Saturday, 12 March 2016

“~डर के आगे ही जीत है~”

“~डर के आगे ही जीत है~”

आज फिर एक विज्ञापन देखा जिसमें हवा को स्वछ बनाने वाले यंत्र का उपयोग करने की सलाह दी जा रही थी अर्थात आसान शब्दों में कहूँ तो (एयर प्यूरीफायर) का विज्ञापन देखा। क्या वास्तव में हम इतने भयानक वातावरण में जी रहे हैं कि हमारे घर की हवा तक स्वच्छ नहीं है। यदि वास्तविकता यही है तो फिर हम किस आधार पर देश की प्रगति या विकास की बात करते हैं। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि चाँद से मंगल तक की यात्रा भी शायद लोगों को सभ्य बनाने से ज्यादा आसान काम रहा होगा। मगर भारत में लोगों को सभ्य बनाना “लोहे के चने चबाने जैसी बात है”। आपको वैल एजुकटेड(Well Educated) लोग मिलेंगे लेकिन सभ्य नहीं।

खैर हम बात कर रहे थे एक एयर प्यूरीफायर के विज्ञापन की, तो भई जिस देश की हवा ही स्वच्छ और सुरक्षित नहीं है वहाँ किसी और तरह के विकास के बारे में तो सोचना ही व्यर्थ है नहीं ! लेकिन मैं कहूँगी कि “डर के आगे ही जीत है” अब आप कहेंगे ऐसा नहीं है।

विज्ञापन कंपनियों का तो काम ही है लोगों में डर बेचकर अपनी जेबें भरने का, सही बात है लेकिन मुझे आश्चर्य इसलिए होता है कि यह बात सभी जानते हैं मगर फिर भी उस बेचे जा रहे डर को खरीद लेने में ही समझदारी समझते है और खरीद भी लेते है। क्यूँ ? क्यूंकि अपनों की सुरक्षा के आगे इंसान सब करने को तैयार रहता है। लेकिन इस तरह के यंत्रों का उपयोग करके हम अपने अपनों की सुरक्षा नहीं कर रहे बल्कि उन्हें और भी ज्यादा कमजोर बना रहे हैं। खासकर बच्चों को क्यूंकि घर में हम भले ही उन्हें कितना भी शुद्ध वातावरण क्यूँ न प्रदान करें लेकिन घर के बाहर का माहौल तो सदैव ही घर से पूर्णतः भिन्न ही मिलता है। फिर चाहे वह आबो हवा की बात हो, खाने पीने की बात हो या पानी की बात हो, घर की चार दीवारी के बाहर तो जैसे सभी कुछ प्रदूषित होता है।

ऐसे में हमें या तो अपने पर्यावरण को पहले की तरह स्वच्छ बनाना होगा जो इतना आसान नहीं है किन्तु यदि प्रयास किया भी तो उसमें समय भी अधिक लगेगा। तो फिर क्या किया जा सकता है ? तो जवाब है फिर हमें अपने शरीर को ही मजबूत बनाना होगा। जैसे एक मजदूर का शरीर होता है जिसे कैसा भी खाना और कहीं का भी पानी हानि नहीं पहुंचाता क्यूंकि उसका पालन पोषण डरे हुए माहौल में नहीं होता। वह आज भी हमसे ज्यादा प्रकृति के करीब होता है। ज़मीन पर सोता है। मिट्टी में काम करता है। और अन्य सारे कामों के लिए भी ज़मीन का ही सहारा लेता है फिर चाहे काम के दौरान मिले अंतराल में भोजन करना हो या फिर झपकी लेनी हो। उसके लगभग सभी काम जमीन पर बैठकर ही होते है और एक हम हैं ! जो अपनी ही ज़मीन से कोसौं दूर रहते है और अपने बच्चों को भी दूर रखते है।

मुझे तो ऐसा लगता है कि हम सभी जब मंदिर जाते हैं तभी शायद जमीन पर बैठते होंगे, वरना घर में तो ऐसी नौबत ही नहीं आती। आजकल की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में समय के अभाव के कारण तो हम अपने घर की पूजा भी खड़े-खड़े करके ही चलते बनते है। बच्चों को घर की साफ सुथरी ज़मीन पर गिरा खाना भी खाने से रोक देते है। दिन में पच्चीस बार हाथ धोने की हिदायत देते हैं। अर्थात साफ सफाई के पीछे जान दिये देते हैं। फिर भी आए दिन बड़ी बड़ी बीमारियों का शिकार हम ही लोग ज्यादा होते हैं। क्यूँ? मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि आप यह सब छोड़कर एक मजदूरों वाली जीवन शैली अपना लें और गंदे तरीके से जीना शुरू कर दें। सफाई से रहना तो अच्छी बात है। किन्तु वो कहते है न अति हर चीज़ की बुरी होती है। बस मैं भी वही कहना चाहती हूँ कि जो लोग इस एयर प्यूरीफायर के विज्ञापन को देखकर इसे लेने का विचार कर रहे हों वह कृपया एक बार फिर से अपने विचार पर विचार कर लें। क्यूंकि मेरा ऐसा मानना है कि जितना प्रकृति के निकट रहेंगे उतना स्वस्थ रहेंगे। क्यूंकि “डर के आगे ही जीत है”!!

Saturday, 5 March 2016

'~अंकों में सिमटी ज़िंदगी~'


कभी कभी बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते जब अपना बचपन याद आता है तो तब कैसी अच्छी सुखद अनुभूति का एहसास होता है। जिसके विषय में सोचकर ही चेहरे पर स्वतः एक भीनी सी मुस्कान आ जाती है। वैसे तो इन दिनों परीक्षा का माहौल है। जिसके चलते न सिर्फ बच्चे बल्कि हम बड़े भी परेशान हैं । फिर चाहे अपना समय याद करें या इन बच्चों के समय अनुसार चलने का प्रयास करें, किन्तु परीक्षा हमेशा परीक्षा ही रहती है। यानि कम शब्दों में कह जाये तो "~अंकों में सिमटी ज़िंदगी~"।  विद्यार्थी जीवन जितना सुखद होता है शायद एक विद्यार्थी की दृष्टि से उतना ही दुखद भी होता है। विशेष रूप से लड़कों के लिए क्यूंकि लड़कियां तो स्वाभाविक रूप से पढ़ाई में लड़कों से ज्यादा तेज़ ही होती है। ऐसा सिर्फ मेरा मानना नहीं है बल्कि हर साल 10 वी और 12वी के परिणाम भी यही कहते हैं। लड़के तो जैसे पढ़ना ही नहीं चाहते। या यह कहूँ कि कम उम्र में तो नहीं ही पढ़ते तो यह गलत न होगा और किसी का मैं नहीं कह सकती। किन्तु मेरे अपने बेटे के साथ तो मेरा अनुभव कुछ ऐसा ही है। उसे पढ़ाते वक्त भी रह रहकर मेरे दिमाग में एक ही बात घूमती है। जो अपने समय में भी घूमती थी "अंकों में सिमटी ज़िंदगी"।

न जाने किसने यह परीक्षा की रीति बनाई और क्यूँ बनाई, मेरी समझ में तो आज तक यह बात नहीं आयी। मात्र तीन घंटे के आधार पर किसी के जीवन का इतना बड़ा एवं अहम फैसला लेना कि वह बालक या बालिका इस समाज में आर्थिक रूप से एक अच्छा जीवन यापन करने के लायक हैं भी या नहीं यह तय कर देना कहाँ का इंसाफ है। यहाँ आर्थिक रूप से अच्छे जीवन की बात मैंने इसलिए कही क्यूंकि आज के आधुनिक युग में जहां प्रतियोगिता का बोलबाला है वहाँ चाहे कोई बच्चा एक अच्छा सभ्य या नेक नागरिक बने ना बने, किन्तु धनवान अवश्य बनाना चाहिए। क्यूंकि जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होता वह इस दुनिया के हिसाब से कामयाब भी नहीं माना जाता। आज की तारिख़ में कामयाब वही है जो पैसों का धनी है। जिसके पास पैसा नहीं वह गुणी होते हुए भी कुछ भी नहीं है।

हां आप ऐसा माने या ना माने मगर दुनिया ऐसा ही सोचती है। बहुत कम ऐसे लोग मिलते है जो अपनी मेहनत और किस्मत के दम पर ज़मीन से उठकर शिखर तक पहुँच पाते है। पहले के जमाने में तो परीक्षा का महत्व फिर भी थोड़ा बहुत समझ आता था किन्तु आज जो हालात है उसके अनुसार तो सिर्फ किसी भी तरह पास होना या डिग्री प्राप्त कर लेना ही परीक्षा का अर्थ रह गया है। फिर चाहे उसे प्राप्त करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद जैसी कोई भी नीति क्यूँ न अपनानी पड़े। परीक्षा के नाम पर लोग बेचे और खरीदे जा रहे हैं। देश के भविष्य  की चिंता न माता-पिता को है न समाज को, ना ही शिक्षा प्रशासन को तभी तो रोज़ ही समाचारों में धडल्ले से खुले आम नकल की खबरों को प्रसारित किया जा रहा है। उसके बावजूद भी इसमें कोई कमी नहीं आयी है। ऐसे में योग्य छात्र जो मेहनत करके परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते है या करते हैं उनकी मेहनत का भी कोई मोल नहीं रह जाता। जब पैसा लेकर पास सभी को कर दिया जाता है। तो फिर क्या फर्क पड़ता है प्रतियोगिता में अव्वल आओ या ना आओ।

यह सब जानते है। फिर भी अव्वल आने की होड ऐसी मची है कि विद्यार्थी के बारे में खुद विद्यार्थी ने सोचना ही छोड़ दिया है। नतीजा मानसिक दबाव के चलते परिणाम आने पर छोटे -छोटे बच्चों से लेकर युवा वर्ग तक के लिए एक मात्र रहा आत्महत्या ही बचती है। जीवन इतना जटिल हो जाता है कि मरना, जीने से ज्यादा आसान दिखाई देने लगता है और न जाने कितने परिवार अपने आँखों के तारों को सदा के लिए खो बैठते है। लेकिन जिस सामाजिक दबाव के कारण माता-पिता एवं स्कूल बच्चों पर यह ज्यादा से ज्यादा अंक प्राप्त करके अव्वल आने का दबाव डालते है। ताकि समाज में उनका या उनके स्कूल का नाम चमक सकें और वह गर्व से सर उठाकर यह कह सकें की यह मेरा बेटा /बेटी है जिसने अपनी कक्षा, विद्यालय, शहर या जिले में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए है। लेकिन उन सर्वाधिक अंकों को प्राप्त करने वाला किस मानसिक प्रताड़णा से गुज़र रहा है। यह हम सब भूल जाते है। "कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है" यह सत्य है। लेकिन कुछ पाने के लिए उसे प्राप्त करने वाला स्वयं को ही खो दे तो क्या मायने रह जाते है उस चीज़ के जिसे पाने की चाह में उसने खुद को ही खो दिया!

सीधी सी बात है जो हम सभी जानते है। अकेला इंसान दुनिया से आसानी से लड़ सकता है। क्यूंकि उसके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। किसी भी काम के परिणाम का पूर्णतः दारोमदार उस एक अकेले इंसान पर ही होता है। फिर परिणाम चाहे अच्छा हो या बुरा। लेकिन जब आप पर दूसरों की भावनाओं का भावनात्मक बोझ होता है। लोगों की आप से जुड़ी उम्मीदों और आशाओं का भार होता है। तब आप खुद को मजबूत नहीं बल्कि कमजोर महसूस करने लगते हो। आपके मन में उनकी उम्मीदों पर खरा न उतर पाने का डर घर कर लेता है। जिसे आप न दिखा सकते हो न छिपा सकते हो। कोई माने या माने किन्तु सत्य यही है। हर विद्यार्थी की ज़िंदगी ऐसी ही होती है। परिणाम अच्छे आ जाते है तो आगे बढ्ने की प्रेरणा का संचार हो जाता है और जिनके परिणाम किसी भी कारण वश अच्छे नहीं आ पाते वह ज़िंदगी से हार जाते है। 

लेकिन इस डर से दोनों ही प्रकार के विद्यार्थी लगभग रोज़ ही गुजरते है। फिर चाहे वह होशियार विद्यार्थी हो या कमजोर, न जाने कब हम और हमारा समाज इस सब से ऊपर उठकर अपने बच्चों की कमजोरी बनने के बजाए उनकी हिम्मत और होंसला बनना सीखेँगे कब उनकी ज़िंदगी को अंकों में सिमटी ज़िंदगी से मुक्त करके एक चिड़िया की भांति उन्हें खुले आसामान में अपनी जगह स्वयं तलाशने और पाने की आज़ादी दे पाएंगे। ताकि वह अपने हिस्से का आसमान स्वयं अपनी मेहनत, अनुभव और नजरिये के अनुसार पा सके ताकि उन्हें आगे चलकर कभी अपने किए पर यह पछतावा न हो कि यार उस समय यदि अपने मन की सुनी होती तो आज बात ही कुछ और होती। 

यहाँ कोशिश तो हम सभी कर रहे है ऐसा अभिभावक बनने की मगर यह सामाजिक दबाव इतना ज्यादा होता है कि कई बार चाहकर भी हम अपने बच्चों के साथ वैसा व्यवहार नहीं कर पाते जैसा वास्तव में करना चाहते है क्यूंकि ज़ाहिर है हर माता-पिता अपने बच्चे को कामयाब देखना चाहते है जिसके चलते ना चाहते हुये भी वह उस पर वह दबाव बनाने की कोशिश करते है कि वह भी अन्य बच्चों की तरह पढे और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो सके। फिर चाहे बच्चा पढ़ना चाहता हो या ना चाहता हो मगर हम हिन्दुस्तानी अभिभावक कभी भी अपने बच्चों को उनकी मर्जी पर नहीं छोड़ पाते और शायद कभी छोड़ भी नहीं पाएंगे। और जब तक ऐसा होता रहेगा तब तक हिंदुस्तान के हर बच्चे की ज़िंदगी अंकों में सिमटी ज़िंदगी थी है और रहेगी।