गुड़िया के बाल का नाम तो आप सभी ने सुना ही होगा कुछ लोग इसे बुढ़िया के बाल के नाम से भी जानते हैं अर्थात इसे दोनों नामों से जाना जाता है। क्यूंकि वो देखने में बिलकुल गुड़िया के और बुढ़िया के दोनों ही के बालों की तरह नज़र आता है। चलिए आज आपको फिर ले चलते है बचपन के उन्हीं गलियारों में ठीक उस बजाज बल्ब के पुराने विज्ञापन की तरह
"जब मैं छोटा बच्चा था बड़ी शरारत करता था,
मेरी चोरी पकड़ी जाती जब रोशन होता बजाज"
मेरी चोरी पकड़ी जाती जब रोशन होता बजाज"
आप भी सोच रहे होंगे न अजीब पागल लड़की है, बात कर रही है गुड़िया के बाल की और विज्ञापन लिख रही है बजाज बल्ब का खैर हम बात कर रहे थे गुड़िया के बाल की, तो शायद आपको भी याद होगा कि अपने जमाने में यह गुड़िया के बाल कितने गहरे गुलाबी रंग के आया करते थे और उन दिनों चटकीले रंगों की चीजों का चलन भी कुछ ज्यादा ही हुआ करता था। जैसे आपको याद होगा वो 1 रूपये वाली लाल, पीली, नारंगी आइसक्रीम या यह गहरे गुलाबी रंग के बुढ़िया के बाल जिन्हें खाने के बाद ज़ुबान भी गुलाबी हो जाया करती थी और उन्हें बेचने वाला इन बुढ़िया के बालों को एक काँच के बक्से में रखकर लाया करता था। कितना आकर्षण हुआ करता था ना उन दिनों, इस मीठी सी चीज़ का वैसे तो हर मीठी चीज़ को मिठाई नहीं कहा जा सकता। क्यूंकि आज कल तो दवाइयाँ भी मीठी हुआ करती है। लेकिन यह एक ऐसी चीज़ हुआ करती थी, जो न तो मिठाई में आता है, न टॉफी में, न बच्चों की गोलियों में, लेकिन चूँकी इसका स्वाद बहुत तेज़ मीठा और बच्चों की मीठी गोली नुमा खुशबू लिए हुए होता है। इसलिए शायद इसे (केंडी फ्लॉस) कहने लगे होंगे यहाँ, लेकिन आज मैं यहाँ इसे बच्चों की मिठाई के नाम से ही संबोधित करूंगी।
आज बहुत दिनों बाद जब मैंने यह बच्चों की मिठाई उर्फ़ बुढ़िया के बाल खाये तो मुझे बहुत अच्छा लगा। एक ही निवाले के साथ जैसे सारा बचपन घूम गया मेरी आँखों में, हालांकी मुझे मीठा ज्यादा पसंद नहीं है। मैं तीखा खाने की शौकीन हूँ। लेकिन जब मैं खुद बच्ची थी, तब मुझे यह मिठाई खाने में बहुत अच्छी लगती थी। इसको बेचने वाला जैसे ही घंटी बजाते हुए निकलता था, तो बस उस घंटी की आवाज़ सुनने भर से ही मैं इसे खाने के लिए बहुत उत्साहित हो जाती थी। तब शायद ही मुझे कभी यह ख़्याल आया हो कि यह बुढ़िया के बाल बनते कैसे है। तब तो बस मुझे यह खाने से मतलब हुआ करता था। वैसे तो बच्चे हर नयी चीज़ को लेकर हमेशा से ही बहुत जिज्ञासु प्रव्रर्ती के हुआ करते है। मगर इस मामले में, मैं शायद उनमें से नहीं थी। मगर आज जब मैं बच्चों को किसी ऐसी चीज़ के लिए बहुत उत्सुक देखती हूँ तो, मुझे अपना बचपन बहुत याद आता है। ऐसा ही एक नज़ारा मुझे अभी हाल ही में देखने को मिला। अभी कुछ दिन पहले ही मेरे बेटे के स्कूल में समर फेयर (summer fair) लगा था। वहाँ उस मेले में मेरा भी उसके साथ जाना हुआ। मगर अफसोस, कि जल्दबाज़ी के चक्कर में ,मैं वहाँ अपना केमरा ले जाना ही भूल गई और उस वक्त मेरे मोबाइल में भी बैटरी अंतिम चरणों में थी, इसलिए मैं चाहकर भी वहाँ की कोई तस्वीरें नहीं ले पायी। :-(
खैर जब मैं वहाँ पहुंची तो मुझे वहाँ मेले को देखकर, बड़ा अलग सा अनुभव हुआ। हालांकी यह पहली बार का अनुभव नहीं था लेकिन हाँ स्कूल के नज़रिये से इसे पहला अनुभव कहा जा सकता है। वहाँ पहुँचने पर एकदम से थोड़ी देर के लिए मुझे ऐसा लगा कि कितना फर्क आ गया है, तब से आज तक हर एक चीज़ में और चीज़ें ही क्यूँ, अब तो न सिर्फ चीजों में बल्कि बच्चों की मानसिकता में भी एक बहुत बड़ा परिवर्तन मुझे उस दिन देखने को मिला।
आज बहुत दिनों बाद जब मैंने यह बच्चों की मिठाई उर्फ़ बुढ़िया के बाल खाये तो मुझे बहुत अच्छा लगा। एक ही निवाले के साथ जैसे सारा बचपन घूम गया मेरी आँखों में, हालांकी मुझे मीठा ज्यादा पसंद नहीं है। मैं तीखा खाने की शौकीन हूँ। लेकिन जब मैं खुद बच्ची थी, तब मुझे यह मिठाई खाने में बहुत अच्छी लगती थी। इसको बेचने वाला जैसे ही घंटी बजाते हुए निकलता था, तो बस उस घंटी की आवाज़ सुनने भर से ही मैं इसे खाने के लिए बहुत उत्साहित हो जाती थी। तब शायद ही मुझे कभी यह ख़्याल आया हो कि यह बुढ़िया के बाल बनते कैसे है। तब तो बस मुझे यह खाने से मतलब हुआ करता था। वैसे तो बच्चे हर नयी चीज़ को लेकर हमेशा से ही बहुत जिज्ञासु प्रव्रर्ती के हुआ करते है। मगर इस मामले में, मैं शायद उनमें से नहीं थी। मगर आज जब मैं बच्चों को किसी ऐसी चीज़ के लिए बहुत उत्सुक देखती हूँ तो, मुझे अपना बचपन बहुत याद आता है। ऐसा ही एक नज़ारा मुझे अभी हाल ही में देखने को मिला। अभी कुछ दिन पहले ही मेरे बेटे के स्कूल में समर फेयर (summer fair) लगा था। वहाँ उस मेले में मेरा भी उसके साथ जाना हुआ। मगर अफसोस, कि जल्दबाज़ी के चक्कर में ,मैं वहाँ अपना केमरा ले जाना ही भूल गई और उस वक्त मेरे मोबाइल में भी बैटरी अंतिम चरणों में थी, इसलिए मैं चाहकर भी वहाँ की कोई तस्वीरें नहीं ले पायी। :-(
खैर जब मैं वहाँ पहुंची तो मुझे वहाँ मेले को देखकर, बड़ा अलग सा अनुभव हुआ। हालांकी यह पहली बार का अनुभव नहीं था लेकिन हाँ स्कूल के नज़रिये से इसे पहला अनुभव कहा जा सकता है। वहाँ पहुँचने पर एकदम से थोड़ी देर के लिए मुझे ऐसा लगा कि कितना फर्क आ गया है, तब से आज तक हर एक चीज़ में और चीज़ें ही क्यूँ, अब तो न सिर्फ चीजों में बल्कि बच्चों की मानसिकता में भी एक बहुत बड़ा परिवर्तन मुझे उस दिन देखने को मिला।
आज मैं अपने उसी अनुभव को आप सब के साथ सांझा करना चाहती हूँ। वैसे तो बच्चे कहीं के भी हों सब एक से ही होते हैं। यह मेरा अनुभव भी है और विश्वास भी, सभी की सोच लगभग एक सी होती जिसके चलते उनका व्यवहार भी एक सा ही देखने को मिलता है। उदाहरण के तौर पर जैसे लड़के और लड़कियों के खिलौने में आज भी वही फर्क है जो हमारे जमाने में था। यानि लड़कियां चाहे यहाँ की हों या अपने देश की उनके खिलौनो में आज भी वही रसोई का सामान ही होता है बस फर्क सिर्फ यहाँ और वहाँ उपयोग होने वाली वस्तुओं का है। जैसे अपने यहाँ लड़कियों के घर-घर खेलने वाले समान में रसोई गॅस होती है। तो यहाँ बिजली से चलना वाला हॉब होता है वहाँ प्रैशर कुकर होता है, तो यहाँ ओवन या माइक्रोवेव और यदि लड़कों की बात की जाये तो वो कहते है न boys are always boys तो बिलकुल ठीक ही कहते है क्यूंकि लड़कों के खिलौनों में यहाँ और वहाँ अर्थात देश और विदेश कहीं कोई खास अंतर नहीं है। जहां अपने इंडिया में लड़कों को बंदूक ,कार, और एलियन बनने का शौक है, तो यहाँ भी लड़कों को यही सब शौक है खास कर छोटे-छोटे लड़कों में एलियन से लड़ने वाला सुपर हीरो बनने का कुछ ज्यादा ही शौक होता है और अब शायद अपने यहाँ भी जिसके चलते बेन टेन, पावर रेंजर, बेट मैन जैसे सुपर पावर वाले सुपर हीरो लड़कों की पहली पसंद में आते है। :)
लेकिन इस सब से हटकर जो अनुभव मुझे मेरे बेटे के स्कूल के मेले में घूमने के दौरान हुआ, उसने मेरे इस विश्वास को ज़रा डगमगा दिया। अपने जमाने में हमारे लिए मेले का अर्थ हुआ करता था केवल भरपूर मनोरंजन, जी भर के मौजमस्ती खाने पीने से लेकर खेलने खुदने और सभी मन चाहे झूलों पर झूलना ही मेले जाने का एकमात्र उद्देश्य हुआ करता था। फिर चाहे वहाँ चार पालकी का झूला हो, 6 का हो, या 12 का हो उससे हमको कोई फर्क नहीं पड़ता था। हमारे लिए अहम हुआ करता था मौज मस्ती मनोरंजन, यानि हम उस दौरान जो भी करें उसमें बस मज़ा आना चाहिए। यही हमारा मुख्य उद्देश्य रहा करता था।
लेकिन इस सब से हटकर जो अनुभव मुझे मेरे बेटे के स्कूल के मेले में घूमने के दौरान हुआ, उसने मेरे इस विश्वास को ज़रा डगमगा दिया। अपने जमाने में हमारे लिए मेले का अर्थ हुआ करता था केवल भरपूर मनोरंजन, जी भर के मौजमस्ती खाने पीने से लेकर खेलने खुदने और सभी मन चाहे झूलों पर झूलना ही मेले जाने का एकमात्र उद्देश्य हुआ करता था। फिर चाहे वहाँ चार पालकी का झूला हो, 6 का हो, या 12 का हो उससे हमको कोई फर्क नहीं पड़ता था। हमारे लिए अहम हुआ करता था मौज मस्ती मनोरंजन, यानि हम उस दौरान जो भी करें उसमें बस मज़ा आना चाहिए। यही हमारा मुख्य उद्देश्य रहा करता था।
किन्तु आज ऐसा नहीं है आज मनोरंजन के साधनों में भी उम्र का फर्क आ गया है। अब जहां बड़े-बड़े मेलों में पहले से ही झूलों को लेकर उम्र का बंधन होता है, वहीं स्कूलों में लगने वाले मेलों में बच्चे खुद ही अपनी उम्र के हिसाब से अपना मनोरंजन चुन लिया करते हैं। जैसे मेरे बेटे को उसके स्कूल मेले में ज़रा भी मजा नहीं आया। पूछिये क्यूँ ? भला मेले में जाकर भी किसी बच्चे को मजा न आए ऐसा भी होता है कभी.....मगर ऐसा हुआ। क्यूंकि उसके हिसाब से वहाँ लगे सभी झूले और आय मनोरंजन के सभी साधन उसकी उम्र से छोटे बच्चों के लिए थे। उसके हिसाब से वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था, जो उसकी उम्र के बच्चों को मज़ा दे सके। हालांकी मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश भी की, कि कोई फर्क नहीं पड़ता बात तो मस्ती की है। जो मन करे वो कर लो, मगर उसने मुझसे साफ कह दिया, मुझे यहाँ कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। मेरा कोई दोस्त भी नहीं दिख रहा है सभी छोटे बच्चे ही नज़र आ रहे हैं। इसलिए आप चलो घर, मगर मैं कहाँ मानने वाली थी :-) मुझे तो मेला देखकर ही मन हो रहा था कि और कुछ नहीं तो कम से कम पूरे स्कूल का एक चक्कर तो बनता ही है। तो बस मैंने उसे लिया और कहा ठीक है चलते हैं, जल्दी क्या है। कम से कम देख तो लें, क्या-क्या है तुम्हारे स्कूल में अर्थात ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम यही देख लें कि कौन-कौन से स्टाल लगे हैं। तब कहीं जाके वो तैयार हुआ।
बस तभी वहीं घूमते-घूमते हम पहुंचे इस गुड़िया के बाल वाले स्टाल पर जहां लम्बी लाइन लगी हुई थी मैंने भी अपने बेटे से कहा कि कुछ भी हो जाये यार हार्दिक यह तो खाना ही है, इसके बिना मेले में आने का शगुन पूरा नहीं होगा यार। चल लग जा लाइन में, बेचारा मन ना होते हुए भी मेरे मारे लाइन में लगा रहा। मेरा प्यारा सा आज्ञाकारी बेटा:-) तब मैंने देखा वहाँ आसपास बच्चों की भीड़ लगी थी। ऐसे बच्चों की जिन्हें वो लेने में कोई खास दिलचस्बी नहीं थी। मगर वो बनता कैसे है, यह देखने की बेहद उत्सुकता उन सभी बच्चों की आँखों में और उनके चहरे पर साफ नज़र आ रही थी। सबका हाव भाव कुछ ऐसा लग रहा था देखने में, जैसे कोई जादुई मशीन हो जिसमें मात्र पाउडर डालने से रुई जैसे बल्कि रुई से भी नरम गुड़िया के बाल बन जाते हैं। वो भी इतने मीठे की मुंह में रखते ही गायब हम्म यम,यम :-) आपके मुंह में भी पानी आ गया ना :-) और क्यूँ ना आए ,वो है ही बच्चों की ऐसी मिठाई कि बच्चे ही क्या बड़ो के मुंह में भी पानी आए बिना नहीं रह पाता है और भई हम तो ऐसी चीजों को देखकर थोड़ी देर के लिए यह हाइजीन, वाइजिन सब भूल जाते है। याद रखते है तो बस उस चीज़ को खाने का मज़ा। अब कोई हमें इस बात के लिए बेवकूफ समझे तो समझता रहे हमारी बला से .....:)
खैर लाइन में हमारा नंबर आया और हमने एक बड़ा सा गुड़िया के बाल वाला पैकेट खरीदा और पूरे रास्ते खाते-खाते आए और खूब मज़ा किया वो खाने के बाद मेरे बेटे के चेहरे पर भी थोड़ी चमक आ गयी थी और थोड़ी देर के लिए ही सही वो मेले की बोरियत को भूल गया था :) और इसे ज्यादा मुझे क्या चाहिए था :) है ना...
बचपन में कभी नहीं खाई . अब खाने में शर्म आती है . :)
ReplyDeletewow..my favorite....
ReplyDeleteहमने भी खाए बचपन में। अब भी बर्फ़ की चुस्की का मजा ले ही लेते है।
ReplyDeleteहम बचपन में इसे 'हवा मिठाई' कहते थे....क्या खूब याद दिलाई आपने...हमने भी बड़े कौतूहल से इसे बनाने की प्रक्रिया देखी थी.
ReplyDeleteसब से पहली बार मैंने इसको मुरादाबाद मे खाया था अपनी ननिहाल मे नानी से पैसे ले कर ... वहाँ इसको 'गोला' कहते थे तब ... अब का पता नहीं ... नानी और मामा जी के निधन के बाद ननिहाल छुट सा गया है ... आपकी इस पोस्ट ने न जाने क्या क्या याद दिला दिया ... कुछ खट्टा ... कुछ मीठा :)
ReplyDeleteआपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है प्लस ३७५ कहीं माइनस न कर दे ... सावधान - ब्लॉग बुलेटिन के लिए, पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
खाने से ज्यादा गुलाबी जीभ बनाने में मजा आता था :)
ReplyDeleteखूब खायी.....अब भी खाने में नहीं झिझकते.....
ReplyDeleteबनाने की प्रक्रिया वाकई बढ़िया है...
अगले किसी मेले के इंतज़ार में......................
अनु
बचपन में हमेशा ललचाते रहे हैं। अमेरिका में बहुत बड़ी साइज के मिलते हैं। आजकल तो यहाँ शादियों में बनने लगे हैं।
ReplyDeleteहम लोग इसे बम्बइया कहते थे और इसी तरह एक बांस की लठ्ठा में गीली कैंडी आता था जिससे हाथ में घडी गले का चेन भी बनाते थे | अभी डिस्कवरी पर देखा की ये उद्योग अमेरिका में कितना बड़ा है और सब आधुनिक आटोमैटिक मशीनों से होता है बिल्कुल साफ सुथरा अच्छे से बनाता और आज कल तो बच्चे बहुत जल्दी बड़े हो जाते है |
ReplyDeleteबचपन की याद दिला दी ... खूब खाई है ... बनते हुये भी देख कर बहुत मज़ा आता था ... चलो थोड़ी बोरियत तो दूर हुयी बेटे की ॰
ReplyDeleteआपकेमेरे मुंह में भी पानी आ गया ना :-)
ReplyDeleteहां :D क्योंकि मुझे भी बेहद पसंद है ,आज भी खाती हूँ .... :)
बांस की लठ्ठा में गीली कैंडी अब कहाँ दिखलाई देता है .... :)
ReplyDeleteapne school time me khub khaya tha. uff kitna lambaaaaaaaaaaaaaa kar ke deta tha.. fir ham ek dure se compare karte the:)) wo yaaden!!
ReplyDeletewaise iss budhiya ke baal ko khane me sabse badi pareshaani ye hoti hai ki pure chehre me lag jata hai...:)
ReplyDeletebadhiya laga padh kar:)
ab to mere muh me pani aa hi gaya,
ReplyDeletebachpan me hamne bhi bahut khaya hai , tab 1 ke das mila kerte the, chote chote gol gol , ek aadmi ghanti bajaker bechne ata tha ......
कल 15/07/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (15-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
हमें तो जब भी मौका मिलता है, खा लेते हैं।
ReplyDeleteवाह !!
ReplyDeleteअमृतसर याद आ गया जहाँ इसे पूरे सलीके से, तरीके से, सामने बनवा कर खाया करते थे. जीभ लाल हो जाती थी और स्वाद के मारे....चटखारे. वहाँ इसे बूढ़ी माता के केश कहते थे. आप की पोस्ट में एक ही कमी रह गई, एक कैंडी फ्लास खाने को मिल जाती तो आनंद आ जाता.
ReplyDeleteMunh men paani aa raha hai....
ReplyDelete............
ये है- प्रसन्न यंत्र!
बीमार कर देते हैं खूबसूरत चेहरे...
यह भी खूब रही.
ReplyDeleteगुडिया के बालों ने बेटे की बोरियत को दूर कर दिया.
आपका लेखन भी तो कुछ कुछ ऐसा ही है.
बोरियत को छू मंतर करता हुआ.
बहुत समय हो गया है आपको पल्लवी जी,मेरे ब्लॉग पर आये हुए.
कारण से अनजान हूँ.
काश! मेरे पास भी कुछ गुडिया के बाल होते.
सुन्दर संस्मरण...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteमैं तो इन चीज़ों के लिए कभी भी बच्चा बनने को तैयार रहता हूं। पुराने दिन याद आ गए।
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