Tuesday, 30 July 2013

परिवर्तन...

कहते है परिवर्तन का नाम ही ज़िंदगी है सच ही तो है। यूं भी सब कुछ हमेशा एक सा कहाँ रहता है। फिर चाहे रिश्ते हों या इंसान या फिर सपने, सब कुछ वक्त के साथ बदल ही जाता है। जो नहीं बदलता, वक्त उसका वजूद रहने नहीं देता। पर कई बार ऐसा भी तो होता है कि हम ना चाहते हुए भी बदल ही जाते है। जैसे इंसान की काया वैसे तो आजकल अनगिनत प्रसाधन उपलब्ध है बाज़ार में अपनी काया को जैसे का तैसा दिखाने के लिए फिर चाहे वो सौंदर्य प्रसाधन हों या फिर कसरत करने के तरीके, सिर्फ इतना ही नहीं अब तो कपड़े भी ऐसे आते हैं कि आप अपनी बेडोल काया को सुडोल दिखा सकते है। खैर आज की तारीख में हर कोई सदा जवान लगना चाहता है। खूबसूरत दिखना चाहता है और हो भी क्यूँ न, खूबसूरत दिखने में भला बुराई ही क्या है। बस इतना ध्यान रखना है कि आप सुंदर दिखने के चक्कर में खुद को इतना भी न संवारलें कि आप हंसी का पात्र बन जाये।बस

खैर ऐसा ही कुछ अनुभव हुआ कल जब फेसबुक पर अपनी एक बहुत पुरानी सहेली से मुलाक़ात हुई। बहुत शौक था उसे तैयार होने का, सुंदर दिखने का, हमेशा एकदम टिपटॉप रहने का, मुझे आज भी याद है कि वो रात को भी सदा अपने बाल संवार कर और अपने माथे पर लगी हुई बिंदी को कायदे से वापस उसी स्थान पर लगा कर सोया करती थी जहां से उसने निकाली हो। ताकि अगले दिन सुबह सब जहां का तहां मिल जाये बिना ब्रुश किए तो वो बात तक नहीं करती थी किसी से, सर से लेकर पाँव तक हमेशा सजी सांवरी रहा करती थी वो, सुबह उठते ही उसका सबसे पहला काम हुआ करता था आईना देखना और बंदी लगाना :) चटक रंग बहुत पसंद थे उसे, हल्के रंग तो जैसे उसे हमेशा उदासी का एहसास कराते थे। खासकर नेल पोलिश के रंगों को लेकर तो बहुत ही चिंतित रहा करती थी वो, मेरी और उसकी पसंद हमेशा से अलग रही है, मगर फिर भी अब कपड़ों और रंगों के मामले में उस पर खासा असर दिखाई देता है मेरी पसंद का, अब उसे भी हल्के रंग पसंद आने लगे हैं।

लेकिन फिर भी वो एक रंग था कुछ मिक्स सा जो ना तो लाल में आता है और ना ही महरून में, उस रंग को मम्मी का रंग कहा करते थे हम हमेशा, क्यूंकि उसकी और मेरी मम्मी के अलावा और भी बहुतों की मम्मीयों को जाने क्यूँ हमेशा केवल वही रंग पसंद आता था। जितनी सुंदर थी वो उतना ही अच्छा उसका स्वभाव भी था। हर दिल अज़ीज़ थी वो, स्वभाव के मामले तो आज भी वैसी ही है वो :) लेकिन रंग रूप और काया की बात करूँ तो अब बहुत मोटी हो गयी है वो, दो बच्चे हैं उसके एक प्यारा सा, बहुत ही प्यारा सा बेटा और एक परी जैसी बेटी, मगर वो खुद एकदम बदल गयी है। शादी और बच्चों के बाद यूं भी एक औरत का कायकल्प हो ही जाता है। सब पहले जैसे नहीं रह पाते है। अक्सर लोग मोटे हो ही जाते है।

हालांकी अब तो सुपर वुमन ही नहीं,बल्कि सुपर मॉम का भी चलन हैं। फिर भी ऐसे परिवर्तनों को आने से बहुत कम ही लोग रोक पाते है। फिर चाहे वो एश्वर्या राय बच्चन ही क्यूँ न हो। भई अब हर कोई तो शिल्पा शेट्टी हो नहीं सकता ना...:) हाँ यह बात अलग है कि इन बड़े लोगों के पास सिवाए खुद पर ध्यान देने के और कोई दूजा काम नहीं होता है। इसलिए यह लोग जल्दी ही अपनी पुरानी काया पुनः पा लेते है। लेकिन आम इंसान के लिए यह संभव नहीं हो पाता है। उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ जिस लड़की को कभी खुद से प्यार था आज उसे सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार और बच्चों से प्यार है। जो लड़की कॉलेज के दिनों में हमेशा यह कहकर ठहाका लगाया करती थी कि यार जब तक दो चार लड़के मरे नहीं लड़की पर, तो लड़की होने का फ़ायदा ही क्या, आज वो लड़की खुद का एक भी फोटो तक दिखाना नहीं चाहती है। कहती है, यार शादी के बाद सारे परिवर्तन केवल एक लड़की में ही क्यूँ आते है। लड़कों में तो एक भी परिवर्तन नहीं आता वो ज्यादा लंबे समय तक एक से दिखते हैं और हम ? पारिवारिक जिम्मेदारियों को उठाते-उठाते और रिश्तों का दायित्व निभाते -निभाते कब बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता। यहाँ तक के कई बार यूं भी होता है कि खुद को आईने में देखकर भी कभी-कभी यकीन नहीं होता कि यह हम ही हैं। 

फिर भी हर परिवर्तन और ज़िंदगी में आने वाले हर पड़ाव को सर आँखों पर रखकर आगे बढ़ना सीख ही जाते है हम, शायद यही एक गुण है या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि यही एक वह महत्वपूर्ण गुण है जो एक नारी को एक पुरुष से प्रथक करता है और शायद इन्हीं गुणो की वजह से एक माँ का दर्जा एक पिता के दर्जे से ज़रा ऊपर का होता है। जब बच्चे प्यार से गले लग कर कहते हैं "ममा आई लव यू"  तो जैसे खुद में आत्मविश्वास का संचार पाते हुए हम गर्व से यह डायलोग मारते हैं हम कि

 हम ही हम है तो क्या हम है 
तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो 

और भूल जाते है फिर खुद को एक बार कि इस 'मैं' के लिए एक स्त्री के जीवन में कोई स्थान ही नहीं होता।                     

Monday, 22 July 2013

कुछ साधारण सा अनुभव... :-)


आज अपने यह अनुभव लिखते हुए पहली बार ऐसा महसूस हो रहा है जैसे यह कोई लिखने वाली बात नहीं है फिर भी क्यूँ लिख रही हूँ। मगर लिखे बिना रहा भी नहीं जा रहा है। आपको भी शायद यह पढ़कर हंसी आए और हो सकता है कि आपके मन में यह ख़्याल भी आए कि लो, यह भी कोई कहने वाली बात है। यह तो हमें भी पता है क्यूंकि यह तो बहुत ही आम साधारण सी बात है, भला इस में क्या नया है, जो मैं बता रही हूँ या बताना चाह रही हूँ (इट्स वेरी कॉमन यू नो) मगर फिर भी मुझे लगता है कि आज की तारीख में जब हमारे देश में हर सामान्य या मध्यम वर्गीय परिवार से कोई न कोई एक शक्स विदेश में रह रहा है। फिर भी मेरा ऐसा मानना है कि अब भी हमारे देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिनके लिए विदेशों की दुनिया अब भी किसी रहस्यमयी दुनिया से कम नहीं है। 

हालांकि आज के आधुनिक युग में जहां इंटरनेट रोज़मर्रा की ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है। उसके बावजूद भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो नियमित रूप से इंटरनेट इस्तेमाल नहीं करते तो कुछ ऐसे भी हैं जो करते भी हैं, तो सिर्फ बात करने के लिए या मनोरंजन के लिए, जानकारी के लिए नहीं...इसलिए शायद आज इतने सालों बाद भी बहुत से ऐसे लोग मिलते हैं। दोस्तों के घरों में, दूर दराज़ के नाते रिशतेदारों में जो बड़े आश्चर्य से पूछते हैं कि वहाँ कैसे रहते हो, क्या खाते हो वहाँ सब मिल जाता है या नहीं, खासकर हिन्दुस्तानी खाना जैसे आट्टा, दाल, सब्जी, वगैरा इत्यादि। यह सुनकर कभी-कभी मुझे भी अंदर से हंसी आती है। मगर अचंभा भी होता है कि लोग बाहर की दुनिया के बारे में जानने के लिए अब भी और आज भी इतने उत्सुक है। लेकिन आज भी जब कभी ऐसी कोई बात होती है, तो अपने शुरुआत के दिन याद आने लगते हैं। जब हम यहाँ नए-नए आए थे और हर चीज़ को देखकर लगता था, वाह यह यहाँ भी मिलता है। ऐसी कई सारी छोटी-बड़ी चीज़ें है जिन्हें देखकर आज भी बहुत खुशी होती है। सिर्फ यह सोचकर कि अब यह चीज़ भी यहाँ उपलब्ध है, जैसे टाटा का नमक या रूहफ़्ज़ा शर्बत या फिर पार्ले जी के बिस्कुट जो इंडिया में रह रहे व्यक्ति के लिए बहुत ही मामूली सी चीज़ हैं और मैं खुद एक हिन्दुस्तानी हूँ फिर भी मुझे बहुत अच्छा लगता है यहाँ अपने यहाँ की चीजों को देखकर,एक मुस्कुराहट सी आ जाती है चेहरे पर J   

खासकर अब जब यहाँ की हर चीज़ वहाँ और वहाँ की हर चीज़ यहाँ मिलती है। यह सभी जानते हैं अब इन मामलों में हिंदुस्तान और विदेश में कोई ज्यादा अंतर नहीं बचा है। मगर फिर भी जाने क्यूँ मुझे तो इंडिया के प्रॉडक्ट यहाँ देखने में आज भी वैसी ही खुशी मिलती है जैसी शुरुआती दिनों में मिला करती थी। मगर याद रहे यह खुशी भी आपको यहाँ केवल लंदन में या लंदन के आस पास के शहरों में ही मिलेगी। जैसे मैंचेस्टर जहां मैं पहले रहती थी या फिर Crawley जो गेटविक(Gatwick) हवाई अड्डे के पास है और लंदन से थोड़ी ही दूरी पर है, वहाँ भी मैं रही हूँ। यहाँ तक कि मैंने अपना पहला ब्लॉग वहीं रहकर लिखा था J खैर कुल मिलाकर लंदन या उसके आस पास रहने का यही फायदा है या फिर उस जगह जहां हिन्दुस्तानी आवाम ज्यादा हो वैसे अब लंदन लगभग दूसरा हिंदुस्तान बन चुका है। अंग्रेज़ तो अब नाम के ही बचे हैं यहाँ, लेकिन यकीन मानिए अपने इंडिया के कोई भी छोटे बड़े प्रॉडक्ट देखकर बहुत खुशी होती है। खासकर इंडियन साबुन, पेस्ट, शैम्पू, यहाँ तक के टाटा का नमक, और उपवास में खाया जाने वाला सेंदा नमक और साबूदाने के पापड़ तक मिल जाते है J सिर्फ यह ही नहीं बल्कि हर चीज़ यहाँ उपलब्ध है J 

मैं जानती हूँ आप सभी को यह पढ़कर लग रहा होगा ना ? कैसी पागल लड़की है। यह भी कोई बताने वाली बाते हैं यह सब तो बहुत ही आम बाते हैं। कुछ चीज़ें ऐसी भी है जो इंडिया में कुछ खास दुकानों पर या शायद मॉल में मिलती हों जैसे हल्दीराम के फ़्रोजन आलू के पराँठे ,मिक्स सब्जी के पराँठे, सादे पराँठे रोटियाँ बिलकुल घर जैसे स्वाद वाले इत्यादि मगर फिर भी इन साधारण सी दिखने वाली आम बातों से जो खुशी मिलती है। वो खुशी केवल विदेश में रहकर ही महसूस की जा सकती है। हाँ यह बात अलग है कि यहाँ के मौसम में रूहफ़्ज़ा पीने का मज़ा वैसा ना आए जैसा अपने इंडिया की सड़ी गर्मी में आता है, मगर वो कहते हैं ना


"दिल बहलाने के लिए ग़ालिब ख़्याल अच्छा है" 

बस हम यही महसूस कर लेते हैं यहाँ सब अपना देखकर ...

Thursday, 18 July 2013

बेहद शर्मनाक ....


छीः .... यार पता नहीं किस मिट्टी के इंसान बनते है आजकल, खासकर वो जो नेता कहलाते है। समझ नहीं आता, क्या हो गया है हमारे देश के इंसानों को, जिनमें इंसानियत बाकी ही नहीं रही। ऐसा लगता है चारों तरफ "अंधेर नगरी चौपट राजा वाला" हिसाब फैला हुआ है। अरे भला क्या बिगाड़ा था उन मासूम बच्चों ने किसी राज नेता का जो उसने अपनी गंदी और घिनौनी राजनीति की रोटियाँ सेंकने के लिए उन मासूम बच्चों की चिता सजा डाली। क्या मिला किसी को ऐसा घिनौना काम करके कि बच्चों को मिड डे मील के नाम पर खाने के बजाए मौत परोस दी गयी। क्या ऐसा करने वाले लोगों के अंदर उनकी अंतर आत्मा वास नहीं करती या उसे भी बेच खाया है उन्होंने, कि उनके अंदर से चित्कार नहीं उठती, उनकी अंतर आत्मा उन्हें धिक्कारती तक नहीं, ऐसा शर्मनाक काम करने के बाद उन्हें नींद कैसे आ जाती है। यह बात मेरी समझ से परे है।

बच्चे तो बच्चे होते हैं फिर गरीब के हों या अमीर के इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर इन्हीं मासूम बच्चों में यदि किसी बड़े नेता या राजनेता का बच्चा भी मरा होता तो शायद इन्हें एहसास होता कि मौत क्या होती है। दुख क्या होता है। कैसा लगता है, जब एक माँ के मुंह से बद्दुआ निकलती है। जिसने भी यह किया, उसे तो मौत जैसी सरल सज़ा के बजाए ऐसी कोई सज़ा मिलनी चाहिए कि वो ज़िंदा रहकर भी मौत की भीख मांगे। मगर सज़ा दे कौन ? प्रशासन और सरकार तो चिकना घड़ा है उन्हें कभी किसी बात से आज तक कोई फर्क नहीं पड़ा तो अब क्या पड़ेगा। फिर चाहे वो केदारनाथ का हादसा हो या पिछले कई और ऐसे मामले, सरकार ने तो जैसे नियम ही बना लिया है कहीं भी कोई भी हादसा हो तो बस समितियां बनाकर मुआवज़े की घोषणा कर दो और ज्यादा हल्ला हो तो नौकरी देने की बात कह दो अपना काम ख़त्म।

फिर चाहे मरने वाले के परिजन ताउम्र उस कभी न मिलने वाले मुआवज़े और अपने उस प्रिय व्यक्ति की याद में घुलते रहें, मरते रहे, उन्हें उनके दुख दर्द से कोई वास्ता नहीं, क्यूँ नहीं सोच पाते वह लोग एक आम इंसान की तरह की इन मुआवजों से एक माँ की उजड़ी हुई गोद फिर से हरी नहीं हो सकती। एक पिता के बुढ़ापे का सहारा और किसी के घर का चश्में चिराग फिर दुबारा रोशन नहीं हो सकता। फिर किसी बहन को राखी बांधने के लिए उसका भाई और किसी भाई को राखी बँधवाने के लिए उसकी बहन नहीं मिल सकती। कुल मिलाकर कहने का मतलब यह कि दुनिया की कोई ताकत और कोई भी सहूलियत उस दुख और उस दर्द की पूर्ति नहीं कर सकती जो उस परिवार के लिए स्वयं किसी आपदा से कम नहीं। जिसमें उन्होने अपने अपनों को हमेशा के लिए खो दिया वो भी किसी और कि गलती की वजह से, सरकार और प्रशासन पर भरोसा और विश्वास करने का यह नतीजा दिया है सरकार ने ? वाह रे राजनीति ....

लेकिन राजनेताओं को गालियां देने का भी क्या फायदा हम खुद भी तो उतने ही असंवेदन शील हो गए हैं इसलिए हर बार चुनाव आने पर एक बार की हुई गलती को बार-बार दौहराते है और कुछ महान लोग तो वोट ही नहीं देते यह सोचकर कि क्या करना है वोट देकर जहां ऊपर से नीचे तक सभी भ्रष्ट है। मगर कोई यह नहीं सोचता कि राजनीति यदि गंदी है तो उसकी साफ सफ़ाई करने का काम भी तो हमारा ही है। सिर्फ यह सोचकर बैठ जाना कि सभी भ्रष्ट है चाहे जिसकी सरकार बने हमें क्या, हम तो जैसे जीते आए हैं वैसे ही ज़िंदगी गुज़ार देंगे। ऐसा सोचने से ना तो देश का भला होने वाला है और ना हीं देशवासियों का, क्यूंकि फिर इसी रवैये के चलते ऐसी ही भ्रष्ट और बेकार सरकार बनती है और ऐसा ही सब कुछ हमारी आँखों के सामने घटता रहता है जिसे देखकर, पढ़कर या सुनकर हम सिर्फ अफसोस ज़ाहीर करने की औपचारिकता निभा देते हैं और यदि स्वयं हमारे साथ ऐसा कुछ हो जाये तो सिवाए सरकार को कोसने के हम कुछ नहीं कर पाते और कुछ दिनों बाद ज़िंदगी फिर उसी ढर्रे पर चलने लगती है।

अरे जिस देश में स्वयं वहाँ की जनता ऐसी हो, सरकार और प्रशासन ऐसे हों उस देश को भला बाहरी दुश्मनों की क्या जरूरत है जब घर के भेदी ही लंका ढाने को आमादा है।

इस मामले की सम्पूर्ण जानकारी आप इस लिंक पर पढ़ सकते है। अब तो मरने वाले बच्चों की संख्या में भी वृद्धि हो चुकी है यह खबर पुरानी है। साथ ही आप मेरा यह आलेख NBT नव भारत टाइम्स पर भी पढ़ सकते है http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/ek-nazar-idhar-bhi/entry/%E0%A4%AC-%E0%A4%B9%E0%A4%A6-%E0%A4%B6%E0%A4%B0-%E0%A4%AE%E0%A4%A8-%E0%A4%95?fb_action_ids=10201533466478958&fb_action_types=og.recommends&fb_source=timeline_og&action_object_map=%7B%2210201533466478958%22%3A160964357424685%7D&action_type_map=%7B%2210201533466478958%22%3A%22og.recommends%22%7D&action_ref_map=%5B%5D

http://www.samaylive.com/regional-news-in-hindi/bihar-news-in-hindi/218304/bihar-patna-get-mide-21-children-died-70-unconscious.html                              

Saturday, 13 July 2013

विम्बलडन 2013 - क्या आपको जानकारी है !!!


यूं तो मुझे खेलों में कोई खास दिलचसपी नहीं है मगर ऐसा भी नहीं है कि आँखों के सामने कोई खेल चल रहा हो और मुझे बोरियत महसूस होने लगे। सबसे पहले आपको बता दूँ कि विम्बलडन(Wimbledon) लंदन में एक कस्बे का नाम है। वैसे मैंने इससे पहले कभी किसी खेल को उसके मैदान में सीधा नहीं देखा था मगर इस बार किस्मत से हमें विम्बलडन का महिलाओं द्वारा खेला जाने वाला फ़ाइनल मैच देखने को मिल ही गया यहाँ लंदन में रहकर विम्बलडन कोर्ट में जाकर खेल देखना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है. आप को जानकार आश्चर्य होगा कि जुलाई 2014 के खेलों के लिए पब्लिक बेलट (Public Ballot) 1 अगस्त 2013 से खुलेगा और आपको दिसम्बर तक फॉर्म भर कर भेजना पड़ेगा, फिर लाटरी प्रक्रिया से जो किस्मत वाले लोगों का नाम निकलेगा उनको फरवरी 2014 तक बताया जायेगा, तब आप उनकी साइट पर जाकर राशि  जमा करें और आपके घर टिकट भेज दिया जायेगा। यह प्रकिया सिर्फ Centre Court और Court no.1 के लिए है। जो लोग किसी कारण नहीं जा पाते हैं वो वापस कर देते हैं क्यूंकि टिकट किसी और को नहीं दिया जा सकता। यह टिकट फिर मैच के एक दिन पहले टिकटमास्टर.कॉम पर बेचा जाता है और कुछ मिनट में सारे बिक जाते हैं मगर उसके लिए भी जेब में अच्छे खासे पैसे और किस्मत दोनों का होना ज़रूरी है। यहाँ आपको बता दूँ इस बार पुरुषों के फ़ाइनल खेल का सबसे मंहगा टिकिट 80 हजार पाउंड का बिका है। इस बात से ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यहाँ इस खेल को देखने के लिए किस कदर पागल रहते है लोग।

हमें भी हमारे श्रीमान जी की कृपा से यह सुनहरा और पहला अवसर मिला इस खेले को सीधे कोर्ट में बैठकर  देखने का, जिसका अपना एक अलग ही मज़ा है। हमें दो टिकिट 250 पाउंड के मिले थे तीसरा नहीं मिल सका इसलिए अपने बेटे को मुझे अपनी एक दोस्त के घर छोड़कर जाना पड़ा और किस्मत बहुत अच्छी थी कि टिकट भी वहाँ का मिला जहां से खिलाड़ी कोर्ट में आते और जाते हैं, इस कारण हमें दोनों खिलाड़ीयों का ऑटोग्राफ भी मिल गया।





खैर खेल के कोर्ट में बड़े-बड़े खिलाड़ियों को सामने से देखना ऐसा लग रहा था मानो वो इंसान नहीं कोई अजूबे हों। पूरा कोर्ट खचाखच भरा था। आपको यहाँ यह जानकार भी शायद आश्चर्य हो कि टेनिस ही एक मात्र ऐसा खेल हैं जिसमें दूर -दूर तक कहीं भी विज्ञापन का कोई रोल नहीं है, ना ही कोर्ट में और ना ही टीवी पर ही खेल के दौरान आपने कभी कोई विज्ञापन देखा होगा। है ना आश्चर्य की बात!!! :) वहाँ हम ने यह भी देखा कि लोग एक खिलाड़ी को ज्यादा और दूसरे को कम बढ़वा दे रहे थे जबकि दोनों ही खिलाड़ी ब्रिटेन की नहीं थी फिर भी जाने क्यूँ लोगों ने सबीन को ज्यादा सपोर्ट किया जो कि जर्मनी से है। लेकिन फिर भी जीती वही महिला जिसको जनता का सपोर्ट कम मिला अर्थात Marion जो फ़्रांस से है। हालांकी खेल के दौरान जनता का झुकाव और बढ़ावा भी बहुत बड़ी चीज़ होती है। मगर फिर भी आखिर काबलियत भी कोई चीज़ होती है भई, जीतता वही है जिसमें दम हो। 

आजकल लंदन में पिछले कुछ दिनों से मौसम भी बहुत अच्छा चल रहा है मतलब 28 डिग्री यानि सूर्य नारायण की भरपूर कृपा बरस रही है आजकल यहाँ जो आमतौर पर बहुत ही कम होता है यहाँ, जिसके चलते बेहद गरमी है लोग हाहाकार कर रहे है। उस दौरान हमे भी यही लग रहा था कि अभी तो हम छाँव में बड़े मज़े से बैठे हैं मगर जब सूर्य नारायण की दिशा बदलेगी और उनका प्रकोप हम पर भी पड़ने लगेगा तब हमारा क्या होगा। हमारी यह चिंता शायद हमारे चहरे पर भी दिखाई देने लगी थी। इसलिए वहाँ हमारे पास खड़े गार्ड ने हमे बताया कि आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है आप बहुत ही किस्मत वाले हैं जो आपको यहाँ सीट मिली है यहाँ धूप आते ही हम ऊपर का शेड (Retractable roof ) आपके लिए खोल देंगे। पहले हमें लगा शायद वह मज़ाक कर रहा है लेकिन वो मज़ाक नहीं सच था। हम पर धूप आते ही हमारे साइड का ऊपर का कवर थोड़ा सा खोल दिया गया। यहाँ मैं आपको यह भी बताती चलूँ कि केवल सेंट्रल कोर्ट में ही यह व्यवस्था है जो खिलाड़ियों और वहाँ बैठी जनता को धूप और पानी से बचा सकता है बाकी अन्य कोर्ट में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है वहाँ यदि बारिश हो जाये तो खेल बीच में ही रोकना पड़ता है।  इसलिए इस दौरान होने वाले सभी महत्वपूर्ण मैच केवल सेंट्रल कोर्ट में ही खेले जाते है। हम ने भी गर्मी का लुफ़्त उठाते हुए वहाँ (पिम्म्स पेय) पीकर और ठंडी-ठंडी स्ट्रॉबेरी के साथ ठंडी-ठंडी क्रीम डालकर खायी, सच मज़ा आ गया था खाकर, :) वो भी HSBC बैंक की मेहरबानी थी जिसका जाइंट खाता था उसके कारण फ्री में यह स्ट्रॉबेरी और क्रीम खायी और खूब मज़ा आया खेल देखकर औ जैसा कि मैंने उपरोक्त कथन में भी लिखा है खिलाड़ियों के हस्ताक्षर (Autograph) भी लिए हमने आप में से जो-जो लोग हमारे साथ फेसबुक पर जुड़े हैं उन सभी ने फोटो भी देखे होंगे। यहाँ भी कुछ तस्वीरें लगा रही हूँ।  
Marion BartoliSabine Lisicki
Sabine Lisicki getting
runner up trophy
Marion Bartoli getting
winner trophy

महिलाओं के खेल का तो हमने भरपूर मज़ा लिया और ज़िंदगी भर के लिए इन मीठी यादों को अपने दिल में सजा लिया। लेकिन पुरुषों के खेल का मज़ा हमने घर बैठकर टीवी पर ही लिया जबकि मन पुरुषों के खेल को देखने का ही ज्यादा था मगर टिकिट मिली महिलाओं वाले खेल की, फिर भी हम बहुत खुश थे। मगर पुरुषों वाले खेल के खत्म हो जाने के बाद जब यह जाना कि यह ट्रॉफी ब्रिटेन में 77 साल के बाद आयी है  यह सोचकर लोग ज्यादा खुश हो रहे हैं और लोगों की तो छोड़ो जीतने वाला Andy Murray वो भी ऐसा ही सोचता है यह जानकार बहुत अफसोस हुआ क्यूंकि महिलाओं के साथ हमेशा हर जगह दुनिया के किसी भी कोने में दोगला व्यवहार ही होता आया है और शायद हमेशा ही होता रहेगा। जब भी यह बात ज़ेहन में आती है एक आग सी लग जाती है दिल के अंदर की खेल में भी दोगला पन क्यूँ क्या महिलाओं को कम मेहनत लगती है टैनिस खेलने में जो उनकी विनर को सिर्फ एक सुनहरी प्लेट दी जाती है और पुरुषों को पूरा कप क्यूँ ? अभी तक लगता था यह दोगलापन केवल हमारे यहाँ ही ज्यादा देखने को मिलता है। मगर अब यहाँ ऐसा देखकर लगा सभी जगह महिलाओं की स्थिति एक सी ही है कहीं कोई फर्क नहीं है। जबकि Murray से पहले एक महिला खिलाड़ी 1977 में भी यह Wimbledon जीत चुकी है तो 77 साल बाद नहीं बल्कि पहले भी यह जीत ब्रिटेन को एक महिला(Virginia Wade) दिला चुकी है। मगर उसका कहीं किसी ने नाम तक नहीं लिया आप चाहे तो इस लिंक पर पूरी जानकारी पढ़ सकते है http://ftw.usatoday.com/2013/07/andy-murray-virginia-wade-first-brit-wimbledon/

जहां तक पुरुषों के फाइनल को देखने की बात है कि लोग उसके पीछे इतना पागल क्यूँ थे कि इतना महंगा बिका उसका टिकिट तो वो सिर्फ इसलिए कि इस बार केवल यह ही दो प्रसिद्ध खिलाड़ी टिक पाये बाकी सब मशहूर लोग इस बार जल्दी बाहर हो गए थे। जब उनके खेल देखे रहे थे तब ऐसा लग रहा था जैसे इस बार सभी मशहूर खिलाड़ियों ने यह मन बना लिया है कि इस बार नए खिलाड़ियों को आगे आने का मौका देंगे। जबकि वास्तविकता यह नहीं होगी, मगर लग ऐसा ही रहा था और यही वजह थी कि पुरुषों का खेल देखने के लिए लोग ज्यादा पागल थे। मगर इस सब के बीच यह देखकर मन को तसल्ली हुई थी कि और कुछ हो न हो महिलाओं के खेल को देखने के लिए भी उतने ही लोग पागल थे मतलब जनता ने खेल देखने के मामले में दोगलापन न दिखाते हुए इंसाफ किया क्यूंकि महिलों के खेल वाले दिन भी पूरे कोर्ट में कहीं पैर रखने की जगह नहीं थी पूरा कोर्ट खचाखच भरा हुआ था यकीन ना आए तो खुद ही देख लिए इस तस्वीर में...:)

Tuesday, 9 July 2013

अंकुर अरोरा मर्डर केस


आज कहाँ से शुरुआत करूँ समझ नहीं आरहा है कहने को आज डॉक्टर्स डे है। मगर जब तक मेरी यह पोस्ट आप सबके समक्ष होगी तब तक यह दिन बीत चुका होगा। हमारे समाज में डॉक्टर को भगवान माना जाता है क्यूंकि किसी भी अन्य समस्या से झूझने के लिए सबसे पहली हमारी सेहत का ठीक होना ज़रूरी होता है और उसके लिए हमें जरूरत होती है एक अच्छे डॉक्टर की और इसलिए आज के दिन दुनिया के सभी नेक अच्छे और सच्चे डॉक्टर को मेरा सलाम। जाने क्यूँ मुझ से कोई भी बात कम शब्दों में नहीं कही जाती। इसलिए शायद मैं फ़ेसबुक जैसी सामाजिक साइट पर भी अप्डेटस नहीं लिख पाती :-)

खैर तब नहीं तो अब सही, वैसे नहीं तो ऐसे ही सही, मेरे मन की बात आप लोगों तक पहुँच ही जाएगी। तो हुआ यह कि मैंने कल अर्थात रविवार को एक फिल्म देखी जिसका नाम था "अंकुर अरोरा मर्डर केस" इस नाम से मुझे ऐसा लगा था कि शायद यह कोई मर्डर मिस्ट्री होगी। मगर ऐसा था नहीं यदि कम शब्दों में, मैं फिल्म के बारे में कहना चाहूँ तो बस इतना ही कह सकती हूँ कि यह फिल्म एक 8 साल के मासूम बच्चे अंकुर अरोरा के मामूली से अपेंडिस्क के ऑपरेशन के दौरान चिकित्सक अर्थात डॉक्टर की लापरवाही के कारण हुई मौत पर आधारित एक फिल्म है और पूरी फिल्म उसी बच्चे के इर्द गिर्द घूमती है कि किस तरह बच्चे के पेट में उठते दर्द को उसकी माँ एक साधारण सा दर्द समझ लेती हैं और समस्या बढ़ जाने क बाद जब डॉक्टर के पास जाती  हैं और फिर किस तरह से डॉक्टर भी जांच के बाद बड़ी आसानी से मामूली ऑपरेशन की बात कह देता है और  वह डॉक्टर की बात मानकर तैयार भी हो जाती है। क्यूंकि डॉक्टर का पेशा ही ऐसा है कि भगवान के बाद सीधा उसी का नाम आता है। इसलिए इस पेशे में यदि नाम है, मान है, सम्मान है, धन है, दौलात है, तो साथ में एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी भी है। जिसके चलते इस पेशे में किसी भी तरह ही लापरवाही नाकाबिले बरदाश्त होती है। क्यूंकि यहाँ बात एक जीवन से जुड़ जाती है। डॉक्टर की लापरवाही पर बनी यह कोई पहली फिल्म नहीं है इसे पहले भी इस तरह के विषय पर कई फिल्में बन चुकी है। लेकिन मुझे यह फिल्म ठीक ठाक लगी।  

मगर इस सब के बावजूद भी चंद लोग सिर्फ पैसों की ख़ातिर इस सम्मान वाले सफ़ेद कोट पर भी बदनामी के दाग लगाने से बाज़ नहीं आते। जिसके चलते खुलेआम, इंसानी अंगों का व्यापार होता है, कन्या भूर्ण हत्यायें की जाती है, महिलाओं के गर्भाशय निकाल दिये जाते है और भी न जाने क्या-क्या होता है। हालांकी हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि डॉक्टर भी है तो एक इंसान ही और गलतियाँ सभी से हो सकती है। लेकिन लापरवाही और गलती के बीच में शायद एक बहुत ही बारीक सी लकीर होती है जिसे इंसान बड़ी आसानी से भूल जाता है। क्यूंकि गलती हो जाने के बाद यदि गलती मान ली जाये तो शायद एक बार सामने वाला आपको माफ भी कर सकता है। मगर गलती करके झूठ बोलकर उस गलती पर पर्दा डाला जाये तो वो गलती कभी माफी के लायक नहीं हो सकती।

बस यही दिखाया गया है इस फिल्म में कि किस तरह एक सुप्रसिद्ध डॉक्टर अपने आप को भगवान समझने लगता है और उस दौरान अपने अहम में, जानते बूझते हुए भी खुद अपनी ही लापरवाही के कारण उस छोटे से बच्चे अंकुर की ज़िंदगी से खिलवाड़ कर बैठता है और उसमें उस बच्चे अंकुर की जान चाली जाती है और फिर इस फिल्म की पूरी कहानी उस डॉक्टर को सजा कैसे दिलवाई जाये के बिन्दु पर घूमती है। मगर इस पूरी फिल्म के दौरान जो ध्यान देने वाली मुझे महसूस हुई वो यह थी कि किस तरह आज कल सभी लोगों को अपने अपने काम में रुचि कम और पैसा कमाने में रुचि ज्यादा है और किस तरह से लोग पैसों के पीछे भाग रहें है कि जिसके चलते कोई भी पहली सीढ़ी पर कदम रखे बिना ही आसमान छूना चाहता है। ईमानदारी जैसे किसी भी काम में बची ही नहीं है। फिर चाहे वो डॉक्टर हो या इंजीनियर, वकील हो या टीचर, नेता हो या बाबू, सब के सब आसान, छोटे तथा गलत रास्तों को अपनाते हुए कम समय में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहते है। ईमान इतना सस्ता हो चला है कि कोई भी कभी-भी बड़ी सरलता से अपने ईमान को एक किनारे कर सिर्फ पैसा कमाने के लिए बड़ी ही आसानी से गलत रास्तों पर चल पड़ता है।

ध्यान देने वाली बात यह कि सिर्फ डॉक्टर का पेशा ही नहीं बल्कि हर पेशा अपने आप में एक खास तरह का महत्व रखता है और यदि सभी लोग अपने अपने कामों को ईमानदारी और सच्ची निष्ठा से करने लगे तो शायद यह धरती स्वर्ग बन जाये। मगर यदि ऐसा हो गया, तो लोगों को अपने किए का फल कैसे मिलेगा शायद यही सोचकर ईश्वर ने इंसान को गलतियों का पुतला बनाया है कि वो कर्म कर-कर के सीखे। मगर चिकित्सकों के पेशे में कर-कर के सीखने की गुंजाइश ही नहीं होती। खासकर लापरवाही करके सीखने की तो बिलकुल ही नहीं क्यूंकि वहाँ उनसे एक जीवन जुड़ा होता है। मगर हमारे देश में कुछ भी हो जाये डॉक्टर को सजा तक नहीं होती है। जबकि विदेशों में ऐसा नहीं है यहाँ डॉक्टर की डिग्री जाना मतलब बहुत आसान बात है। क्यूंकि किसी भी दूसरे इंसान की ज़िंदगी से खेलने का हक़ किसी को नहीं फिर चाहे वो खुद कोई डॉक्टर ही क्यूँ ना हो। यदि आपको याद हो तो यह बात आमीर खान के प्रोग्राम "सत्यमेव जयते" में भी दिखाई और बतायी गयी थी कि कन्या भूर्ण हत्या को लेकर कोरिया जैसे देश में कितने सारे बड़े और नामी गिरामी डॉक्टर्स की डिग्रीयां रद्द कर दी गयी थी। जबकि अपने यहाँ कन्या भूर्ण हत्या एक खेल बन गया है। स्टिंग ऑपरेशन के बावजूद सामने आए डॉक्टर आज भी इज्ज़त की आराम तलब ज़िंदगी जी रहे हैं। मैं यह नहीं कहती कि जो कुछ भी इस प्रोग्राम में दिखाया गया वो सब सौ प्रतिशत सच ही है। लेकिन इतना ज़रूर मानती हूँ कि जब आग लगती है तभी धुआँ उठता है। लेकिन हाय रे किस्मत अच्छे हों या बुरे, जब तबीयत खराब होती है तो जाना उनके ही पास पड़ता है।

मगर इस फिल्म में भी डॉक्टर को केवल सज़ा ही सुनाई गई जबकि अंदर से लग रहा था कि ऐसे डॉक्टर की तो डिग्री ही ले लेनी चाहिए। मुझे तो यह फिल्म देखकर ऐसा ही लगा बाकी पसंद और नज़रिया तो सभी का अपना-अपना होता है। अब यदि आपको मिले यह फिल्म तो आप भी देखें और फिर फैसला करें।

Monday, 1 July 2013

जागो इंसान जागो...


उत्तराखंड की आपदा और गंदी राजनीति एवं लूटमार की खबरों से मन पहले ही बहुत दुखी है। ऊपर से रोज़ ही कहीं न कहीं किसी न किसी के मुंह से यही सुनने में आता है कि उनका कोई अपना अब भी वहाँ फंसा हुआ है। लोग इस कदर दुखी और परेशान है कि उनके दुख को शब्दो में बांधकर लिख पाना भी संभव नहीं, वहीं दूसरी और लोगों ने अपने मन को कुछ इस तरह भी समझाना शुरू कर दिया है कि फलां तारीख तक देखते है यदि अपने उन खोये हुए परिजनों की कोई ख़बर मिलती है, तो ठीक है। वरना समझ लेंगे कि अब वह अपने अंतिम सफर पर जा चुके है। सुनने में बहुत अजीब लगता है ना !!! मगर यही सच है। मैं जानती हूँ एक ऐसे परिवार को जिनके घर से दो लोग अपने बच्चों को अपने रिशतेदारों के पास छोड़कर केदारनाथ की चार धाम की यात्रा पर निकले थे। मगर अब तक उनका कोई अता पता नहीं है, कोई ख़बर नहीं है। अन्य परिजनों के साथ बच्चे बहुत दुखी और परेशान है। एक ऐसी खामोशी से ग्रस्त जिसका तोड़ असंभव सा नज़र आ रहा है। जो चले गए उनकी सोच का तो पता नहीं, लेकिन जो जीवित है जिन्हें सेना के जवानो ने अपनी जान पर खेल कर बचाया उनके लिए तो वर्दी में स्वयं भगवान ही आए थे। उनकी नज़र से देखो तो बात सच ही लगती है।   

ऐसे न जाने कितने हजारों, लाखों लोगों ने अपने परिवार और अपने अपनों को खोया होगा। मगर फिर भी लोग, एवं हमारे तथा कथित नेतागण अपनी छिछोरी हरकतें और गंदी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे है। लाशों पर से सोने के आभूषण उतारे जा रहे हैं। पैसा लूटा जा रहा है, खाने-पीने की चीजों के दाम बजाय ऐसी स्थिति में घटने के चार गुना बढ़ गए है। इस तरह की चोरी चकारी की वारदातें और ख़बरे सुनने के बाद ऐसा लगता है, जैसे लाशों पर भी अपनी-अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं लोग, जब जिसको जहां जैसा मौका मिल रहा है, वह उस मौके का भरपूर फायदा उठा रहा है। फिर भी हमारी सेना और उसके वीर जवानों ने जो सहायता की और कर रहे हैं। उसके लिए उनका जितना भी आभार माना जाये वो कम है और उनको जितने भी सेल्युट किए जाएँ वो भी बहुत कम हैं और दूसरी तरफ लोगों को ऐसे हालातों में भी दूसरों पर आरोप प्रत्यारोप लगाने से चैन नहीं मिल रहा है जिसे देखो एक दूसरे पर दोषारोपण करने पर आमादा है। लेकिन मदद के लिए बढ़े हुए हाथों को सराहने हेतु दोषारोपण करने वालों की तुलना में सराहने वालों की संख्या बहुत कम है।

मैं किसी राजनीतिक पार्टी विशेष की तरफ नहीं हूँ। मेरे लिए कोंग्रेज़ या भाजपा दोनों ही एक समान है। लेकिन मैं फिर भी उन लोग से यह पूछना चाहती हूँ और यह कहना भी चाहती हूँ, कि ऐसा तो नहीं है कि सरकार कुछ कर ही नहीं रही है। हाँ यह माना कि जितनी मात्रा में पीड़ितों को सहायता पहुंचनी चाहिए या मिलनी चाहिए उतनी मात्रा में नहीं पहुँच पा रही है। अब उसके पीछे कारण गंदी राजनीति हो या कालाबाज़ारी लेकिन फिर भी पहुँच तो रही है, राहत कार्य अब भी जारी है। ज़रा सोचिए अगर जितना मिल रहा है वह भी न मिल पाता तो क्या होता ? लेकिन उन धर्म के ठेकेदारों का क्या, वह क्यूँ ऐसी आपदा और आपातकालीन स्थिति में भी आगे बढ़कर वहाँ फंसे तीर्थ यात्रियों की मदद के लिए आगे नहीं आते। फिर चाहे वो शिर्डी के मंदीर के ट्रस्ट हों, या तिरुपति बालाजी के ट्रस्ट, या और अन्य बड़े मंदिरों के ट्रस्ट क्यूँ नहीं आगे बढ़कर वहाँ फंसे तीर्थ यात्रियों के प्रति कुछ करते। जबकि वहाँ तो सोने के मुकुट और लाखों करोड़ों का चढ़ावा आए दिन चढ़ाया जाता है। क्यूंकि सवाल यह उठता है जब बाबा राम देव इतना कुछ कर रहे हैं तो उनसे क्यूँ कोई कुछ नहीं सीखना चाहता। मेरी और से बाबा राम देव और उनके ट्रस्ट को प्रणाम जिन्होंने वहाँ फंसे लोगों को हिंदुस्तानियों और इन्सानों की नज़र से देखा और उनकी जान बचाने के लिए राहत कार्य हेतु अपनी और से सम्पूर्ण योगदान दिया। आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने भी आगे बढ़कर वहाँ फंसे लोगों की भरपूर मदद की और अब भी कर रहे हैं। उनकी भी जितनी सराहना की जाये वह बहुत कम है।   

लेकिन बाकियों का क्या, अरे जो धर्म आपदा के समय और ऐसी आपातकालीन स्थिति में भी एक जुट होकर अपने ही धर्म के बंदों के साथ इंसानियत नहीं दिखा सकता। तो क्या फायदा ऐसे धर्म को मानने से वहाँ विराजमान भगवान के नाम पर लाखों करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाने से, जो वक्त और ज़रूरत पढ़ने पर भक्तों के ही काम न आ सके।

जागो इंसान जागो, अब भी सबक लो, कि इस धरती पर यदि ईश्वर हैं तो वह है आपका अपना पर्यावरण।  आपकी अपनी प्रकृति, यदि उसे खुश रखोगे तो बदले में खुद भी सुख ही पाओगे। लेकिन उसके साथ बुरा करोगे या छेड़-छाड़ करोगे तो नतीजा सबके सामने है। अरे खुद ही सोचो आपका लगाया एक पौधा आपको बदले में कितना कुछ देता है। फिर चाहे वो किसी भी चीज़ का क्यूँ न हो। जैसे आप एक मुट्ठी गेंहू उगाकर देखिये कुछ ही दिनों बाद वही गेहूं आपको वापस मिल जाएगा और उसकी घाँस मात्र से शारीरिक विकार दूर करने की औषधि तक मिल जाती है। मगर पत्थर की मूरत पर करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाने से आपको क्या मिला ? न मन का चैन, ना आत्मा की शांति। फिर क्यूँ अंधीभक्ति में लीन हम वह सब वही कार्य किए जाते हैं, जिस से हमें केवल नुकसान है। क्यूँ आखिर क्यूँ ??? खुली आँखों से सच्चाई नहीं देखना चाहते हम ??

मैं यह नहीं कहती कि ईश्वर को मत मानो, या आस्था रखना व्यर्थ है। बिलकुल नहीं, मैं खुद ईश्वर को मानती हूँ। रोज़ पूजा भी करती हूँ मगर हमेशा कुछ न कुछ मांगने के लिए नहीं, बल्कि अपने बेटे को कुछ अच्छे संस्कार देने के लिए। मेरे लिए पूजा मन की शांति है। अपने आप से मिलने की एक जगह जहां खुद का आत्म चिंतन सा होता है और कई बार अपने अंदर उमड़ रहे कुछ बेचैन सवालों के जवाब भी, मैं वहाँ पा लेती हूँ।  ईश्वर है ऐसा मेरा विश्वास था और आज भी है, हमेशा रहेगा मगर ईश्वर हमेशा मांगते रहने के लिए नहीं है। यूं भी हम ईश्वर से प्यार नहीं करते केवल डरते हैं। इसलिए दिन रात उसके डर में जीते हैं और उस डर से उसके पास जाकर उसे ही चढ़ावे और प्रसाद की रिश्वत देते हैं। ताकि उसका प्रकोप कभी हम पर न पड़े क्यूँ ? क्या हमने कभी उसको अपना मानकर उसके आगे बिना किसी मतलब के प्यार से सिर झुकाया है? शायद नहीं, कभी नहीं। हमें हमेशा ईश्वर की याद भी तभी आती है, जब हम पर कोई संकट आता है। लेकिन तब भी हम उसे कोसने से बाज़ नहीं आते। इसलिए किसी अपने की मृत्यु के समय हम तेरह दिन तक घर में पूजा नहीं करते क्यूँ ? शायद अपना गुस्सा दिखने के लिए।  

अरे जब हम अपना गुस्सा दिखा सकते हैं तो क्या हमारी करतूतों और कारिस्तानियों से तंग आकर उसे अधिकार नहीं है अपना गुस्सा दिखने का, मेरी नज़र में तो है और वही उसने किया, जो आज उत्तराखंड में आयी विपदा से जूझ रहे हैं हम सब, इस आपदा के लिए हम किसी एक को दोषी नहीं ठहरा सकते। इस के लिए सारी मानव जाति जिम्मेदार है। फिर चाहे वो आम इंसान हो या सरकार, प्रकृति के साथ खिलवाड़ सभी ने किया। नतीजा भी आज सबके सामने है। मगर फिर भी हम आज भी अपने किये का घड़ा दूसरों के सर पर फोड़कर खुद को झूठी तसल्ली दे रहे हैं।

अब भी वक्त है, अब भी यदि हम आपसी मत भेदों को भूलकर आगे नहीं बढ़े, तो एक दिन प्रलय के रूप में विनाश निश्चित है। जय हिन्द...