कुछ भी शुरु करने से पहले यह बताती चलूँ कि मैं कोई फ़िल्म समीक्ष नहीं हूँ इसलिए कृपया इस पोस्ट को समीक्ष की दृष्टि से ना देखा जाय पर हाँ मैं 'जनता' जरूर हूँ. तो मुझे अपना मत रखने का पूर्ण अधिकार है. तो बस मैं अपने उसी अधिकार का निर्वाह करते हुए इस फ़िल्म को केवल तीन ही सितारे दूँगी. हाँ हाँ....मैं जानती हूँ जिस फ़िल्म को एक ओर आठ सितारे मिल रहे हों, वहाँ तीन का अंक शंका पैदा करेगा ही करेगा. वैसे इस फ़िल्म की निर्देशक सोनल जोशी है जिन्होंने इस फिल्म से पूर्व कई और फिल्मों में सहायक निर्देशक के रूप में काम किया हैं. पर फिर भी उनकी यह फ़िल्म 'सुखी' मुझ जैसों को बहुत सुखी ना कर सकी.
लेकिन वो कहते है ना "रहिमन इस संसार में भांति भांति के लोग" तो बस उन्ही में से मैं भी एक हूँ. मुझे लगता है बड़े सितारों से फ़िल्म में बहुत फर्क पड़ता है क्यूंकि कुछ भी हो बड़ा कलाकार बड़ा ही होता है. ग्रहणीयों के महत्व को दर्शाने वाली यह कोई पहली फ़िल्म नहीं थी. इससे पहले भी इस विषय पर बहुत सी फिल्मे बन चुकी हैं. जिसमें मुझे "इंग्लिश वइंग्लिश" बेहद पसंद है. उस फ़िल्म को लेकर एक खासा सा जुड़ाव है मेरे मन में, उसके दो कारण है. एक तो यह कि वो श्रीदेवी अभिनीत फ़िल्म है और वो मेरी पसंदीदा अदाकारा में से एक रही हैं. दूजा उस फ़िल्म को देखते हुए मुझे यह महसूस होता है कि यह कहीं ना कहीं मेरी अपनी ही कहानी है.लेकिन इस फ़िल्म 'सुखी' को देखते हुए मुझे ऐसा जरा भी महसूस नहीं हुआ. जबकि मैं भी एक ग्रहणी ही हूँ पर जो सादगी जो अपनापन उसमें था जिसके कारण वो फिल्म बहुत अपनी सी लगी थी वो इस फ़िल्म में मुझे जरा भी महसूस नहीं हुई. जैसा अभिनय श्रीदेवी ने किया था शिल्पा जी शायद उस किरदार को वैसा छू भी नहीं पायी. बाकी तो सब का अपना-अपना नज़रिया है। विशेष रूप से उन चार सहेलियों के बीच की बौंडिंग को लेकर. जिसे हर तरह से ऐसा दर्शाने की कोशिश की गयी है कि फिल्म देखने आने वाली महिलाएं उसे अपने से जुड़ा हुआ महसूस कर सकें. इसलिए उसमें थोड़ी सी गलाइयाँ और दोआर्थि संवाद भी डाले गए हैं. ताकि दोस्ती वाली फीलिंग आए. लेकिन जो दोस्ती की गर्माहट महसूस होनी चाहिए थी वो फिर भी ना हो सकी. वैसे भी जहाँ तक मेरा मानना है, दोस्ती पर आधारित फ़िल्म श्वेत श्याम वाली 'दोस्ती' या 'शौकीन' 'जो जीता वही सिकंदर' 'दिल चाहता है' 'ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा' फ़िल्म वाली दोस्ती से लेकर 'थ्री इडियट' तक जो गर्माहट, जो अपना पन लड़कों की मित्रता में महसूस होता है. वो लड़कियों की फिल्मों में जाने क्यूँ नहीं हो पता.
इस फ़िल्म में भी सब बहुत औपचारिक सा लगा. बाकी रही बात कहानी की तो बीस साल बहुत होते हैं, एक इंसान में हर तरह के परिवर्तन के लिए. लेकिन इस फ़िल्म की अभिनेत्री 'शिल्पा शेट्टी' जोकि बीस साल बाद अपने दोस्तों से मिलती है अपने जीवन को जीने के लिए. या यूँ कहें की खुद को रिचार्ज करने के लिए तो उसमें कोई परिवर्तन ही नहीं आता है. जो कि अमूमन एक स्त्री के जीवन मे माँ बन जाने के बाद स्वाभाविक रूप से आ ही जाता है, जो की इस फिल्म के किरदार में जरा भी नहीं दिखाया गया है जबकि आजकल तो मेकअप के माध्यम से क्या कुछ नहीं किया जा सकता. लेकिन नहीं सहाब ....ऐसा कैसे, वो तो आज भी उतनी ही खूबसूरत और उतनी ही परफेक्ट है, हर उस काम में जितना की बीस साल पहले थी. हाँ यह बात अलग है ही कि शिल्पा शेट्टी वास्तविक जीवन में भी उतनी ही प्रफेक्ट हैं जैसा की किरदार में दिखाया है लेकिन फिल्म मे तो उन्होने एक आम स्त्री की भूमिका निभाई है ना तो उसके हिसाब से मुझे थोड़ा संदेह हुआ की ऐसा कैसे, भई असल ज़िंदगी में ऐसा थोड़ी ना होता है.
अरे भई, कोइ ग्रहकार्य को लेकर ऐसा कुछ दिखाते तो मैं एक बार को मान भी लेती. हाँ यह बात अलग है की हर कोई गृहकार्य में भी दक्ष नहीं होता. कुछ होती है, टॉमबॉय टाइप लड़कियां. लेकिन बीस साल एक ग्रहणी का जीवन जीने के बाद उनमें भी वो पहले जैसी बात नहीं रह पाती. लेकिन घुड़सावारी....! ना ना भई मुझ से तो यह बात बर्दाश ना हुई क्यूंकि ऐसे खेलों में आपका स्टेमना भी होना चाहिए और प्रैक्टिस भी. तभी जाकर आप रेस जितने का हौसला रख सकते हो...नहीं ? पर भईया मैडम को तो इतना चतुर दिखया गया है कि मैं क्या ही बोलूं. मात्र गिनती के कुछ ही दिनों में ही मैडम ने जैसे बीस साल पहले थी वैसी के वैसी ही हो गयी. इतनी की घुड़सवारी की रेस भी जीत ली "भई वाह गजब"....! इस मामले में तो मुझे 'साक्षी तंवर' अभिनित एक शार्ट फ़िल्म 'घर की मुर्गी' ज्यादा अच्छी लगी थी. जिसमें यही ग्रहणीयों के महत्व का मुद्दा इस 'सुखी' फ़िल्म से ज्यादा प्रभावशाली तरीके से दिखाया गया था और साक्षी तंवर तो हैं ही एक बेहतरीन अदाकारा इसमें तो कोई दोराय नहीं है. आप यूट्यूब पर ढूंढेगे तो आपको वो फ़िल्म आसानी से मिल भी जाएगी. तब आप खुद ही तुलना कर के देख लेना कि मैंने सही कहा था या गलत.
बाकी तो हम ग्रहणीयोंनका महत्व, कभी आज तक किसी को समझ में ना आया था, ना आया है, ना आने वाले समय में आएगा. इसलिए तो हम गृहनियाँ अपने जीवन से जुड़े विषयों पर जैसे ही कोई फ़िल्म आती है देख लेती है और बस उसे तुरंत हिट करा देती है. इस उम्मीद से कि शायद यह फिल्म हमारे परिवार वालों को हमारा महत्व समझने में कारगर साबित हो. क्यूंकि हम हमेशा ही एक दूसरे से सांत्वना रखती है और यह सोच लेती है कि चलो यह हमारी कहानी ना सही किन्तु हमारे जैसी ही किसी और बहन की कहानी तो होगी ही. तो उसके लिए ही सही. पर अफ़सोस की हमें अपने ही परिवार में आज भी जब, भारत चाँद को अपना बना चुका है अपने ही लोगों को अपना महत्व समझाने के लिए फ़िल्म दिखानी पडती है. इससे ज्यादा और दयनीय स्त्तिथी और क्या हो सकती है एक ग्रहणी के लिए. जरा सोचिये.
इस फिल्म को देखने के बाद मेरे मन मे जो विचार आए मैंने आपके समक्ष रखे हैं. यह पूर्णतः मेरे अनुभव ही हैं. आगे फ़िल्म देखकर फैसला करना आपके हाथ में है कि आप इस फिल्म को कितने सितारे देना पसंद करेंगे. राम राम 🙏🏼
Super 👍👍 likha bhut accha hai❤️❤️👌
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ReplyDeleteअच्छी चर्चा लिखी हैं आपने 'सुखी' फिल्म पर। लिखते रहें। खुशी मिलती है , दिल से निकले जज्जबातों को पढ़ कर।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत धन्यवाद 🙏🏼
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