Saturday, 17 April 2021

राजस्थान डायरी भाग -6

रेत के टीलों पर बना हुआ एक ऐसा दुर्ग जिस पर सूरज की किरणें पड़ती है तो सोने की तरह चमकता हुआ दिखाई देता है। राजस्थान का ऐसा दुर्ग जो यदुवंशी भाटी शासकों के गौरवान्वित इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए है। कहते हैं इस दुर्ग में पहुंचना इतना कठिन हुआ करता था कि अबुल फ़ज़ल ने खुद कहा था जो आगे चल कर कहावत बन गयी "घोड़ा कीजे काठ का पग कीजिये पाषाण और अख्तर कीजिये लोह का तब पहुँचे जैसाण" अर्थात लकड़ी का घोड़ा कीजिये पत्थरों के पैर कीजिये और अपना शरीर लोहे का करना होगा तब जाकर आप जैसानगढ़ यानी कि आप इस दुर्ग तक पहुंच सकते हैं।

जैसाण गढ़ का दुर्ग राजस्थान के जैसलमेर जिले में स्थित है इसकी नींव 12 जुलाई 1155 को जैसलमेर के भाटी वंश के शासक जैसल भाटी ने रखी थी। परंतु वह यह दुर्ग का पूरा निर्माण नहीं करा पाये थे क्योंकि उनकी मृत्यु हो गयी थी और उनकी मृत्यु के बाद भाटी वंश के अगले शासक बने थे उनके पुत्र शालीवान द्वितीय तो इस दुर्ग का अधिकांश भाग का निर्माण शालीवान द्वितीय ने ही करवाया था। इस दुर्ग को बनाने में लगभग 7 वर्षों का समय लगा था। इस दुर्ग की यह विशेषता है कि इसे पीले पत्थरों से बनाया गया है और इस दुर्ग में कहीं पर भी चूने का इस्तेमाल नहीं किया गया है और जैसा कि मैंने आपको पहले ही बताया कि सूरज की किरणें पड़ने पर यह दुर्ग सोने की तरह चमकता है, इसलिए इसे सोनार गढ़, सोन गढ़, स्वर्ण गिरी के नामों से भी जाना जाता है। इतना ही नहीं इसे राजस्थान का अंडमान, रेगिस्तान का गुलाब एवं गलियों का दुर्ग या गलियों का शहर भी कहा जाता है। 

ऐसा क्यों कहा जाता है। तो भई ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दुर्ग के अंदर कई सारे मकान बने हुए है। जिसके कारण यहाँ कई सारी गालियां भी है। जहाँ बहुत से लोग रहते है। इसलिए इस दुर्ग को राजस्थान का दूसरा जीवित दुर्ग भी कहते है पहला था चितौड़गढ़ दूसरा है यह जिसमें लोग रहते है इस दुर्ग की बहुत सी खूबियाँ है जैसे जिस पहाड़ी पर यह दुर्ग स्थित है उसे दो परकोटों से घेरा गया है और ऊपर से देखने में यह परकोटा किसी लहरिया घाघरे की तरह प्रतीत होती है। इसलिए इसे कमर कोट या पाड़ा भी कहते हैं। क्या आप जानते है इस दुर्ग में 99 भूर्ज है यानी 99 खंबे हैं। 

अब राजस्थान की बात हो और जोहर का जिक्र ना हो, तो राजस्थान का इतिहास अधूरा सा लगता है नही ..? लेकिन आज मैं बात करूँगी यहां हुए (ढाई साकों) की अब यहां पर हुआ यह कि पहले दो साके तो पूरे हुए यानी यौद्धाओं ने केसरिया भी किया और वीरांगनाओं ने जोहर भी किया था। लेकिन जो आधा रह गया उसमें यौद्धाओं ने केसरिया तो किया था किंतु वीरांगनाओं ने जौहर नहीं किया था। अर्ध साके की जानकारी तो है जो कि 1550 में हुआ था किन्तु पहले दो साकों की समय अवधि निश्चित नहीं है पर राज स्थान में जितने भी साके हुए या जौहर हुए उन सबकी वजह था यह अलाउदीन खिलजी इसके कारण 1301 में इसने रणथंबोर पर आक्रमण किया था वहां साका की घटना हुई, फिर सन 1303 में चित्तौड़ पर आक्रमण किया वहां जौहर की घटना हुई। जिसके बारे में आपको पहले भाग में बता चुकी हूं। फिर इसने सन 1308 में शिवना पर आक्रमण किया वहां भी जौहर की घटना हुई। सन 1311 में जालौर पर आक्रमण किया वहां भी जौहर की घटना हुई। और इसी सबके चलते इसने यहां भी आक्रमण किया था और यहां भी साका की घटना हुई।

अब इस पहले साके के बीच की कहानी कुछ ऐसी है कि अलाउदीन खिलजी का जब शाही खजान मुल्तान से दिल्ली की ओर जा रहा था जिसका रास्ता जैसलमेर से होकर जाता था। उस खजाने को यहां के शासक (जैत्रसिंह) और उनके दो पुत्रों ने लूट लिया और यहां जैसलमेर दुर्ग में लेकर आ गये। जिस से नाराज़ होकर खिलजी ने इस किले की घेरा बंदी की जो कि लगभग 6 से 8 वर्ष तक चली और फिर किले में खाने पीने का सामान आदि खत्म होने लगा तो (जैत्र सिंह) जी के पुत्र (मूल राज भाटी) और उनके भाई (रतन सिंह) जी के नेतृत्व में युद्ध हुआ जिसमें योद्धाओं ने केसरिया किया और वीरांगनाओं ने साके की घटना को अंजाम दिया। यह तो था पहले साके का मुख्य कारण। 

दूसरे साके के समय जो शासक थे वह थे (रावल दूदा) दिल्ली के शासक (फ़िरोज़ शाह तुगलक) के बीच युद्ध हुआ जिसमें फिर वही वीरों द्वारा केसरिया और वीरांगनाओं द्वारा साके को अंजाम दिया गया।

तीसरे अर्थात अर्ध साके के समय यहां के शासक थे रावल लूलकरण यह साका 1550 में किया गया था। अमीर अली और लूलकरण के बीच हुए युद्ध में लूलकरण तो मारे गए थे। लेकिन भाटियों की जीत हुई थी, इसी कारण यहां साका नहीं किया गया। इसलिए इसे अर्ध सका कहते हैं। 

इस सबके अतिरिक्त यहां 12वी शताब्दी का बना हुआ आदिनाथ जैन मंदिर भी स्थित है जो इस दुर्ग के अंदर बना हुआ है।

दूसरा है स्वांगिया माता का मंदिर यह भाटी शासकों की कुल देवी है यह मंदिर भी दुर्ग के अंदर ही बना हुआ है 

कहते हैं इस दुर्ग के अंदर कई प्राचीन ग्रंथों का भी भंडार हैं। जिन्हें कहते है "जिन भद्र सूरी ग्रन्थ" जहां यह हाथ से लिखे ग्रंथ आज भी रखे हुए हैं। आप वहां जाकर इन्हें देख सकते है।


इसके अलावा यहां भी कई महल है जैसे रंग महल, मोती महलइसे सालिम सिंह की हवेली के नाम से भी जाना जाता है।

बाकी तो रंग महल को भी एक होटल में परिवर्तित कर दिया गया है एक भव्य आलीशान होटल तो यदि आप पैसा खर्च करना चाहें तो यहां रुक सकते हैं। 

इन सब बातों के अतिरिक्त यहां एक कुआं भी है जिसे जैसलू कुआं कहते हैं। इसके पीछे की एक लोक कथा यह है कि भगवान श्री कृष्ण एक बार अर्जुन के साथ यहां घूमते हुए आ गए थे और उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से कहा यहां एक कुआं बना दो क्योंकि भविष्य में यहां मेरे ही वंशज राज करेंगे और वैसा ही हुआ। भाटी वंश श्री कृष्ण को ही मानता है और ऐसा कहा जाता है कि यह श्री कृष्ण के ही वंशज है। अब यह आपके ऊपर है कि आप इसे कितना सच मानते है। वैसे मैं यहां आपको श्री कृष्ण की वंशा वाली भी दिखाऊंगी। जो यहां बने एक संग्रहालय में लिखी रखी थी।

खैर यहां तो केवल दुर्ग की ही बातें होती रही। अब बात की जाये यहाँ के अन्य दार्शनिक स्थलों की तो वैसे 10 दार्शनिक स्थल हैं यहाँ लेकिन समय और छुट्टियों का अभाव होने के कारण हम 5-6 जगह ही जा पाए।


पहला था:-यह किला जिसके विषय में मैंने आपको अधिक से अधिक जानकारी देने का प्रयास किया है।


दूसरा स्थान है सैम सैंड डीयून्स :- जैसलमेर का असली मजा तो रेगिस्तान में ही आता है ना भईया...! तो बस यही वह जगह है जो कि जैसलमेर से 42 km दूर यह जगह सब से लोक प्रिय आकर्षणों में से एक है। जहाँ आप सूर्य उदय से लेकर सूर्य अस्त तक का मनभावन नज़ारा देख सकते हैं। इसके अलावा यह जगह ऊंट की सवारी यानि (केमल सफारी) के लिए भी मशहूर है और हाँ रात्रि केम्प का आनंद लिए बिना, तो यहाँ से जाना ही नहीं चाहिए।  असली मज़ा तो वही है जब ठंड में कप कँपाते हुए आप केम्प फायर के आस पास बैठकर राजस्थानी लोक गीत, संगीत और नृत्य का आनंद ले सकते हैं।

तीसरा है:- पटवों की हवेली यह जैसलमेर की पहली हवेली है जो पटवा परिसर के पास में ही स्थित है। पूरे परिसर में कुल पाँच हवेलियां हैं जिन्हें कुमंद चंद ने अपने पाँच बेटों के लिए बनवाया था। इसकी नक्काशी देखते ही बनती है।

चौथा है:- बड़ा बाग यह स्थान जैसलमेर शहर से 6 km की दूरी पर स्थित है। यह एक बड़ा पार्क नुमा स्थल है। जहाँ राजस्थान के शासकों के नाम की बहुत सारी छत्रियां बानी हुई है। यहां कई फिल्मों की शूटिंग भी हो चुकी है जैसे हम दिल दे चुके सनम, कच्चे धागे आदि फोटो खींचने के नज़रिए से यह सब से खूब सूरत स्थान है।

पांचवा है :- कुलधरा गाँव अब इसके विषय में तो आप सभी बखूबी जानते होंगे। पर फिर भी मैं इसका एक संक्षिप्त परिचय दे ही देती हूँ । यह स्थान जैसलमेर से 25 km की दूरी पर एक ऐतिहासिक स्थल है। यहां पर 200 साल पुराने मिट्टी के घरों को देखा जा सकता है और पता है यह एक शापित गाँव है यहां रात में जाना मना है सूर्य अस्त के पहले ही यहां जाया जा सकता है। इतिहास की माने तो यहां लगभग पाँच शताब्दी पहले (पाली वाल ब्राह्मण) बसे थे। किन्तु किसी कारण वश उन्होंने एक ही रात में पूरा गाँव छोड़ दिया था। और तभी से यह गाँव शापित गाँव माना जाता है वर्तमान में इस गाँव को भारत की टॉप भूतिया जगहों में गिना जाता है। इस जगह को देखने का एक बहुत ही अलग अनुभव रहा था। अरे नहीं नहीं....! मेरी यहां किसी भूत से कोई मुलाकात नहीं हुई थी। डरिए नहीं, ऐसा कुछ भी नही हुआ जो आप सोच रहे हैं। पर हाँ ऐसे सुनसान वियावान जगह में गाइड की बातें सुन सुनकर आपको आत्माओं का आस पास होने जैसा अनुभव जरूर होने लगता है। ऐसा लगता है कि आपके आस पास कोई है पर कोई दिखाई नहीं देता ना ही सुनाई देता है। 

अब तो यहाँ बहुत से घरों का पूर्ण निर्माण करा दिया गया जहां लोग अंदर जाकर घूम सकते हैं फोटो खिचवा सकते हैं गाँव के माहौल का आनंद उठा सकते हैं। पर अन्य स्थल दिन में भी डरावने लगते है। यही उस किले के रहस्य सीरियल कि तरह 90 के दशक वालों को अच्छे से पता होगा इस डरावने धारावाहिक के बारे में क्यूँ याद आया, क्या कुछ...

छटा है :- वार मेमोरियल अब आपको यदि मेरी तरह फिल्मी हैं और आप में भी बॉलीवुड कूट कूटकर भरा है तो बार्डर फ़िल्म आपको अच्छी तरह याद होनी चाहिए। तब ही आप इस जगह का लुफ्त अच्छे से उठा सकते है। मुझे तो सच में मज़ा आ गया था सच BSF के जवानों को देखकर एहसास होता है सच्चे हीरो का वहाँ उन्हें देखकर अपने आप ही सेल्यूट के लिए विवश हो उठाता है मन, इसकी मेमोरियल की स्थापना 24 अगस्त 2015 में हुई थी 1965 में भारत पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध की स्वर्ण जयंती पर इसे बनवाया गया था। यह मेमोरियल जैसलमेर से 10km की दूरी पर जैसलमेर मार्ग पर स्थित है। 

यहां दो संग्रहालय भी है जिसमें युद्ध के हथियारों और सैन्य वाहनों को प्रदर्शित किया गया है। इसके साथ साथ भारत पाकिस्तान के युद्ध में प्रयोग किया जाने वाला हंटर विमान को भी देखा जा सकता है। इतना ही नहीं यहां पर एक MP थियेटर सेक्टर भी है। जहां पर उस युद्ध को कुछ असली एवं कुछ बार्डर फ़िल्म से लिये गए छाया चित्रों के माध्यम से दर्शाया जाता है। यहां उस युद्ध में इस्तेमाल में लायी गयी कई चीजें रखी हुई है। 

एक टैंक भी है जिसे युद्ध के दौरान पाकिस्तानियों से छीन कर उस पर अपने भारत का कब्ज़ा कर लिया गया था। जिस पर पर्यटक खड़े होकर बैठकर फोटो जरूर खिंचवाते है। यहां उस युद्ध में शहीदों की स्मृतियाँ भी है।

यहाँ इतना कुछ देखने को मिला दोस्तों कि जिसके बारे में जितना कहूँ उतना कम है। जैसे (तनोट माता का मंदिर) यह वही मंदिर है जो फ़िल्म में दिखाया था ना...? जिसके आस पास बहुत से बम गिरे पर मंदिर का बाल भी बाँका ना कर पाए। यह वही मंदिर है दोस्तों इस मंदिर की देखभाल BSF के द्वारा ही की जाती है और 

यहां आज भी वह भरे हुए बम रखे है जो गिरे पर फटे नहीं। एक अलग ही माहौल है इस मंदिर का जो देखते ही बनता है। जो आपकी नस नस में देशभक्ति की भावना को भरता है। यहीं पास में बिल्कुल युद्ध की जैसी एहसास देने के लिए बंकर भी बनाए हुए हैं। जिनमें जाकर आप महसूस कर सकते है कि कैसा लगता होगा उस वक़्त जब आप युद्ध के मैदान में खड़े होते हो। 

नीचे भी एक माता का छोटा सा मढिया टाइप मंदिर है अब इस बात में शंका है कि यह छोटा मंदिर असली है या ऊपर वाला भव्य मंदिर असली है। पर जो भी है अद्भुत  है। वहाँ जाकर वहां के जवानों से युद्ध का विवरण सुनना जैसे उनका खुद आपको ले जाकर वह कुआं दिखाना जिसमें पाकिस्तानियों ने भारतीय जवानों को मारने के लिए जहर घोल दिया था। अपने आप में किसी शौर्य गाथा से कम नहीं लगता। आज की तारीख में उस कुएं को सीमेंट भर कर बंद कर दिया गया है। बहुत सालों पुरानी घटनाएं नहीं हैं यह, पर इन्हें सुनकर इनके बारे में कल्पना कर के ऐसा लगता है, मानो आप किसी और ही युग में पहुँच गए हैं 

जैसे यह कोई ऐतिहासिक स्थल है जहां की मिट्टी को प्रणाम करने को दिल चाहता है। और मैंने वही किया। और यह राजस्थान यात्रा एक यादगार यात्रा के रूप में मेरे मन में हमेशा के लिए बस गयी और अब तो ब्लॉग भी इसका गवाह बन गया। यह था मेरी राजस्थान यात्रा का अंतिम अध्याय फिर मिलेंगे किसी नये अनुभव के साथ यहीं (मेरे अनुभव) पर, तब तक के लिए नमस्कार  !!

Wednesday, 14 April 2021

राजस्थान डायरी भाग-5


उदयपुर से निकलकर हम आ पहुँचे जोधपुर। राजस्थान का लगभग हर शहर अपने अंदर न जाने कितनी शौर्य गाथाओं को समेटे हुए हैं। सच ही कहते हैं कुछ लोग यदि राजस्थान को हिंदुस्तान के नक्शे से हटा दिया जाये तो हमारे पास ऐसी कोई धरोहर नहीं जिसके इतिहास पर गौर करने के बाद यहाँ के लोग अपनी मूँछों पर ताव दे सकें। खैर इतना कुछ घूमने के बाद तबीयत बिगड़ना लाज़मी था लगातार यात्रा के दौरान हवा पानी के बदलाव से मेरा गला पूरी तरह खराब हो चुका था इसलिए अब ज्यादा घूमने की दम खम बची नहीं थी मुझ में, फिर भी यहाँ का किला घूम ही लिया मैंने और अच्छा ही हुआ जो घूम लिया वरना इतना सुंदर हस्त शिल्प का काम जिसे देखकर मेरा मन मोहित हो गया था छूट ही जाता। चलिये आपको भी घुमाकर लाते हैं जोधपुर की शान मेहरानगढ़ का किला। जिसके अंदर प्रवेश करते ही पधारो माहरे देश का लोक संगीत कानो में पढ़ता है तो बस मन मुग्ध हो उठा है वैसे तो यह एक ऐसा गीत है जिसे आप राजस्थान की जमीन पर पाँव रखते ही सुन सकते हैं किन्तु फिर भी एक अजीब सा खिचाव है इस गीत में, यहाँ की मिट्टी में, यहाँ के संगीत में और इन कलाकारों की आवाज़ में कि कुछ देर इन्हें सुने बिना आगे बढ्ने को जी नहीं चाहता है।   


मेहरानगढ़ का किला राजस्थान के जोधपुर जिले में स्थित है। इसकी नींव  13 मई 1459 में राठौर वंश के राजा राव जोधा ने करणी माता के द्वारा रखवाई थी। करणी माता बीकानेर और जोधपुर राठौर वंश की इष्ट देवी कहलाती हैं और चरण जाती की कुल देवी के रूप में पूजी जाती है। यह दुर्ग जिस पहाड़ी पर स्तिथ है पहले उस पहाड़ी को चिड़िया टूंक की पहाड़ी के नाम से जाना जाता था क्योंकि पहले यहां चिड़िया टूंक नाम के एक संत रहा करते थे । इस किले को और भी कई नामों से जाना जाता है। मेहरानगढ़, मयूरध्वज, चिंतामणि, कागमुखी एवं सूर्यगढ़ के नाम से भी जाना जाता है। इस दुर्ग में मुख्यतः तीन द्वार हैं या तीन पोल आप कुछ भी कह सकते हैं।

पहला पोल है जय पोल - जय पोल का निर्माण जोधपुर के महाराजा मान सिंह ने 1808 में कर वाया था। कारण था इस समय जोधपुर की सेना ने जयपुर और बीकानेर की सयुंक्त सेना को युद्ध में पराजित कर दिया था।

दूसरा है लोहा पोल - लोहा पोल का निर्माण जोधपुर के शासक माल देव राठौर ने सन 1548 में बनवाने का काम शुरू किया था लेकिन इसको पूर्ण करवाने का काम महाराजा विजय सिंह ने किया था। इस पोल के बाहर दो छतरियां बनी हुई है। जिनका नाम था धन्ना एयर भीवा इन छतरीयों को मामा भानजे की छतरी भी कहा जाता है। यह 10 खंभो की छतरी है और इसका निर्माण जोधपुर के शासक अजित सिंह राठौर के द्वारा करवाया गया था।  

तीसरा है फतेह पोल - इस पोल का निर्माण जोधपुर के शासक अजीत सिंह राठौर ने 1707 में मुगलों से जीतने की खुशी में करवाया था। 


अब आते है इस दुर्ग में बने विभिन्न महलों की ओर सबसे पहले आता है फूल महल - इस महल अपने पत्थरों पर बारीक कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है। इस महल का निर्माण जोधपुर के शासक अभय सिंह द्वारा करवाया गया था। इन से जुड़ा भी एक रोचक किस्सा है अभय सिंह को महल बनवाने के लिए लकड़ी की जरूरत थी ताकि चूना पिघलाया जा सके। तो उन्होंने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि जाओ और लकड़ी काटकर लाओ सो गिरधर दास भंडारी के नेतृत्व में सैनिक पहुँचे खेजड़ी गाँव और उन्होंने वहाँ पहुँच कर खेजड़ी के पेड़ों को काटना शुरू कर दिया। तभी एक महिला जिसका नाम अमृता देवी विश्नोई था दौड़ी दौड़ी वहाँ गयी और जाकर पेड़ों से चिपक गयी। ताकि पेड़ ना काटा जाय फिर उसने कहा जब तक मैं जीवित हूँ इन पेड़ों को नहीं काटने दूंगी। इस पर गिधर दास भंडारी ने उस महिला के दोंनो हाथ कटवा दिए। इतना ही नहीं जब उन्होंने पेड़ बचाने के लिए अपना सिर टिका दिया तो उनका सिर भी काट दिया गया। इसी तरह उनका पूरा परिवार पेड़ बचाने के लिए शहीद हो गया और जब तक राजा को इस बात का पता चला तब तक 364 विश्नोई लोग पेड़ बचाने की खातिर अपने प्राणों का बलिदान दे चुके थे। तब राजा ने वहाँ के पेड़ ना काटे जाएँ का आदेश दिया और तब कहीं जाकर सैनिक वहाँ से लौटे। 

तब से आज भी यहाँ शहीदों की स्मृति में मेला लगता है जिसे विरक्षों का मेला कहते हैं। 

फिर हम बात करेंगे (मोती महल) की - इस महल की खासियत यह है कि यहाँ छतों और दीवारों पर सोने की बारीक कारीगिरी की गयी है। सोने का यह बारीक काम महाराजा तख्त सिंह द्वारा  करवाया गया था। लेकिन इस महल का निर्माण महाराजा सूर सिंह ने करवाया था।
फिर आती है श्रृंगार चौकी यहाँ पर जोधपुर के महाराजाओं का राजतिलक होता था। और इसे दौलत खाने में महा राजा तख्त सिंह द्वारा बनवाया गया था। ठीक इसी के बाहर कुछ बेहद सुंदर झरोखे बने हुए हैं जहां से महल में रहने वाली सभी रानियाँ महल में चल रही कार्यवाही एवं राजतिलक आदि देखा करती थी। ऐसा कहा जाता है कि उस जमाने में एक माँ को अपने बेटे का राज तिलक देखने की अनुमति नहीं हुआ करती थी इसलिए वह इन्हीं झरोखों के माध्यम से महल में चल रही कार्यवाही देखा करती थी। यह झरोखे मेरे अनुभव के अनुसार इस पूरे दुर्ग का सबसे सुंदर स्थल है। इन पर जो कारीगिरी की हुई है उसका तो कोई जवाब ही नहीं है। इन झरोखों की खास बात यह है कि यहाँ से महल के अंदर तो देखा जा सकता है किन्तु महल के अंदर से इन झोरोखों को नहीं देखा जा सकता। 

इसी दुर्ग की तलहटी में आपको सफेद संगमरमर का बना एक स्थल दिखाई देगा इसे बोलते है जसवंत थड़ा इसे राजस्थान का ताजमहल या मारवाड़ का ताजमहल भी कहते है। जोधपुर के शासक राजा सरदार सिंह ने 1906 में इसका निर्माण अपने पिता जसवंत सिंह द्वितीय की स्मृति में कराया था। इसलिए इसका नाम जसवंत थड़ा कहा जाता है। यहाँ राज परिवार के लोगों का अंतिम संस्कार किया जाता था। यहां लगा मार्बल मकराना से मंगाया गया था जो कि विश्व प्रसिद्ध है। कहते हैं ताजमहल का मार्बल भी वहीं से मंगवाया गया था इतना ही नहीं यहाँ लगी मॉर्बल कि कुछ शीट तो ऐसी भी हैं जिसमें से सूर्य की किरणे आरपार चली जाती है।

खैर अब हम बात करेंगे इस दुर्ग में बने कुछ धार्मिक स्थलों की जिनमे से कुछ के नाम इस प्रकार है, चामुंडा माता मंदिर, नागणचि माता मंदिर,सूर मस्जिद।

चामुंडा माता मंदिर का निर्माण तो राव जोधा जी ने दुर्ग के निर्माण के साथ ही करा दिया गया था। पर इस पर भी एक बार बिजली गिरी थी और यह छतिग्रस्त हो गया था। तब इसका पुनः जीर्णोद्धार कराया था महाराजा तख्त सिंह ने।

फिर आता नागणचि मंदिर यह राठौरों की कुल देवी है। इनका मूल मंदिर यहाँ नही है अर्थात मंदिर तो है यहाँ भी लेकिन मूल रूप से यह मंदिर बाड़मेर के पाचपदरा में है।  






फिर आता है सूरी मस्जिद इसका निर्माण सन 1554 में शेर शाह सूरी ने कराया था। अब आप सोच रहे होंगे उसका भला कब अधिकार हो गया जोधपुर पर है ना ...? 1544 का सुमेलगिरी युद्ध यह तो था दुर्ग का इतिहास जिसमें धोखा धड़ी करके शेर शाह सूरी ने अपने कब्ज़े में कर लिया था और फिर ठीक एक साल बाद ही शेर शाह सूरी की मृत्यु हो गयी और वापस यहाँ माल देव राठौर का राज हो गया था।

लेकिन इसके अलावा बहुत कुछ ऐसा है जो जोधपुर घूमने आने वालों के लिए जानना बहुत जरूर है जैसे यहाँ पर मौजूद नीले पुते घरों की1 वजह से ब्लू सिटी के नाम से भी जाना जाता है। जहाँ खाने में मिर्ची वड़ा, प्याज़ की कचौरी और मावा कचोरी, माल पुआ, बेसन की बर्फी, घेवर, गुलाब जामुन प्रसिद्ध है। इतना ही नहीं यहाँ की मिर्च भी बहुत मशूहर है। विश्व का सबसे बड़ा सोलर पावर प्लांट भी जोधपुर में ही है। जोधपुर के एक जगह का नाम हक़ी मंडोर जहाँ रावण की पत्नी मंदोदरी के नाम पर पड़ा था ऐसा कहा जाता है कि रावण ने मंदोदरी के साथ सात फेरे यहीँ लिए थे इसलिए मंडोर को रावण का ससुराल भी कहा जाता है। इतना ही नहीं रावण का पहला मंदिर भी मंडोर में ही स्थिति है जहां आज भी उनके वंशज उनकी पूजा करते है और दशहरे के दिन शोक मानते हैं। इतना ही नहीं जोधपुर में ही है एशिया की सबसे बड़ी जीरा मंडी। 

दुनिया के सबसे बड़े, सब से मंहगे एक्सपेंसिव पेलेस में से एक है जोधपुर का उमेध भवन पेलेस जिसे 1929 में महाराजा उमेध सिंह ने बनवाया था जहां से प्रियंका चोपड़ा और निक जोन्स की शादी हुई थी। जो मुम्बई के ताज होटल समूह का हिस्सा भी है। इस का भी कुछ हिस्सा संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। जिसमें राज परिवार की तसवीरों के अतिरिक्त शाही परिधानों से लेकर बर्तन, घड़ी आदि तक रखे हुए हैं। 



 है ना कमाल की जगह आप भी यहाँ ज़रूर आइये और घूमकर जाइये।

Friday, 9 April 2021

राजस्थान डायरी भाग - 4

उदयपुर क्या कहूँ इस जगह के विषय में बस दिल वहीं रह गया और हम चले आये। झीलों की नगरी उदयपुर वैसे तो मैं खुद ही झीलों की नगरी से हूँ अर्थात भोपाल से हूँ। लेकिन यह जो लहराता हुआ पानी है ना, यह खींचता है मुझे अपनी ओर फिर चाहे वह समंदर का किनारा हो या किसी नदी, झील या तालाब का किनारा मेरा मन जैसे हर छोटी बड़ी लहर के साथ डूबता उबरता रहता है इन किनारों पर, कहीं समंदर की बड़ी-बड़ी तेज आवाजों वाली लहरें और कहीं इन झीलों का शांत सा पानी।

खैर मैं विषय से भटकना नहीं चाहती। इसलिए उदयपुर की ओर वापस आती हूँ। यहाँ चार बड़ी झीलें है और कुल मिलाकर 10 दार्शनिक स्थल हैं। जिन्हें देखने के लिए आपके पास कम से कम 2 से 3 दिन का समय तो होना ही चाहिए। पर अफसोस कि हमारे पास इन सभी स्थलों को देखने का पर्याप्त समय नहीं था क्योंकि अभी हमें यहाँ से आगे जोधपुर और जैसलमेर भी घूमना था। तो हम लोग कुछ स्थल ही अच्छे से देख पाए थे। जिनके नाम थे। सिटी पेलेस, जग मंदिर, बागोर की हवेली, पिचोला झील, कार म्यूज़ियम एवं बड़ा बाज़ार  माफ कीजिएगा इस संस्मरण अंगेजी के शब्दों का समावेश कुछ अधिक मिलेगा। लेकिन क्या करें यहाँ के स्थलों के नाम ही ऐसे हैं कि अंग्रेजी का इस्तेमाल किए बिना बताए नहीं जा सकते। 

इसके अतिरिक्त यहाँ देखने के लिए जो अन्य स्थान है उनके नाम कुछ इस प्रकार है। जैसे फतेह सागर झील, बड़ी झील, दूध तलई झील, सहेलियों की बाड़ी, करणी माता का मंदिर आदि।

अब इन सबके विषय में, मैं आपको केवल जानकारी दे सकती हूँ। लेकिन अपने अनुभव नहीं बता सकती और बात तो (मेरे अनुभव) पर म्हारे अनुभव की ही होना चाहिए ना। तो भईया अब हम पहुँच गए झीलों की नगरी उदयपुर, यहां पहुँच कर सच में ऐसा लगा मानो स्वर्ग पहुँच गए। क्या आप जानते हैं उदयपुर को भारत का (वेनिस) भी कहा जाता है। यूँ तो मैंने (वेनिस) भी बहुत अच्छे से घुमा हुआ है। लेकिन फिर भी उदयपुर की बात ही अलग थी। शांत, ठंडा, मन भावन शहर है उदयपुर यदि आपको प्रकृति से प्रेम है और शांति पसंद है, तो यकीन मानिए आपके लिए उदयपुर से अच्छी और कोई जगह हो ही नहीं सकती।

उदयपुर शहर की स्थापन महाराणा प्रताप के बाद सिसोदिया वंश के सम्राट उदय सिंह (द्वितीय) ने 1559 में की थी और जब उन्होंने यह देखा कि मुगल मेवाड़ को शांति से जीने नहीं देंगे तब उन्होंने उदयपुर को अपनी नई राजधानी बनाने का निर्णय लिया। जिसके चलते जब वह इस जगह को देखने आए तो बस यहीं के होकर रह गए। पिचोला नामक गाँव के पास बनी इस झील को देखकर उन्होंने भी इसके निकट ही अपनी राजधानी बसाने का फैसला कर लिया और बस उन्होंने सबसे पहले बनाया यह सिटी पेलेस, जो कि राजस्थान का सबसे बड़ा पेलेस है। जिसे बनाने में करीब 400 साल लग गए। जिसमें उदयसिंह के अलावा आने वाले अन्य शासकों का भी योगदान रहा है।  इस महल का निर्माण 1559 में महाराणा उदयसिंह दिव्तीय ने करवाया था। इस महल के अंदर लगभग 11 सुंदर महल हैं। यह एक पहाड़ी की चोटी पर बनाया हुआ महल है। जिससे पूरे शहर का हवाई दृश्य प्राप्त होता है। आज भी इस पेलेस में राणा प्रताप के वंशज रहा करते हैं। यह बात अलग है कि महल के कुछ हिस्से को अब संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। जहाँ शाही परिवार की तस्वीरों के अतिरिक्त महाराणा प्रताप का कवच, तलवार, भाला आदि भी रखा हुआ है। पूरा महल घूमने में आपको 2 से 3 घंटे का समय लग सकता है। 

वहीं से आप पिचोला झील को देख सकते है। यह इस शहर की सबसे पुरानी झील है, जिसमे बोटिंग करने का मज़ा ही कुछ और है। उदयपुर का मुख्य शहर इसी झील के पास स्थित है यह झील यहाँ आने वालों को अपनी सुंदरता और वातावरण से आकर्षित करती है। 





इसी झील के बीच में स्थित है, दुनिया का सबसे रोमांटिक और सबसे महंगा होटल (द ताज लेक पेलेस) 


इसी झील के किनारे पर स्थित है दुनिया का सबसे महंगा होटल (द ओबेरॉय उदय विलास होटल) 



 



इस बात का अंदाज़ आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अंबानी की बेटी की प्री वेडिंग शूट इसी जगह की गई थी। जिसमें ठहराना सब के बस की बात नहीं, तो फिर इसे बाहर से देखकर खुश हो लेना ही सही है, नहीं...! तो हमनें भी वही किया। इसी के पास एक और मशहूर होटल है (द लीला पेलेस) इसकी भी बात कुछ और ही है। पिचोला झील का नाम इस गाँव पिचोला के आधार पर ही पड़ा था और हाँ इस झील से सूर्य अस्त होता हुआ बड़ा ही सुहाना लगता है मानो डूबता सूरज अपनी सुनहरी लालिमा को इस पानी पर बिखेरता हुआ कह रहा हो जैसे देखो कहीं भूल ना जाने मेरे इस अस्तित्व को कल फिर आना हाँ...! इसलिए शायद इस अद्भुत नज़ारे को देखने का शुल्क 800 रुपये है। वरना दिन में बोटिंग शुल्क 500 रुपये है।


फिर आता है जग मंदिर :- यह झील को बीचों बीच बना बहुत ही सुंदर महल है। जी हाँ यह एक महल है। नाम से लगता है कि यहाँ कोई मंदिर होगा। मगर ऐसा बिल्कुल नहीं है, बल्कि आधुनिक संसाधनों के साथ शाही ठाट बाट देखने का एक अच्छा जरिया है। इस सफेद संगमरमर से बने महल पर लगे झंडे आकर्षण का प्रथम केंद्र बिंदु बनते है। फिर इसके अंदर नीचे ऊपर कमरों आदि की भी व्यवस्था है और एक बड़ा सा फूलों से सुसज्जित बागीचा भी है जहां झील के किनारे टेबल कुर्सी पर बैठकर आप खाने पीने के साथ साथ झील के नज़रों और शहर की सुंदरता का भरपूर आनंद भी ले सकते हैं। 

इस सब के अतिरिकर यहाँ शादी के मंडप जैसे भी छोटे छोटे मंडप टाइप बने हुए हैं। जिसका उपयोग शायद प्री वेडिंग शूट के लिए किया जाता होगा। यूँ भी उदयपुर में ऐसी बहुत से स्थल हैं, जहाँ लोग आजकल प्री वेडिंग शूट के लिए जाते हैं। कई सारी फिल्मों की भी शूटिंग यहाँ हुई हैं। 


फिर वहाँ से लौटकर हम पहुँचे विंटेज कार म्यूज़ियम जहाँ आपको 1935 की एक से एक कारें देखने का मौका मिलता है। जिसे देखकर मेरा तो मन बहुत खुश हो गया। इतना कि उन कारों के समीप फोटो खिंचवा कर मुझे तो खुद में ही एकदम रॉयल फीलिंग आने लगी। खैर वहाँ उस ज़माने की मर्सडीज़ बेंज़ और भी ना जाने कितने तरह की कारें हैं। इतना ही नहीं सब के सब एकदम तंदुरुस्त और चालू अवस्था में है। पता है एक बग्गी भी थी वहां इतनी शानदार कि क्या कहें। आप तस्वीरों में खुद ही देख लो। दिलचसब बात तो यह है कि यहाँ उस वक़्त का एक शाही पेट्रोल पंप भी है। जो अब भी चालू अवस्था में है।

भईया इतना सब घूमने के बाद अब शाम हो चली थी मतलब ऐसी भी शाम नही पर हाँ 3 बज गए थे और हमें लगी थी जोरो की भूख तो भईया अब तो "पहले पेट पूजा बाद में काम दूजा"। तो हम जा पहुँचे एक रेस्टोरेंट में उस वक़्त, फिर क्या था, बस खाना ही खाना दिख रहा था मुझे तो उस वक़्त दाल बाटी, चूरमा, बाफले, कढ़ी गट्टे की सूखी सब्जी, गुलाब जामुन, प्याज़ की कचौड़ी, मिर्ची वड़ा, छाछ,लस्सी मतलब एक ही थाली में इतना कुछ कि मुझे तो सभी पकवानों के नाम भी ठीक से याद नहीं है।

अब भई इतना खाने के बाद किस की दम है कि और घूमा जाय। तो उस दिन हम वापस अपने होटल लौट आए और बिस्तर पर डले-डले देखते और सोचते रहे कि शाम को क्या किया जाय। तब होटल के रिसेप्शन से "बागोर की हवेली" के विषय मे पता चला। तो बस बन गया प्रोग्राम वहीं जाने का वैसे तो यह हवेली भी अपने आप में देखने लायक स्थान है। यह हवेली महाराणा शक्ति सिंह का निवास स्थान थी। 


इस हवेली को भी संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। जो मेवाड़ की संस्कृति को प्रस्तुत करता है। जो सुबह 9:30 से शाम 5:30 बजे तक खुला रहता है एवं रात को 7 से 8 बजे तक यहाँ पर्यटकों के मनोरंजन और उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति को दिखाने बताने और समझाने के लिए विविध सांस्कृतिक रंगा रंग कार्यक्रम होते हैं। जैसे लोक नृत्य धरोहर, लोक संगीत,कठपुतली का तमाशा आदि स्थानीय कलाकारों की ओर से प्रस्तुत किये जाते है। जिसका मज़ा ही कुछ और होता है। यदि आप लोग भी कभी यहाँ आएँ तो इस कार्यक्रम को ज़रूर देखें। अपनी मिट्टी की सुगंध और उसके प्रति आपका प्रेम, आपका जुड़ाव, आपको यहाँ बाँधे रखेगा। उस दिन पहले ही काफी देर हो चुकी थी कर्यक्रम खत्म होते-होते लगभग 9 बज चुके थे। रात काफी हो चुकी थी और ठंड भी बहुत बढ़ चुकी थी। कुछ स्थानीय लोग अलाव जलाकर हाथ तापते देखने को मिले। पर हम वहाँ से वापस लौट गए अपने होटल।



अगले दिन सुबह वहीं छत पर झील के किनारे नाश्ता करने का आंनद तो शायद मैं कभी नहीं भूलूंगी।


फिर हम निकले निजी बाजार घूमने तो पहुँचे सीधे बड़ा बाज़ार दोस्तों उदयपुर आकर यहाँ आना तो बनता है। यहाँ दिन भर पर्यटकों का तांता लगा रहता है । इस बाज़ार में आपको पारंपरिक राजस्थानी परिधान, बंदिनी साड़ी और पारंपरिक सोने एवं चाँदी के जेवरात भी मिल जाएंगे। इसके अलावा आप मौची वाड़ा जाना भी ना भूलिएगा यहाँ आपको हाथों से बनी बेहद सुंदर जूतियां, मोजड़ी आदि सस्ते दामों में खरीदने का अच्छा अवसर प्राप्त होगा। मैने भी खरीदी थी। 


अब उन स्थलों की बारी जहाँ हम जा नहीं पाये किन्तु आपको जानकारी देना ज़रूर बनता है।

फिर आती है दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी नकली आरिटिफिशल झील जैसमन झील जो कि 14km लंबी है। इस झील को 1685 में महाराणा जयसिंह ने बनवाया था।

फिर आता है सुखाड़िया सर्किल यह जगह अपने फब्बारों की वजह से मशहूर है। यहाँ लगभग 21 फुट ऊंचा फब्बारा ही इस का मुख्य आकर्षण है जिसके चारों ओर बोटिंग की जाती है।  

फिर आता सबसे खूबसूरत बगीचा सहेलियों की बाड़ी, ऐसा कहा जाता है कि महाराणा संग्राम सिंह ने इसे अपनी रानी और उनकी दासियों के लिए भेंट स्वरूप यह स्थान बनवाया था। फतेह सागर झील के किनारे बने यह स्थान बहुत ही खूबसूरत झरने वा हरे भरे लॉन्ज आदि के लिये विख्यात है।

फिर आता है सज्जन गढ़ पेलेस, जिसे मानसून प्लेस के नाम से भी जाना जाता है। इसे मेवाड़ के महाराणा सज्जन सिंह ने 1884 में बारिश के बादलों को पास से देखने के लिए बनवाया था। सच सफेद संगमरमर से बना यह मानसून पेलेस बारिश के दिनों में तो और भी देखने लायक जगह बन जाती होगी।

फिर आती है फतेह सागर झील, यह एक नासपाती के आकार की झील है। जिसे महाराणा फतेह सिंह द्वारा 1678 में विकसित किया गया। यह उदयपुर की चार झीलों में से एक है।

बड़ी झील, यहाँ आप सूर्य उदय का मज़ा ले सकते हैं चारों से पहाड़ियों और प्रकृतिक सुंदरता से घिरी यह झील अपने आप में देखने लायक स्थान है और आज के समय में यह भी एक प्री वैडिंग शूट के लिए एकदम  सही  स्थल है। 

दूध तलई झील, यह भी अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध एक झील है जो अपने साफ सुथरे और नीले रंग के पानी के लिए महशूर है। इसलिए इसका नाम दूध तलाई पड़ा हालांकि इस स्थल से दूध का दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है।   

फिर आता है जगदीश मंदिर, यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। यहां चार भुजाओं वाले भगवान विष्णु की काले पत्थर से बनी मूर्ति है। कहते है यह मंदिर भी लगभग चार सौ 400 साल पुराना मंदिर है। यह मंदिर भी सिटी प्लेस के पास ही स्थित है। साथ ही यह शहर के सबसे बड़े मंदिरों में से एक है। यह मंदिर महाराणा जगत सिंह द्वारा 1651में बनवाया गया था। यदि मंदिरों की बात करें तो यहाँ का एक करणी माता का मंदिर भी प्रसिद्ध ही जो कि एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है जहाँ रोप वे द्वारा जाया जाता है। तो यह था उदयपुर यात्रा का संस्मरण इसके बाद हम निकले जौधपुर की ओर लेकिन उसके अनुभव अगले भाग में तब तक आप आनंद लीजिये इस अद्भुत शहर के मेरे अनुभव का नमस्कार।

Tuesday, 6 April 2021

राजस्थान डायरी भाग-3

अब ऐसा है कि चित्तौड़ का किला घूमने के बाद हमारे अंदर ज्यादा दम नहीं बची थी कि हम अगले दिन फिर एक और किला घूम सकें वो क्या है ना कि इतना चलने फिरने और घूमने की आदत नहीं है हमारी, पर क्या करते राजिस्थान जाकर भी यदि किले ना देखे और ना घूमे तो राजिस्थान यात्रा सफल नहीं होती। होटल पहुँचकर रात्री का भोजन कर जो सोये तो सुबह कब हुई पता ही नहीं चला। फिर वही सुबह उठकर नहा धोकर नाश्ता किया। वो क्या है ना कि मुझे खाने पीने का बहुत शौक है। यह मेरी सेहत को देखकर ही पता चलता है। तो सुबह-सुबह होटल की छत पर ठंडी ठंडी हवा के बीच नाश्ता करने का अपना एक अलग ही आनंद था। गरमा गरम पोहा, जलेबी पूड़ी आलू मटर की सब्जी, सेंडविच, भजिए आदि का नाश्ता भर पेट करने के बाद प्लान बना कुंभलगढ़ घूमने का तब हमने सोचा था चित्तौड़ से निकलने के बाद 2 से 3 घंटे में हम पहुँच जाएँगे कुंभलगढ़। 

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमें कुछ अधिक समय लगा जिसके चलते वहाँ पहुँचते ऊपर जाने का मुख्य द्वार बंद हो चुका था। अब क्या किया जाए सबसे पहले तो द्वार बंद होने के कारण बहुत निराशा हुई। फिर हमें लगा अब आ ही गए हैं तो कुछ तो देखकर जाएँगे ही। हाँ नहीं तो ....! तो पता चला शाम को वहाँ लाइट एंड साउंड शो भी होता है। जिसमें महाराणा कुंभा और प्रताप का इतिहास बताया जाता है। तो बस तय हुआ कि यह शो देखकर ही उदयपुर के लिए रवानगी होगी। सो हमने बस टिकिट लिया और वहीं पत्थरों पर बैठकर पूरी शौर्य गाथा सुनी। सच मजा आ गया था उस रात, राजिस्थान के लगभग हर किले में अक्सर शाम को यह लाइट एंड साउंड शो होते हैं। जिन के माध्यम से बाहर से आए पर्यटकों को उस किले और वहाँ के राजा का इतिहास बताया जाता है। 

खैर वह शो देखने के बाद हम उदयपुर के लिए रवाना हो गए। वहाँ होटल पहुँचकर आराम किया और रात के भोजन में होटल की छत पर बने भोजनालय में राजिस्थानी पकवानों का आनंद लिया जैसे गट्टे की सब्जी, कढ़ी, बाजरे की रोटी आदि। फिर सुबह उठकर मजेदार नाश्ता भी किया जो अधिकतर बेसन से बना होता है जैसे ब्रैड पकोड़ा, कांदा भज्जी,फाफड़ा आदि के साथ साथ पोहा, जलेबी, सेंडविचआदि भी विदेशी पर्यटकों के लिए। उनका भी तो ध्यान रखना ज़रूरी है न भाई ...है कि नहीं। फिर हम लोग निकले कुंभलगढ़ के लिए। गयी रात देर हो गयी थी। इसलिए इस बार हम बिना देरी किए सुबह-सुबह ही निकल गए बीच में पड़ी हल्दी घाटी वीरों की माटी हल्दी घाटी किन्तु इस एतिहासिक स्थल को देखने से पूर्व इस से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण स्थल भी हैं। जिनके विषय में जानना भी बहुत ही रोचक रहा।

सबसे पहले बादशाही बाग :- यह वह स्थान था जहाँ इस युद्ध के दौरान मुगल सेना ने अपना पड़ाव डाला था। आज यहाँ एक बहुत ही सुंदर बगीचा है और गुलाब से संबन्धित व्यापार होता है जैसे गुलाब का शर्बत, गुलाब का इत्र आदि आप यहाँ से खरीद सकते हैं। यहाँ से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर है।



फिर दूजा पड़ाव आता है रक्त तलई, यह वह स्थान है जहाँ युद्ध का दूसरा मोर्चा लड़ा गया था। जहाँ महाराणा प्रताप पर मुगलों की सेना भारी पड़ गयी थी। इसी युद्ध में महाराणा प्रताप अपने घोड़े चेतक व कुछ सैनिकों के साथ मुगलों की सेना को चीरते हुए मान सिंह की तरफ बड़े और मौका पाकर भाला भी फेंका। किन्तु मान सिंह की जगह उनका महावत मारा गया और हाथी की सूंड में लगी तलवार से यहीं से चेतक घायल हुआ था। यह सब (झाला बिदा) ने जब यह देखा की प्रताप घिर गए हैं तब उन्होने प्रताप की रक्षा हेतु वहाँ अपने कुछ सैनिकों के साथ पहुँचकर उनके मुकुट और राज्य चिन्ह को स्वयं धारण कर उन्हें वहाँ से सुरक्षित निकाल दिया और स्वयं वीरगति को प्राप्त हो गए। कहते हैं यह वह जगह है जहाँ युद्ध के बाद रक्त का तालाब बन गया था। ज़रा सोचिए कैसा रहा होगा वह दृशय जब ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से बहता हुआ रक्त इस जगह आकर एकत्रित हुआ होगा जिसमें अपने वीर राजपूतों के रक्त के साथ-साथ मुगल सैनिकों का रक्त भी शामिल था। कहते हैं इस युद्ध के बाद यहाँ बहुत तेज़ बारिश हुई थी। जिसके कारण युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए यौद्धाओं के कटे फटे शवों से बहता हुआ रक्त जब पानी मिलकर पहाड़ियों से बहता हुआ यहाँ आकर जमा हुआ होगा। कितना भयावह रहा होगा वह नज़ारा हरे भरे जंगलों के बीच खून से भरा हुआ एक लाल तालाब ,मेरे तो सोचकर ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं। आज की तारीख में तो फिर भी यहाँ बगीचा है किन्तु पत्थरों की बागड़ बना कर उस स्थान को सुनिश्चित किया गया है और आज भी बारिश के दिनों में यह जगह पानी से भर जाती है। तो वह नज़ारा कैसा रहा होगा।यहाँ कुछ महावीरों की याद में छात्रियाँ भी बनी हुई है। जैसे (झाला बिदा) आदि।  

फिर आता है हल्दी घाटी का दर्रा:- इस दर्रे के बाहर बोर्ड भी लगा है हल्दी घाटी का दर्रा प्रारंभ, हल्दी घाटी का यह युद्ध हुआ था 1576 में, खमनोर और बलीचा गांव के बीच यह दर्रा है। बताने वाले बताते हैं यह ही है वह मुख्य स्थल जहाँ से युद्ध आरंभ हुआ था। तो पहला मोर्चा यही से आरंभ हुआ होगा पहले मोर्चे में प्रताप की सेना मुगलों पर भारी पड़ी थी जिसके चलते प्रताप ने उन्हें 3 km पीछे जाने पर मजबूर कर दिया था। यहाँ ज्यादा अंदर जाने की अनुमति नहीं है सरकार ने यह इलाका बंद कर रखा है पहले यहाँ चंदन का जंगल हुआ करता था और यहीं से आगे जाने पर वह दो सकरी घाटियां हैं जहाँ यह भयंकर युद्ध हुआ था। किन्तु अब भी वहाँ जंगल ही है और जंगली जानवरों का खतरा भी इसलिए अंदर जाना मना है। वहाँ के निवासी बताते हैं रात को यहाँ जंगली जानवरों की आवाज़ बड़ी आसानी से सुनी जा सकती है। 


फिर आती है हल्दी घाटी जो कि रास मन जिले की खमनोर घाटी:- गोगुंदा और खमनोर घाटी के बीच बनी है यह सकरी सी हल्दी घाटी 6 km में फैली हुई है यह वह रोड हैं जो सरकार द्वारा दर्रे के बाहर से निकाली गयी है और यहीं बोर्ड लगा है हल्दी घाटी का यहाँ दोनों और पाहड़ को काट कर रोड बनाई गयी है और इन पहाड़ों की मिट्टी बिलकुल हल्दी की तरह पीली है हाथ से मसलने पर लगता है मानो हाथ में हल्दी लगा ली हो। यहीं है हल्दी घाटी। इसके अतिरिक इस युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से केवल 20,000 सैनिक थे और मुगलों की ओर से 80,000 सैनिक थे। फिर भी वह कभी महाराणा प्रताप को बंदी नहीं बना पाये । 


वहीं से आगे चल कर वो गुफा देखने को मिलती है जहाँ महाराणा प्रताप अपने साथियों  के साथ गुप्त मीटिंग किया करते थे। इस गुफा को प्रताप गुफा या रण मुक्तेश्वर गुफा के नाम से भी जाना जाता है। यहीं पर उनके सेनापति जो कि एक मुस्लिम थे जिनका नाम हाकिम खां सूरी था उनकी भी समाधि बानी हुई है। यह गुफा 35 किलोमीटर लंबी हुआ करती थी जो सीधे नाग द्वारे तक जाती थी। लेकिन अब सरकार द्वारा बंद कर दी गयी है। इसके थोड़ा आगे चलने पर मिलती है चेतक की समाधि ।

फिर आता है वो नाला जिसे चेतक ने पार किया था:- यहीं से आगे चलने पर आप देख सकते हैं वह नाला, जिसे महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक ने घायल होते हुए भी अपने स्वामी की जान बचाने की खातिर लंगड़ा था और उसके बाद ही उस घोड़े की मृत्यु हो गयी थी इसलिए यही से थोड़ा आगे आपको मिलेगी चेतक की समाधि,या चेतक स्मारक जहाँ एक और चेतक की याद में उसका स्मारक बना हुआ और दुजी और एक छोटा शिव मंदिर भी है।


यह सब देखते हुए हम पहुँच गए कुंभलगढ़, और भईया वहाँ पहुँचकर जो उस विशालकाय किले को देखा तो एक मन हुआ, ना हो पाएगा इतना कौन चलेगा वो भी इतनी ऊपर रहने दो नीचे नीचे ही घूम लेते हैं। यूं भी सभी किले एक जैसे ही तो होते हैं। लेकिन फिर दूसरे ही क्षण वहाँ का इतिहास जानने और गाइड की चटपटी बातों द्वारा वहाँ कि लोक कथाएँ जानने और सुनने के लालच में हम अंदर चले ही गए, तो भईया आज हम बात करेंगे महाराणा प्रताप की जन्म स्थल कुंभलगढ़ की जिसका निर्माण महाराणा कुंभा ने करवाया था। जो कि एक अजेय किला रहा है। जिसे कभी कोई नहीं जीत ना सका। पूरे 15 साल लगे थे इस किले को बनने में और क्या आप जानते हैं इस किले में बनी दीवार जो कि 36 किलोमीटर लंबी और शायद 15 फिट चौड़ी है जिस पर 8 घौड़े एक साथ दौड़ सकते हैं और यह चीन की द ग्रेट वाल ऑफ चाइना के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी दीवार है। है ना कमाल की बात और किले में ऊपर पहुँचने के बाद जब यह दीवार वहाँ बने झरोखों से दिखाई देती है तो किसी विशालकाय अजगर की तरह प्रतीत होती है।  


कुंभलगढ़ किला जो अरावली पर्वत पर बसा हुआ है। यह उदय पुर जिले के राज समन में बसा हुआ है। इस किले का निर्माण 15 वी शताब्दी में सन 1443 में शुरू करवाया था। और यह 1458 को यह किला बनकर तैयार हो गया था। इस किले का निर्माण महाराणा कुंभा ने करवाया था। इसका निर्माण सम्राट अशोक के पुत्र सम्प्रति के बनाये गए दुर्ग के अवशेषों पर किया गया था। इस दुर्ग को बनाने में 15 साल लगे थे। दुर्ग का निर्माण पूर्ण होने पर महाराणा कुंभा ने सिक्के भी बनवाये थे जिस पर इस दुर्ग का चित्र और उनका नाम अंकित था। यह दुर्ग कई पहाड़ियों एवं घाटियों को मिलाकर बनाया गया है। जिस से यह प्राकृतिक संरक्षण पाकर अजेय रहा है। इस दुर्ग में ऊंचे स्थानों पर महल मंदिर वा आवासीय स्थल बनाये गए हैं, साथ ही समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया है। इस दुर्ग के अंदर 360 से ज्यादा मन्दिर है। जिन में से 300 प्राचीन जैन मंदिर है और बाकी सभी हिन्दू मंदिर है। 

इन्हीं मंदिरों में से एक है कुंभा मंदिर जिसके अंदर 5 फिट ऊँचा शिवलिंग विराज मान है। कहते हैं उस वक़्त के राजा महाराजाओं का कद बहुत ऊँचा हुआ करता था इसलिए इस शिवलिंग का तिलक स्वयं महाराणा कुंभा जमीन पर बैठकर कर लिया करते थे। कितने ऊँचे रहे होंगे ना वह, यूं भी संग्रहालयों में रखे हुए उनके वस्त्र कवच आदि की ऊँचाई देखकर भी आश्चर्य होता है कितनी अधिक ऊँचाई के लोग होते वह आजकल तो इतना ऊंचा व्यक्ति कोई कोई होता है। मेरे लिए इस किले में देखने लायक सबसे महत्वपूर्ण स्थान वह था जहाँ जिस कक्ष में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। कहने को वह ऊपरी मंजिल पर बना एक साधारण कक्ष ही था जहाँ एक दो जगह दीपक जलाने के लिए ताख बने हुए थे और हवा के लिए एक बड़ा झरोखा था बस एक छोटा सा कमरा लेकिन उस किले का एक महत्वपूर्ण स्थान। मैंने वहाँ कि मिट्टी भी ली थी एक सुनहरी याद के लिए। वहीं किले कि छत पर कुछ छोटे-छोटे खंभ लगे थे कुछ इस तरह जैसे खो-खो खेलने के लिए बैठा जाता है वैसे, उन खंभो को देखकर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि महाराणा प्रताप भी यहाँ खेले होंगे शायद क्यूंकि उनका बचपन तो यहीं व्यतीत हुआ था। बाद में वह चित्तौड़ गए थे। उन खंबों को छूकर मन में वही विचार आया कभी इन खंबों को उन्होने छुआ होगा खेल खेल में काश उन हाथों कि छुअन को हम आज भी महसूस कर पाते तो कैसा होता। नहीं...! 


खैर इस दुर्ग के अंदर एक और गढ़ है जिसे कतार गढ़ के नाम से जाना जाता है। यह दुर्ग सात विशाल द्वारों से सुरक्षित है। इस के बीच के भाग में बादल महल एवं कुम्भा महल सबसे ऊपर है। महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुंभलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकट कालीन राजधानी रहा है। महाराण कुम्भा से लेकर महाराण राज सिंह तक मेवाड़ पर जितने भी हलमे हुए राज परिवार इसी दुर्ग में रहा। यहीं पर प्रथ्वीराज और महाराणा सांगा का बचपन भी बिता था। इतना ही नहीं बल्कि पन्ना दाई ने भी राणा उदय सिंह जी का पालन पोषण इसी दुर्ग में छिपाकर किया था। हल्दी घाटी के युद्ध में हार जाने के बाद स्वयं महाराणा प्रताप भी इसी दुर्ग में रहे थे। हालांकि इस हार जाना नहीं कहेंगे क्यूंकि इस युद्ध में विजय किसी की ना हुई। पर फिर भी जब उनकी जान बचाने की खातिर उनको इस युद्ध भूमि से सुरक्षित बाहर निकाल दिया गया ताकि वह जीवित रह सके। क्यूंकि उनके अतिरिक्त ऐसा कोई नहीं था जो मुगलों से मेवाड़ की रक्षा कर सकता था। केवल एक वही थे जिन्होंनें कभी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की बाकी तो अधिकतर राजपूती राजवंशों ने उस वक़्त मुगलों की आधीनता स्वीकार कर ली थी इतना ही नहीं बादशाह अकबर की खुद की कभी हिम्मत नहीं हुई उनसे सीधा युद्ध करने की इसलिए तो इस हल्दी घाटी के महासंग्राम में भी उसने अपने सेनापति के रूप में आमेर के राजा मान सिंह को भेजा था। 

इस दुर्ग को बनवाने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। कहते हैं, 1443 में इसका निर्माण शुरू करवाया गया था पर इसका निर्माण आगे नहीँ बढ़ पाया। इसके निर्माण कार्य में बहुत सारी अड़चने आने लगी। तब महाराणा कुंभा ने एक पंडित से बात की और उसने उन्हे बताया कि इसका निर्माण तभी संभव है जब कोई मनुष्य स्वेछा से अपनी बली दे तभी इसका निर्माण कार्य संभव हो सकता है। अब सवाल यह था कि इस कार्य के लिए स्वेच्छा से ऐसा कौन करेगा। इस पर साधु बोला मैं स्वयं इस नर बलि के लिये तैयार हूँ।आप बस इतना करना कि जब मैं चलना शुरु करूँ तो आप मुझे देखते रहना और जहां मैं रुक जाऊँ आप वहीं मुझे मार देना और फिर वहाँ एक मंदिर बनवा देना। फिर क्या था जब वह साधु चला तो चलता ही चला गया और 36 किलोमीटर चलने के बाद रुका जैसे ही वह रुका उसका सर धड़ से अलग कर दिया गया। जहाँ उसका सर गिरा वहाँ मुख्य द्वार हनुमान पोल है और जहाँ उसका शरीर गिरा वहाँ दुर्ग का दूसरा गेट बनवाया गया। 

पर जिस तरह हर किले कि कुछ अच्छी तो कुछ बुरी घटनाएं भी होती है ठीक उसी तरह इस किले की भी एक बहुत ही बुरी घटना है। जिस परम् वीर महाराणा कुंभा को कोई नहीं हरा सका उसी महाराणा को स्वयं उनके पुत्र करण उदय द्वारा राजलिप्सा के कारण इसी दुर्ग में मार दिया गया। महाराणा कुंभा के रियासत में कुल 84 जिले आते थे। जिसमें से 32 किलों का नक्शा उनके द्वारा बनाया गया था। एक मान्यता यह भी है महाराणा कुंभा इस किले के निर्माण में लगे हुए मजदूरों को रात में रोशनी प्रदान करने के लिए 50 किलो घी और 100 किलो रुई के बड़े बड़े दीप जलवाया करते थे। ताकि वह भरपूर रोशनी में सुगमता से कार्य कर सकें। कई गुणो के धनी थे महाराणा कुभा। उन्हें संगीत में भी बेहद रुचि थी। यहाँ तक के काई राग रागिनियों के रचीयता भी थे महाराणा कुंभा कहते हैं एक बार को छोड़कर यह दुर्ग हमेशा अजेय ही रहा और जब हार तब दुर्ग में पीने का पानी खत्म हो जाने के कारण जब चारों से चार राजों द्वारा घिर जाने की वजह से केवल एक बार इस किले की हार हुई थी। उन चार राजाओ में मुगल शासक अकबर, अमेर के राजा मान सिंह, मेवाड़ के राजा उदय सिंह और गुजरात के राजा थे।

इस घटना के अतिरिक्त और कभी कभी इस किले के हारने का कहीं कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए इसे आज भी अजेय किला माना जाता है।