Thursday, 21 July 2011

सदगुण संपन्न (कहानी )

सभी पाठकों से अनुरोध है कि कहानी लिखने का प्रयास किया है कृपया अपने सुझावों से मेरा मार्ग दर्शन करें 
सदगुण संपन्न होने का अर्थ होता है जिस व्यक्ति में सारे गुण हों उसे सदगुण संपन्न व्यक्ति कहा जाता है। वैसे तो यह शब्द प्रायः महिलाओं के संदर्भ में बोला जाता है, लेकिन यह शब्द पुरुषों के विषय में भी बोला जा सकता है। मगर क्या आज के युग में किसी व्यक्ति का सदगुण सम्पन्न होना संभव हो सकता है ? आज के युग कि ही क्यूँ यदि हम अतीत में जाकर देखें तब भी कहाँ यह बात संभव थी। यदि होती तो शायद द्रोपदी को एक ही व्यक्ति में वो सारे गुण मिल गए होते जो उसे पाँच अलग-अलग व्यक्तियों के रूप में मिले तो यह तो फिर भी कलियुग है। इस धरती पर शायद ही ऐसा कोई इंसान हो जिस में सारे गुण हो जो गुणों की खान हों, सारे गुणों का होना एक ही इंसान में तो संभव नहीं है। किन्तु कई सारे गुणों का होना एक इंसान में संभव है। यह कहानी एक ऐसी ही लड़की के जीवन पर आधारित है जिसका नाम तो था संस्क्रती मगर उस के करीबी लोग जैसे उस के मित्र-गण या संगी-साथी उसे क़रीब से जाने वाले सभी लोग जब किसी तीसरे व्यक्ति से उस की बात किया करते थे, तो उसे सदगुण सम्पन्न लड़की के नाम से ही संबोधित कर करते थे

कॉलेज के दिनों कि बात है एक लड़की हुआ करती थी। जिसका नाम था संस्क्रती जो कि एक पढ़े लिखे सभ्य एवं अमीर परिवार की  बेहद खूबसूरत दिखने वाली हंसमुख स्वभाव कि भोली भली एक लड़की थी। जो देखने में जितनी सुंदर थी। स्वभाव से भी उतनी ही मीठी भी थी। भगवान ने जैसे क़ुदरत की पूरी खूबसूरती को उसके ही के रूप में ही गड दिया हो, घने काले लंबे बाल, गोरा रंग, नीली आँखें,तीखे-तीखे नयन नक़्श मानो जैसे कवि की कोई कलपना हो, हस्ती थी तो ऐसा लगता था मानो सेंकड़ों मोती बिखर गए हो जितनी मोहक उसकी मुसकान थी उतना ही सुरीला उसका गला भी, गाती थी तो उस के गायन में खो जाया करते थे लोग गायन ही क्या न्रत्य करने भी उतनी ही माहिर थी वो जितना की संगीत मे, संगीत और न्रत्य प्रतियोगिता में हमेशा सब से प्रथम आना तो जैसे उसका नियम सा बन गया था। बी.ए प्रथम वर्ष में दाख़िला मिलने पर ही उसने अपनी खूबसूरती और अपने मीठे स्वभाव और मोहक संगीत के गुणों के कारण(मिस नूतन) बनने का पुरस्कार अर्जित कर लिया था और इतना ही नहीं इस सब गुणों के साथ-साथ एक और सबसे अहम गुण भी था उस में वो है, एक अच्छा इंसान होने का गुण, जो हर किसी में नहीं होता। पंजाबी परिवार की होने कारण उसका का रहन-सहन भी कुछ वैसा ही था जैसा कि अकसर पंजाबी लोगों में देखने को मिलता है तडकीला भड़कीला क़िस्म का, ऊपर से वो खुद भी सुंदर थी। साथ ही  बेहद FASIONABLE भी उस की तीन मुख्य सहेलियां हुआ करती थी। जिनके नाम थे मिताली और भावना जो हमेशा उस के साथ रहा करती थी तीनों के सारे विषय भी एक ही थे। जिन से यह तीन बी.ए का इम्तिहान देने वाले थे। घर भी तीनों का एक दूसरे के नजदीक ही था चौबीसों घंटे एक साथ मौज मस्ती मारना, गाना बजाना, नाचना गाना, खाना पीना, लग भाग एक साथ ही हुआ करता था। तीनों भी अच्छे पढे लिखे सभ्य परिवार से ही थी। लेकिन शायद कही न कही उनके मन में प्यार के साथ एक दबी हुई चिंगारी के रूप में संस्क्रती के प्रति जलन की भावना भी थी। मगर उस भावना को कभी तीनों ने औरों के सामने जाहिर नहीं होने दिया था, ज्यादा तर सभी लोग उन को तीगडा अर्थात् तीन व्यक्तियों का समूह ही समझते थे जहां एक होगी वहाँ बाँकी की दोनों का होना तो पक्का ही होता था। चाहे वो संगीत प्रतिस्पर्धा हो या न्रत्य प्रतियोगिता मगर इनाम हमेशा मिला करता था सिर्फ संस्क्रती को तीनों एक दूसरे की सब से अच्छी सहेलियां होने पर भी कभी सामूहिक रूप से किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लिया करती थी हमेशा सब का, सब कुछ, अकेले ही हुआ करता था चाहे फिर वो न्रत्य हो या गायन मगर वो कहते है ना की भड़की हुई आग से ज्यादा दबी हुई चिंगारी ख़तरनाक होती है शायद उन तीनों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा क्योंकि लगती तो देखने में वो संस्क्रती की शुभ चिंतक ही थी और तीनों ही कला के क्षेत्र में माहिर भी थी लेकिन सब के पास वो नहीं था जो एक अकेली संस्क्रती के पास था रूप से लेकर गायन तक ,गायन से लेकर नाच तक और एक अच्छा इंसान होने से लेकर पढ़ाई लिखाई में भी बहुत होशियार थी वो, इसलिए शायद सब ही उस उसके नाम के बदले सदगुण सम्पन्न लड़की के नाम से संबोधित किया करते थे।

कॉलेज के दिनों में हर कोई उसके जैसा बन्ना और दिखना चाहता था। मगर नकल कर के भला कभी किसी को वो मिला है जिसकी उसे तलाश हो J मगर वो कहते है न रूप कि रोये और भाग्य कि खाये वैसा ही कुछ हुआ उस बेचारी के साथ भी जिसने कभी अंजाने में भी किसी का दिल न दुखाया होगा सिवाय रोड छाप मजनुओं के J जिस ने अपने गायन और न्रत्य के बल पर हजारों पुरस्कार दिलाये होंगे अपने कॉलेज को आज उसी कॉलेज में खुद बहुत बदनाम है वो, जिसका कभी नाम हुआ करता था। क्यूँ और क्या हुआ उसके साथ ऐसा, कोई ठीक तरह से नहीं जानता मगर प्यार करने की सज़ा ऐसे भी हो सकती है यह उसने खुद भी कभी नहीं सोचा होगा कॉलेज के बाहर एक लड़का हमेशा उसका इंतज़ार किया करता था। एक क्या उसके तो हजार दीवाने थे। जो घंटों कॉलेज के बाहर खड़े होकर उसका इंतज़ार किया करते थे। बस एक नज़र उसे देखने के लिए मगर उन मैं से एक था जिसके साथ वो अकसर जाया आया करती थी। देखने वालों को बहुत आश्चर्य हुआ करता था कि अपने से दुगनी उम्र के लड़के के साथ उस के संबंध कैसे हो सकते है। लोग यही सोच-सोच कर परेशान रहा करते थे मगर शायद ही कोई हो जिसने यह जान ने का प्रयास किया हो की वो लड़का आखिर है कौन और उस का उस लड़के के साथ क्या संबंध है। बस साथ जाते आते देखा नहीं की लोगों के दिमाग में हमेशा एक ही घँटी बजती है की हो न हो यह उस का BOY FRIEND ही होगा।

थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाये कि यह सच भी है तो उस में हर्ज ही क्या है, मगर उस के साथ भी वही हुआ जो सदियों से होता चला आया है। सब से पहले हमेशा की तरह ही एक नारी पर ही चरित्र को लेकर सवाल उठाये जाते है। उस पर भी उठाये गए आखिर क्यूँ ? महज़ इस लिए की हमारा समाज एक पुरुष प्रधान समाज है जो आज तक कभी एक नारी को समझ ही नहीं सका है और ही जिसने कभी किसी नारी को समझ ने का प्रयास ही किया है। माता सीता के सत्ययुग से लेकर आज तक नारी की जो दशा तब थी वही आज भी है वो तो फिर भी सत्ययुग था और यह तो कलियुग है कहने वाले कहते हैं इस युग में जो भी बुरा हो वो काम है मगर नारी की दशा तब भी ऐसी ही थी आज भी ऐसी ही है और शायद हमेशा ऐसी ही रहेगी।
मगर उस की कहानी सुनकर अफ़सोस तो इस लिए होता है। क्योंकि जिस तरह उसके चाहाने वाली लड़कीयों कि कमी नहीं थी पूरे कॉलेज में ठीक उसी तरह उस से जल ने वालों की भी कोई कमी नहीं थी पूरे कॉलेज में उन्ही लड़कीयों ने उन्ही लोगों ने उस बेचारी से उस के खुल कर जीने का अधिकार छीन लिया और उस के बारे में जान कैसे-कैसे गंदी बातों का प्रचार प्रसार किया गंदी बातें भी ऐसी की सुनकर शर्म आ जाये सामने वाले को की शादी किए बिना ही उस के 2-3 गर्भपात हो चुके है। जिसके बारे में सुन कर भी यक़ीन नहीं आता की वो ऐसी हो सकती है या उस ने ऐसा कुछ किया होगा मगर वो कहते है न की

झूठ को भी चिल्ला-चिल्ला कर सौ बार बोलने पर तो वो भी सच लागने लगता है

यह कोई नहीं जानता की इस बात में कितना सच है और कितना झूठ मगर एक बार बदनामी फ़ेल जाये तो फिर लाख कोशिश करने के बाद भी नाम नहीं होता इसलिए लोग बदनामी से डरते है। उस बेचारी को इस क़दर बदनाम किया कुछ लोग ने कि उसको अपनी सफ़ाई देने तक का मौक़ा भी नहीं मिला और हार कर उसे कालेज छोड़ना ही पड़ा।

क्या यही परिणाम होना चाहिए था एक सदगुण संपन्न कहलाने वाली लड़की का जिसे कभी सारे लोगों ने गुणों की खान समझा जिसके जैसा बन्ने और दिखने का प्रयास किया करते थे लोग अचानक उस के बारे में मनगढ़ंत कहानी सुन ने मात्र से ही उसके सारे गुण एक ही झटके में भूल गए लोग, अगर यही दुनिया का इंसाफ़ है, तो सदगुण समापन्न होने से अच्छा है कि एक आम आदमी, आदमी से इंसान बन जाये वही बहुत है। इंसानियत के लिए.... जय हिन्द ....   

   



Tuesday, 19 July 2011

दोस्ती

अभी कुछ दिन पहले ही मैंने एक लेख लिखा था। खूबसूरती पर जिस में मैंने मन कि खूबसूरती और तन कि खूबसूरती का जिक्र किया था। आज भी उस ही विषय से जुड़ी एक छोटी सी कहानी जिसको मैंने नाम दिया है। 
दोस्ती  
या यह कहना ज्यादा ठीक होगा की एक अनुभव को कहानी का रूप देने का प्रयास किया है। जो की आधारित है दोस्ती पर, क्या होती है दोस्ती ? आप के जीवन में क्या मायने रखता है एक दोस्त और उसकी दोस्ती,? दोस्ती एक ऐसा रिश्ता जिसे आप खुद चुनते है। कई बार जिंदगी में अच्छे और बुरे दोनों ही तरह के दोस्त आप के जीवन में आते है। तब आप को खुद पता नहीं होता कि वो आप के किस प्रकार के दोस्त है अर्थात दोस्ती भी दो तरह कि होती है, एक तो वो जो आप यूं ही चलते फिरते हर किसी से करलिया करते है। कहने को तो वो दोस्ती ही है, फिर चाहे वो महज कहने भर को हो कि हाँ हम दोस्त है, और एक वो जो वास्ताव में आपका दोस्त हो जिसे आप निजी तौर पर भली भांति जानते हो, जो आप को हर तरह से जानता हो, आप का करीबी हो ऐसे दोस्त वह होते है जिनका आभास आप को अपने जीवन में उन के साथ बिताये हुए पलों में होता है कि कौन आपका अपना है और कौन महज़ एक दोस्त जिसे आप अपने सब से करीब पाते हैं, उसे ही आप अपने best friend का नाम दे पाते हैं। कई बाय यूं भी होता है, जिसे आप अपना सबसे अच्छा दोस्त समझते है वो वास्ताव में आप का सब से अच्छा दोस्त नहीं होता और जिसे आप अपना महज़  दोस्त भर समझते हैं वही आगे जाकर आपका सब से अच्छा दोस्त साबित होता है।  
शायद इसलिए बड़े बुजुर्गों ने सही ही कहा है की आपनो की परख बुरे वक़्त में ही ठीक तरह से हो पाती है। जो बुरे वक़्त में भी आप का साथ न छोड़े और आपका सहारा ही नहीं बल्कि आपका आत्मविश्वास बन कर आप के साथ कंधे से कंधा मिलकार चट्टान की तरह आप का साथ निभाए वही आप का सच्चा हितेशी है, आप का सच्चा साथी है, आप का सब से अच्छा दोस्त है।


एक अच्छे दोस्त की परख तभी हो सकती है। जब आप उसके मन की खूबसूरती को पहचान सकें क्यूंकि मेरे हिसाब से तो दोस्ती को परिभाषित करना भी प्यार को परिभाषित करने जैसा ही कठिन है। तो मेरी परिभाषा तो यह कहती है, की एक अच्छे दोस्त कि निशानी वह होती है जो आपका हर वक्त, हर मोड, पर साथ दे, जिस के साथ आप हस्सों, खेलो, अपने सुख-दुख को निर्भीक हो कर बाँट सको। जिस के साथ रह कर आपको एक जिंदगी भी कम महसूस हो, जिसे आप अपने जीवन में इस तरह से घोल सको जैसे पानी में रंग "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा जिस में मिला दो लगे उस जैसा" दोस्त की छवि भी कुछ इसी तरह कि होनी चाहिए है ना वो shakespeare ने कहा था न, की "ALL THE GILLITERS IS NOT GOLD" अर्थात जो जैसा दिखता है जरूर नहीं है की वो वैसा ही हो ,मगर मेरी कहानी में इस कहवात का अर्थ उल्टा ही है मतलब जिसे मैंने पीतल भी नहीं समझा वो सोना निकला   
बात उन दिनों कि है, जब मैं कालेज में हुआ करती थी। वहीं मैंने जाना की मन की खूबसूरती तन की खूबसूरती से कहीं ज्यादा बढ़ कर होती है। हालाकि यह बात अलग है कि उन COLLAGE के दिनों में ज्यादा तर लोग मन की खूबसूरती को निखारने से ज्यादा तन की खूबसूरती को सँवारने पर ही ज्यादा ध्यान देते हैं। मेरी अँग्रेज़ी साहित्य की कक्षा में तीन लड़कीयों का एक समूह हुआ करता था। देखने में बहुत ही साधारण लड़कियाँ थी तीनों, मगर पढ़ने में बहुत तेज, चतुर और होशियार सभी अध्यापक उन तीनों से बहुत प्रसन्न रहा करते थे। सिर्फ अँग्रेज़ी साहित्य ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विषयों में भी वह तीनों बहुत होशियार हुआ करती थीं, और में एक साधारण विद्यार्थी तब ऐसा लगाता था कि पता नहीं क्या समझती होगी तीनों, अपने आप मे बहुत घमंड होगा तीनों को और हो भी क्यूँ न सभी अध्यापक जो उनसे बहुत प्रसन्न रहा करते थे।
यह सोच-सोच कर ही मैं उन लोगों से थोड़ा दूर ही रहा करती थी। मगर एक दिन मुझे मेरी अध्यापिका जी ने कहा कि तुम ने जो लिखा है वो ठीक है मगर फिर भी तुम ऋतु के नोट्स देखो उसने जो लिखा है वो और भी ज्यादा प्रभावशाली है और यह काम मुझे उनके सामने ही करना था। बाद का कह कर टाला नहीं जा सकता था, साथ ही यह निर्देश भी थे की पढ़ने के बाद मुझे उस के साथ उस विषय पर विचार विमर्श भी करना है। मेरी स्थिती कुछ वैसी थी वो कहते है ना
मरता क्या न करता

 सो मुझे भी करना पड़ा लेकिन जब में उसके पास गई और मैंने उसके लिखे हुये नोट्स को पढ़ा और उसके बाद उस के साथ उस विषय को discus किया अर्थात उस टॉपिक पर उस के साथ चर्चा कि तो उसने इतने प्यार से, दोस्ताना व्यवहार को पूर्णरूप से निभाते हुए मुझे अपने विचारों से इतनी अच्छी तरह अवगत कराया कि में उसकी क़ायल हो गई और तब जाकर मुझे यकीन आया कि आखिर क्यूँ सभी उस से इतने प्रभावित रहते है और साथ ही उसके सौहार्दपूर्ण व्यवहार ने मुझे यह सोचने पर भी मजबूर कर दिया कि मैंने बिना मिले उसके बारे में ऐसा कैसे सोच लिया कि वो ऐसी होगी वैसे होगी। जबकि वो तो बहुत ही हंसमुख खुले दिल की लड़की थी, जो एक बार बात कर ले, उस से तो पल में उसे अपना बनना लेने का हुनर था उसमें, उसने कभी एक बार भी, अंजाने में भी, कभी किसी को यह महसूस नहीं कराया कि वो इतनी होशियार है पढ़ाई में या सभी अध्यापकों कि नजर में वो बहुत ही ज्यादा होशियार लड़की है उनकी चाहेती है तो उसे अपने आप में किसी प्रकार का कोई घमंड है। इस बात से यह साफ जाहिर होता है। की जो जैसा दिखता है जरूरी नहीं है की वो वैसा ही हो कई बार हम

"हीरे को भी पत्थर समझ लिया करते हैं "


जबकि वो हकीकत मे पत्थर नहीं हीरा होता है J और कई बार यूं भी होता है। कि जिसे हम “सोना समझते है वो वास्तव में पीतल भी नहीं होता "ऐसी ही है वो मेरी सहेली आज पता कहाँ होगी वो, इसे ही तो कहते हैं मन की खूबसूरती, काश हर इंसान को मन की खूबसूरती की परख होती। काश हर इंसान तन को महत्व देने से पहले मन को अहमियत दे पाता। तो शायद आज कई परिवार टूटने से बच जाते, और ना सिर्फ परिवार बल्कि शायद वो दोस्ती के अनमोल रिश्ते भी जिनकी महक हमारी जिंदगी को हमेशा महकाया करती है 
अनतः बस इतना कहना चाहूंगी कि "यारों दोस्ती बड़ी ही हसीन है, ये न होतो बोलो फिर क्या ये जिंदगी है", दोस्ती एक ऐसा रिशता होता है जिसे आप खुद चुनते हैं, काश जिंदगी का हर रिश्ता आप खुद चुन सकते इसलिए कभी भी बिना किसी के बारे में कुछ भी जानने से पहले कभी उस के बारे में कोई राय न बनाइये। जय हिन्द....       
       

Sunday, 17 July 2011

आया सावन झूम के


वैसे तो आज मेरे इस लेख का शीर्षक एक पुरानी हिन्दी फ़िल्म के नाम पर आधारित हैJ लेकिन क्या करूँ बात ही कुछ ऐसी है, सावन का महीना शुरू हो चुका है। अन्य सभी महत्वपूर्ण त्योहारों की तरह यह भी मेरा सबसे पसंदीदा त्यौहार है। सावन का नाम आते ही मन पर बचपन की यादों का जमावड़ा सा उमड़ पड़ता है। जब हम बच्चे थे तब हर साल नये साल का कलेंडर घर में आने पर सब से पहले अपने पसंदीदा त्योहारों की तारीख़ें देखने में जुट जाया करते थे, सब से पहले अपना जन्मदिन, फिर दीवाली, होली, और फिर सावन। सावन के महीने में एक अलग ही माहौल हो जाया करता था घर का भी और बाहर के मौसम का भी, घर के आसपास चारों ओर सावन के सोमवार शुरू हो जाने के कारण मंदिरों में, लोगों के घरों में, सुबह शाम पूजा अर्चना के साथ-साथ सारा माहौल में भक्ति रस का घुला मिला होना, साथ ही साथ अलबेला सुहाना बारिश का मौसम जो गर्मी के मौसम की तपिश के बाद एक अनोखी ठंडक का एहसास दिलाया करता है। मिट्टी में बारिश की बूँदों का पड़ना और वो मन मोह लेने वाली मिट्टी की सोंधी सोंधी ख़ुशबू जिसकी सुगंध से आज भी मन में वो गीत उमड़ता है।

रिमझिम गिरे सावन सुलग–सुलग जाये मन 
भीगे आज इस मौसम लागी कैसी ये अगन

बाज़ारों की रौनक, तरह-तरह की राखियाँ, घेवर और फेनी से सजी मिठाई की दुकानें, हर गली हर नुक्कड़ पर मेहँदी लगाने वाली औरतों की भीड़। एक बहुत ही ख़ुशनुमा महकता सा माहौल। आह J

कितना खूबसूरत हुआ करता था बचपन, वैसे तो आज भी मेरे लिए बहुत मायने रखता है यह त्यौहार, लेकिन पिछले कुछ सालों से हर राखी पर घर जाना संभव नहीं हो पा रहा है। खैर इस त्यौहार के साथ मम्मी पापा और भईया का खास तरह से मुझ पर ध्यान देना, नये–नये कपड़े उससे मिलती जुलती चूड़ीयाँ, उस समय तो जैसे जो माँगों सो पाओ वाला हिसाब हुआ करता था। खास कर  को राखी पर मिलने वाले उपहार पर अपने भाइयों के साथ मीठी सी तकरार। आप को शायद पता हो कि सावन के महीने में लड़कीयों को चूड़ीयाँ पहने और पहनाने का भी खास महत्व होता है और पूरे साल में कोई कभी चूड़ीयाँ पहने या ना पहने किन्तु सावन के महीने में हरी चूड़ियाँ जरूर सभी पहनते है क्यूंकि सावन के महीने में हरे रंग का खास महत्व होता है और अपने परिवार के लोगों को भी जरूर पहनवाते है इसे बहुत शुभ माना जाता है। जब में छोटी थी तब मेरे मम्मी  और मेरी मौसी जब भी अपने लिए चूड़ीयाँ खरीदा करती थी तो सब से पहले उसे मेरे हाथ में पहना दिया करती थी ताकी सब से पहले कन्या के हाथ लग जाएं तो शुभ माना जाता है। J


सावन के महीने में सावन सोमवार का भी अपना एक अलग ही महत्व है और इस के साथ-साथ हरियाली तीज का भी, वैसे सावन के महीने की धूम तो लगभग हर जगह ही बहुत होती है किन्तु फिर भी इस त्यौहार का सही रंग आप को राजस्थान में ही देखने को मिलेगा खास कर हरियाली तीज का। हरियाली तीज का महत्व भी बहुत होता है इस दिन भगवान शंकर और माता पार्वती की पूजा अर्चना होती है और बच्चों से लेकर बड़ों तक अर्थात् कन्या और घर की अन्य स्त्रियाँ मिल जुलकर यह पूजा किया करती हैं। पुराने ज़माने में इस त्यौहार पर ही ब्याहता लड़कियाँ अपने मायके जाया करती थीं, तब से आज तक यह प्रथा चली आ रही है। हालाँकि अब तो जमाना बदल गया है किन्तु उस ज़माने मे लड़कीयों का बाल विवाह हुआ करता था तो खास कर भाई अपनी बहनो को लेने जाया करते थे और लड़कियाँ इस ही दिन मायके आया करती थी। इसी तरह सावन के महीने में पड़ने वाले सोमवार को सावन सोमवार व्रत के नाम से जाना जाता है।
सावन मास के प्रत्येक सोमवार को शिव जी का व्रत एवं पूजन किया जाता है सावन मास में शिव जी के पूजन एवं व्रत का विशेष महत्व है ऐसी मान्यता है कि इन व्रतों को करने वाले भक्तों से शिव जी बहुत प्रसन्न होते है और मनवांछित फल प्रदान करते हैं। कुआँरी लड़कियाँ अच्छा वर पाने के लिए ज्यादातर यह व्रत किया करती हैं क्यूँकि ऐसी भी मान्यता है कि शादी को लेकर हर कोई राम जी के बदले शिव जी जैसा वर पाना चाहता है क्यूँकि भगवान शिव जितना प्रेम माता पार्वती से किया करते हैं उतना तो कभी किसी और भगवान ने अपनी पत्नी से नहीं किया। 

सावन के सोमवार पर मंदिरों में भी मिट्टी के शिवलिंग बनाने का रिवाज है सावन के मेलों में सावन के झूले झूलने का भी अपना एक अलग ही मजा है और हर दिल उस वक्त एक ही गीत गुनगुनाता है कि

सावन का महीना पवन करे शोर 
जियारर झूमे ऐसे जैसे बन माँ नाचे मोर

और क्या कहूँ अभी मेरे आँखों के सामने जैसे सावन के महीने में होने वाली हर एक बात एक चलचित्र की तरह चल रही है और सावन की इन ही मीठी महकती यादों और मेंहदी की महकती यादों के साथ आप सभी को रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनायें..  

Saturday, 16 July 2011

मुंबई ब्लास्ट

इस विषय पर क्या लिखूँ और कहाँ से शुरू करूँ मेरी समझ में ही नहीं आ रहा है। बहुत सारे लोगों ने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा है, उनके लेख पढ़ कर मेरा भी मन किया कि मैं भी इस विषय पर कुछ लिखने का प्रयास करती हूँ। वैसे तो न्यूज़ चेनल वालों ने आँखों देखा हाल दिखा–दिखा कर यहाँ सभी को बेहाल कर दिया है और इतना कुछ कह दिया है कि अब शायद इस बारे में कहने सुनने को कुछ बचा ही नहीं है किन्तु फिर भी मैंने सोचा कि मैं भी कुछ लिख ही देती हूँ आखिर हम सभी ब्लोगर अपने मन की बातों को ब्लॉग के ज़रिये ही तो एक दूसरे के साथ बाँटते है जैसे कि एक परिवार में होता है। J है ना
खैर हम बात कर रहे थे कि मुंबई में हुए बम धमाकों की वजह से कई बेगुनाह लोगों की जाने गई, हजारों की तादाद में लोगों ने अपने अपनों को खोया किसी ने अपना जवान बेटा खोया, तो किसी मासूम बच्चे ने अपने पिता को खोया, क्या ग़लती की थी इन मासूम लोगों ने, जो भगवान ने उनको इतनी बदतर मौत दी जिसे सुन कर एक आम आदमी का दिल दहल जाता है।
चारों तरफ खून से सना इंसानी शरीर यह पहचानना भी मुश्किल कि कौन अपना है और कौन पराया, आज कल जब भी न्यूज़ देखती हूँ या किसी ब्लॉग पर जाती हूँ तब चारों और बस यही खबर है। कल रात ही जब मैं स्टार न्यूज़ देख रही थी तब एक मुकेश नाम के परिवार की दशा दिखा रहे थे कि मुकेश नाम का एक आदमी जो की औपेरा हाउस के पास रहा करता था उस रात हुए बम धमाकों में मारा गया जिसकी बीवी उस के मरने की खबर पाकर भी इस क़दर सदमे में है कि जैसे मानो पत्थर की हो गई हो, उसका मासूम छोटा सा बच्चा जो की महज़ 4 साल का है उसे तो समझ ही नहीं रहा है कि हुआ क्या है, क्यूँ उस के घर मेहमान ये हुए हैं और क्यूँ बाकी सब लोग उस की माँ को छोड़ कर रोये चले जा रहे हैं, और उसकी माँ को रुलाने की कोशिश कर रहे हैं।  
उस मासूम को तो यह भी नहीं पता कि अब उस के पापा एक ऐसी जगह जा चुके हैं कि अब लौट कर कभी वापस नहीं आयेंगे। न जाने और कितने ही परिवारों का यही हाल होगा क्या बीत रही होगी उन पर, हम लोग तो शायद उसका अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते क्यूँकि कहना बड़ा आसान होता है। मगर जिस पर बीतती है वही जानता है।

मेरी समझ मे तो यह नहीं आता की जब भगवान ने सभी इनसानों को एक जैसा बनाया है और जब हम जैसे साधारण इनसानों को इस हादसे के बारे में जान करसुन कर और टीवी पर देख–देख कर इतना दुःख हो रहा है जबकि हमारा उन सभी से कोई नाता नहीं है सिवाय इंसानियत के, तो करने वालों ने यह हादसा धमाके के रूप में किया कैसे?? क्या उनके सीने में भगवान ने दिल नहीं दिया या जज़्बात नहीं दिये या उनको उनका खुद का परिवार नहीं दिया, जो वो लोग इतनी आसानी से दूसरे मासूम बेगुनाह इनसानों की जान से खिलवाड़ कर लिया करते है। शायद सच ही कहते हैं लोग, कि कलियुग है आज की दुनिया में एक इनसान को दूसरे इनसान से ही कोई मतलब नहीं है। क्या हो गया है हमारे देश को जहां अनेकता में एकता की मिसालें दी जाया करती थी। आज वहाँ इनसानों को इनसान तक नहीं समझा जा रहा है।

ऊपर से सरकार भी चुप है लोग अपने ही देश में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं और सरकार है कि यह सोच कर चुप बैठी है कि लोगों का क्या है लोग आज शोर मचाएंगे, कल हल्ला करेंगे, ज्यादा होगा तो हड़तालें होगी फिर थोड़े दिन बाद मुंबई वापस अपने रूटीन पर आ जाएगी फिर सब वैसा ही हो जायेगा जैसे धमाकों से पहले हुआ करता था। लोग अपने गमों को अपने दिल में लिए फिर अपनी रोज़ की दिनचर्या में आ जायेगे और सही मायने में होता भी ऐसा ही है। किसी ने सच ही कहा
ज़िंदगी एक रंग मंच की तरह है जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथों में है
कौन कब आयेगा और कौन कब जायेगा सब उस ही के हाथ में है

  किसी की ज़िंदगी में चाहे कितने भी गम क्यूँ ना आ जायें ज़िंदगी किसी के लिए न कभी रुकी थी और ना ही कभी रुकेगी

"THE SHOW MUST GO OWN"


जंग तो चंद रोज होती ज़िंदगी बरसों तलक रोती है, 
बारूद से बोझिल सारी फिजा मौत की बू फैलाती हवा, 
ज़ख़्मों पे है छाई लाचारी, ये माँओं का रोना रातों में, 
मुर्दा बस्ती, मुर्दा है नगर, चेहरे पत्थर हैं, दिल पत्थर, 
मेरे दुशमन मेरे भाई, मेरे हमसाये, 
मुझसे तुझ हम दोनों से सुन कुछ कहते है




मेरी सभी पाठकों से विनती है कि इस लेख में दिये गए विडियो को एक बार जरूर सुने और हो सके तो देश के हर शख़्स तक यह सँदेसा जरूर पहुँचा ने में मेरी मदद करें। जिसका इस गीत में जि़क्र किया गया है। L जिसे सुनकर हमेशा मेरी आँखें नाम हो जाती है काश इस गीत से सब लोग सबक़ लेते पाते तो कितना अच्छा होताबल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि काश लोगों ने इस गीत को अपनी ज़िंदगी में उतार लिया होता, तो आज शायद यह धमाके नहीं हुए होते जो आज तक होते आये हैं और क्या कहुँ, मुझे जो कुछ भी कहना था वो सब इस एक गीत के गीतकार ने अपने गाने की पंक्तियों में ही कह दिया।
अंतत बस इतना ही भगवान मरने वाले सभी लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करे और उनके परिवार वालों को इतनी शक्ति दे कि वो अपने प्रियजनो के बिना अपना जीवन आगे बढ़ा सकें

ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सनमती दे भगवान

Wednesday, 13 July 2011

मनोदशा



मनोदशा अर्थात मन की दशा, मन की दशा क्या होती है, यह कहना थोड़ा मुश्किल है। क्यूंकि मन तो चंचल होता है, पल-पल में बदलता रहता है, मन पर काबू पाना बहुत ही मुश्किल बात है। किन्तु नामुमकिन नहीं, परंतु मन की कुछ बातों पर तो आप काबू पा सकते हैं। मगर हर बार, हर बात में मन पर काबू पा सकना या पा लेना यह एक आम इंसान के लिए मुमकिन नहीं और यहाँ मुझे एक गीत की एक लाइन याद आ रही है। जैसा कि आप सभी जानते हैं मेरे हर लेख में कोई न कोई फ़िल्मी गीत जरूर जुड़ जाता है। J पता नहीं क्यूँ जब भी मैं कुछ लिखने जाती हूँ उस पर आधारित कोई न कोई फ़िल्मी गीत मेरे ज़हन में आ ही जाता है।
 जीत लो मन को पढ़ कर गीता मन ही हारा तो क्या जीता, तो क्या जीता हरे कृष्ण हरे राम
कहने का मतब यह है कि गीता में भी कहा गया है कि अगर जीवन में सफलता पानी है और मोह माया से छुटकारा पाना है, तो सब से पहले अपने मन को जीत लो फिर सब कुछ तुम्हारे हाथ होगा। अर्थात मन के हारे, हार है और मन के जीते जीत
खैर यह तो थी गीता की बात हम तो बात कर रहे थे, साधारण परिस्थिति में मनोदशा की बात  आपने देखा होगा कि जब कभी हम कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेने जाते है। तो हमारा मन अकसर दो भागों में बंट जाता है और हमको निर्णय लेनें में बहुत असुविधा महसूस होती है, कि क्या सही है क्या गलत, दिल कुछ और कहता है, दिमाग कुछ और, कहने वाले कहते हैं ऐसे हालात में हमको हमेशा अपने मन की सुनना चाहिए, मगर कुछ लोग यह भी कहते हैं कई बार दिल से लिए फ़ैसले भी गलत हो सकते है क्यूंकि दिल भावनाओं से बंधा होता है और भगवान ने खुद इंसान को दिमाग का दर्जा दिल से ऊपर का दिया है। मगर क्या करें
दिल है कि मानता नहीं
ऐसे ही आपने कई बार यह भी देखा होगा कि जब हम कोई निर्णय लेने वाले होते हैं या लेने के विषय मे हनता से सोच रहे होते है, तो उस विषय के हर बिन्दु पर गौर किया करते हैं कि उस के क्या परिणाम हो सकते है और बहुत सोचने समझने के बाद जब हम किसी नतीजे पर पहुँचते हैं, तो मन मे एक बार आता है, अब जो होगा सो देखा जाएगा और हम फैसला ले डालते है। मगर फिर कुछ दिनों बाद हमको ऐसा क्यूँ लगता है कि काश ऐसा हो पता तो कितना अच्छा होता। मतलब हमको हमारे द्वारा लिए गये निर्णय पर ही मलाल होने लगता है और यह जानते हुये भी कि अब वो निर्णय बदला नहीं जा सकता, पर फिर भी हमारा मन है कि हमको अंदर से एहसास कराता रहता है कि बदल सकता तुम्हारा निर्णय तो शायद ज्यादा अच्छा होता। क्यूँकि कभी-कभी हमारा मन स्वार्थी भी हो जाया करता है।
कुछ दिनों पहले की ही बात है। जब हम ने इंडिया आने के लिए टिकिट बुक की थी, तब सारी स्थिति को देख परख कर कि इतने दिनों में कब कहना रहना संभव हो सकेगा यह सब सोच कर हमने सभी (प्लेन) हवाई जहाज और ट्रेन के टिकिट बुक किये थे। मगर उस के बावजूद भी कुछ दिनों बाद मुझे लगने लगा था, कि काश मैं अपने मायके में थोड़े और ज्यादा दिन रुक पाती तो अच्छा होता, जबकि मुझे खुद पता था कि ऐसा होना संभव नहीं है। तभी तो जो सोच कर निर्णय लिया था वो इसलिए लिया था कि बाद में ऐसा कोई पछतावा न हो, मगर मन का क्या है वो तो कभी पूर्णरूप से संतुष्ट होता ही नहीं, ना कभी हुआ है, और ना ही कभी होगा। इसे ही तो कहते है न मन का स्वार्थी होना J
अब मैं आप को एक और मनोदशा से अवगत करती हूँ। वो है (करेंसी) अर्थात मुद्रा को लेकर उत्पन्न होने वाली मनोदशा आप को शायद पता हो, जब कोई भी इंसान नया-नया इंडिया से यहाँ आता है मतलब केवल यहीं नहीं बल्कि इंडिया से बाहर कभी भी, कहीं भी जाता है, तो उस देश में पैसे को लेकर उसकी मनोदशा क्या होती है। जब भी वो कुछ खरीदने की द्रष्टी से बाजार जाता है, तो पूरे समय उसका दिमाग इस ही उधेड़ बुन में लगा रहता है कि यदि यह चीज यहाँ (1) एक पाउंड की है, तो इंडियन रुपयों के हिसाब से कितने की हुई। फिर चाहे वो चीज उसके लिए कितनी भी साधारण या कितनी भी महत्वपूर्ण क्यूँ न हो, हर छोटी बड़ी चीज में उसका मन इस ही बात को लेकर उलझा रहता है। यहाँ तक की जब कोई और अपनी खरीदी हुई किसी चीज के बारे में बात करें  या बताएं, तब भी सामने वाले का दिमाग तुरंत उस चीज के मूल्य को भारतीय रुपयों में बदल कर देखना शुरू कर देता है।
खैर जो लोग यहाँ नए-नए आयें है, उनका ऐसा करना तो समझ में आता है। हम भी किया करते थे, जब हम यहाँ नए-नए आये थे। मगर अब इतने साल गुजर जाने के बाद अब हमको ऐसा कुछ नहीं लगता जो सामान जितने का है, उसे  हम यहां की (करेंसी) अर्थात मुद्रा  के हिसाब से ही देखते है और लेते है। मगर आश्चर्य तो तब होता है, जब हम उन लोगों को देखते है, जो हम से भी पहले से यहाँ रह रहें हैं, वो लोग आज भी इस उधेड़बुन से नहीं निकल पाये हैं। बल्कि अगर मैं अपनी बात करूँ और सच कहूँ तो मेरे साथ तो अब उल्टा ही हो गया है। अब जब मैं इंडिया आकर कुछ ख़रीदती हूँ तो अब उस चीज के मूल्य को मैं पाउंड की नज़र से देखने लगी हूँ J यह भी तो एक प्रकार की मनोदशा ही है। है ना J
अंतत बस इतना ही कि आज शायद मैं अपने इन अनुभवों से आप सभी को मनोदशा अर्थात मन की दशा का अर्थ समझा पाई हूँ या शायद नहीं भी, मगर मेरे हिसाब से और मेरे विचार से मन की  दशा पर आज तक न कोई काबू कर पाया है और न ही कभी कर पाएगा जिस दिन जिस किसी ने भी मन की इस परिस्थिति पर काबू पा लिया उस दिन वो इंसान, इंसान रह कर भगवान बन जाएगा। क्यूंकि इंसान तो भावनाओं से मिलकर बना है और यह भावनाएं ही हैं जो इंसान को जानवर से अलग करती हैं। तो जहां भावनायेँ होगी वहाँ स्वार्थ भी होगा और जहां स्वार्थ होगा वहाँ कभी मन पर काबू किया ही नहीं जा सकेगा। ऐसा मेरा मत है। जय हिन्द....                     

Monday, 11 July 2011

प्यार, इश्क और मुहब्बत

 प्यार का नाम आये अथवा प्यार के बारे में कुछ कहना हो और कोई शायरी न लिखी जाये तो सब कुछ अधूरा -अधूरा सा लगता है इस लिए एक शेर तो बनता ही है। अर्ज़ किया है 

"एक पल गमों का दरिया , एक पल खुशी का दरिया,
रुकता नहीं कहीं भी, यह जिंदगी का दरिया,
आँखें थीं वो किसी की या ख़्वाब की जंजीरे,
आवाज़ थी किसी की या रागिनी का दरिया,
इस दिल की वादियों में अब ख़ाक उड़ रही है,
बहता यही था पहले एक आशिक़ी का दरिया,
किरणों में है यह लहरें, यह लहरों में हैं किरणे,
दरिया की चाँदनी है, यह चाँदनी का दरिया।"

 प्यार, इश्क और मुहब्बत खुदा या ईश्वर की वो देन है जिससे कोई भी इंसान कभी अछूता नहीं रह पाया है और ना ही कभी रह पायेगा। मेरे हिसाब से तो प्यार वो पारस है, जिसके छू जाने मात्र से हर इंसान का दिल सोने जैसा हो जाता है।  कभी कहीं किसी फिल्म के संवाद में सुना था कि जिंदगी में एक बार प्यार सभी को जरूर करना चाहिए, प्यार इंसान को बहुत अच्छा बना देता है वैसे देखा जाये तो ठीक ही तो है। जिंदगी को सही मायने में कोई भी इंसान शायद तभी ठीक से समझ पाता है जब उसे जिंदगी में प्यार हो जाता है। हाँ यह बात अलग है कि कोई डंके की चोट पर प्यार करता है तो कोई छुप–छुप के प्यार करता है मगर प्यार करते सभी हैं। ठीक ऐसे ही किसी को शादी के पहले प्यार हो जाता है तो किसी को शादी के बाद मगर प्यार के बिना कोई रह नहीं सका है आज तक और ना ही कभी रह सकेगा। कहते हैं प्यार हमेशा उससे करना चाहिए जो आप से प्यार करे न कि उससे जिससे आप प्यार करते हों" मगर सवाल यह है कि क्या वास्तव में ऐसा हो पता है ?
खैर यह सब अपने-अपने अनुभव और सोच की बातें है कि कोई इस विषय में क्या सोचता है। मैंने जो भी सोचा, हमेशा की तरह आप के साथ बाँटना पसंद किया क्या आप सभी इन बातों से सहमत है। यदि हाँ तो फिर क्यूँ अधिकतर घरेलू पत्रिकाओं में हुए सर्वे में यह लिखा जाता है, कि आम शादी की तुलना में प्रेम विवाह को अधिक असफल बताया जाता है। मेरे समक्ष भी कई सारे ऐसे लोग हैं, जिन्होंने प्रेम विवाह किया है और आज उनका रिश्ता तलाक के मोड पर खड़ा है। आखिर क्या वजह है कि ऐसा होता है। जबकि मेरा मानना तो यह है कि प्रेम विवाह के अंतर्गत तो आप का जीवन साथी जितनी अच्छी तरह से आप को समझ सकता है, उतनी अच्छी तरह से तो पूरी दुनिया में शायद ही कोई समझ सकता हो, कि आप किस विषय में क्या सोचते हो, कैसा महसूस करते हो आपकी पसंद नापसंद, आप का स्वभाव, आपकी भावनाओं को जितने अच्छे से आपका जीवन साथी समझ सकता है, दूसरा और कोई नहीं समझ सकता।
इस सब के बावजूद भी शादी के बाद अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि शादी के पहले “मुहब्बत बड़े काम की चीज़ है गाना गाने वाले प्रेमी अचानक ही शादी के कुछ दिन बाद यह गाने लगते हैं कि किताबों में छापते है, चाहत के किस्से, हकीकत की दुनिया में चाहत नहीं है, जमाने के बाजार में यह वो शय है, कि जिस को किसी की जरूरत नहीं है, ये बेकार बेदाम की चीज है, यह बस नाम ही नाम की चीज़ है अर्थात कहने का मतलब यह है कि उनको ऐसा क्यूँ लगने लगता है, कि अब पहले जैसा प्यार नहीं रहा,  कम हो गया है और आपसी समझ तो जैसे धीरे-धीरे खत्म सी होती हुई नजर आने लगती है। हालांकि कोई भी बात बेवजह नहीं होती, हर बात के पीछे कोई न कोई कारण जरूर होता है। लेकिन ज्यादातर प्रेम विवाह में ही यह देखा गया है कि इन्ही छोटी-छोटी बातों को लेकर आपसी तनाव बढ़ता चला जाता है, और बात बिगड़ते-बिगड़ते तलाक तक आ पहुँचती है। कहाँ गुम हो जाता है वो आपसी प्यार और विश्वास जिसके बल बूते पर प्रेमी दो से एक होने को व्याकुल रहा करते है। जबकि आम शादी में ऐसा नहीं होता, उस में तो दो लोग जब आपस में मिलते हैं, तो एक दूसरे से पूरी तरह अंजान होते है, फिर शादी के बाद जब एक साथ रहना शुरू करते है, तब उस समय धीरे–धीरे पता चलना शुरू होती है, एक दूसरे की पसंद  नापसंद, फिर कुछ और महीने बीत जाने के बाद पता चलता है, सोच और स्वभाव का और फिर कुछ सालों में जाकर यह एहसास हो पता है कि अब आप अपने जीवन साथी को ठीक तरह से समझ गए है। मगर कभी-कभी तो ऐसा भी होता है किसी बात को लेकर ऐसा लगता है कि किसी को समझने के लिए कभी तो कुछ वक्त ही काफी है और कभी ऐसा लगता है, कि एक जिंदगी भी कम है। J आप सभी को क्या लगता है।J
खैर जो भी हो बुरा तो तब बहुत लगता है, जब दो प्यार करने वाले लोग एक दूसरे से जुदा हो रहे होते हैं। अगर उनका विवाह सर्वसम्मति से होता है, तब तो फिर भी ठीक है और कुछ नहीं तो कम से कम जीवन के इस मोड पर उनके साथ उनके माता–पिता का सहयोग तो होता है। किन्तु जब उनकी शादी बिना माता-पिता की इजाज़त के हुई होती है और फिर यदि उन के जीवन में ऐसा मोड आता है तब तो उनके पास अपने माँ-बाप का सहयोग भी नहीं होता। जब कभी मैं इस विषय में सोचती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है प्यार करने वालों के साथ ही ऐसा क्यूँ होता है जबकि
"प्यार आत्मा की परछाई है ,
इश्क ईश्वर की इबादत ,
और मुहब्बत जिंदगी का मकसद
इस का मतलब यह नहीं है कि आम शादीयों में ऐसा नहीं होता, तलाक तो आज कल आम शादियों  में होना भी बहुत आम हो गया है। मगर प्रेम विवाह की तुलना में थोड़ा कम देखने को मिलता है।
अंतत बस इतना ही कहना चाहूँगी कि प्यार जीवन की सब से बड़ी पूंजी है। प्यार नाम है विश्वास का, जो आप के सम्बन्धों को और भी मजबूत बनाता है। इसलिए चाहे जो हो जाये इस प्यार नाम की चिड़िया को हमेशा अपने पास सँजो कर रखीये क्योंकि प्यार ही हर रिश्ते की बुनियाद होता है। यह एक ऐसी दौलत है, जिसे आप जितना ज्यादा से ज्यादा खर्च करेंगे यह दौलत उतनी ही बढ़ेगी जय हिन्द....                         

Thursday, 7 July 2011

खूबसूरती

एक ऐसा शब्द जिसके कई मायने हैं, हर एक नजर का एक अलग ही नजरिया है इस शब्द को देखने का, समझने का और शायद समझा ने का भी, खूबसूरती जो प्रकृति के कण-कण में विद्यमान है। अपने आप में सेंकड़ों रहस्यों को छुपा हुए है प्रकृति, मगर फिर भी उस से ज्यादा खूबसूरती का पैमाना और कोई नहीं है। पर्वत, नदियाँ, समंदर, नीला फैला आकाश, हरियाली, बारिश का मौसम, बरफीली वादियाँ, झरने यह सभी प्रकृति कि खूबसूरती के कुछ अंश है। मगर जब भी कभी खूबसूरती का जिक्र हो और नारी सौंदर्य कि बात न हो तो खूबसूरती के मायने अधूरे से लगते है और इस लिए शायद रूमानी मौसम को देख कर शायरों का मिज़ाज भी शायराना हो जया करता है। क्यूँ ना हो यह भी तो एक बेहतर तरीका है अंदाज़ ए बयान खूबसूरती का, खूबसूरती होगी तो वहाँ शायर की शायरी भी होगी, और शायरी में वज़न तभी आयेगा जब मुहब्बत होगी और इसी बात पर मुझे (मोहम्मद रफ़ी) जी का एक बहुत मशहूर और बेहद खूबसूरत गीत याद आ रहा है। 


ये रेशमी ज़ुल्फ़ें ये शरबती आँखें
इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी
जो ये आँखें शरम से झुक जाएगी, सारी बातें यही बस रुक जाएगी
चुप रेहना ये अफसाना कोई इन्हें न बतलाना
की इन्हें देख कर पी रहे हैं सभी
ये रेशमी ज़ुल्फ़ें ये शरबती आँखें
 इन्हें देख कर जी रहें हैं सभी

 खैर हम बात कर रहे थे खूबसूरती कि खूबसूरती क्या है, मन कि खूबसूरती या तन कि खूबसूरती? स्वाभाविक है मन कि खूबसूरती जो तन कि खूबसूरती से कहीं ज्यादा खूबसूरत और अहम होती है, लेकिन जितना एक इंसान के लिए उसके मन का खूबसूरत होना जरूरी है उतना ही तन कि खूबसूरती भी मायने रखती है, हाँ यह बात अलग है कि मन को आप खुद अपने कर्मों से स्वभाव से, अपनी सोच से खूबसूरत बनना सकता है और तन तो भगवान कि देन है। मगर आज कल तो इतने सौंदर्य प्रसादन बाजार में आ गये हैं कि आप अपने मन के साथ-साथ तन को भी उतना ही खूबसूरत बना सकते हो,  मगर वो खूबसूरती बनावटी होगी, कहते है यदि आप का मन सुंदर है तो तन अपने आप ही सुंदर हो जाता है मगर क्या वो नज़र हर किसी के पास होती है जो मन की खूबसूरती को तन के साथ जोड़ कर देख सके भले ही हम मन की खूबसूरती को कितना भी महत्व क्यूँ न दें, मगर मन की खूबसूरती से पहले हमारे सामने तन की खूबसूरती ही आती है और शायद इस दुनिया में हर कोई खूबसूरत से खूबसूरत लगना चाहता है। क्यूँकि अगर ऐसा ना होता तो शायद  हमारी फिल्म इंडस्ट्री कब की बंद हो गई होती J और फिर शायद  कभी कोई लड़का किसी लड़की से प्यार के इज़हार मे यह नहीं कह पाता कि
किस का चहरा अब में देखूँ तेरा चहरा देख कर, मेरी आँखों ने चुना है तुझ को दुनिया देख कर
लेकिन प्यार भी क्या चीज है, जिस के हो जाने के बाद हर किसी को अपना जीवन साथी अपने आप ही दुनिया का सब से खूबसूरत साथी लगने लगता है। ऐसे न जाने कितने लोग होंगे दुनिया मे जिनका जीवन साथी उनके मुताबिक उतना खूबसूरत ना हो जितना की उन्होने कभी कल्पना की होगी मगर समय के साथ-साथ वही जीवन साथी इतना प्यारा लगने लगता है कि उस से ज्यादा अच्छा और कोई उनके लिए हो ही नहीं सकता था और आश्चर्य कि बात तो यह है, या यूं कहिए कि मुझे लगती है कि प्यार में अकसर जिन लोगों का प्रेम विवाह हुआ है उन मैं से अकसर एक व्यक्ति दूसरे की तुलना में थोड़ा कम ही खूबसूरत मिलता है और काई जोड़े तो ऐसे होते हैं जिन्हें देख कर,  गौर कीजिये मैंने लिखा है जिन्हें देख कर, सिर्फ देखने की बात करो तो आमतौर पर हम चलते फिरते कभी किसी से मिलते हैं या किसी के द्वारा कभी हमको किसी के बारे में पता चलता है, खास कर शादी ब्याह जैसी माहौल में तब ऐसा लगता है कि क्या देखा इन्होंने एक दूसरे में ऐसा जो इन में प्यार हो गया। क्योंकि उस वक्त हमको उनकी असल कहानी का तो पता होता नहीं है इसलिए उस वक्त सब से पहले हमारी नज़र उनकी शक्ल और सूरत पर ही जाती है।
अर्थात कहने का मतलब यह है कि साधारण रूप से कोई भी इंसान दूसरे को पहले यदि उसके काम को छोड़ कर अँकता है तो उसकी शक्ल और सूरत से ही अंदाजा लगाता है कई बार हम किसी की खूबसूरती से इतना प्रभावित होते हैं की बिना यह जाने की वो इंसान वास्तव मे अंदर से कैसा है हम चाहते है कि हम उस के करीबी बन कर रहे और कई बार जो इंसान शक्ल सुरता से देखने में बहुत बुरा लगता हो मगर अंदर से वो इंसान सोने की तरह ही क्यूँ न हो हमको उसके करीब जाने में या रहने में थोड़ी असुविधा सी महसूस होती है। यह बात बहुत ही जनरल तौर पर कह रही हूँ में इन बातों से मेरा अभिप्राय किसी को दुःख पहुंचाना नहीं है।लकीन यदि फिर भी जाने अंजाने मेरे बातों से किसी को ठेस पहुंची हो तो उस के लिए मे क्षमा प्रार्थी हूँ।  
अंतत बस इतना ही कहना चाहती हूँ कि खूबसूरती तो केवल खूबसूरती होती है चाहे मन की हो या तन कि दोनों ही अपनी-अपनी जगह बहुत मायने रखती है और एक बिना दूसरी अधूरी सी लगती है। इसलिए अपने तन के साथ-साथ अपने मन को भी उतना ही खूबसूरत बनाने का प्रयत्न कीजिये जितना की तन को खूबसूरत बनाने में किया करते है J

Tuesday, 5 July 2011

हिन्दी की दशा और दिशा

आज अपने इस लेख को शुरू करने से पहले में यह कहना चाहती हूँ कि भाषा चाहे कोई भी हो अपने आप में इतनी महान होती है कि कोई चाह कर भी उसका मज़ाक  नहीं बना सकता और इसलिए मुझे उम्मीद है कोई भी मेरे इस लेख को अपनी आत्मीय भावनाओं से नहीं जोड़ेगा। क्योंकि किसी भी भाषा का मजाक बनाना मेरा उदेश्य नहीं है।

अब बात करते हैं हिन्दी की दशा कि तो मुझे नहीं लगता कि हिन्दी की दशा कुछ खास अच्छी है। हाँ यह बात जरूर है कि कुछ न समझ लोग हिन्दी में लिखने वाले लोगों को, या चार लोगों के बीच में हिन्दी बोलने वाले व्यक्ति को इस प्रकार से देखते हैं, कि बोलने वाले व्यक्ति को खुद में शर्म महसूस होने लगती जो कि बहुत ही बुरी बात है। ठीक इस ही तरह मुझे यह बात भी बहुत बुरी लगती है कि हिंदुस्तानी ही हिंदुस्तान में रहकर हिन्दी भाषा का सम्मान नहीं करते,  जो कि उनको करना चाहिए और केवल हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि बहार आकार भी एक दूसरे को इस मामले में नीचा दिखाने से नहीं चूकते। इस से ज्यादा और शरम नाक बात क्या हो सकती है।
आज भी जब यहाँ में यह देखती हूँ की जहाँ कहीं भी चार हिंदुस्तानी आपस में खड़े होकर बात कर रहे होते हैं, तो वो भी अँग्रेज़ी में ही बात करते दिखाई एवं सुनाई पढ़ते है। या फिर यदि वह सभी एक ही प्रांत के हों तो अपनी मात्र भाषा में बात करते मिलते हैं। यहाँ मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि यदि वह लोग स्वयं अपनी मात्र भाषा में बात करते हैं तो कुछ गलत करते हैं क्योंकि अपनी भाषा में बात करना तो सभी को अच्छा लगता है और लगना भी चाहिए, लेकिन मुझे समस्या इस बात से नहीं होती की वह लोग अपनी भाषा में बात क्यूँ कर रहे हैं, बल्कि इस बात से होती है कि जब वह लोग ऐसा कर रहे होते हैं तो वह यह भी भूल जाते हैं कि अगर उनके बीच कुछ ऐसा भारतीय लोग खड़े है, जो उनकी मात्र भाषा से अंजान है और उनकी भाषा को समझ नहीं सकते तब तो कम से कम उन्हे हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए,  मगर अफसोस की ऐसा कभी नहीं होता फिर चाहे भारत वर्ष हो या UK और जब कभी ऐसा होता है तो मुझे बहुत बुरा लगता है।
खास कर इन अँग्रेज़ों के देश में लोग पता नहीं क्यूँ हमेशा यह बात भूल जाते हैं,  कि सब से पहले हम भारतीय हैं, और उसके बाद उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम की बात आती है, मगर यहाँ आकार तो हर हिन्दुस्तानी अपने आप को पूर्णरूप से अँग्रेज़ बनाने कि होड़ में शामिल हो जाता है। उन ही कि तरह का खान-पान, बोल चाल सब और यदि उनके बीच आप ने हिन्दी बोलना आरंभ किया तो आप को ऐसा महसूस करा दिया जायेगा जैसे आप ने उनके सामने हिन्दी बोल कर कोई महापाप कर दीया हो और आप उनके बीच में खड़े होने लायक या बैठने लायक भी नहीं हो, अब आप ही बताएं किसी भी सच्चे हिन्दुस्तानी के लिए इस से ज्यादा शरम की बात और क्या हो सकती है।
खैर अब बात आती है दिशा कि तो उसे लेकर कम से कम मुझे इस बात कि तसल्ली है कि अपने हिन्दी ब्लॉग जगत में हिन्दी बोलने वालों कि हिन्दी में लिखने वालों कि कोई कमी नहीं है। मैं स्वयं एक हिंदुस्तानी हूँ और मेरे लिए हिन्दी का क्या और कितना महत्व है यह में कभी शब्दों में बयान नहीं कर सकती। आप को शायद पता हो कि मैंने खुद अँग्रेज़ी साहित्य में M.A  किया है। लेकिन उस के बावजूद भी मैंने अपना ब्लॉग लिखने के लिए हिन्दी भाषा को ही चुना क्यूँ ? क्योंकि मेरा ऐसा मानना है, कि हिन्दी भाषा में जो अपना पन है, जो गहराई है, जो सरलता है, वो शायद ही किसी और भाषा में हो।
मेरे विचार से ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि आज कल हमारे देश में हर चीज़ को standard कि द्रष्टी से देखा जाता है, जिस प्रकार यदि पड़ोसी के घर में कार हो और यदि हमारे यहाँ ना हो तो लगने लगता है कि उनका रुतबा हम से ज्यादा बढ़ गया है, हम से यहाँ मेरा तात्पर्य एक आम हिंदुस्तानी से है, और हम खुद को उन पड़ोसियों से कम समझ ने लगते हैं और वैसे भी हम हिंदुस्तानियों को खुद से पहले हमेशा से ही समाज कि फिक्र ज्यादा रहा करती है कि लोग क्या कहेंगे और हर बार हम यही भूल जाते है कि लोग का काम है कहना। कुछ अच्छा होगा तो भी लोग कहेंगे और कुछ बुरा होगा तो भी लोगों को तो कहना ही है,

ऐसा ही कुछ हिन्दी भाषा के साथ भी हो रहा है। आज कल कि तेज़ रफ्तार जिंदगी में हर कोई अपने आप को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने कि होड़ में लगा हुआ है बच्चों कि पढ़ाई में प्रतियोगिता इस क़दर बढ़ गई है कि योगिता जाये भाड़ में उसे कोई नहीं देखता बस देखा जाता है तो केवल नंबर और यह कि अँग्रेज़ी केसी है बोलना आता है या नहीं क्योंकि जिसे अँग्रेज़ी बोलना नहीं आता वो आज कि तारीक में सब से असफल और निम्न वक्ती समझा जाता है। उसे लोग दया की नजर से देखते हैं की हाय बेचारे को अँग्रेज़ी नहीं आती। यदि उस वक्ती को खुद में इस बात के कारण की उसे अँग्रेज़ी नहीं आती शर्म ना भी महसूस हो रही हो, तो भी लोग महसूस करवा कर ही छोड़ ते है। की देखो तुम को अँग्रेज़ी नहीं आती कितने शरम की बात है तुमने यहाँ आने के बारे में ऐसा सोचा भी कैसे कई बार तो यह भी देखने को मिलता है, कि जिस वक्ती को अँग्रेज़ी नहीं आती और यदि वो ऐसे लोगों के बीच में खड़ा हो जाए जहां बाकी सब को अँग्रेज़ी बोलना आती हो तो अन्य लोगों को खुद में असुविधा महसूस होने लगती है की वो इंसान उन के बीच में क्या कर रहा है। जिसे अँग्रेज़ी नहीं आती उस के कारण वो लोग खुद को शर्मसार सा महसूस करना शुरू कर देते है। क्योंकि जिस तरह गाड़ी ,बँगला एक से एक अन्य महँगी चीज इस्तेमाल करना एक तरह का fashion बना हुआ है जिस के चलते लोग अपने living standard  को दूसरों से उचा दिखाने के प्रयास में लगे रहते हैं वैसे ही English बोलना भी इस ही fashionable दुनिया का एक बहुत ही जरूरी और महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है।


माना की आज की तारीक में अँग्रेज़ी आना बहुत जरूर है। उस के बिना काम भी नहीं चल सकता है और कोई भी भाषा को सीखना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन उस भाषा पर पूरी तरह निर्भर हो जाना बहुत गलत बात है। उसे अपने निजी जीवन में इस हद तक उतार लेना की अपने ही प्रियजनों के बीच खुद को उन से अलग होने का या ऊपर होने का दिखावा करना सही बात नहीं है। क्योंकि हर बात जब तक सीमित हो तब तक ही अच्छी लगती है, किसी ने ठीक ही कहा है अति हर चीज की बुरी होती है फिर चाहे वो प्यार जैसे अमूल्य चीज ही क्यूँ ना  हो, तो यह तो फिर भी भाषा है।
किन्तु ठीक इस ही तरह यह बात भी उतनी ही सच्च है कि अँग्रेज़ी भाषा की तुलना में हिन्दी सीखना ज्यादा कठिन है। और इस का प्रमाण मेरे सामने मेरा बेटा है। जिसको मैं हिन्दी सिखाने की बहुत कोशिश करती हूँ, किन्तु अब तक नाकाम हूँ। चूँकि उस कि शिक्षा यही से आरंभ हुई है इसलिए उसने यह कभी जाना ही नहीं कि हिन्दी लिखते कैसे है। बोलना तो वह जानता है, क्यूँकि घर में हम हमेशा उस से हिन्दी में ही बात करते है। लेकिन जब में उसे हिन्दी कि वर्णमाला सिखाने कि कोशिश करती हूँ, तो हमेशा मुझे यही उत्तर मिलता है कि माँ यह भाषा बहुत कठिन है। मेरे लिए English ही ठीक है। अँग्रेज़ी भाषा में पता नहीं क्यूँ मुझे सब बनावटी सा लगता है। हो सकता है कि यह मेरी ही कमजोरी हो मगर जो भी है, मुझे हिन्दी की तुलना में अँग्रेज़ी बहुत ही तुच्छ लगती है। हाँ वो बात अलग है, कि मैं खुद ऐसी जगह हूँ जहां बिना अँग्रेज़ी के कोई काम नहीं हो सकता है। लेकिन फिर भी मेरी कोशिश हमेशा यही रहती है, कि में ज्यादा से ज्यादा हिन्दी भाषा का ही प्रयोग कर सकूँ।
यहाँ तक की मैं तो सामने वाले से एक बार तो पुच्छ ही लेती हूँ, यदि वह अँग्रेज़ ना हुआ तो कि क्या आप हिन्दी जानते है, और यदि वह बोल दे हाँ,  तो फिर तो में हिन्दी में ही बात करना पसंद करती हूँ। जबर्दस्ती English आने का दिखावा नहीं करती हूँ।   
वो कहते है न जब अपना सिक्का ही खोटा हो तो दूसरे के बारे में क्या बोलों बस ऐसा ही कुछ हाल है, हमारी हिन्दी भाषा का भी मेरी मम्मी अकसर कहा करती है की बेटा "अपना सम्मान  हमेशा अपने हाथ में ही होता है " अर्थात जब आप किसी को प्यार और सम्मान देंगे तभी आप को भी वही प्यार और सम्मान मिलेगा, मगर अफसोस की हमारी हिन्दी भाषा के साथ ऐसा नहीं है, उसे तो खुद हिन्दुस्तानी ही सम्मान नहीं दे पाते तो,  दूसरे देश के लोग कहाँ से देंगे।
अन्ततः बस इतना ही कि मैं सभी हिंदुस्तानियों से विनम्र निवेदन करती हूँ कि कृपया आप जहां तक हो सके अपनी मात्र भाषा का ही प्रयोग करें फिर चाहे आप देश के किसी भी कोने में क्यूँ ना रह रहे हों यह कभी मत भूलो कि आप कुछ भी होने से पहले एक भारतीय है और एक भारतीय होने के नाते आपकी सब से पहली मात्र भाषा हिन्दी है क्योंकि,
"मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,हिंदी हैं हम वतन है हिन्दुस्तान हमारा" और उस के बाद किसी और प्रांत के जय हिन्द...... 

Monday, 4 July 2011

क्या हाउस वाइफ़ का कोई अस्तित्व नहीं

आज मैंने वन्दना जी का ब्लॉग पढ़ा और ब्लॉग पढ़ते ही ऐसा लगा, इस विषय पर कहने को तो मेरे पास भी बहुत कुछ है। इतना कुछ कि यह मुद्दा अच्छी ख़ासी चर्चा का विषय बन सकता है।   उनके ब्लॉग का नाम था क्या हाउस वाइफ़ का कोई अस्तित्व नहींऔर इसलिए मैंने अपने ब्लॉग का नाम भी यही रखा है। 
मैं भी इस विषय पर कुछ रोशनी डालना चाहती हूँ। आज हमारे देश में महिलायें भी पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही है, जो हमारे लिए बहुत ही गर्व कि बात है और क्यूँ ना हो थोड़ा ही सही मगर आज की तारीख में कहीं तो नारी को अपना हक मिला है। जागरूकता मिली है। माना कि आज की महँगाई के जमाने में स्त्री और पुरुष  दोनों का ही काम करना बहुत जरूर है। किसी एक के नौकरी में होने पर घर का खर्च चलाना थोड़ा मुश्किल हो गया है। लेकिन यह बात जितनी सच है, उतनी ही सच यह भी है, कि एक स्वस्थ समाज के लिए जितना एक पढ़ी लिखी एवं काम काजी महिला का होना मायने रखता है, उतना ही महत्वपूर्ण एक ग्रहणी की भूमिका भी है, जिस तरह स्त्री और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू है और एक बिना दूसरा अधूरा है। ठीक उसी तरह एक काम काजी महिला और एक कुशल ग्रहणी भी एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह ही हैं। एक के बिना दूसरी अधूरी ही है और हमेशा ही रहेगी।
मगर पता नहीं क्यूँ लोग यह भूल जाते है,  कि एक मात्र नारी ही आप के परिवार का वो हिस्सा है, जो चाहे तो आप के घर को स्वर्ग बना सकती है, और जो चाहे तो नरक भी बनना सकती है।  इसलिए जितना महत्व हम एक नौकरी पेशा महिला को देते हैं, उतना ही सम्मान हमको एक ग्रहणी को भी देना चाहिए जो हम अकसर नहीं दे पाते, खैर यह बात यदि कोई पुरुष कह तो उस में कोई अचंभे की बात नहीं लगती। लेकिन अफसोस तो तब होता है, जब एक नारी ही दूसरी नारी के प्रति यह भावना रखती है कि वह स्वयं काम कर रही है, तो दूसरी घर बैठी ग्रहणी उस के आगे कुछ भी नहीं यह बात मैं इसलिए बोल रही हूँ क्यूंकि यह मेरा खुद का अनुभव है। अच्छी ख़ासी पढ़ी लिखी औरतें मुझ से कई बार पूछती हैं, कि आप सारा दिन घर में बैठे-बैठे बोरे नहीं होते हो। करते क्या हो आप लोग, घर में खाना बनाने और घर के रोज के छोटे मोटे कामों के अलावा और काम ही क्या होता है करने के लिए, हमें तो अगर घर में रहना पड़े तो हमें तो बुखार हो जाता है। आप को नहीं लगता आप की शिक्षा व्यर्थ हो रही है। आप के माता-पिता ने आप को इतना पढ़ाया लिखाया, क्या घर में बैठ कर चूल्हा चौका करने के लिए, अब आप ही बताएं कि घर पर रहने वाले लोगों की शिक्षा क्या व्यर्थ होती है।  क्या शिक्षा के मायने केवल नौकरी करना ही होता है। अगर ऐसा ही है तो फिर आज भी हर माँ अपनी बेटी को एक कुशल ग्रहणी होने के गुण क्यूँ सिखाती है। मुझे आज भी याद है मेरी मम्मी कहा करती है ,कि जमाना चाहे कितना भी क्यूँ न बादल जाए मगर एक औरत के लिए कभी नहीं बदलता औरत चाहे (आई.एस) अफसर ही क्यूँ न हो मगर उस के लिए घर का काम आना भी उतना ही जरूर ही है जितना की उसकी नौकरी। आज भी किसी लड़की की शादी का विज्ञापन जब उसकी शादी के लिए पेपर में जब भी दिया जाता है, तो उस के साथ गृह-कार्य में दक्ष जरूर लिखा जाता है।
कहते है बच्चे का पहला स्कूल उस के लिए उसकी माँ ही होती है। सच ही कहते है, मगर इस के लिए औरत का नौकरी करना जरूरी नहीं क्यूँकि माँ बनने वाली औरत फिर चाहे वो नौकरी करती हो या एक साधारण सी ग्रहणी हो संस्कार हमेशा अच्छे ही देगी और हम दूर क्यूँ जाएं हमारी अपनी माँ ने कभी कोई नौकरी नहीं कि मगर हमें वो शिक्षा दी है, जिसके बल पर आज हम अपने आपको किसी से कम नहीं समझते और अपनी जिंदगी के फ़ैसले खुद कर सकते हैं, यह बात क्या कुछ कम है। मेरी मम्मी एक कुशल ग्रहणी है , मैं भी हूँ  कुशल हूँ या नहीं वो तो मुझे खुद भी पता नहीं किन्तु मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं कि मैं भी अपनी मम्मी कि तरह एक ग्रहणी ही हूँ और मुझे इस बात पर गर्व है।
मगर इस बात का या इस लेख को लिखने का मेरा मत यह नहीं है की मुझे नौकरी करने वाली महिलों से कोई आपत्ति है, ना बिलकुल नहीं, मुझे आपत्ति है तो सिर्फ उनकी इस सोच से जो उन्हें लगता है कि घर में रहने वाली ग्रहणी का कोई अस्तित्व नहीं है, उसकी शिक्षा बेकार है इत्यादि। क्योंकि अगर ऐसा होता तो शायद दुनिया का हर घर आज की तारीक में बर्बाद होता और शायद फिर कभी कोई मर्द यह बात गर्व से नहीं कह पता कि उसकी सफलता के पीछे उसकी घर की ही किसी स्त्री का हाथ है।
अगर ग्रहणियाँ न होती तो शायद ही संयुक्त परिवार भी कभी ना होते और आज यदि देखा जाए तो काफी हद तक संयुक्त परिवार ना होने का एक कारण कहीं ना कहीं बाहर जाकर काम करने वाली महिलायें भी है, क्योंकि मेरा ऐसा मानना है ,घर के बुजुर्ग पुराने पेड़ की तरह होते है, जो आसानी से बदलाव को ले नहीं पाते या यूं कहना ज्यादा ठीक होगा कि समय के साथ बदल पाना उनके बस की बात नहीं होती। ऐसे में जब उन के द्वारा तुलना किये जाने पर यह नजर आता है कि घर की औरत ही घर की जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभा नहीं पा रही है, तो उनसे रहा नहीं जाता और घरों में रोज का कलह होता है। जिसके कारण घर का मर्द तंग आकार अलग होने का निर्णय लेता है और परिवार टूट कर बिखर जाता है। क्योंकि अकसर देखा गया है कि नौकरी पेशा महिला के सामने कई बार ऐसी परिस्थियाँ उत्पन्न हो जाती है जिस के कारण वो चाह कर भी समझौता नहीं कर पांती और कभी-कभी परिवार वाले नहीं कर पाते और नतीजा घर का अलग हो जाना।
 मगर सभी लोग एक से नहीं होते कुछ ऐसी भी महिलायें हैं, जो बड़ी ही कुशलता से अपने घर और नौकरी दोनों ही ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभा रही है। यहाँ मुझे एक बात और दिमाग में आ रही है, कहते हैं सभी रीति-रिवाज, नियम-कानून, हमारी बुज़ुर्गों ने बनाए है ,तो इस बात का ताल्लुक भी कहीं न कहीं उनके बनाये किसी न किसी कानून से जरूर होगा, कुछ तो सोचा होगा उन्होने भी इस विषय पर की औरत घर संभालेगी और मर्द माई कर के लायेगा और इसी बात पर आधारित एक कार्यक्रम Star plus वालों ने भी दिखाया था यदि आप को याद हो तो जिसका नाम था लाइफ बिना वाइफ़ जिस को सब से ज्यादा महिलाओं ने पसंद किया था, और जिसके ज़रिये घर के मर्दों को इस बात का अच्छा खासा पता चला था कि बिना wife के life होना कितना कठिन है। ठीक यही बात कुछ हद तक काम करने वाली महिलाओं पर भी लागू होती है क्योंकि कुछ हद तक तो औरतों में भी वह अहम आ ही जाता है जो अकसर भारतीय मर्दों को होता है, जैसे हमारी कमाई, हमारे अधिकार, हमारा कैरीयर, हमारी शिक्षा यह सब बातें "हम" में ना रह कर मैं में बदल जाती है और फिर बात तलाक तक पहुँच जाती है और ऐसे कई सारे उदाहरण हैं मेरे सामने। मगर मैं यहाँ उनका वर्णन नहीं करना चाहती और फिर घमंड तो राजा रावण का नहीं रहा तो यह तो केवल इंसान हैं।
अंतत बस इतना ही कहना चाहूँगी कि कोई किसी से कम नहीं है। न औरत मर्द से और ना ही कोई ग्रहणी किसी नौकरी पेशा महिला से, सभी की अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण भूमिका है। जिसके चलते सभी एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसलिए कभी सामने वाले व्यक्ति को अपने आप से कम मत समझे। जय हिन्द .....