"गुनाहों का देवता" यह नाम तो आप सभी ने देखा सुना और पढ़ा ही होगा। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे हिन्दी साहित्य में रुचि हो और उसने यह उपन्यास न पढ़ा हो। क्या कहूँ क्या लिखूँ निःशब्द हूँ मैं इस रचना को पढ़कर। जी हाँ धर्मवीर भारती जी की अपने आप में एक अदबुद्ध अद्वितीय रचना है यह "गुनाहों का देवता" वाकई लोग चाहे जो कहें या जो भी समझें मगर इस उपन्यास की भवानाएं ही इस उपन्यास की जान है। प्रेम की जिन ऊँचाइयों और गहराइयों को लोग महसूस तो करते किन्तु कहने से डरते है या यूं कहिए कि समझ ही नहीं पाते उन आंतरिक भावनाओं को, यूं इनती सादगी और खूबसूरती के साथ पन्नों पर उतार देना कि पढ़ने वाले को यह कहानी अपनी सी लगने लगे यह आसान नहीं होता। और ना ही यह हुनर हर किसी लेखक में होता है।
मैंने यह उपन्यास पहले भी पढ़ा था। मगर छोटे पर्दे पर जब इस कहानी को एक धारावाहिक के रूप में देखा तो मन किया कि एक बार फिर पढ़ा जाये। पढ़ा भी सही। किन्तु ऐसी प्रेम कहानी तो सिर्फ फिल्मों में ही देखने को मिलती है। सच में ऐसा सच्चा प्रेम कोई किसी को कर सकता है ? पढ़कर यकीन नहीं होता। मगर इतिहास गवाह है ऐसी कई अदबुद्ध प्रेम कहानियों का पता नहीं वह सब भी सच्ची है या ऐसे ही किसी लेखक की कोई कल्पना। यह कहना मुश्किल है। मगर जो भी है भावनाओं का ऐसा उछाल है कि आप स्वयं को उसमें गुम किए बिना रह ही नहीं सकते। यह एक ऐसा उपन्यास जो पीढ़ियों से पढ़ा जा रहा है। मैंने इस उपन्यास के विषय में अपनी माँ से सुना था। उनका कहना है जब वह कॉलेज में हुआ करती थी, तब उनके मित्रों एवं उनके सहपाठियों को यह उपन्यास पृष्ट अंक के साथ कंठस्थ हुआ करता था।
कल्पना है या सच यह तो मैं नहीं कह सकती। मगर यदि सच है तो इतनी ईमानदारी और बेबाकी से सच लिखने के लिए भी हिम्मत चाहिए। नहीं ? ऐसा लगता है मानो लेखक ने अपना दिल निकाल कर रख दिया हो जैसे कि शब्दों के एक-एक अक्षर से मानो जीवन के सभी रस टपकते है। विशेष रूप से प्रेम त्याग और समर्पण का भाव सच प्रेम त्याग मांगता है। मगर क्यूँ ? इस रचना में जीवन के हर एक रंग को हर एक रस को बखूबी सँवारा गया है। जिसके चलते यह उपन्यास पाठक को अपनी और आकर्षित करने में पूर्णतः सक्षम है।
सच कहूँ तो फिल्मों के माध्यम से आज तक बहुत सी प्रेम कहानियाँ देखी है। कुछ पढ़ी भी है, जैसे हीर राँझा, लैला मजनू, सोनी महिवाल,रोमियो जूलियट इत्यादि। पर 'सुधा और चंदर' की इस प्रेम कहानी जैसा कोई नहीं मिला न पढ़ने को, ना देखने को, फिर भी आज तक किसी उपन्यास ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया। जितना इसने किया है। इसके विषय में जितना भी कहा जाये वह कम ही होगा। कितने सच्चे है इसके सभी पात्र सुधा,चंदर, बिनती, गेसू पम्मी बल्कि सभी, ऐसा लगता है मानो कल ही बात हो। यूं कहने को तो ६० के दशक की है यह कहानी, मगर पढ़ो तो ऐसा लगता है जैसे इस कहानी का कोई न कोई चरित्र अपने आस पास ही हो। जैसे यह कोई कहानी नहीं बल्कि सब साक्षात हो। जैसे आप इन सबको बहुत पहले से जानते हो। मानो समय की आपाधापी में यह दोस्त कहीं खो गए थे। मगर पढ़ते पढ़ते न जाने कहाँ से आपके करीब आगये आपके साथ -साथ हँसे खेल ,रोये भी ऐसा अध्बुध लेखन तो अब शायद हिन्दी साहित्य में भी दुबारा देखने को ना मिले। संभवतः ऐसा नहीं होगा। हाँ यह ज़रूर हो सकता है कि मुझे ही इस विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं है।
लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसी सुंदर प्रेम कहानी कोई मात्र बीस (२०) अंकों की कड़ी में कैसे दिखा सकता है। यूं भी यह कहानी देखने वाली नहीं बल्कि पढ़कर महसूस की जाने वाली कहानी है जिसकी हर एक भावना आपके दिल को छूकर गुजरती है। तभी तो पात्रों के साथ-साथ आप हंस खेल पाते है रो पाते है। क्यूंकि भावनाओं को दिखाया नहीं जा सकता। उन्हें तो केवल महसूस किया जा सकता है। फिर भी मैं यह ज़रूर कहूँगी की पढ़ने और देखने में और लिखने में भी बहुत बड़ा अंतर होता है। क्यूंकि जहां तक फिल्मों की बात है उसमें किरदारों के चयन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। यदि वो चयन सही न बैठा तो समझो पूरी कहानी बर्बाद हो जाती है। यूं भी हर एक व्यक्ति का नज़रिया अलग होता है। इसलिए मेरे विचार से इस तरह की कहानियाँ देखने से ज्यादा पढ़ने में रुचिकर लगती है और ज्यादा आनंद देती है।
इसलिए जो भी इस धारावाहिक के माध्यम से इस बेहतरीन उपन्यास को जानने और समझने की भूल कर रहे हों उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वह श्री धर्मवीर भारती जी कि इस खूबसूरत कृति को पहले पढ़ें फिर देखें तो उन्हें स्वतः ही इस उपन्यास की गहराई का भान हो जाएगा और उन्हें कुछ कहने कि जरूरत ही नहीं पड़ेगी। क्यूंकि इस खूबसूरत कृति को यूं समय की बन्दिशों में बांध कर दिखाया जाना संभव ही नहीं है। जो दिखा रहे है। वह कहीं न कहीं जाने अंजाने इस उपन्यास के साथ नाइंसाफी कर रहे है। इसलिए एक बार फिर कहूँगी कि यदि आप वास्तव में इस खूबसूरत रचना का लुफ्त उठाना चाहते है तो इसे पढ़िये और फिर फैसला कीजिये। इसे ज्यादा और क्या कहूँ इस रचना की तारीफ के लिए तो मेरे पास शब्द ही नहीं है।क्या लिखूँ क्या न लिखूँ। कुछ कहते नहीं बनता।
यह सच है धारावाहिक में निर्माता अपने ढंग से जो उन्हें अच्छा लगता है वही दिखाया जाता है जबकि वास्तविक कहानी या उपन्यास पढ़ने पर अलग ही अनुभव होता है....
ReplyDelete...बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति है.. लोगों को स्वयं धारावाहिक या फिल्म के मूल स्रोत कहानी या उपन्यास को जरूर पढ़कर स्वयं परख लेना चाहिए
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-10-2015) को "क्या रावण सचमुच मे मर गया" (चर्चा अंक-2139) (चर्चा अंक-2136) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद।
Deleteउपन्यास भी पढ़ा था और सीरियल भी देखा। सिरीयल ने तो ऐसा गुड गोबर किया कि कुछ शब्द ही नहीं है।
ReplyDeleteजी :) वही तो बिलकुल ठीक कहा आपने धन्यवाद।
Deleteमित्र आपका लेख अति सुन्दर लगा हमे ।Seetamni. blogspot. in
ReplyDeleteउपन्यास और सीरियल की प्रस्तुति में बहुत अंतर था, बेहतरीन प्रस्तुति, आभार आपका।
ReplyDeleteयह उपन्यास कई बार पढ़ा है और हर बार दिल को छू गया..धारावाहिक की प्रस्तुतीकरण में अपनी सीमायें होती हैं, इस लिए वह उपन्यास का सथानापन्न नहीं हो सकता...सच कहा है पात्रों को पूर्णतः महसूस करने के लिए उपन्यास को पढ़ना आवश्यक है...
ReplyDelete'गुनाहों का देवता' मैंने पहली बार 1975 में एक बैठक में पढ़ा था, वह भी एक बार नहीं, बल्कि दो बार; एक ही रात में। यह मुझे मेरे वैचारिक गुरु श्री निर्भीक वर्मा ने एक योजना के तहत पढ़ने के लिए दिया था। इसके बाद क्रम में श्री अमरकांत का उपन्यास 'सूखा पत्ता', फिर 'बूढ़ा आदमी और समुद्र' (अर्नेस्ट हेमिंग्वे), 'इकतालीसवां' (इवान तुर्गनेव) आदि उपन्यास, उन सबको पढ़ने के बाद मैं 'गुनाहों का देवता' से पूरी तरह से मुक्त हो गया ! फिर भी, यह उपन्यास किसी भी पाठक को पढ़ने की आदत डालने के लिए काफ़ी है।
ReplyDeleteयह उपन्यास तो मुखर होकर सबके बीच रहा है, उसे मुखर ही प्रस्तुत करना चाहिए
ReplyDeleteजब हम कोई उपन्यास पढ़ते हैं तो उसके शब्दों के साथ हमारे जीवन में अनुभूत बिंब जुड़ जाते हैं. जब उस पर कोई फिल्म या सीरियल बनता है तो उसमें निर्माता टीम के कई सदस्यों का योगदान होता है. वह हमें अक्सर संतुष्ट नहीं ही कर पाता. इस लिए मैं मानता हूँ कि आपने उपन्यास को पढ़ कर जो जाना है वही सुंदर सत्य है.
ReplyDeleteमैंने जब देखा कि गुनाहों का देवता को टीवी पर लाया जा रहा है तो सोचा था कि अच्छा जाना चाहिए, लेकिन घूमने के चक्कर में देख भी नहीं पायी और फिर सबसे सुना तो लगा कि अच्छा हुआ अपने दिमाग में बानी छवि को दूषित नहीं होने दिया। उस पर तो मुज्जफर अली जैसे निर्देशक फ़िल्म बनायें तो शायद सार्थक हो जाए।
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