Wednesday, 31 August 2011

गणेश उत्सव


 "वक्र तुंड महाकाय सूर्य कोटी समपप्रभा निर्विघ्नम कुरुमे देवह सर्व कारेषू सर्वदा"
  कुछ भी शुरू करने से पहले आप सभी को गणेश उत्सव की हार्दिक शुभकामनायें J

राखी के त्यौहार से ही जैसे त्योहारों का सिलसिला शुरू हो जाता है सबसे पहले वह सावन का मनमोहक मेहँदी से महकता और भाई बहनो के असीम प्यार से ओतप्रोत त्यौहार रक्षाबंधन, उस के बाद भगवान श्री कृष्ण की मधुर लीलाओं से भरी जन्माष्टमी और फिर ईद की सेवाई की मिठास लिए ईद का त्यौहार और उस के बाद तीज का जागरण लिए (हरतालिका तीज) जो कि अखंड सोभाग्य का रक्षक माना जाता है। ठीक उस के परान्त आता है भगवान गणेश का जन्मदिन जिसे गणेश चतुर्थी भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में या हिन्दू धर्म शास्त्रों में भगवान गणेश को विघ्न विनाशकदुःख नाशक मगलमूर्ति तथा अन्य कई नामों से जाना जाता है। जिसका अर्थ है भगवान श्री गणेश की पूजा करने से कभी भी किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आती और सभी दुःख दूर हो जाते हैं। क्यूंकी विघ्नहरता भगवान गणेश आप पर आने वाले सभी विघ्नो को हर लेते है  इस के साथ ही श्री गणेश को बुद्धि और ज्ञान का स्वामी भी कहा जाता है प्रति वर्ष भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है।

बाँकी सभी अन्य त्योहारों कि तरह ही इस पर्व से भी मेरी बचपन कि बहुत सारी और मीठी-मीठी यादें जुड़ी है। इस का एक सब से महत्वपूर्ण कारण हमेशा से शायद यह रहा है कि मेरा जन्मदिन अकसर गणेश चतुर्थी के आस पास ही पड़ता आया है, इसलिए शायद हमेशा से मेरे जीवन में इस त्यौहार के प्रति एक खास तरह का उत्साह रहा है इसलिए आज मैं आप सब के साथ अपने बचपन और इस त्यौहार से जुड़ी यादों और अनुभवों को आप सभी के साथ बाँटना पसंद करूंगी। मगर उसके पहले इस पर्व से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें यह तो मैंने आप को बता दिया कि क्यों की जाती है भगवान गणेश की पूजा अर्चना मगर क्या आप जानते हैं, कि हर शुभ काम शुरू करने में भगवान श्री गणेश की पूजा सब से पहले की जाती है, साथ ही क्या आप यह जानते हैं कि उनकी पूजा में दूबा चढ़ाने का क्या महत्व है। आइये इस ओर भी एक नज़र डालते है। हले यह ज्ञान मुझे भी नहीं था फिर कहीं एक अख़बार में मैंने यह आर्टिकल पढ़ा झूठ नहीं कहूँगी यह मेरी जानकारी नहीं एक पेपर का लेख है, जो मुझे बेहद अच्छा लगा इसलिए सोचा क्यूँ ना आप सबको भी यह जानकारी मिल सके कि क्यूँ और कैसे मनाया जाता है यह गणेश चतुर्थी का पावन त्यौहार।
   

भगवान श्रीगणेश की पूजा में दो, तीन या पाँच दूर्वा अर्पण करने का विधान तंत्र शास्त्र में मिलता है। इसके गूढ़ अर्थ हैं। संख्याशास्त्र के अनुसार दूर्वा का अर्थ जीव होता है, जो सुख और दुःख ये दो भोग भोगता है। जिस प्रकार जीव पाप-पुण्य के अनुरूप जन्म लेता है। उसी प्रकार दूर्वा अपने कई जड़ों से जन्म लेती है। दो दूर्वा के माध्यम से मनुष्य सुख-दुःख के द्वंद्व को परमात्मा को समर्पित करता है। तीन दूर्वा का प्रयोग यज्ञ में होता है। ये आणव (भौतिक), कार्मण (कर्मजनित) और मायिक (माया से प्रभावित) रूपी अवगुणों का भस्म करने का प्रतीक है। पाँच दूर्वा के साथ भक्त अपने पंचभूत-पंचप्राण अस्तित्व को गुणातीत गणेश को अर्पित करते हैं।
इस प्रकार दूर्वा के माध्यम से मानव अपनी चेतना को परमतत्व में विलीन कर देता है।
गणपति अथर्वशीर्ष में उल्लेख है-और इसलिए यह मान्यता है की जो लोग सच्चे मन से दूर्वा से श्री भगवान गणेश का पूजन करते हैं उन्हें कुवेर के समान धन की प्राप्ती होती है और सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है।

इस ही प्रकार बस एक जानकारी और क्या आप जानते हैं क्यूँ होती हैं भगवान श्री गणेश की चार भुजायें कलियुग में भगवान गणेश के धूम्रकेतु रुप की पूजा की जाती है। जिनकी दो भुजाएं होती है। किंतु धर्मग्रंथों में भगवान गणेश को चार भुजाधारी कहा गया है यानी उनके चार हाथ है। इनमें से एक हाथ में अंकुश, दूसरे हाथ में पाश, तीसरे हाथ में मोदक व चौथा हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में है। अंकुश इस बात का सूचक है कि कामनाओं यानी वासना-विकारों पर संयम ज़रूरी है। जबकि पाश नियंत्रण, संयम और दण्ड का प्रतीक है। हर व्यक्ति को स्वयं के आचरण और व्यवहार के प्रति इतना संयम और नियंत्रण रखना ज़रूरी है, इससे जीवन का संतुलन बना रहे। मोदक यानी जो मोद (आनन्द) देता है, जिससे आनन्द प्राप्त हो, संतोष हो, इसका गहरा अर्थ यह है कि तन का आहार हो या मन के  विचार वह सात्विक और शुद्ध होना ज़रूरी है। तभी आप जीवन का वास्तविक आनंद पा सकते हैं।
मोदक ज्ञान का प्रतीक है। जैसे मोदक को थोड़ा-थोड़ा और धीरे धीरे खाने पर उसका स्वाद और मिठास अधिक आनंद देती है और अंत में मोदक खत्म होने पर आप तृप्त हो जाते हैं, उसी तरह वैसे ही ऊपरी और बाहरी ज्ञान व्यक्ति को आनंद नहीं देता। परंतु ज्ञान की गहराई में सुख और सफलता की मिठास छुपी होती है। इस प्रकार जो अपने कर्म के फलरूपी मोदक प्रभु के हाथ में रख देता है उसे प्रभु आशीर्वाद देते हैं। ऐसा चौथे हाथ का सूचक है। अब अगर यहाँ मैं यह कहूँ कि हिंदू धर्म ग्रन्थों के अनुसार भगवान गणेश का सभी देवी देवताओं में एक अलग स्थान और अपना एक अलग ही महत्व है तो मेरा ऐसा कहना गलत नहीं होगा इन्हीं सब जानकरियों के साथ एक बार फिर आप सभी को मेरी और मेरे परिवार की ओर से गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें " गणपती बप्पा मोरैया पुरशा वर्षी लौकरिया"          

Monday, 29 August 2011

सपने

"सपने" एक ऐसा विषय है जिस पर यदि विचार करने जायें तो विचार उलझते ही जाते है और मन दूर कहीं दूसरी दुनिया में चलता चला जाता है। शायद उसे ही स्वप्न लोक कहते हों, मगर कभी-कभी यूँ भी होता है जब यादों के समंदर में दिल की कश्ती डूबती सँभलती जीवन चक्र की तरह चलती चली जाती है। तब कभी हमसे हमारे वह सपने उन यादों के समंदर में लहरों की तरह आकर मिलते हैं तब हमको याद आता है कि यह तो वही सपने हैं, जिनको कभी हमने अपनी आँखों में सँजोया था। मगर आज हमारे अपने वर्तमान में ही उन सपनों का कोई महत्व, कोई अस्तित्व बाक़ी नहीं रह गया है। अब जब हम उन सपनों को छोड़ कर आगे बढ़ चुके तब यदि वही सपने सच हो भी जाते है, तो भी अब हमको कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे तो इस विषय पर लिखने से पहले मैंने खुद कई बार सोचा तो लगा शायद मैंने बहुत ही टेढ़ा विषय चुन लिया हैं। मगर किसी ने मुझसे कहा था कि मेरा अगला विषय यही हो और मैं इस विषय पर जरूर कुछ लिखूँ इसलिए कुछ लिखने का प्रयास किया है, उम्मीद है आप को पसंद आयेगा और आप सभी लोग खुद के अनुभवों से मेरे इस लेख हो जोड़ कर देख सकेंगे, फिर प्रश्न यह उठता है कि आखिर सपने होते क्या हैं, कहाँ से आते हैं, क्यूँ आते हैं। कहाँ से आते यह तो कहना मुश्किल है मगर कभी मनोविज्ञान में पढ़ा था कि अचेतन मन में रहने वाली बातें ही जो चेतन मन तक नहीं आ पाती रात को सपनों के भेष में आया करती है। यदि आपके अंतरमन में कुछ बुरा या भयावह हो तो आप को डरावने सपने आयेंगे और आपके अंतर मन में कोई अच्छी या सुखद भावना है तो उस के अनुरूप आपको वैसे सपने आयेंगे। यह तो थी मनोवैज्ञानिक तौर पर सपनों की परिभाषा।
मगर साधारण शब्दों में सपनों की क्या परिभाषा होगी क्योंकि सपने तो हर कोई देखता है, चाहे बच्चा हो या बूढ़ा, फिर चाहे वो सपना अच्छा हो या बुरा, हर किसी के अलग–अलग सपने होते हैं। हर उम्र का अपना एक सपना होता है। सपनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है जैसे एक सपने वो होते हैं, जो हम हमेशा अपने लिए देखते हैं, और एक वो जो हम दूसरों के लिए देखते हैं। कुछ सपने कॉमन होते हैं जो प्रायः सभी के एक जैसे होते हैं। जैसे बचपन में रोज़ नए खिलौनों से खेलने का सपना, पारियों की नगरी का सपना, सुंदर सजीले राज कुमार का सपना, बड़े होकर क्या बनना है और सबसे महत्वपूर्ण सपना जो हर किसी का होता है, गरीब से अमीर बनने का सपना, अमीर होते हुए भी और अमीर होने का सपना। यहाँ मैं आप को एक बात और कहना चाहूँगी कि यह एक ऐसा सपना है कि आज तक कभी किसी का पूरा नहीं हुआ चाहे वो टाटा हों, अंबानी परिवार हो, या मेरे सबसे ज्यादा पसंदीदा कलाकार श्री अमिताभ बच्चन जी होंठीक वैसे ही बड़े होने पर मुहब्बत् का सपना, यह भी एक ऐसा सपना है, जो हर कोई देखता है।

यह बात अलग हैं कि यह सपना भी बहुत कम लोगों का ही पूरा होता है और जिनका पूरा होता है वह सभी अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझते है। मगर जो लोग इस अनुभव से गुज़रते हैं कहते हैं उन्हें सही मायने में जीवन का अनुभव हो पाता है। क्योंकि प्यार ही जीवन की पूंजी है और जैसा की आप जानते हैं मैंने अपने पहले के कई लेखों में लिखा है और आज यहाँ एक बार फिर लिख रही हूँ। प्यार एक ऐसा जज़्बा है जो सभी के दिल में मुहब्बत् बन कर धड़कता है। प्यार वो है जो हर कोई करता है। कोई भी मन, कोई भी जीवन, इस रिश्ते से अनछुआ नहीं है मगर हाँ यह बात अलग है कि किसी का यह सपना पूरा हो जाता है और किसी का नहीं जिसका हो जाता है, उसका तो ठीक, मगर जिनका नहीं हो पता उनके लिए तो जैसे दुनिया ही खत्म हो जाती है। यहाँ मुझे (जावेद अख़्तर साहब) की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है।
मुहब्बत् पलकों पर कितने ख़ाब सजाती है, फूलों से महँकते ख़्वाब
सितारों से झिलमिलाते ख़्वाबशबनम से बरसते ख़्वाब
फिर कभी यूँ भी होता है पलकों की डालियों से 
ख़्वाबों के सारे परिंदे उड़ जाते है, और आँखें हैरान से रह जाती है

और उनका दिल बस यही गाता रह जाता है कि 
सारे सपने कहीं खो गये, हाय हम क्या से क्या हो गये, 
दिल से तनहाई का दर्द जीता, क्या कहें हम पे क्या-क्या न बीता, 
तुम ना आये मगर जो गये, हाय हम क्या से क्या हो गये

इसी तरह जब यह ख़्वाब पूरा होता है, या नहीं भी होता तो भी जीवन का अगला पड़ाव बच्चों का सपना यह वह सपने हैं जिनका मैंने ऊपर जिक्र किया था। दूसरों के लिए देखे जाने वाले सपने कि हमारा बच्चा बड़ा होकर क्या बनेगा और उसके बाद उसके विवाह से संबन्धित सपना लड़का हो तो घर में बहू आने का सपना, बेटी हो तो कन्यादान का सपना, हर माता-पिता का इस बात से जुड़ा कोई न कोई सपना तो जरूर होता है। यह बात अलग है कि आगे जाकर वह अपने बच्चे की पसंद पर उस सपने से समझौता कर लिया करते है। मगर सपने तो वो भी देखा ही करते हैं। फिर चाहे वो पूरे हों या न हों। मगर क्या आपने कभी गौर किया है जब कभी हम कोई सपना देख रहे होते हैं, जिसमें खास कर हमारी अपनी उपस्थिती हो, तो हमको लगता जरूर है कि हमने खुद को अपने सपने देखा मगर वास्तव में हमने खुद को नहीं देखा होता मगर चूंकि सपना हमारा है और हम ही देख रहे हैं। इसलिए हमको ऐसा लगता है कि हमने खुद को भी अपने सपने में देखा मुझे तो ऐसा ही लगता है आप का क्या विचार है ज़रा सोच कर देखिएगा। खैर यह मेरा अपना मत है। लेकिन सपनों कि सही परिभाषा क्या है, यह कहना बहुत ही कठिन है क्योंकि अपने-अपने सपनों को लेकर सबकी अपनी एक अलग ही परिभाषा होती है। जिसे किसी दूसरे को समझा पाना आसान नहीं होता।
अकसर ऐसा होता है कि सपने टूट जाया करते हैं। पर इंसान जज़बाती होता है, थोड़े दिन सपनों के टूटने की चुभन मे गुज़र जाया करते हैं। मगर उम्मीद का दामन यूँ ही नहीं छूट जाया करता इंसान फिर से नयी आस के साथ सपने बुनना शुरू करता है। टूटता है, बिखरता है, संभालता है, मगर सँजोया हुआ हर सपना पूरा कहाँ होता है। फिर भी हर इंसान सपनों में ही खोया रहता है। क्योंकि वो कहते है न उम्मीद पर दुनिया क़ायम है।

क्योंकि हर कोई अपने सपनों को हक़ीक़त में बदलता हुआ देखना चाहता है। कुछ लोग सपनों में ही जी लिया करते है। उनका मानना यह होता है कि हम जानते हैं जो सपना हमने देखा है वो कभी हक़ीक़त में तबदील नहीं हो सकता। इसलिए हम उस सपने को सपने में ही जी कर खुद को खुश कर लिया करते हैं। कुछ लोग अपने सपनों को पूरा करने के लिए जी-जान लगा दिया करते हैं। कहने वाले कहते हैं यदि जीवन में सफलता पाना है तो सपने देखना बहुत ज़रूरी है और बड़ी सफलता के लिए बड़ा सपना होना चाहिए, तो वही दूसरी और लोगों का मानना यह भी है कि जितनी चादर हो आपको उतने ही अपने पैर फैलाना चाहिए अर्थात् आपको अपने अनुसार(लेवल) के सपने ही देखने चाहिए क्योंकि यदि आपने अपनी ज़रूरतों से, उम्मीदों से, बड़े सपने देख डाले और यदि वो पूरे न हो सके तो बहुत दर्द होता है। यहाँ मेरा मानना यह है कि सपना छोटा हो या बड़ा यदि पूरा न हो तो दर्द तो होगा ही कभी कम कभी ज्यादा, मेरे विचार से तो सपने सुख और दुःख की तरह होते हैं। जिस तरह जीवन भर यह सुख दुःख का सिलसिला चलता रहता है वैसे ही आदमी की अंतिम साँस तक उसके सपने उसके जीवन में निरंतर आते रहते हैं। अगर एक सपना पूरा हो जाए तो नित नई उम्मीद जाग जाती है। वो ग़ालिब का शेर तो आपने सुना ही होगा। 
इंसान की ख़्वाहिश की कोई इंतहा नहीं, 
दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद” 
ठीक सपनों का भी यही हाल होता है। एक पूरा हुआ नहीं की दूसरा अपने आप आँखों में आ जाता है और यही सपने तो इंसान के जीवन जीने की वजह होते हैं। जरा सोचो तो बिना सपनों की बिना किसी उम्मीद की ज़िंदगी भी क्या ज़िंदगी होगी, जैसे कोई ज़िंदा लाश। न कोई उमँग होगी, न कोई तरंग होगी, न बीती हुई रात का अफ़सोस होगा, न आने वाली नई सुबह का जोश होगा। जिसके पास सपने नहीं होंगे उसके पास तो जीवन ही नहीं होगा। क्यूंकि जीने के लिए जीवन में किसी उदेश्य का होना बहुत ज़रूरी है और सपने ही तो जीवन को जीवन का लक्ष प्रदान करते है सपनों को पूरा करने कि उम्मीद में ही तो इंसान जीता है कि आज नहीं तो कल उसका कोई महत्वपूर्ण सपना जिसे लेकर उसे लगता है कि यदि वो पूरा हो गया तो उसका जीवन सफल हो जाएगा। यह बात अलग है कि उस के बाद फिर कोई नया सपना इंसान कि आँखों में घर कर लिया करता है और इसी तरह यह जीवन चक्र चलता चला जाता है। माना कि सपने काँच से भी ज्यादा नाज़ुक होते हैं जिन्हें बहुत सँजो कर रखना पड़ता है मगर तब भी यदि कभी कोई सपना टूट जाये तो तकलीफ तो बहुत होती है। और सदियों तक उन सपनों की चुभन का एहसास दिल में रहा करता है वो शीशे नुमा सपने के काँच के टुकड़े एक बार किसी के दिल कि गहराई में घंस जायें तो उस इंसान को खुद उस चुभन से पीछा छुड़ाना या यूँ कहना ज्यादा सही होगा कि उस उठती हुई टीस से मुक्ति पाना आसान नहीं होता मगर बुज़ुर्गों का कहना है, वक्त में हर बड़े से बड़ा ज़ख़म भरने की ताक़त होती है।

अंततः बस यही कहना चाहूँगी कि हम सभी को सपने जरूर देखना चाहिए और उन सपनों को पूरा करने भी भरपूर कोशिश भी जरूर करनी चाहिए। ध्यान रखें तो केवल इस बात का कि कहीं आपके सपने से किसी और को तो कोई हानि नहीं पहुँच रही है। यदि हाँ तो एक बार अपने सपने के बारे में अपने आपसे अपने अंतर मन से जरूर सोचें और उसके बाद ही अपने उस सपने को उतनी हवा दें जितना कि वो हकदार हो, अन्यथा कोई बात नहीं है जितने चाहे उसे उतने पर लगने दें और उड़ान भर जाने दें, अपने सपनों को स्वप्न लोक की दुनिया में जहां अकसर "जब नींद में सपनों का डेरा होता है सच होने की आस लिए नया सवेरा होता है"। इन्ही पंक्तियों के साथ जय हिन्द ....

Friday, 26 August 2011

कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व "हकीकत या भ्रम"


इस विषय पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। मगर उस सब के सही होने का प्रमाण सभी का अपना-अपना नज़रिया होगा कोई किसी को गलत नहीं ठहरा सकता। इसलिए मेरी समझ से इस विषय पर दो विचारधाराएँ बनती है। एक वह जो यह सोचते हैं कि कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व किसी तरह का कोई भ्रम नहीं है बल्कि एक जीती जागती हक़ीक़त है, और दूसरी वो जो इसे एक हक़ीक़त न मानते हुये महज़ एक भ्रम मानते है। यह एक महत्वपूर्ण विषय होने के साथ–साथ एक चर्चा का विषय भी बन सकता है। जो लोग इसे हक़ीक़त मानते है तो क्यूँ? और जो लोग इसे भ्रम मानते हैं तो क्यूँ? जहां एक और इस विषय का ताल्लुक़ पढ़ाई लिखाई से संबंध रखता है तो दूसरी और ग्रहणी और एक नौकरी पेशा कामकाजी महिला से भी, और कामकाजी महिला कोई भी हो सकती है चाहे वो लोगों के घर–घर जा कर काम करने वाली बाई हो, या किसी अच्छे पद पर कार्यरत कोई महिला काम तो दोनों ही करती हैं। ठीक इसी प्रकार घर में रहने वाली कोई ग्रहणी हो या बाहर जा कर कम करने वाली कोई महिला। बात है उन दोनों के अस्तित्व की, किसका अस्तित्व भ्रम है और किसका हक़ीक़त। अब हम दोनों ही विचार धाराओं पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करते हैं।
यदि बात की जाये पहली विचारधारा की तो आज हम आधुनिक युग के प्राणी है। आज हमारे समाज ने इस विषय में पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा तरक़्क़ी कर ली है। पहले हमारे समाज में महिलाओं को पुरूषों से कम समझा जाता था। पहले कभी उन्हें समान अधिकार नहीं मिले, न पढ़ाई के क्षेत्र में और ना ही कभी किसी और क्षेत्र में ही उन्हें आगे बढ़ने का मौक़ा दिया जाता था। उनकी पूरी ज़िंदगी घर की चार दीवारों तक ही सीमित हुआ करती थी। घर संभालना और बच्चे पैदा करने से लेकर उनका लालन पोषण करने तक की पूरी जिम्मेदारी केवल घर की औरतों की ही हुआ करती थी। इस के अलावा बाहर भी कोई दुनिया है, जिसमें इंसान बसते हैं यह घर में रहने वाली उन महिलों ने कभी जाना ही नहीं था। मगर आज लगभग हर घर में पढ़ी लिखी कम से कम एक महिला तो आपको देखने को मिल ही जाएगी, हाँ यह बात अलग है कि वह बहुत ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं होगी, मगर अक्षर ज्ञान की जानकारी तो कम से कम उसे होगी ही, ऐसा मैं अपने हाल ही के अनुभव के आधार पर कह रही हूँ। अभी कुछ साल पहले तक मेरे अपने घर में काम करने आने वाली बाई बिलकुल ही निरक्षर ही हुआ करती थी और आज की तारीख में मेरे घर काम करने वाली बाई ग्रेजुएट है।
अब यहाँ सवाल यह आता है कि इतनी पढ़ी लिखी होने के बावजूद भी यदि उसे बर्तन साफ करने का काम करना पड़ रहा है तो ऐसी पढ़ाई से क्या लाभ इससे तो (बे) पढ़ी-लिखी औरतें ही अच्छी जिनके नाम के आगे कम से कम निरक्षर होने का तमग़ा तो चिपका है। जिसे देख कर लोगों के मन में सहानुभूति के साथ यह विचार स्वतः ही आ जाता है कि अरे बेचारी बेपढ़ी लिखी है अगर यह काम कर रही है तो कोई बात नहीं कम से कम आत्मनिर्भर तो है। एक बार को तो हम सभी के मन में यह ख्याल भी आता है कि एक तरफ तो हम अपने देशवासीयों को पढ़ने लिखने का संदेश देते है।  उनको पढ़ाई से होने वाले लाभों के बारे में जानकारी देते है, पूरे देश को साक्षबना देखने के सपने सजाते है और दूसरी और जब पढ़े लिखे होने के बाद भी पढ़े लिखे लोगों की ऐसी दशा देखने को मिलती है, तो एक बार तो हमारे मन में भी आता ही है कि क्या फायदा ऐसी पढ़ाई का, है ना! अब इतना पढ़ा लिखा होने के बावजूद भी पता नहीं उसकी ऐसी कौन सी मजबूरी है, जिसके कारण उसको घर-घर जा कर बरतन साफ करने का काम करना पड़ रहा है। यह तो वही जाने, हालाँकि यह बात अलग है कि काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता। ईमानदारी से मेहनत से, जो भी काम किया जाये वह पूजनीय होता है। मगर फिर भी मैंने कभी इसलिए नहीं पूछा क्योंकि मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए किसी गरीब की दुखती रग पर हाथ रखना नहीं चाहती थी। उसकी भले ही कोई भी मजबूरी हो जिसके चलते उसे यह काम करना पड़ रहा हो, किन्तु फिर भी मुझे इस बात की तसल्ली थी कि कम से कम वो पढ़ी लिखी तो है। इस नाते अपना और अपने बच्चों का भला बुरा तो समझ सकती है सोच सकती है और उनको कम से कम सही रहा दिखा सकती है।
स्वयं एक स्त्री होने के नाते मुझे इस बात पर बहुत गर्व है कि आज हमारे देश की महिलाओं ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि आज वो पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं और चलने में पूर्णरूप से सक्षम भी है। यहाँ पर सक्षम होने वाली बात मैंने इसलिए बोली है क्योंकि आज भी कई लोग यह मानते हैं कि जो महिलायें पढ़ी लिखी होकर भी घर बैठी हैं उनमें बाहर निकाल कर नौकरी करने की क्षमता नहीं है अर्थात् उनकी पढ़ाई लिखाई सब बेकार है व्यर्थ है। यहाँ मैं यह भी बताना जरूर चाहूँगी कि यह सोच केवल हमारे पुरुष प्रधान समाज के पुरुषों की नहीं बल्कि स्वयं महिलाओं की भी है। खास कर उन महिलाओं कि जो स्वयं नौकरी पेशा है। किन्तु जो महिलायें नौकरी नहीं कर रही है, उनके प्रति कामकाजी महिलाओं की यही सोच है जो बहुत गलत है। क्योंकि घर से बाहर जाकर काम करना ही आधुनिकता का प्रमाण नहीं होता और ना ही इसका मतलब यह है जो नौकरी नहीं करता उसका पढ़ना लिखना व्यर्थ है या पढ़ाई लिखाई केवल उसे ही करना चाहिए जो आगे जाकर अपने जीवन में नौकरी करे, वरना जिसका ऐसा कोई इरादा ना हो वह पढे ही नहीं, जबकि पढ़ाई का असली महत्व तो जीवन के मूल्यों को समझना होता है।

खैर यह तो था विषय का एक पहलू अब हम बात करते हैं विषय के दूसरे पहलू की, जो लोग यह मानते हैं कि कामकाजी महिलों का अस्तित्व केवल एक भ्रम मात्र है। हक़ीक़त नहीं, अब यहाँ सवाल यह उठता है कि अब जबकि आज के युग में हर औरत मर्द के कंधे से कंधा मिलकर चल रही है और लग-भग हर एक क्षेत्र में महिलाओं को आसानी से काम करते देखा जा सकता है। तो फिर आज भी कहीं समाज के कुछ लोगों कि ऐसी मानसिकता क्यूँ है। यदि इस विषय पर चर्चा की जाये तो इस बात को लेकर भी कई सारे मत सामने आते हैं। जैसे जब मैंने इस विषय को लेकर अपने ही घर की और आस पास की कुछ एक  महिलाओं से इस विषय पर चर्चा की तो पाया कि जो महिलायें ग्रहणियाँ थी उन सभी का मत था कि यह सिर्फ एक भ्रम है क्यूँकि औरत की सही वैल्यू उसका घर और परिवार ही होता है। जिसकी देख रेख करना और साज संभाल करना ही एक औरत का पहला कर्तव्य है। बाकी सारी चीज़ तो बात की बात होती है घर ग्रहस्थी की जिम्मेदारी पूर्णरूप से निभा लेने के बाद यदि समय बचता है तो औरत को बाहर निकाल कर काम करने के विषय मे सोचना चाहिए अन्यथा नहीं या फिर जीवन यापन से संबंधित कोई मजबूरी हो तो बात अलग है।

पूरी बात का निष्कर्ष कुल मिलाकर यह निकल रहा था कि यदि आपका परिवार सम्पन्न है, अर्थात् सभी का जीवन सुखमय तरीक़े से चल रहा है किसी तरह कि कोई परेशानी नहीं है तो औरत को बाहर जाकर नौकरी करने या काम करने की भी कोई जरूरत नहीं है और जो औरतें ऐसा कर रही हैं वह केवल उनका मनोरंजन मात्र है। या अपने मन को तसल्ली देने का एक मात्र तरीका कि वो आत्मनिर्भर है किसी पर निर्भर नहीं है और अपना अच्छा बुरा स्वयं सोचने में सक्षम है। अपने पैरों पर खड़ी होने की वजह से उनका अपना एक अलग अस्तित्व है। समाज में और अपने परिवार में भी, किन्तु जो महिलायें कामकाजी नहीं हैं उनका ऐसा मानना है कि यह केवल कामकाजी महिलों का भ्रम मात्र है। उनके अस्तित्व की पहचान नहीं, खास कर उन महिलाओं को लेकर उनकी ऐसी सोच थी जो किसी डॉक्टर, या इंजीनीयर या फिर किसी अध्यापक जैसे जाने माने पद पर न होकर साधारण से किसी दफ़्तर में काम कर रही हों, क्यूँकि उनका मानना था कि यदि यही उनका अस्तित्व होता तो महिलाओं के आरक्षण को लेकर जो आये दिन बवाल होता रहता है और माँगें होती रहती है वह नहीं होती। इसलिए उनके हिसाब से कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व उनके लिए भ्रम के जैसा ही है, हक़ीक़त नहीं वैसे देखा जाये तो उनका ऐसा मानना यदि पूरी तरह सही नहीं है, तो पूरी तरह गलत भी नहीं है।
परंतु शायद इस विषय पर चर्चा करते वक्त वह सभी लोग यह भूल गए थे, कि हर किसी के कुछ अपने सपने भी होते कुछ ऐसे सपने जो उनके अपने होते है अर्थात् जो समाज की बन्दिशों से परे होते है और समाज के नियम क़ानूनों से अंजान होते है। जो इस सीख से अलग होते हैं कि शादी के बाद तुम्हारा घर ही तुम्हारा संसार है। उसके सिवा तुम्हारे जीवन में और किसी बात का महत्व उस से ज्यादा नहीं होना चाहिए। किन्तु जब इन सब बातों को परे रखकर एक मासूम लड़की जब कोई सपना देखती है तो उस सपने को शायद हक़ीक़त के पंख तभी मिल पाते है। जब वह लड़की आगे चल कर अपने जीवन में आत्मनिर्भर हो जाती है और आत्मनिर्भरता तभी आती है जब आप घर की चार दीवारों से निकल कर दुनिया का सामना करते हो।  
फिर चाहे नौकरी करके करो या देश विदेश घूम-घूम कर करो या समाज सेवा जैसे कार्य करके करो मगर कई बार यूं भी होता है कि आत्मनिर्भर होने के बावजूद भी आप अपने सपनों को वो पंख नहीं दे पाते जो आप देना चाहते हो, फिर उसके पीछे कारण चाहे जो हो, फिर वो जीवन की मजबूरी हो, या कोई और वजह क्योंकि अपने घरों में काम करने आने वाली बाई भी तो कहने को आत्मनिर्भर ही है। खुद कमाती है और अपना परिवार चलाती है। मगर कभी अपने बचपन में उसने जो सपने देखे होंगे उन्हें पूरा नहीं कर पाती क्योंकि उसके लिए उसका नौकरी करना घर-घर जाकर काम करना उसकी मजबूरी है उसका सपना नहीं। लेकिन यह विषय ऐसा है जो ज्यादातर इस बात पर निर्भर करता है कि इस बारे में कौन क्या सोचता है अपनी-अपनी सोच पर जैसी जिसकी सोच वैसा उसका मत।  
यदि यहाँ भी दो वर्ग बना दिये जायें, एक तरफ कामकाजी महिलों को कर दिया जाए और एक तरफ घर की ग्रहणियों को तो दोनों के बीच कभी इस बात को लेकर किसी भी तरह का तारतम्य कभी नहीं बैठ सकता। हमेशा दोनों के बीच इस बात को लेकर झगड़ा लगा ही रहेगा, कभी भी दोनों वर्ग एक दूसरे से सहमत नहीं हो सकते। क्योंकि इस विषय पर सदैव ही दोनों के अहम को चोट पहुंचेगी ही। कोई किसी से कम होना नहीं चाहता और हो भी क्यूँ, दोनों का ही अपनी-अपनी जगह अपना एक अलग ही महत्व है।

शाद यही वजह है कि मेरे लिए भी इस बात का निष्कर्ष निकाल पाना बहुत कठिन है कि कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व हमारे समाज के लिए भ्रम है या हक़ीक़त। कम से कम स्वयं एक स्त्री होने के नाते किसी भी एक पक्ष में अपना मत देना मेरी समझ से नादानी नहीं नाइंसाफी होगी। मेरे विचार से यह एक कभी न खत्म होनी वाली चर्चा का विषय है जिसका कोई अंत नहीं अब आप ही फ़ैसला करें कि यह भ्रम है या हकीकत जय हिन्द .......                                                      

Monday, 22 August 2011

भारत भ्रमण

सब से पहले तो आप सभी को मेरा नमस्कार,  आज बहुत दिनों बाद आप सब के बीच फिर से आना हो पाया है।  अभी तक मैं इंडिया गई हुई थी और अभी 18 तारीख को ही लौटी हूँ। यह बात अलग है कि जब तक यह लेख आप तक पहुंचेगा तब तक और भी ज्यादा दिन गुजर चुके होंगे मुझे वापस आए हुए। आज तक मैंने आप सभी के साथ अपने विदेश यात्रा के अनुभवों को बांटा है। मगर आज मैं आप सभी के साथ अपने भारत अपने देश की यात्रा के अनुभवों को भी बांटना चाहती हूँ कि कैसे सब कुछ कितनी जल्दी और कितनी आसानी से यादों में बदल जाता है। आज सोचो तो लगता है कल का वह लम्हा, आज याद बन गया। मुझे वहाँ ही लगने लगा था कि अभी तो यह मौज मस्ती में बहुत मजा रहा है और कल का दिन आते ही यह सारे पल यादों में बदल जाएंगे सही ही कहा है कि "आने वाला पल जाने वाला है हो सके तो इस में जिंदगी बिता दो पल जो ये जाने वाला है" अपनी इन्ही यादों का कारवां लिए मैं आप सभी से उम्मीद करती हूँ कि बाकी सारे अनुभव की तरह आप सभी को मेरा यह अनुभव भी पसंद आयेगा। 
साल में एक बार अपने देश जाना, अपनी मिट्टी से मिलना, अपने परिवार से मिलना, ऐसा लगता है मानो सदियाँ बीत गई हों, एक महीना भी मानो एक पल जैसे गुजर जाता है, कभी भारत में रहकर ऐसा एहसास न हुआ था जैसा अब यहाँ रहने के बाद वहाँ जाने पर और सब से मिलने पर होता है। घर के सभी लोगों को हमारा इतना इंतजार रहता है जिसे शब्दों में कह पाना नामुमकिन सी बात है। वह लोग जो वहाँ रहकर भी हमारे शहर  से बाहर हैं वो भी मुझसे मिलने के लिए अपनी छुट्टियाँ बचा-बचा कर रख रहे थे, ताकि जब मैं इंडिया आऊँ तो वह सभी मुझ से मिलने आसानी से आ सकें। करीब दो साल बाद मुझे त्यौहार का सही मजा मिल सका जिसकी मुझे बेहद खुशी है। राखी जैसे त्यौहार का मजा भी जब ही आता है, जब सारे भाई बहन साथ रहकर मस्ती कर सकें घर भरा-भरा सा महसूस हो, अन्यथा बाकी के सारे त्यौहार तो ऐसे पड़ जाते हैं जिसमें साधारणतौर पर लोग अपने-अपने घर में रह कर ही मनाना पसंद करते है। जैसे होली,दिवाली इस के अलावा पूरे साल में और कोई ऐसे त्योहार भी नहीं आते है, जिस में  हम लोग इंडिया आने के विषय में सोच सकें, खैर यह तो थी ऊपरी शुरुवात मेरे भारत भ्रमण के अनुभव की, सही शुरुवात तो अब करती हूँ ।:)
जाने से पहले के एक दो दिन उत्साह इतना कि कुछ समझ नहीं आता है कि क्या सही क्या ग़लत, समय ऐसा लगता है मानो रुक गया हो, जाने के दिन बहुत धीरे-धीरे पास आते है।  मन के अंदर इंडिया जाने की खुशी का ठिकाना नहीं होता है और उल्टी गिनती शुरू हो चुकी होती है। आखिरी समय तक सब के लिए खरीददारी चलती रहती है। ऐसा लगता रहता है, कहीं कोई  छूट ना जाये इस बार तो मैंने हवाई जहाज में बैठ कर भी ब्लॉग लिखा मगर क्या लिखा क्या नहीं वो बाद की बात है उस विषय पर फिर कभी रोशनी डालूँगी मगर प्लेन में बैठ कर लिखने का वो मेरा पहला अनुभव था। सच कहूँ तो मुझे मजा भी बहुत आया । पता नहीं क्यूँ पहले कभी मेरे दिमाग में ऐसा कोई विचार क्यूँ नहीं आया। खैर कोई बात नहीं कभी न कभी सभी की जिंदगी में कोई न कोई कार्य पहली बार होता ही है। सो मेरी जिंदगी में भी हो ही गया, यह मेरा बड़ा सुखद सा अनुभव था, मेरी कल्पनाओं और विचारों को मन की तरंगों के साथ बाहरी मौसम का भी सहयोग प्राप्त हो रहा था। एक तरफ मेरी  कल्पनाएं और दूसरी ओर मेरा प्लेन बादलों को चीरता हुआ बादलों के बीच से गुज़र रहा था। खिड़की से देखने पर ऐसा नज़ारा था मानो बादलों की ही ज़मीन हो, बादलों का ही आसमान। जिसके कारण मेरी कल्पनाओं और विचारों को स्वप्न लोक की दुनिया का रास्ता मिल रहा हो। यूं तो मैंने हवाई यात्रा बहुत की हैं, लेकिन इस बार का अनुभव पता नहीं क्यूँ लेखन से जुड़ जाने के कारण बहुत ही अद्भुत हो गया था।  
मगर कहीं एक तरफ मन के किसी कोने में एक एहसास अपनों से मिलने कि खुशी का था,  तो कहीं एक एहसास उन से बिछड़ कर वापस आने का भी था। जिसे मेरा मन चाह कर भी अनदेखा नहीं कर पा रहा था। खुशी के साथ कहीं थोड़ी उदासी भी थी। आखिरकार यात्रा समाप्त हुई और हम पहुंचे हमारे शहर यानि मेरे ससुराल जबलपुर वैसे कहने वाली बात तो नहीं है, लेकिन फिर भी, शादी के बाद हर लड़की का घर उसका ससुराल ही बन जाता है। किन्तु फिर भी (अपना मायका और अपना शहर अपना ही होता है भई चाहे फिर कोई कुछ भी कहे )  है ना :)
खैर वहाँ पहुँच कर सबका खूब प्यार मिला, मान मिला, बड़ी बहू होने के नाते सम्मान भी बहुत मिला। बच्चे भी आपस में ऐसे घुल मिल गए मानो हमेशा से एक साथ ही रहे हों, खूब घूमें फिरे, मौज मस्ती की, चाट पकोड़ियाँ का भरपूर मजा लिया, खूब इंडियन  परिधान पहने खासकर साड़ियाँ जो साधारण तौर पर यहाँ पहन पाना संभव नहीं हो पता है । खेलते कूदते मौज मस्ती में वहाँ के दिन कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला बातें भी करने के लिए इतनी सारी हुआ करती थी कि इस बार तो जेट लेग का भी एहसास नहीं हुआ। (जेट लेग) बोले तो समय का अंतर होने के कारण जो आप कि शारीरिक स्थिति में जो बदलाव आता है,  उसे (जेट लेग) कहते हैं। बातें करने और गप्पे मारने के लिए इतना कुछ था कि समय का पता ही नहीं चलता था कि कब दोपहर हुई और कब रात के 12 बज गए और वैसे भी इंडिया जाने के बाद तो मेरा मन बस एक ही गीत गुनगुनाता रहता है कि "आज मदहोश हुआ जाये रे मेरा मन मेरा मन "ऐसे ही हस्ते खेलते दिन निकल गए जबलपुर के भी और दिन आया वहाँ से भी विदा लेने का, सभी की आँखें नम थी। जाते वक़्त तो मेरे भी आँखों में आँसू थे। तभी एक पड़ोस कि आंटी आयीं और उन्होने कहा अरे तू तो रो रही है पागल है क्या, तू ससुराल से जा रही है या मायके से और ससुराल से जाते वक़्त भी कोई रोता है क्या। तब मैंने उन से कहा था आंटी मेरा ससुराल भी मेरे लिए मायके से कम नहीं है। वैसे भी जब कम दिनों के लिए मिलाप हो तो बुरा तो लगता ही है, और यह कह कर हम स्टेशन के लिए निकल गए, और फिर आखिरकार वो दिन आ ही गया जिसका मेरे मन को बहुत बेसब्री से इंतज़ार था ।
अब हम आ पहुंचे भोपाल मेरा अपना भोपाल जहां कि सुबह मुझे अपनेपन का एक अलग सा एहसास दिलाती है अपनी मिट्टी और अपने लोगों का एक बिकुल अलग एहसास वैसे देखा जाये तो भारत आने के बाद जो भाव मेरे अंदर उत्पन्न होते हैं ठीक वैसे ही भाव मेरे अंदर भोपाल पहुँचने पर होते हैं क्यूंकि देखा जाए तो यहाँ से जाने के बाद हर हिंदुस्तानी, अपना सा लगता है। ठीक वैसे ही भोपाल पहुँचने के बाद वहाँ मिलने वाला हर शक्स चाहे वो जाना पहचाना हो या अंजान अपना सा लगता है। खैर घर पहुँच कर पापा मम्मी का मुझे गले से लगा लेना थोड़ी देर के लिए जैसे सारी दुनिया उनकी बाहों में ही सिमट जाती है और ऐसा लगता है जैसे शायद  इस एक एहसास के लिए मन तरस रहा था जाने कब से और सब का वो उत्साह मुझसे मिलने का मम्मी का उस दिन से ही शुरू हो जाना कि बता क्या खाना है तेरे पसंद की हर चीज बनाई है और बता तो वो भी बन जाएगी हमेशा कि तरह सभी मम्मियों का प्यार अपने बच्चे की पसंद का खाना खिलाने से ही शुरू होता है और मेरी मम्मी का भी ठीक वैसे ही शुरू हुआ। मगर मुझे सब से अच्छा कुछ लगता था तो वो यह कि सुबह जब मेरे मम्मी मुझे बहुत प्यार से बेटा, मेरा कूचुया कह कर उठाया करती थी। मेरे गालों पर प्यार से अपने ठंडे -ठंडे हाथ फिराया करती थी और जब में उठ कर उन के गले लग जाया करती थी। तो धीरे से मेरे गाल पर प्यारा सा ममता भरा चुभन लिया करती थी । मुझे बहुत याद आ रही है सब कि खास कर इन छोटे-छोटे पलों की जिनके लिए मेरा मन तरस जाता है।  मगर मैं जानती हूँ कि उनकी और मेरी भी कुछ मजबूरीयाँ हैं, जिनके चलते यह दिन, यह एहसास मेरे करीब ज्यादा दिन तक कभी नहीं रह सकते। जब कभी मुझे यह सब जरूरत से ज्यादा याद आता है तो लगता है कौन है वो जिसने यह रिवाज बनाया कि लड़की को ही अपना घर छोड़ कर दूसरे घर जाना होगा, मिल जाए तो उसकी खबर ले लूँ, मगर यह तो सिर्फ बातें हैं, सोच है। अंत में करना तो वही है जो इस so called समाज का नियम है ।
खैर जो भी है आगे की कहानी यह है कि दो चार दिन बाद मेरे और भी भाई लोग भोपाल आ गए मुझसे मिलने और फिर उसके बाद जो मस्ती का रंग चढ़ना शुरू हुआ तो बस गहराता ही चला गया। खूब चाय और ताश के पतों के दौर चले, रात-रात भर खूब खाने खिलाने का सिलसिला चला। आज इस के घर दावत है, तो कल उसके घर, फिर आया राखी का पावन त्यौहार जिसकी मैंने भारी भरकम ख़रीददारी की, मैंने खूब खर्चा किया दिल खोल कर और भाइयों की भी खूब जेबें ढीली करवाईं। मेंहदी का रंग, उसकी खुशबू चारों और बिखरती रही सब के हाथों में। मैंने खुद अपने हाथों से मेंहदी लगाई और जो मेरी मेंहदी का रंग आया तो खूब छेड़ा सबको यह कह-कह कर कि देखो इतना गहरा रंग तभी चढ़ता है जब कोई प्यार न करता हो देखो-देखो मुझे कोई प्यार नहीं करता क्यूंकि वो कहते है न कि "कु प्यारे को मेंहदी और सावले को पान खूब रचता है" इस लिए मैंने भी छेड़ छाड़ करने के लिए सबको यही संवाद जम कर चिपकाया, फिर हम लोग सब पिकनिक के लिए सांची गए सुबह से घर से निकले बस से रास्ते में पुराने भोपाल में रुक कर पोहा जलेबी खाई, पास के मंदिर में मैंने जाकर दर्शन भी किए जो करफुई वाली देवी के मंदिर के नाम से जाना जाता है।
फिर आगे चले तो एक गाँव के पास जहां से कर्क रेखा(Tropic of Cancer) गुजरती है वहाँ हमारी बस खराब हो गई, रास्ते में ही एक पेड़ के नीचे दरियाँ बिछा ली गई और वहाँ भी ताश के पतों का दौर चलने लगा। बच्चे क्रिकेट खेलने में मसरूफ़ हो गए और हम लोग ताश और गप्पों में बड़ी देर बाद जाकर खबर मिली कि अब बस ठीक हो गई है चलो फिर आगे चले तो सभी का भूख से बुरा हाल था। तब मेरे कहने पर एक ढाबे पर खाना खाने का प्रोग्राम बना और वहाँ हम लोगों ने बिलकुल फिल्मी स्टाइल में बकायदा खाट पर बैठ कर सेव टमाटर की सब्जी और तड़के वाली दाल के साथ दही और तंदूरी रोटियों का मज़ा लिया। उसके बाद हम लोग आगे सांची के स्तूप देखने के लिए आगे बढ़े उस खाने का स्वाद तो आज भी मुझे याद आ रहा है और मेरे मुंह में तो लिखते हुए भी पानी आरहा है । आपकी जानकारी के लिए बता दूँ सांची स्तूप सम्राट अशोक ने बुद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए बनवाया था। :)

अंतत वहाँ के दिन भी यूं ही बीत गए और आखिरकार वहाँ भी विदाई का दिन आ ही गया। पहली बार मैंने अपने पापा कि आँखों में नमी और गले में भारीपन को महसूस किया, इतना तो मुझे याद नहीं कि मेरी पहली बार विदाई होने पर भी पापा को लगा होगा। हांलांकी लगा तो तब भी बहुत होगा यह मैं बहुत अच्छे से जानती हूँ।  मगर तब उन्होने मुझे महसूस नहीं होने दिया मगर इस बार वो भी अपने आप को रोक नहीं पाये और आखिरकार वहाँ से भी भारी मन से न चाहते हुए भी मुझे प्रस्थान करना ही पड़ा। आज का दिन है कि मैं यहाँ अपने घर वापस आ गयी हूँ और आज आप सभी के साथ अपने अनुभव को बाँट रही हूँ मैं जानती हूँ कि यह मेरे अनुभव है, इसलिए शायद आप को इस में उतना मजा न भी आया होगा जितना की आना चाहिए क्यूंकि आप ने यह सब मेरी लेखनी कि नज़र से देखा है और शायद कुछ जगहों पर महसूस भी किया हो क्यूंकि कहीं न कहीं तो अनुभव भी एक दूसरे के एक दूसरे से मिल ही जाया करते हैं इस उम्मीद के साथ कि शायद आप सभी लोग मेरे इस लेख के जरिये से खुद के अनुभवों को मेरे इन अनुभवों से जोड़ कर देख पाएंगे इसी आशा और उम्मीद के साथ जय हिन्द .....