खैर अब बारी है तीसरे दिन की इस दिन हम लोग सुबह गाउडी के बनाये एक भव्य गिरजा घर (चर्च) में पहुँचे जो अंदर और बाहर दोनों ही जगह से देखने में लाजवाब था। वहाँ उस चर्च के बाहर बनी ईसा की ज़िंदगी से जुड़ी कहानी कहती मूर्तियाँ अपने आप में इतनी अदबुद्ध और सचेत लग रही थी कि उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रही था, मानो अभी बोल पड़ेंगी। और एक खास बात उस चर्च के दरवाजे पर अलग–अलग भाषा में कुछ लिखा हुआ था और लोग उसकी तस्वीरें लेने में व्यस्त थे। भीड़ इतनी थी कि उस वक्त वहाँ खड़े रहना मुश्किल हो रहा था। जिसके कारण हम ध्यान नहीं दे पाये कि आखिर ऐसा क्या लिखा है, जो लोग टूटे पड़े हैं उस दरवाजे की तस्वीर लेने के लिए। फिर जब अंदर भी एक दीवार पर टंगे परदे पर वही सब लिखा देखा तब समझ आया कि उस पर क्या लिखा था। उस पर हर भाषा में एक ही बात लिखी थी। यहाँ तक के संस्कृत में भी जो लिखा था वो यह "Give us this day our daily bread" था आगे चलकर अंदर से उस चर्च की खूबसूरती देखते ही बन रही थी। बड़ी-बड़ी खिड़कीयों में रंग बिरंगे काँच लगे थे। जो वहाँ उस चर्च में एक अलग ही तरह की रोशनी बिखरे रहे थे और गाउडी की कलाकारी के चलते वहाँ लगे बड़े-बड़े स्तंभों पर बने फूल जो न सिर्फ उन स्तंभों की शोभा बड़ा रहे थे बल्कि उन स्तंभों की मज़बूती की वजह भी वही थे।
सच कहूँ तो उस ज़माने में ऐसी तकनीक के प्रयोग को देखकर तो मेरा मन बाग़-बाग़ हुआ जाता था। उस तकनीक को दर्शाने और आम लोगों को समझाने के लिए वहाँ अंदर कम्प्यूटर भी लगे थे। जिन पर उन स्तंभों को बनाये जाने की वजह दिखायी जा रही थी। वो देखने के बाद अगली मंजिल की और चलना तय हुआ। बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी। मगर घूमना तो था ही, ज्यादा इंतज़ार करना संभव नहीं लग रहा था। तो हम चले पिकासो की बनी चित्रकारी का संग्रहालय देखने। अर्थात (पिकासो म्यूजियम) लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वहाँ पहुँचते पहुँचते हम लोग हल्का-हल्का भीग ही गए थे। इसलिए भी वहाँ घूमने वो मज़ा नहीं आया जो आना चाहिए था। यह संग्रहालय था भी बहुत बड़ा। तो उसे देखते से ही सबसे पहले एक ही ख्याल दिमाग में आया "इतना बड़ा म्यूज़ियम एक दिन में पूरा अच्छे से देख पाना संभव नहीं" कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उस संग्रहालय को देखने का आधा जोश तो वहीं ठंडा पड़ गया था। शायद इसी वजह से वहाँ मुझे तो ऐसा कुछ खास मज़ा नहीं आया। हाँ यदि फिर भी कोई कहे कि किसी एक पेंटिंग को चुनो। तो मैं एक मरते हुए ऊँट की चित्रकारी को चुनूंगी। वह तस्वीर सच में अपने आप में अदबुद्ध थी , जिसमें उस ऊँट की पीड़ा को इतने सशक्त ढंग से उकेरा गया था कि शब्दों में बयान कर पाना संभव नहीं है। सही मायने में तो वह पेंटिंग नहीं थी। वह महज़ पेंसिल से बनाया गया एक स्केच था। लेकिन वहाँ फोटो खींचने की अनुमति न होने के कारण हम फोटो नहीं ले पाये।
खैर वहाँ शायद बारिश में हल्का भीग जाने की वजह से हम लोगों का ज्यादा मन नहीं लगा। तो तय हुआ “पहले पेट पूजा बाद में काम दूजा” सो वहाँ से फिर हम चले एक "स्पेनिश रेस्टोरेन्ट" में जहां हमने कॉफी के साथ कुछ थोड़ा बहुत खाया और फिर हम चले अपनी अगली मंजिल की और वो था वहाँ का प्रसिद्ध मछली घर ( Aquàrium de Barcelona) जहां हमारे साहब ज़ादे जाने को व्याकुल हो रहे थे। वहाँ पहुँच कर हम थक के चूर हो चुके थे। मेरे तो पैरों ने जवाब दे दिया था, मगर बालक बहुत उत्साहित था । तो थके होते हुए भी उसका साथ निभाना ही पड़ा। तरह-तरह की मछलियाँ देखकर बहुत खुशी हो रहा था वो, सबसे ज्यादा बड़ी-बड़ी शार्क और औक्टोपस देखने में मज़ा आ रहा था। काँच की गुफा में अपने चारों तरफ समुद्री दुनिया देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हम सब समुद्र के अंदर ही आगए हैं। जो अपने आप में बड़ा ही रोचक अनुभव रहा। वहाँ से लौट कर यह दिन भी खत्म हो गया।
अगले दिन सुबह पहाड़ (Montserrat, Catalonia) पर जाने वाली ट्रेन का कार्यक्रम बना। लेकिन यह अनुभव कुछ वैसा रहा जैसे वो कहते है न “खोदा पहाड़ और निकली चुहिया” जब सभी स्टेशनों और बस अड्डों पर हमने इस ट्रेन के पोस्टर देखे थे। तो हमें लगा था यह शिमला या डार्जिलिंग की ट्रेन जैसा सफर होगा प्राकृतिक नज़ारों से गुज़रती हुई सपनों जैसी ट्रेन के जैसा। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। वहाँ पहुँचकर पता चला केवल खड़ी चढाई चढ़ने के लिए यह ट्रेन बनाई गयी थी, जो चींटी की चाल से भी धीरे चला करती है। इस ट्रेन को funicular कहा जाता है। पर हाँ एक बात अच्छी लगी ऊपर पहाड़ पर ले जाने से लेकर वापस नीचे लौटने तक ट्रेन चालक महिला ही थी। नहीं तो अमूमन ऐसे कामों के लिए महिलाओं की नियुक्ति कम ही देखने को मिला करती है। नहीं ? वहाँ से वापस आते समय हम केबल कार से आए जिसे Aeri de Montserrat कहा जाता है। उस दिन केवल एक यही जगह घूमी हमने और इसी में पूरा दिन निकल गया।
फिर उसके अगले दिन प्रोग्राम बना साइन्स म्यूज़ियम देखने का बेटा आज भी बहुत उत्साहित था। क्योंकि आगे का तो पता नहीं मगर अभी ज़रूर जनाब की ईच्छा साइंटिस्ट बनने की है। खैर वहाँ के लिए जब निकले तो एक से नाम होने की वजह से भ्रमित हो गए थे हम लोग और वो गाना है ना
“जान था जापान पहुँच गए चीन समझ गए ना”
जैसा काम हो गया।
लेकिन जापान अर्थात गलत जगह पहुँचकर भी अफ़सोस नहीं हुआ। क्योंकि वहाँ हमें देखने को मिला "पिस्सारो संग्रहालय" जहां उनकी बनायी गयी अदबुद्ध चित्रकारी की प्रदर्शनी लगी हुई थी। कुछ पेंटिंग तो अपने आप में इतनी सुंदर थी की मेरा तो दिल किया सभी ख़रीद लूँ। मगर दिल की बात न पूछो दिल तो आता रहेगा... तो हमने किसी तरह अपने दिल को मनाया और आँखों को उन तसवीरों को देखने और मन भर लेने का हुक्म दिया। पर यहाँ भी फोटो लेना मना था।
उस दिन तो जैसे बस संग्रहालय देखने का ही दिन था। पिस्सारो से फ़ारिब होने के बाद हम पहुँचे एक दूजे संग्रहालय (Museu d'Història de Barcelona) में जहां ना हमें केवल बेहतरीन चित्रकारी ही देखी। बल्कि अदबुद्ध मूर्ति या शिल्पकला जो भी कह लीजिये भी देखी। यह सब देखते-देखते शाम हो चुकी थी।
अब भी गाउडी के द्वारा बनायी हुए एक अदबुद्ध इमारत देखना बाक़ी थी। जिसका नाम था LA Padrera सो यहाँ से फिर हम चले उसी इमारत की और जहां इतना कुछ था देखने के लिए कि यदि सभी कुछ बताने बैठी तो यह ब्लॉग पोस्ट, पोस्ट न रहकर पुराण बन जायेगी। तो आप सब लोग फ़िलहाल तस्वीरें ही देखकर काम चला लें। क्योंकि इतना कुछ बताने के बाद भी अभी साइंस मुसीयम बाकी है।
अब आता है अंतिम दिन उस दिन हम लोगों ने केवल यही जाना तय किया और सुबह जल्दी ही होटल से चेक आउट करके उन्हीं के क्लॉक रूम में समान रखकर हम निकल लिए "साइन्स म्यूज़ियम" (CosmoCaixa) की ओर वहाँ पहुँचकर बहुत कुछ देखा, जाना, समझा एक तरह से बचपन की पढ़ी चीज़ें ताज़ा हो गयी और साथ-साथ ही साथ कुछ नया भी देखने को मिला। जैसे वहाँ अमेज़न के जंगल को एक काल्पनिक रूप से नकली जंगल बनाकर दिखाने की कोशिश की गयी है, जहां पर इतनी बारिश होती है जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते और वहाँ के पेड़ लंबाई में करीब करीब आधे से ज्यादा पानी में डूबे रहते हैं। बेटा वहाँ जाकर बहुत खुश हुआ। उसका तो जैसे वहाँ से लौटने का मन ही नहीं हो रहा था, मगर मंजिल कितनी भी खूबसूरत क्यूँ न हो अपने आशियानें में तो सब को लौटकर आना ही पड़ता है।
सो हम भी उसी शाम बार्सिलोना को बाय-बाय कह आए और इस तरह हमारी यह यात्रा यही समाप्त हो गयी। वहाँ हमें क्या देखा उसकी तस्वीरें नीचे है आप भी देखीए और मज़े लीजिये।
वाह जी......आपकी यात्रा में हम भी आनंदित हुए....और घूमिये ,साथ हमें भी घुमाइये.
ReplyDelete:-)
अनु
सैर सपाटे का बढ़िया विवरण.... :)
ReplyDeleteबड़े धैर्य के साथ आपने बार्सिलोना की सैर करवाई - उत्कंठा लिए पढ़ती गई चित्रों के अद्भुत आनंद के साथ ....
ReplyDeleteकांच की गुफ़ा का सौंदर्य और उससे भीतर होती हलचल - सबकुछ सोचती रही
ट्रेन की चींटी चाल मुझे ख्यालों में उकता गई
तस्वीरों का आनंद लेती गई हूँ
यात्रा वृत्तांत की रोचकता और नवीनता ने इसे धैर्य से पढ़ने को विवश किया। स्पेन में पुरासमय में गाउडी जैसे शिल्पकार के निर्माण-कर्मों के बाबत हम लोग यहां बैठे कैसे जान सकते थे, पर आपने अपने यात्रा वृत्तांत में इसे साझा किया तो हमें भी जानकारी हुई। स्पेन के अन्य भवनों, विज्ञान संग्रहलायों, ऊंची पहाड़ी पर चींटी की तरह रेंगते हुए चढ़ती ट्रेन, ट्रेन की महिला चालक इत्यादि अनुभव को बांट कर आपने ब्लॉग जगत के अपने दोस्तों को भी बार्सीलोना की अच्छी सैर करा दी है। हां ये तो है कि बाहर कहीं भी कुछ भी अच्छा लगे लौटकर तो अपने आशियाने में ही आना होता है। यह विवशता ही तो कलम उठाकर यात्रा वृत्तांत को लिखने की प्रेरणा देती है और जिसमें आपने तनिक भी देर नहीं की।
ReplyDeleteचित्रों, तथ्यों और वृत्तान्तों से भरी पोस्ट।
ReplyDeleteपिकासो की पेंटिंग्स की फोटो आपके ब्लॉग में न देख पाने का दुख रहेगा. जो फोटो आपने सविवरण दी हैं बहुत सुंदर हैं.
ReplyDeleteपल्लवी जी शानदार यात्रावृत्तांत। एकबारगी लगा हम भी स्पेन पहुंच गए हों। कई चीजों के वर्णन जीवंत हैं।
ReplyDeleteबधाई!
चित्र और वृतांत... दोनों बढ़िया .
ReplyDeleteकितना कुछ है दुनिया में देखने के लिए ...सब कुछ तो सम्भव नहीं ऐसे में ..तुम्हारे जैसे मित्र वह कमी पूरी कर देते हैं ...मज़ा आ गया ...और वह एक्वेरियम तो बेमिसाल था
ReplyDeletenice.
ReplyDeleteबहुत ही खूब्सूतर फोटो हैं ... और आपने तीखी नज़रों से देखा है सभी जगहों को ... अच्छा वृतांत है ...
ReplyDeleteवाह क्या बात! बहुत ख़ूब!
ReplyDeleteइसी मोड़ से गुज़रा है फिर कोई नौजवाँ और कुछ नहीं