आज सुबह से ही मन परेशान है। यूं तो आजकल चल रहे उत्तराखंड विनाश के चलते पहले ही मन दुखी था। मगर आज जो कुछ सुना उस से ऐसा लगा जैसे इस संसार में इंसान की ज़िंदगी में हजारों तरह के कष्ट और पीड़ायें है। जी हाँ, सिर्फ पीड़ायें। कुछ को शारीरिक, तो कुछ को मानसिक मगर किसी के भी पास उन पीड़ाओं से मुक्ति पाने का कोई मार्ग नहीं है। जैसे उनकी समस्याओं का कोई समाधान ही नहीं है। ज़िंदगी बिलकुल उस ऊन के गोले की तरह उलझ कर रह गयी है, मानो उसका कोई सिरा ही नहीं है। ना जाने कहाँ जा रहे हैं हम और क्या चाहते हैं हम, शायद यह हमें स्वयं ही ज्ञात नहीं है।
आज बहुत दिनों बाद अपनी एक करीबी, बल्कि यूं कहूँ कि बहुत ही खास सहेली से फोन पर बात हुई। अभी बात शुरू ही हुई थी कि घर परिवार और माता-पिता का नाम आते ही उसका मन भर आया। पहले तो मेरे पूछने पर भी उसने मुझे कुछ न बताया। मगर जब मैंने उसे अपनी कसम देते हुए पूछा, तो उसने अपने दिल का हाल मुझे बताना शुरू किया। माजरा कुछ नया नहीं था, पहले मुझे लगा सास बहू की किट-किट होगी जिसके कारण परेशान हो रही है। थोड़ी देर में जब मन हल्का हो जाएगा तो सब कुछ समान्य हो जाएगा। मगर बाद में पता चला माजरा है तो, सास बहू का ही, मगर उसके अपने माता-पिता अर्थात मायके का, जहां तक मैं उसके परिवार को जानती हूँ। उसके माता-पिता बहुत ही सीधे सादे सज्जन इंसान है। तो मुझे यह सब सुनकर थोड़ा अचंभा भी हुआ कि भला ऐसा कैसे हो सकता है।
मामला यह था कि उसके पिता रिटायर्ड चुके हैं। घर में उसके माता-पिता के साथ उसके भाई भाभी और उनका एक बेटा भी रहता है। उसके भईया एक कॉलेज में पढ़ाने जाते है और उसकी भाभी भी एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका है। इस वजह से घर का सारा कम उसकी माँ को ही करना पड़ता है। वह करती भी है, कभी कुछ नहीं कहती बेचारी, मगर बहू अर्थात मेरी सहेली की भाभी दिन रात अपनी सास से झगड़ा करती है। अपशब्दों का प्रयोग करती है। अपने और अपने पति के लिए रोज़ रात को ताज़ा खाना बनाती है। ज्यादा बन जाने पर अगले दिन बचा हुआ खाना अपने ससुर को खिलाती है। तड़ा-तड़ जवाब देती है। जबकि घर में राशन से लेकर बच्चे की शिक्षा तक का सारा खर्च उसके पिता की पेंशन से ही चलता है। फिर भी सारी प्रताड़णा उन्हें ही झेलनी पड़ती है। वह दोनों अपनी कमाई केवल अपने पहन्ने ओढ़ने और मोबाइल फोन, बिजली आदि के खर्चों में ही खर्च करते हैं। जब भी बाहर जाते है, बाहर से ही खाना खाकर आते हैं। मगर कभी अपने ही घर के बुजुर्गों का खयाल नहीं आता उन्हें, उन्हें तो हमेशा घर में बचा हुआ बासी खाना ही दिया जाता है और कुछ कहो तो भाभी रोने लगती है और उसके भाई को लगता है ज़रूर माँ-बाबा की ही गलती होगी। कई बार उसके माता-पिता ने अपने बेटे से अलग हो जाने तक की बात कही। क्यूंकि इस उम्र में वह तो घर छोड़कर जा नहीं सकते और घर में राशन दो व्यक्तियों के हिसाब से भी तो आ नहीं सकता। मगर वो इतने बेशर्म और बेहया है कि अलग हो जाने की बात भी उनके कठोर दिल पर असर नहीं करती क्यूंकि उन्हें स्वयं यह बात अच्छी तरह से पता है कि यदि वह अलग हो गए तो जीना दुश्वार हो जाएगा उनका, इसलिए वह अलग भी नहीं होते।
बेटी अर्थात मेरी सहली यह सब सुनकर बहुत परेशान है खुद को बहुत असहाय महसूस कर रही है वो, उसने अपने माता-पिता को अपने घर बुलाना भी चाहा मगर, लड़की के घर जाकर कैसे रहे जैसी रूढ़िवादी मानसिकता के चलते उसके माता पिता उसके घर आने को तैयार ही नहीं है उनका कहना है कि आखिर कब तक हम तुम्हारे साथ रह सकते हैं। तुम्हारा अपना भी परिवार है ऐसे में हमारा भी वहाँ ज्यादा दिन रुकना अच्छा नहीं लगता और फिर जब हमारा अपना घर है तो हम बेटी और दामाद पर आसरत क्यूँ रहे। आखिर आत्मसम्मान भी कोई चीज़ होती है। उधर उन्हें इस बात का भी डर है कि कहीं हमारे ज्यादा कुछ कहने से बहू ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कर दी तो उनका क्या होगा। कहीं इन सब बातों का असर उनकी बेटी के परिवार पर न पड़ जाये। ऐसी स्थिति में फर्क पड़े न पड़े किन्तु मन में ऐसे ख़याल आना स्वाभाविक ही है। क्यूंकि आज कल वैसे भी इस तरह के मामलों में कार्यवाही के नाम पर और कुछ हो न हो, गिरफ्तारी बहुत जल्दी होती है।
अब आप लोग ही बताएं कि इस समस्या का क्या निदान है। क्या घर के बुजुर्गों का इस तरह दिन रात अपमान किया जाना, उन्हें सोते जागते मानसिक तौर पर परेशान किए रहना क्या ठीक है ?? वह भी तब जब घर का आधे से ज्यादा खर्च उनकी पेंशन से चल रहा हो। घर का सारा कम वह कर रहे हों। बहू को बेटी बनाकर रखने के बावजूद भी, बहू का यूं बाहर वालों के सामने अपने ही सास ससुर के प्रति राजनीति खेलना। बाहर वालों के सामने यह दिखाना कि देखो मैं तो बहुत अच्छी हूँ मेरी सास ससुर ही खराब है। क्या सिद्ध करता है ? इस सब से भला किसी को क्या खुशी मिलती है। यह बात मेरी समझ से बाहर है। आखिर ऐसा क्या हुआ है जो अब बहुओं को ससुराल कभी अपना नहीं लगता सास ससुर में अब उन्हें अपने माता-पिता दिखाई नहीं देते। अब दिखता है तो सिर्फ "मैं" मेरा पति और मेरे बच्चे बस ...बहू को पहले की तरह डरा धमका कर रखा जाता हो, तो बात फिर भी समझ आती है। किन्तु जब बहू को हर तरह की छूट हो तब भी, अपने ही परिवार वालों के साथ ऐसा घिनौना व्यवहार कोई इंसान भला कैसे कर सकता है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपनी बेटियों को या बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ उन्हें बड़ो की इज्ज़त करने का संस्कार देना भूलते जा रहे हैं। ताकि हमारे मन में छुपा डर कि कहीं हमारी बच्ची के साथ ससुराल में कुछ गलत न हो, के चलते हम ही उसे कहीं न कहीं गलत शिक्षा दे रहे हों ? वैसे "ताली हमेशा दोनों हाथों से बजती है, एक से नहीं" इसलिए हमे न सिर्फ अपनी बेटियों को बल्कि बेटों को भी सही और गलत में अंतर देखना और परखना सिखाना ही चाहिए। ताकि परिवार में बुज़ुर्गों को सम्मान मिल सके, हम उम्र को अपना पन और छोटो को प्यार मिल सके। आखिर एक न एक दिन हमारी ज़िंदगी में भी बुढ़ापा आना ही है। :)
याद रखिये किसी भी घर की आन, बान और शान सबसे पहले उस घर के बुजुर्ग होते है। जिन घरों में उनका सम्मान नहीं होता, वहाँ शांति कभी निवास नहीं करती। जय हिन्द....