास कोई रंग रूप ना हो, उसके माता पिता ऐसा ही करते है। लड़की के पिता का कहना था, कि एक लड़की का पिता होने के नाते मैं और क्या कर सकता था।

इतना ही नहीं लड़की को भी भरी सभा में बुलाया गया सभी ने उस लड़की में और उसकी प्रोफ़ाइल फ़ोटो में लगी फोटो को ध्यान से देखा और लड़की के माता-पिता से कहा। यहाँ गलती आपकी ही सबसे ज्यादा नज़र आ रही है। आखिर आपने ऐसा क्यूँ किया? ऐसा करके न सिर्फ आपने लड़के वालों को बल्कि खुद अपनी बेटी की भावनाओं को भी बहुत दुख पहुंचाया है। जबकि आपको तो इस बात पर गर्व होना चाहिए था, कि आपकी बेटी ने अपने रंग रूप को कभी अपनी कमजोरी नहीं माना। लेकिन आज आप की इस हरकत ने उसे यह महसूस करा दिया, कि उसके पास रंगरूप नहीं है, मतलब उसमें कोई कमी है।

अभी बहस जारी है, कि बीच में यह मुआ ब्रेक आ गया, यह सब देख सुनकर जैसे अचानक यह कार्यक्रम रोचक लगने लगा था और पूरा देखने की इच्छा होने लगी, कि आखिर इस बहस का क्या अंत होता है। जैसे तैसे ब्रेक ख़त्म हुआ, तो देखा कि लड़की ने जूरी सदस्यों के सामने कहा, मुझे भी इस विषय में बहुत कुछ कहना है। जूरी ने इजाज़त दी उसने कहना शुरू किया। मैं यह नहीं कहती कि मेरे पापा ने जो किया वो सही किया या गलत किया। मगर जिस तरह के आरोप आज उन पर यहाँ लगाये जा रहे हैं, वह सरासर गलत हैं। क्यूंकि यदि आप ग़ौर करें जैसा कि इन्होंने खुद ही कहा, कि सगाई होने तक मेरे माता पिता ने मुझे इनसे मिलने तक नहीं दिया। बात भी नहीं हुई हमारी यदि ऐसा ही था तो, इन्होनें सगाई के लिए हाँ क्यूँ की और रोके के नाम पर मेरे पापा से 2 लाख रूपये क्यूँ लिए? रही बात धोखे की, तो मैंने माना कि मेरे पापा ने मेरा ऐसा फोटो लगाकर गलती की, तो क्या इन्होंने कोई गलती नहीं की, मेरी इन से चैट पर बहुत बार बात हुई, लेकिन यह बात मेरे माता पिता को पता नहीं थी। तभी मैंने इन्हे सारी सच्चाई बता दी थी, कि जैसा मेरा फोटो आपने वहाँ मेरे प्रोफ़ाइल में देखा है मैं वैसी बिलकुल नहीं हूँ। मैं आपको अपना एक साधारण सा फोटो मेल के द्वारा भेज रही हूँ, उसे देखने के बाद ही आप तय कीजिये। मगर लड़के ने इस बात से भी साफ इंकार कर दिया, कि ना ही मैंने कभी इनसे बात की है और ना ही मुझे इनका कोई फोटो मिला।

इतना ही नहीं वहाँ उस फोटोग्राफर को भी बुलवाया और पूछा गया कि क्या अपने यह फोटो किसी के कहने पर ऐसी खींची थी या कोई और कारण था। उसने भी कबूला हाँ यह फोटो मैंने ही खींची है और मेरे यहाँ शादी के लिए इस तरह के खूबसूरत फोटो खिंचवाने के लिए लोग बहुत दूर-दूर से आते हैं और इस तरह की फोटो बनाने के लिए पैसा भी बहुत लगता है। इसलिए हम बगैर किसी की इजाज़त के ऐसी तस्वीरे नहीं बनाते। सच्चाई जानने के उदेश्य से लड़की का कंप्यूटर चैक किया गया। वहाँ से उसकी चैट हिस्ट्री मिली जहां इस बात का प्रमाण था, कि उसने लड़के से बात की है और वह उसे सारी हकीकत पहले ही बता चुकी है, यहाँ तक की उसके मेल बॉक्स में सेंट आइटम में जाकर वो मेल भी देख ली गई जिसमें उसने मनीष को अर्थात लड़के को अपना साधारण फोटो भेजा था। यह गज़ब भी कम नहीं था उधर यह भी खुलासा हो गया कि मनीष की सगाई रोशनी के साथ होने से दो दिन पहले किसी और लड़की के साथ भी हो चुकी है। थोड़ी देर बस यही सब चला और बात हाथापाई तक पहुँच गई किसी तरह दोनों पक्षों को शांत कराया गया और जूरी से अपना फैसला सुनाने को कहा गया।  नतिजन फैसला यह हुआ कि दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जगह गलत है इसलिए इन दोनों का यह रिश्ता नहीं होना चाहिए।

दोनों को चेतावनी देकर छोड़ दिया गया और प्रोग्राम ख़त्म हो गया। मगर अपने पीछे बहुत से सवाल छोड़ गया क्या आज के युग में भी रंगरूप पढ़ाई लिखाई और आंतरिक गुणों से ज्यादा महत्व रखता है ? लड़की यदि सुंदर है रूपवती है मगर गुण नाम की कोई चीज़ उसमें नहीं है, तभी क्या ऐसी लड़की को आप महज़ उसकी सुंदरता के बल पर अपने घर की लक्ष्मी बनाना पसंद करेंगे और यदि किसी लड़की के पास रूपरंग नहीं मगर गुणों की खान है तो क्या आप उसे महज़ इसलिए ठुकरा देंगे कि वो सुंदर नहीं है? देखने में अच्छी नहीं है।अगर ऐसा है भी तो इसमें उस लड़की का क्या दोष भगवान ने सभी को बनाया है कोई गोरा है, तो कोई काला मगर जब उसने भेद नहीं किया तो हम-आप भला भेद भाव करने वाले कौन होते है। अहम बात है लड़का लड़की की आपसी सोच का मिलना आपकी और उस परिवार की सोच का मिलना। क्यूंकि शादी सिर्फ दो इंसानो का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन भी है। भगवान श्री कृष्ण का रंग भी तो सावला है, उसे तो हम उसके रंगरूप के आधार पर नहीं पूजते, तो फिर इन्सानों में यह भेद भाव क्यूँ? किस लिए ? अफसोस तो इस बात का होता है, कि इस विषय को लेकर भी पिसती बेचारी लड़कियाँ ही हैं, क्यूंकि वो कहते है ना कि अपने देश में

"लड़का खुद भले ही काला भूत ही क्यूँ ना हो 
मगर लड़की उसको हमेशा 
गोरी सुंदर नार नवेली ही चाहिए"

आख़िर ऐसा क्यूँ और कब तक ? कम से कम आज के युग में तो जहां एक ओर लड़कियों को भी यह अधिकार खुलकर मिल गया है, कि अरेंज मैरेज ही क्यूँ ना हो, वह वहाँ भी अपनी पसंद के अनुसार अपने जीवन साथी का चुनाव कर सकती है। वहीं दूसरी ओर आज भी कुछ परिवार अब भी इस स्तर पर आकर क्यूँ नहीं सोच पाते क्या इतनी मजबूत हैं समाज की यह बेड़ियाँ ,जो अभिभावकों को अपने बच्चों की खुशी तक देखने नहीं देना चाहती ??? मेरा मानना तो यह है, कि रंग सवाला होना किसी के सुंदर न होने का कोई प्रमाण नहीं है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जिनका रंग भले ही सावला हो मगर स्वभाव और नैन नक्श इतने सुंदर होते हैं, कि देखते ही बनते हैं। ठीक ऐसा गोरे लोगों के साथ भी होता है, सिर्फ रंग गोरा होना खूबसूरती का प्रमाण नहीं रंग के साथ दिल भी खूबसूरत होना चाहिए। मगर अफसोस कि यह जानते हुए भी कि बाहरी खूबसूरती तो वक्त के साथ एक न एक दिन ढल ही जाएगी मगर आंतरिक सुंदरता कभी नहीं ढलती, फिर भी लोग आज के इस आधुनिक युग में भी दिल को कम और बाहरी खूबसूरती को ज्यादा देखते हैं। 

अब आप की बारी है, अब आप सब जूरी के सदस्य बन जाइए और अपने विचारों से बताइये, कि आप सबकी क्या राय है ? :-)

Tuesday, 13 March 2012

पान सिंह तोमर


आज जब यह फ़िल्म देखी तो बहुत अच्छा लगा कि बहुत दिनों बाद कोई अच्छी हिन्दी फ़िल्म देखने को मिली। पहले तो सोचा नहीं था कि इस विषय में कुछ लिखूँ मगर यह फ़िल्म देखने के बाद कई सवालों ने मेरे दिलो दिमाग पर दस्तक दी और कहा कि यूं तो समीक्षा किसी भी चीज़ की जा सकती है। मगर यदि किसी अच्छी फ़िल्म की समीक्षा न की जाये तो वह शायद बेइंसाफ़ी होगी। यह फ़िल्म मुझे बहुत पसंद आई मगर पता नहीं मैं इस फ़िल्म की ठीक से समीक्षा कर भी पाऊँगी या नहीं, इसलिए अब फैसला आपको करना है कि मैं इस प्रयास मे कहाँ तक सफल हो पायी, नतीजा चाहे जो हो मगर मैं कोशिश ज़रूर करना चाहती हूँ। क्यूंकि यह एक ऐसी फ़िल्म है जो यथार्थ के बहुत करीब है। जो अपने आप में एक आम कलात्मक फिल्मी होते हुए भी बिना किसी भी तरह के बनावटी रोमांस और आइटम नंबर के लोगों में अपनी पहचान बना रही है। हाँ यह ज़रूर हो सकता है,कि इस फ़िल्म को पसंद करने वाले बहुत कम लोग हो, जो मेरी तरह की सोच रखते हो, क्यूंकि जैसा मैंने पहले भी कहा कि इस फ़िल्म में आम हिन्दी फिल्मों की तरह कोई आइटम नंबर का मसाला नहीं है बल्कि सिर्फ एक सच है। जिसे पर्दे पर देखकर एक बार आपकी अंतर आत्मा आपको दिखाये गए विषय पर सोचने के लिए मजबूर ज़रूर करती है।

यह एक ऐसे युवक की कहानी है, जिसके अंदर देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज़्बा है। कुछ से मतलब कुछ भी गाँव का एक युवक जिसका नाम है "पान सिंह तोमर" जिसका किरदार निभाया है "इफ़रान खान" ने उन्हें इस फ़िल्म में देखकर जाने क्यूँ ऐसा लगता है, कि शायद यदि उनकी जगह यह रोल किसी और ने किया होता तो बात नहीं बनती जो उनके अभिनय से बनी, ज़मीन से जुड़े हुए एक आम इंसान का ऐसा प्रदर्शन यूं इतनी सादगी और पूरी निष्ठा से निभा पाना बहुत मुश्किल बात थी। वैसे यह मेरी सोच है, हो सकता है आप सबको ऐसा न भी लगे मगर उन्होनें यह पात्र कमाल का निभाया इसमें कोई दो राय नहीं है। :)
खैर हम बात फ़िल्म की कर रहे थे फ़िल्म की नींव है किस तरह एक मेहनती और ईमानदार जोशीला इंसान जिसके अंदर देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना है वह किस तरह पहले मिलिट्री में भरती होकर देश के लिए खेलता है और स्वर्ण पदक जीतते हुए अंत में किस तरह बागी बन जाता है। फ़िल्म शुरू होती है उसे बागी बने एक आम इंसान के साक्षाकार से, इस फ़िल्म में एक संवाद है "बागी बीहड़ में और लुटेरे पार्लियामेंट में पाये जाते है"। यूं तो यह कहानी चंबल के एक बागी पर आधारित है।

मगर यह कहानी कुछ अलग है इस कहानी में एक मासूम मगर जोशीला गाँव का एक युवक पहले देश सेवा और अपने परिवार के जीवन यापन की खातिर मिलिट्री में भर्ती होता है। देखने में दुबला पतला मगर दौड़ने में बहुत तेज़, जिसकी खुराक स्वाभाविक है ओरों से ज्यादा ही होगी। जब वही व्यक्ति अपनी छुटटियाँ ख़त्म होने के बाद भी दो दिन देर से वापस नौकरी पर आता है। तो उसे सजा के तौर पर अपना सारा समान अपने कंधों पर उठाकर तेज़ दौड़ने कि सजा दी जाती है। जो उसे सजा कम मज़ा ज्यादा देती है, क्यूंकि उसे दौड़ने का शौक होता है और फिर जब वो खाना खाने के लिए बैठता है, तो उसे एक सीमा के बाद यह कहकर रोक दिया जाता है, कि तुम फौज में भर्ती हुए हो बारात में नहीं आए हो हर सैनिक की खुराक फ़िक्स है। तू ही सबके हिस्से का खा लेगा तो बाकी क्या भूखे मरेंगे और जब जवाब में वो यह कहता है, कि मेरी खुराक इससे ज्यादा है तो मैं क्या करूँ, तब उसे खेलों में भर्ती होने की सलाह एवं हिदायत दी जाती है।

खुराक के पीछे बंदा खेल में भी भर्ती होने को राज़ी हो जाता है। जहां उसका इम्तहान लेने के लिए उसे एक आइसक्रीम का डिब्बा दिया जाता है अपने सिनयर अफसर के घर पहुंचाने के लिए वो भी पिघलने से पहले और वो दौड़कर जाता है और 4 मिनट में वो आइसक्रीम अपने अफसर के घर पहुंचा कर आता है उसे दौड़ के खेल में स्थान दे दिया जाता है। हालांकी सभी अफसर यह जानते हैं कि वीएच खेलों में सिर्फ खुराक के लिए आया है मगर उसे खेल में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है। मगर वहाँ भी उसे खुराक पूरी नहीं मिल पाती फिर भी वो अपने शौक की खातिर खेलता जाता है। एक दिन नेशनल लेवल की दौड़ में जीतकर देश के लिए स्वर्ण पदक हासिल करता है। तभी उसे मौका मिलता है जंग पर जाने का, जिसका हर सिपाही को इंतज़ार होता है। मगर उसे जाने नहीं दिया जाता। क्यूंकि मिलिट्री का नियम है, कि खिलाड़ी देश की अमानत है। उसे जंग पर नहीं भेजा जा सकता है। वीएच कहता भी है कि भले ही मुझसे मेरे सारे पदक मेडिल ले लो मगर मुझे जंग पर जाने दो मगर उसे जाने नहीं दिया जाता 1962-1965 दो बार उसके हाथ से यह मौका निकल जाता है। उधर उसके गाँव में उसके ही रिश्तेदार ज़मीन को लेकर झगड़ा करते है।

इसी तरह ज़िंदगी गुज़र रही होती है कि रिटायरमेंट आ जाता है और उसकी जगह उसके बेटे को नौकरी दे दी जाती है। साथ में यह भी कहा जाता है कि तुम एक बहुत अच्छे खिलाड़ी हो जब चाहे यहाँ ट्रेनर के रूप में दुबारा नौकरी पर आ सकते हो। मगर वह उस वक्त मना कर देता है क्यूंकि उसे अपने घर के किस्से सुलझाने होते है। वर्दी का सम्मान करते हुए वह अपने ज़मीन के किस्से को कानूनी तरीके से संभालना चाहता है यह सोचकर कि उसने देश के लिए बहुत कुछ किया है। कम से कम कानून उसकी सहायता करेगा मगर उसके हाथ सिवाए निराशा के और कुछ नहीं आता बात इतनी बढ़ जाती है कि एक दिन रिश्तेदारों के आपसी मतभेद के चलते उसकी माँ और और अन्य लोगों को गोली मार दी जाती है और यही हालत उसे बागी बना देते हैं। 
यह सब पढ़कर शायद आप सभी को यह फिल्म बहुत आम लग रही होगी साथ ही यह भी महसूस ज़रूर हो रहा होगा की ऐसे हालात तो कई बार कई हिन्दी फिल्मों में दिखाये जा चुके हैं इसमें क्या ख़ास है ? है ना !!! यही लग रहा है न आप सबको तो मैं यहाँ आपके इस प्रश्न के उतार में कहना चाहूंगी की हाँ फिल्म की कहानी भले ही कितनी भी आमहो मगर इसमें किया गया हर के पात्र का अभिनय और प्रदर्श इतना प्रभावशाली है की देखकर मज़ा आजाता है। मुझे तो बहुत मज़ा आया बाकी तो पसंद-अपनी-अपनी ख्याल-अपना-अपना वाली बात सभी के साथ है ही, :) अब अगर इस से ज्यादा मैंने और कुछ कहा तो आपका फ़िल्म देखने का मज़ा ही खराब हो जायेगा मगर अंत में इतना ज़रूर कहना चाहूंगी कि इस फ़िल्म की जान है इस फ़िल्म की सादगी और भाषा। यूं तो ऐसी कई फिल्में आपने देखी ही होंगी, मगर फिर भी यह फ़िल्म अपने आप में एक आम फिल्म होते भी खास है। 
मगर इस फ़िल्म को देखने के बाद सबसे पहला प्रश्न दिमाग में यह आता है कि आखिर क्यूँ हमारे यहाँ एक बेहतरीन खिलाड़ी का नाम नहीं हो पाता और जब वही आम इंसान बागी बन जाये तो अचानक से सुर्खियों में आ जाता है। मैं यह नहीं कहती कि सबके साथ ऐसा ही होता है। कई बड़े खिलाड़ी इसका उदाहरण है। मगर आज भी हमारे गाँव में, या यूं कहा जाये कि ग्रामीण इलाकों में न जाने ऐसे कितने पान सिंह है जो अपनी प्रतिभा के दम पर देश को बहुत आगे ले जा सकते है, मगर भूख, गरीबी और लाचारी के आगे इंसान विवश हो ही जाता है और रही सही कसर पैसे वाले लोग पूरी कर दिया करते हैं, जबकि सच तो यह है कि कोई भी इंसान जन्म से बुरा नहीं होता। मगर वक्त और हालात कभी-कभी ना चाहते हुए भी उसे बागी बना देते हैं।

यकीन न हो तो एक बार समीक्षा के आधार पर आज़मा कर देख लीजिये मुझे पूरी उम्मीद है यदि हमारी पसंद मिलती है तो यह फ़िल्म आपके लिए घाटे का सौदा साबित नहीं होगी। :)

फिर भी यदि ऐसा हो तो उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। :)

Thursday, 8 March 2012

महिला दिवस


 सबसे पहले तो मेरी ओर से आप सभी को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनायें 

लो जी फिर आ गया एक और दिवस यानी महिला दिवस वैसे तो फरवरी का पूरा महिना कोई न कोई दिवस मनाने में ही निकल जाता है। शुक्र है मार्च में भी एक दिवस आता है, जो हर वर्ष 8 मार्च को मनाया जाता है। वैसे देखा जाये तो वक्त बदला युग बदले और उसके साथ बहुत कुछ बदल गया। क्यूंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है और यदि बात की जाये महिलाओं की तो बात ही क्या, आख़िर जब एक नारी देश चला सकती है। तो क्या कुछ नहीं कर सकती। आज महिलाओं ने भी बहुत हर क्षेत्र में बहुत तरक्की कर ली है और खुद को साबित कर दिखाया है,कि हम किसी से कम नहीं, फिर चाहे वो इंदिरा गांधी हो या आज हमारे देश की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ देश और समाज की उन्नति के लिए महिलाओं का योगदान किसी भी नज़रिये कम रहा हो। जिसका प्रमाण है यह चहरे। जिनके योगदान को किसी भी नज़रिये से अनदेखा नहीं किया जा सकता। लेकिन यह कहना भी शायद गलत नहीं होगा, कि हमारे समाज में ऐसे चेहरों की भी कोई कमी नहीं है। जो दिन रात समाज सेवा करते हैं, मगर कभी सामने नहीं आ पाते।
लेकिन यदि इस विषय में गौर से सोचा जाये तो क्या हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति में कोई खासा परिवर्तन हुआ है? इस बात को लेकर कभी मन कहता है हाँ, तो दूजे ही पल मन कहता है ना। देखा जाये तो यह परिवर्तन आया तो है, मगर वर्गों में बटकर रह गया। जैसे निम्न वर्ग की बात की जाये तो वहाँ महिलाओं की स्थिति आज भी वैसी की वैसी ही है जैसे पहले हुआ करती थी। बल्कि कई इलाके तो ऐसे हैं, जहां आज भी वहाँ रहने वाली महिलाओं की स्थिति बद से भी बदतर है। जहां प्रगति या जागरूकता किस चिड़िया का नाम है, लोग आज भी नहीं जानते। जहां जीवन यापन हेतु आज भी महिलाओं का शोषण किया जाता है। जहां भूख और गरीबी के चलते देह व्यापार जैसी समस्यायें मुंह बाये खड़ी रहती है। जहां आज भी यह सोच है,कि महिला पुरुष की अर्धांगिनी नहीं उसके पैर की जूती है। जिसे वह जब चाहे, जैसे चाहे उसकी मर्ज़ी जाने बिना उसका इस्तेमाल कर सकता है। जहां कुछ मुट्ठी भर लोग अपने आपको दबंग दिखने के लिए महिलों के साथ दुरव्यवहार किया करते हैं। आख़िर क्या कारण हो सकता है ऐसी संक्रीर्ण मानसिकता ? भूख, गरीबी, लाचारी या फिर शिक्षा का अभाव ? 

अब यदि बात की जाये दूसरे वर्ग की तो वह है हमारा मध्यम वर्ग जहां महिलाओं की उन्नति काफी हद तक हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं है। तब ही अधिकांश जगहों पर और लगभग सभी मध्यम वर्गीय परिवारों में महिलाओं को घर से बाहर निकलकर नौकरी करते देखा जा सकता है। मगर वहाँ भी दहेज प्रथा जैसी कुप्रथाओं से महिलाओं को आज़ादी अब तक नहीं मिल पायी है पढ़ी लिखी कामकाजी बेटी के होते हुए भी उसके परिवार वालों को विवाह के वक्त दहेज देना ही पड़ता है। इतना ही नहीं काम के दौरान भी उन महिलाओं को बहुत कुछ सुनना और सहना पड़ता है। क्यूंकि यदि महिला सीधी सादी है, किन्तु एक ही जगह पुरूषों के साथ काम करने की वजह से उसे अपनी सहकर्मी पुरुषों के साथ काम करने के लिए, मित्रवत सम्बन्ध बनाने के लिए भी बहुत सोच समझ कर कदम उठाना होता है। क्यूंकि यदि वह पुरूषों की तरह व्यवहार करे तो लोग उसे बोल्ड, बिंदास और आधुनिक या फिर चरित्रहीन होने का खिताब दे डालते है और यदि वह अपने सहकर्मियों के साथ स्त्रियोचित व्यवहार करे तो भी उसे कमजोर, ढोंगी या नाटकीय करार दे दिया जाता है अर्थात दोनों ही सूरतों में महिलाओं को ही लोग गलत ठहराते है। तो क्या यह है उन्नति की परिभाषा ? 

अब यदि हम बात करें तीसरे वर्ग की तो अब बारी है उच्च वर्ग की तो वहाँ महिलाएं जो भी करती है, तो वह केवल खुद के लिए करती हैं। उनके द्वारा किए गए किसी भी कार्य का संबंध न तो समाज से होता है और न ही उनके परिवार से, वास्तविकता यही होती है, कि वो कहावत है न "बैठा बनिया क्या करे सैर तराजू तोले"वैसा ही कुछ हाल यह उच्च वर्गीय महिलों का भी है। मैं यह तो नहीं कहती, कि सभी एक से होते हैं। मगर इतना ज़रूर कहना चाहूंगी, कि अधिकांश ऐसा ही होता है। केवल दिखावा....समाज सुधारक के नाम पर जितने भी कार्य यह उच्च वर्ग की महिलों के द्वारा किए जाते है, वह महज़ एक दिखावे से ज्यादा और कुछ नहीं होते ताकि उनकी सोसाइटी में उनका रुतबा बना रहे। इस बात को मद्देनज़र रखते हुए जहां तक मेरी सोच और समझ कहती है इसे तो परिवर्तन या प्रगति का नाम नहीं दिया जा सकता। तो आख़िर बदलाव आया कहाँ ? और क्या बदला जो जैसा तब था,वह आज भी तो वैसा ही है कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि आज से अच्छी महिलाओं की स्थिति तो रामायण और महाभारत के जमाने में हुआ करती थी शायद, जहां शिक्षा के नाम पर बालक एवं बालिकाओं का सही और एक सी शिक्षा प्रदान की जाती थी। साथ ही उनके अपने कुछ अधिकार भी हुआ करते थे। जो सर्वमान्य हुआ करते थे। आज के युग में स्त्री के पास अधिकार तो बहुत हैं। मगर उसका पालन कर पाने की क्षमता बहुत ही कम महिलाओं में देखने को मिलती है। या यूं कहिए साधारण तौर पर घर की महिलाओं को उनके उस अधिकार का पालन करने ही नहीं दिया जाता। कभी समाज के नाम पर तो कभी के परिवार की इज्ज़त के नाम पर उनके पैरों में बेड़ियाँ डाल दी जाती है।

अंततः तीनों वर्गों को ध्यान में रखते हुए कहा जाये तो यही निष्कर्ष निकलता है कि महिलाओं की उन्नति तो हुई है मगर बहुत कम, अभी भी बहुत कुछ होना और बहुत कुछ पाना बाकी है। जिसके लिए बहुत सारे महत्वपूर्ण प्रयास जो हो भी रहे हैं, उनका जारी रहना बहुत ज़रूरी है। जैसे सबसे पहला और महत्वपूर्ण प्रयास जो कि मेरी नज़र में है वह है शिक्षा, क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो लोगों की सोच में कुछ हद तक परिवर्तन ला सकता है। दूसरा भूर्ण हत्या को रोक कर बेटी बचाओ अभियान का समर्थन, और तीसरा दहेज प्रथा का खात्मा क्यूंकि जब तक हमारी सोच नहीं बदलेगी, देश नहीं बदलेगा और देश को बदलने के लिए शुरुवात हमको हमारे घरों से करनी होगी, इसलिए अपनी सोच को बदलिये। स्त्री का सम्मान कीजिये क्यूंकि यदि एक स्त्री किसी घर को स्वर्ग बना सकती है, तो वही स्त्री उसी घर को नरक भी बना सकती है।इसलिए अपनी सोच में बदलाव लाइये यदि पुरूषों से वंश चलता है तो उसके वंश को जन्म भी एक स्त्री ही देती है, जब वही नहीं होगी तो वंश आगे बढ़ेगा कैसे ? यदि बेटा घर का कुलदीपक है तो बेटी भी घर की इज्ज़त है यदि इज्ज़त ही नहीं तो दीपक का क्या लाभ???? ज़रा सोचिए क्यूंकि जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलेंगे तब तक कुछ नहीं हो सकता। जय हिन्द .....                    

Saturday, 3 March 2012

एक प्रेम कहानी



आज बरसों बाद दोनों उम्र के उस पड़ाव पर आकर एक दूसरे से मिल रहे हैं। जहां मोहिनी का मोह लगभग खत्म होने को है, बालों में सफेदी आ चुकी है आँखों से भी अब ज़रा कम ही दिखाई देता है। मगर आज इतने सालों बाद मिलने पर भी दोनों के दिल ऐसे धड़क रहे हैं जैसे कोई पहली बार प्यार के इज़हार में मिला करता है, दोनों अपनी अपनी यादों को ताज़ा करते हुए एक दूसरे की पसंद को याद करते हुए मिलने से पहले तैयार होते हैं मोहिनी अपनी यादों को ताज़ा करते हुए मोहित की पसंद को याद करती है और अपने लिए गुलाबी साड़ी का चयन करती है। मगर आईने में खुद को देख ज़रा ठिठकती है, कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर शायद यह रंग उस पर अच्छा ना लगे और कहीं लोग यह न कहें कि "बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम", असमंजस में पड़ी मोहिनी कुछ देर उस गुलाबी साड़ी को अपने हाथों में लपेटे सोच में पड़ जाती है। उधर मोहित भी मोहिनी के ख़्याल में गुम उसकी पसंद के बारे में सोचकर मंद-मंद मुसकुराता है और गहरे नीले रंग की शर्ट का चयन करता है तब उसे बहुत याद आता है वो पल जब मोहिनी ने खुद उसके लिए यह गहरे नीले रंग की शर्ट पसंद की थी और कहा था तुम्हारे गोरे रंग पर यह रंग बहुत खिलता है मोहित, रात में मुझे यही रंग नज़र आता है यदि तुम यह रंग पहनोगे तो मुझे ऐसा महसूस होगा कि रात में भी तुम मेरे नजदीक ही हो।

अभी दोनों एक दूजे के ख्यालों में खोये हुए हैं ,कि सहसा दोनों की नज़र घड़ी की ओर जाती है और दोनों ही दुनिया की परवाह किये बगैर एक दूजे की पसंद को ध्यान में रखकर तैयार होते हैं और तय की हुई जगह पर मिलने के लिए पहुंचते है, एक दूजे को देखते हुए जैसे दोनों के मन से एक ही बात आहिस्ता से निकलती है "कुछ याद आया" ओर एक खूबसूरत सी मुस्कान के साथ सारा माहौल खुशगवार सा हो गया। मोहित ने मोहिनी से कहा आज भी तुम पर यह गुलाबी रंग उतना ही खिलता है मोहिनी जितना कि तब खिला करता था। मोहिनी ने उस वक्त भी अपनी मोहक सी मुस्कान के साथ मुसकुराते हुए कहा अच्छा मगर इस गुलाबी साड़ी के साथ यह सफ़ेद शाल और इन सफ़ेद बालों के कोंबिनेशन के बारे में तो तुमने कुछ कहा ही नहीं, और दोनों खिलखिलाकर हंस दिये। बातों ही बातों में कब समंदर के किनारे बैठे-बैठे सुबह से शाम हो चली थी पता ही नहीं चला, समय अपनी गति से बीत रहा था। शाम से रात भी हो गई तभी मोहित ने कहा चलो उठो आज फिर हम उन्हीं दिनों की तरह समंदर के किनारे चाँदनी रात में हाथों में हाथ लिए चलते हैं कहीं दूर,....और गुनगुनाते हुए यह गीत "न उम्र की सीमा हो, न जन्मों का हो बंधन ,जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन" दोनों समंदर के किनारे हाथों में हाथ लिए नर्म गीली रेत पर चलने लगे।

मोहित ने चाँद की तरफ इशारा करते हुए कहा, वो वहाँ देखो हमारी "अजब प्रेम की गज़ब कहानी" के कुछ मुट्ठी भर लम्हे, मोहल्ले की वो छत वो तुम्हारा बार-बार किसी न किसी बहाने से बाहर आना और मेरा तुम्हें बिना पलकें झपकाये निहारते रहना तुम्हें भी पता होता था, कि मैं तुम्हें ऐसी ही देखा करता हूँ हमेशा फिर भी तुम जान बुझकर मेरे सामने बार-बार आया करती थी। कई बार आँखों ही आँखों में तुमने पूछा था मुझसे ऐसे क्यूँ देखते हो कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा। मगर ना मेरा ही मन मानता था तुम्हें यूं देखे बिना और न तुम्हारा ही मन मानता था, एक अजीब सा चुम्बकीय आकर्षण हुआ करता था न उन दिनों हमारे बीच मैं बाहर आया नहीं कि मेरी आँखें तुम्हारी एक झलक पाने के लिए बेताब हो जाया करती थी और जैसे मेरी आँखों की बात तुम्हारे दिल को सुनाई दे जाती थी और नजाने कैसे तब तुम कहीं न कहीं से कैसे न कैसे मेरी नज़रों के सामने आही जाया करती थी। जबकि तुमको भी खुद पता नहीं होता था, कि मैं वहाँ हूँ भी या नहीं, कभी सहलियों के बीच कनकयों से मुझे देखती तुम, और कुछ भी नया किया होता तुमने तो इशारे से मेरी और देखते हुए आँखों ही आँखों में पूछ भी लिया करती थी तुम, फिर वो चाहे तुम्हारी नई नेल पोलिश का कोई नया शेड ही क्यूँ न हो। लगा लेने के बाद जब मुझसे सामना होता तुम्हारा तो सहसा अपने आप ही तुम अपने हाथों और उँगलियों का कुछ इस तरह प्रयोग किया करती थी कि ना चाहते हुए भी किसी की भी नज़र एक बार तुम्हारे हाथों पर चली ही जाये।

तुम्हारे हाव भाव से ही मैं समझ जाता था कि आज कुछ नया किया है तुमने, जिसे लेकर तुम मेरी पसंद और राय जानना चाहती हो, जाने क्यूँ सब कुछ जानते हुए भी यूं अंजान बने रहने में ही हमको मज़ा आता था। मेरी पसंद ही धीरे-धीरे तुम्हारी पसंद हो चली थी। खाने, पीने, पहने, ओढ़ने से लेकर सब कुछ तुम्हें वो ही पसंद आने लगा था जिसमें मेरी मंजूरी हो अगर मैं मज़ाक में भी किसी चीज़ को ना पसंद कर दूँ न तो तुम्हें दुबारा उस ओर देखना भी गवारा न हुआ करता था और एक बार क्या हुआ था याद है तुम्हें, तुम्हारी ही मासी की बेटी यानि तुम्हारी ही बहन से बात क्या कर ली थी मैंने, तुम्हारा मुंह बन गया था तुम्हें छोड़कर मैंने बात कैसे की किसी और लड़की से जबकि तुमसे तो आज तक मेरी बात भी नहीं हुई थी कभी, हमारे बीच जो कुछ भी होता था वो तो महज़ आँखों की जुबानी थी खुद मुंह से तो हम ने कभी बात की ही कहाँ थी। फिर भी तुम्हें इतना बुरा लगा था मानो मैंने बात करके कोई गुनाह कर दिया हो, तभी मोहिनी ने कहा हाँ तुम्हें भी तो ज़रा भी गवारा नहीं था कि मैं तुम्हारी पसंद के अलावा और कुछ पहनूँ या करूँ।

तुम्हें याद है वो उस साल होली पर एक पड़ोस की महिला ने ज़रा मेरे दुपट्टे को एक अलग ही ढंग से हटाते हुए मुझे रंग लगा दिया था। कितना नाराज़ हुए थे तुम, जाकर लड़ने तक को उतारू हो रहे थे हिम्मत कैसे हुई उनकी कि पहले तो उन्होने मुझे छुआ और फिर इस तरह से रंग लगाना कहाँ की शराफ़त है। अपना अधिकार जो समझते थे तुम मुझ पर, मजाल है तुम्हारे रहते कोई और मुझे निगाह उठा कर तो देख ले। तुम तो जान ही ले लो उसकी और गुस्से में तुम ऐसे गए वहाँ से कि जैसे अब कभी लौटकर वापस ही नहीं आओगे तभी चाँदनी रात की मंद रोशनी में मोहित ने मोहिनी का हाथ थोड़ा कस कर पकड़ते हुए उसे अपनी और खींच लिया और उसकी आँखों मे आँखें डालते हुए उसके बहुत करीब आकर उसके कानों के पास जाकर कहा, वो तो मैं आज भी बरदाश्त  नहीं कर सकता कि मेरे अलावा तुम्हें और कोई देखे या छूये भी मोहिनी,... तुम मेरी हो, सिर्फ मेरी और सदा मेरी ही रहोगी, यह सुनकर मोहिनी की आँखें हीरे सी चमक रही थी। सागर की लहरों का शोर और रात की खामोशी जैसे दो दिलों की ज़ुबान बन चुकी थी। दोनों चुप थे मगर आँखें बोल रही थी। दोनों के दिलों की धड़कन ज़ुबान बनी हुई थी उस वक्त, सालों बाद एक दूसरे को इतना करीब महसूस किया था दोनों ने कि खुद पर काबू कमज़ोर हो चला था।

मगर इसे पहले की कुछ जज़्बात निकल पाते के तभी अचानक मोहिनी को अपने पैरों पर कुछ रेंगता हुआ सा महसूस हुआ और जो उसने देखा तो चीख निकल गई उसकी और वो ज़ोर से मोहित को पीछे की ओर धकेलती हुई खुद भी पीछे को हटी तो उसका मंगल सूत्र मोहित के कोट मे यूं अटका कि टूट कर बिखर गया। मगर उस वक्त उसका ध्यान अपने मंगलसूत्र पर ना जाते हुए नीचे ज़मीन पर उस रेंगती हुई चीज़ को देखने में ज्यादा था जिसके कारण उसकी तंद्र टूटी तभी उसने देखा एक केंकड़ा उसके पैर पर से रेंगता हुआ निकल गया। मगर तब तक उस केंकड़े कि वजह से दोनों के सपनों की तंद्रा टूट चुकी थी और अब दोनों भूत से निकल वर्तमान में आ चुके थे। मोहिनी ने अपने आपको और अपनी सफ़ेद शाल को संभालते हुए अपने मंगलसूत्र को देखा और मोहित से कहा, ज़िंदगी जितनी आसान दिखती है न मोहित उतनी आसान होती नहीं, यहाँ जो मिलता है उसकी चाहत नहीं होती ,जिसकी चाहत होती है वो यहाँ कभी मिलता ही नहीं, कहते है यहाँ जो होता है अच्छे के लिए ही होता है और हमारी ज़िंदगी का जो आधा सच आज तुम्हारे हाथ में है और जो आधा ज़मीन पर बिखरा पड़ा है ,पता नहीं उसमें क्या अच्छा था। मगर जो भी हो ज़िंदगी के यही अनुभव हमे ज़िंदगी को समझना सिखाते है, हाँ वो बात अलग है कि ज़िंदगी वो पहेली है जिसे जितना सुलझाने की कोशिश करो वह उतनी ही उलझती जाती है। इसलिए शायद अब हमारी राहें अलग हो चुकी हैं। अब हम एक नदी नहीं बल्कि उसी नदी के दो किनारे हैं। जो साथ तो चलते हैं मगर कभी मिलते नहीं....