सत्यमेव जयते
आज की तारीख़ में यह एक बहुचर्चित कार्यक्रम है। जिसमें दिखाये जाने वाले सभी विषय हमारे समाज के लिए कोई नये नहीं है। किन्तु जिस तरह इन सभी विषयों को इस कार्यक्रम के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। वह यक़ीनन काबिले तारीफ़ है। क्यूँकि कुछ देर के लिए ही सही वह सभी विषय हमें सोचने पर मजबूर करने में सक्षम सिद्ध हो रहे हैं और हमारे ऊपर प्रभाव भी डाल रहे है, कि हम उन विषयों पर सामूहिक रूप से एक बार फिर सोचे विचार करें। लेकिन यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ कुछ देर विचार कर लेने से, सोच लेने से इन सब दिखायी गई समस्याओं का समाधान हो सकता है ? नहीं! बल्कि इन विषयों पर हम सभी को गंभीरता से सोचना होगा अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और इतना ही नहीं हम जो समाधान निकालें उस पर हमें खुद भी अमल करना होगा। तभी शायद हम किसी एक विषय की समस्या पर पूरी तरह काबू पा सकेंगे, वरना नहीं। ऐसा मेरा मानना है। वैसे तो इस कार्यक्रम पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस कार्यक्रम ने ना सिर्फ आम जनता को, बल्कि लेखकों को भी लिखने के लिए बहुत से विषय दे दिये है। इसलिए मैं इस कार्यक्रम की बहुत ज्यादा चर्चा न करते हुए सीधा मुद्दे पर आना चाहूंगी।
हालांकी मेरा आज का विषय भी इस ही कार्यक्रम से जुड़ा है और वह है 'छुआछूत' का मामला जिसके तहत मैं पूरे कार्यक्रम का विवरण नहीं दूंगी। मैं केवल बात करूंगी उस बात पर जो इस कार्यक्रम के अंतर्गत इस छुआछूत वाले भाग के अंत में कही गयी थी। लेकिन बात शुरू करने से पहले मैं यहाँ कुछ और अहम बातों का भी जि़क्र करना चाहूंगी। वो यह कि यह 'छुआछूत' की समस्या हमारे समाज में ना जाने कितने सालों पुरानी है। राम जी के समय से लेकर अब तक यह समस्या हमारे समाज में अब न केवल समस्या के रूप में, बल्कि एक परंपरा के रूप में आज भी विद्दमान है। जो कि आज एक प्रथा बन चुकी है, एक ऐसी कुप्रथा जो सदियों से चली आ रही है। जब मैंने वो सब सोचा तो, मेरा तो दिमाग ही घूम गया। हो सकता है उस ही वजह से शायद आपको मेरा यह आलेख थोड़ा उलझा हुआ भी लगे। एक तरफ तो भगवान राम से शबरी के झूठे बेर खाकर यह भेद वहीं खत्म कर दिया और यदि हम प्रभु के रास्ते पर चलना ही उचित समझते है, तो केवट और शबरी के साथ प्रभु ने सतयुग में ही इस भेद को बदल दिया था। लेकिन हम आज भी वहीं के वहीं हैं।
खैर वैसे भी बात यहाँ इंसान और भगवान की नहीं 'छुआछूत' की है। जो तब भी थी और आज भी है और इस सब में मुझे तो घोर आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह छुआछूत की मानसिकता सबसे ज्यादा हमारे पढे लिखे और सभ्य समाज के उच्च वर्ग में ही पायी जाती है। निम्न वर्ग में नहीं, ऐसा तो नहीं है। मगर हाँ तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो बहुत कम और लोग इस मानसिकता के चलते इस हद तक गिर जाते हैं, कि इंसान कहलाने लायक नहीं बचते। क्योंकि यह घिनौनी और संकीर्ण मानसिकता न केवल बड़े व्यक्तियों को, बल्कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को भी इस क़दर मानसिक आहत पहुँचाती है कि उन्हें बाहरी दुनिया से कटना ज्यादा पसंद आता है। बजाय उसे जीने के, उसे देखने के, क्योंकि या तो लोग उन्हें घड़ी-घड़ी पूरे समाज के सामने अपमानित करते है या उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है।
खैर वैसे भी बात यहाँ इंसान और भगवान की नहीं 'छुआछूत' की है। जो तब भी थी और आज भी है और इस सब में मुझे तो घोर आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह छुआछूत की मानसिकता सबसे ज्यादा हमारे पढे लिखे और सभ्य समाज के उच्च वर्ग में ही पायी जाती है। निम्न वर्ग में नहीं, ऐसा तो नहीं है। मगर हाँ तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो बहुत कम और लोग इस मानसिकता के चलते इस हद तक गिर जाते हैं, कि इंसान कहलाने लायक नहीं बचते। क्योंकि यह घिनौनी और संकीर्ण मानसिकता न केवल बड़े व्यक्तियों को, बल्कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को भी इस क़दर मानसिक आहत पहुँचाती है कि उन्हें बाहरी दुनिया से कटना ज्यादा पसंद आता है। बजाय उसे जीने के, उसे देखने के, क्योंकि या तो लोग उन्हें घड़ी-घड़ी पूरे समाज के सामने अपमानित करते है या उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है।
कुछ बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को शायद ऐसा लगता है कि अब ऐसा नहीं होता। अब यह प्रथा हमारे समाज से लगभग ख़त्म हो चुकी है। क्यूंकि शायद उनको ऐसा कुछ आमतौर पर या अब खुले आम देखने सुनने को नहीं मिलता। मगर वास्तविकता यह है, कि आज भी लोग भले ही इन लोगों के सामने उनके मुंह पर कुछ न बोलें मगर पीठ पीछे अपशब्दों में ज़रूर कुछ न कुछ बोला ही जाता है। ऐसा शहरों में होता है अर्थात यह कहना गलत नहीं होगा कि समस्या का रूप ज़रूर बदल गया है, मगर समस्या है आज भी वहीं की वहीं, लेकिन गाँव में तो आज भी दलितों के साथ उसी ही तरह का व्यवहार होता हैं। जैसा आज से कई साल पहले हुआ करता था। उनको समान अधिकार नहीं दिया जाता, वह किसी के साथ उठ बैठ नहीं सकते, एक नल से पानी नहीं पी सकते, एक मंदिर में भगवान की आराधना नहीं कर सकते और यदि किसी तरह मंदिर में जाने की इजाज़त मिल भी जाये तो एक ही दरवाजे से मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। उन्हें एक जैसा प्रसाद तक नहीं मिल सकता क्यूँ ? क्योंकि वह दलित है?
लेकिन जरूरत के वक्त हम जैसे सो कॉल्ड(so called) उच्च श्रेणी में आने वाले लोगों को घर के कामों के वक्त इन्हीं दलितों की आवश्यकता पड़ती है। फिर चाहे अपने घरों में काम करवाने के लिए कामवाली बाई रखना हो, या साफ सफ़ाई करवाना हो, खुद ही सोचिए कि क्या खाना बनाने वाली बाई रखते वक्त आप उसकी जाति का ध्यान रखते हैं ? पूछने पर हर कोई बोलेगा हाँ, हम तो हमेशा ब्राह्मण जाति के व्यक्ति से ही खाना बनवाते हैं। लेकिन आज की इस दौड़ भाग भरी ज़िंदगी में किसके पास इतना समय है कि वो उस व्यक्ति का इतिहास निकलवाकर पूर्णरूप से पुष्टि करता बैठे कि वह व्यक्ति वास्तव में ब्राह्मण है भी या नहीं, साधारण रूप से सामने वाले ने कहा और हमने मान लिया यही तो होता है। खासकर यदि मेट्रो सिटी की बात की जाये तो, तब कहाँ गुम हो जाता है, हमारा यह भेद भाव और सिर्फ यही नहीं बल्कि कुछ अय्याश क़िस्म के उच्च वर्ग में गिने जाने वाले लोगों के लिए तो इस निम्न समाज की लड़कियाँ उनकी शारीरिक भूख मिटाने का समाधान तक बन जाती है। उस वक्त वो उनका बिस्तर बाँट सकती है। मगर उसके अलावा उनके घर के बिस्तर पर साधारण रूप से बैठ भी नहीं सकती। बहू बेटी बनना, बनाना तो दूर की बात है क्यूँ ???
लेकिन जरूरत के वक्त हम जैसे सो कॉल्ड(so called) उच्च श्रेणी में आने वाले लोगों को घर के कामों के वक्त इन्हीं दलितों की आवश्यकता पड़ती है। फिर चाहे अपने घरों में काम करवाने के लिए कामवाली बाई रखना हो, या साफ सफ़ाई करवाना हो, खुद ही सोचिए कि क्या खाना बनाने वाली बाई रखते वक्त आप उसकी जाति का ध्यान रखते हैं ? पूछने पर हर कोई बोलेगा हाँ, हम तो हमेशा ब्राह्मण जाति के व्यक्ति से ही खाना बनवाते हैं। लेकिन आज की इस दौड़ भाग भरी ज़िंदगी में किसके पास इतना समय है कि वो उस व्यक्ति का इतिहास निकलवाकर पूर्णरूप से पुष्टि करता बैठे कि वह व्यक्ति वास्तव में ब्राह्मण है भी या नहीं, साधारण रूप से सामने वाले ने कहा और हमने मान लिया यही तो होता है। खासकर यदि मेट्रो सिटी की बात की जाये तो, तब कहाँ गुम हो जाता है, हमारा यह भेद भाव और सिर्फ यही नहीं बल्कि कुछ अय्याश क़िस्म के उच्च वर्ग में गिने जाने वाले लोगों के लिए तो इस निम्न समाज की लड़कियाँ उनकी शारीरिक भूख मिटाने का समाधान तक बन जाती है। उस वक्त वो उनका बिस्तर बाँट सकती है। मगर उसके अलावा उनके घर के बिस्तर पर साधारण रूप से बैठ भी नहीं सकती। बहू बेटी बनना, बनाना तो दूर की बात है क्यूँ ???
वैसे देखा जाये तो इस समस्या का शायद कोई समाधान है ही नहीं...और शायद है भी, वह है यह (intercaste marriage) अर्थात अंतरजातीय विवाह, लेकिन जिस तरह हर एक चीज़ के कुछ फ़ायदे होते है, ठीक उसी तरह कुछ नुक़सान भी होते हैं। इस विषय में मुझे ऐसा लगता है कि यदि ऐसा हुआ अर्थात अंतरजातीय विवाह हुए तो किसी भी इंसान का कोई ईमान धर्म नहीं बचेगा। सभी अपनी मर्जी के मालिक बन जाएँगे और उसका गलत फायदा उठाया जाना शुरू हो जायेगा। हालाकीं में कोई धर्म अधिकारी नहीं हूँ लेकिन फिर भी मैं जितना समझती हूँ उसके आधार पर कह रही हूँ कि मुझे ऐसा लगता है कि एक इंसान को सही मार्गदर्शन दिखाने और उस पर उचित व्यवहार करते हुए चलने कि प्रेरणा भी उसे अपने धर्म से ही मिलती है। क्यूंकि "मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना हिन्दी हैं हम वतन हैं हिंदोस्ता हमारा" और धर्म किसी भी बात एवं कार्य के प्रति इंसान को एक सीमा के अंदर रहते हुए आस्था और विश्वास का पाठ सिखाता है। जो एक समझदार और सभ्य इंसान के लिए बेहद जरूरी है और यदि यह अंतरजातीय विवाह होने शुरू हो गए तो मुझे नहीं लगता कि इस बात का सही उद्देश्य ज्यादा दिन कायम रह पाएगा। क्यूंकि जिस तरह की सोच हमारे यहाँ के लोग में आज भी विद्दमान है उसके चलते जल्द ही इस बात का गलत फायदा उठाये जाने की संभावना अधिक है। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि अंतरजातीय विवाह से तो अच्छा है किसी एक धर्म का सर्वमान्य होना। जो सपने में भी संभव नहीं, :) यह केवल मेरी एक सोच है। जिसमें सार्थकता कुछ भी नहीं।
खैर मगर अफ़सोस इस बात का है कि हमारे समाज की यह विडम्बना है, या यूं कहिए कि यह दुर्भाग्य है कि यहाँ न सिर्फ आज से बल्कि, सदियों पहले से हम धर्म के नाम पर लड़ते, मरते और मारते चले आ रहे। क्योंकि शायद हम में से किसी ने आज तक धर्म की सही परिभाषा समझने की कोशिश ही नहीं की, क्योंकि धर्म कोई भी हो, वह कभी कोई गलत शिक्षा नहीं देता। इसलिए शायद हमारे बुज़ुर्गों ने बहुत सी बातों को धर्म से जोड़कर ही हमारे सामने रखा। ताकि हम धर्म के नाम पर ही सही, कम-से-कम उन मूलभूत चीजों का पालन तो करेंगे। मगर उन्हें भी कहाँ पता था कि पालन करने के चक्कर में लोग कट्टर पंथी बन जाएँगे और एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान समझना ही छोड़ देगा। जिसके चलते संवेदनाओं का नशा हो जायेगा जैसे कि आज हो रहा है। आज इंसान के अंदर की सभी संवेदनायें लगभग मर चुकी हैं। आज हर कोई केवल अपने बारे में सोचता है। सब स्वार्थी है, किसी को किसी दूसरे की फिक्र नहीं है इसलिए आज देश पर भ्रष्टाचार का राज चलता है।
जिसके कारण देश चलाने वालों का नज़रिया देश के प्रति देशप्रेम न रहकर स्वार्थ बन गया है और उनकी सोच ऐसी की देश जाये भाड़ में उनकी बला से, उन्हें तो केवल अपनी जेबें भरने से मतलब है। अब हम आते हैं मुद्दे की बात पर जो इस कार्यक्रम के अंत में आमिर ने कही थी कि यदि देखा जाये तो ऐसी मानसिकता के जिम्मेदार कहीं न कहीं हम खुद ही हैं। क्यूंकि आज हम अपने बच्चों को बचपन से ही झूठ बोलना और भेदभाव करना खुद ही तो सिखाते है और आगे चलकर जब वही बच्चा कोई गलत काम करता है, या झूठ बोलता है। तब बजाय हम खुद अपने अंदर झाँकने के उस बच्चे पर आरोप प्रत्यारोप की वर्षा करते हैं। दोषारोपण करते है। मगर यह नहीं देख पाते कि हमने ही उसे यह कहा था कभी, कि अरे बेटा फलाने अंकल आये तो कह देना मम्मी पापा घर में नहीं है, या फिर अरे इसके साथ मत खेलो वह भंगी का बेटा है या चमार का बेटा है। (इन शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए माफी चाहूंगी) मगर हकीकत यही है घर में जब लोग बच्चों को समझाते है, तो इसी लहज़े में समझाते हैं मैंने खुद देखा है। यहाँ बहुत से लोग दिखावा करने के चक्कर में अपने बच्चों को उन दलितों के बच्चों के साथ खेलने की मंज़ूरी तो दे देते है। मगर उनके साथ खाना-पीना या उनके घर जाने की अनुमति नहीं दे पाते। क्योंकि वो लोग भले ही कितने भी साफ सुथरे क्यूँ न हो, मगर हमारी मानसिकता ऐसी बनी हुई है कि वह लोग हमेशा हमें खुद की तुलना में गंदे ही नज़र आते है।
क्या है इस समस्या का वाकई कोई निदान?? मेरी समझ से तो नहीं जब तक एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान नहीं समझेगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। रही बात इंसानियत की तो आज के ज़माने में इंसानियत की बात करना यानी एक ऐसी चिड़िया के विषय में बात करने जैसा है जिसकी प्रजाति लुप्त होती जा रही है। जिसका अस्तित्व लगभग खत्म होने को है। और यदि हमें इस चिड़िया को लुप्त होने से बचाना है तो संवेदनाओं को मरने से रोकना होगा। अपनी सोच बदलनी होगी जिसकी शुरुआत सबसे पहले खुद के घर से अर्थात खुद से ही करनी होगी। क्योंकि अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसलिए इस विषय पर सामूहिक रूप से चर्चा करना और इस समस्या के समाधान हेतु आगे आना और मिलजुल कर प्रयास करना ही इस परंपरा या इस कुप्रथा का तोड़ साबित हो सकता है इसलिए "जागो इंसान जागो" अपने दिमाग ही नहीं बल्कि अपने दिल के दरवाजे भी खोलो। क्योंकि भले ही ईश्वर ने दिमाग को दिल के ऊपर का दर्जा दिया हो, मगर तब भी दिमाग के बजाय दिल से लिए हुए फ़ैसले ही ज्यादा सही साबित होते है। जय हिन्द....
बहुत सही कहा आपने....अब समाज से इस छुआछूत वाली भावना को हटाना ही होगा..
ReplyDeleteइस समस्या पर हम जब भी सोचते हैं, आशंकाओं के साथ सोचते हैं. यदि हम कहें कि जातिपाति जल्दी समाप्त होने वाली है तो ऐसा नहीं है. हमारी वर्तमान शासन व्यवस्था सदियों से मनुस्मृति से संचालित रही है. उसके प्रावधानों का हमारी परंपराओं पर गहरा प्रभाव है.
ReplyDeleteहमारे देश में छुआछूत एक अपराध है. लेकिन तत्संबंधी नियमों का उल्लंघन होने पर किसी को आज तक कोई दंड मिला हो ऐसा देखने में नहीं आया. आपका दिया हुआ अंतर्जातीय विवाहों का सुझाव एक कारगर उपाय है जो ज़ोर पकड़ रहा है. लेकिन उसमें काफी समय लगेगा.
पल्लवी बिटिया, मुख्य मुद्दा है धन के प्रवाह का. यदि सरकार आरक्षण के माध्यम से अनुसूचित जातियों की ओर धन का प्रवाह होने देती है तो देश की अन्य जातियों को और उद्योग जगत को सस्ते श्रम की उपलब्धता खतरे में दिखने लगती है. इसी लिए इनकी शिक्षा के स्तर को भी अच्छा नहीं होने दिया जाता चाहे उसके लिए कपिल सिब्बलाना सुधार ही क्यों न लागू करने पड़ें. यह है सच्चाई.
आपका आलेख पढ़ कर अच्छा लगा.
@(intercaste marriage) अर्थात सम्मिलित विवाह,- ?????.
ReplyDeleteकुछ समस्याएं हमारे समाज में परम्पराओं के नाम से इस तरह जड पकड़ चुकी हैं कि उन्हें उखाड़ने में समय लगेगा.समाधान तो तब हो जब कोई इन्हें समस्या माने.
shikha ji is baat se to main sahmat. intercast marriage matlab antarjatiya vivah hota hai....:)
ReplyDeletepallavi ji lekha accha hai. par aap agar bharat me hoti to kuch jatigat shabd jo aapne use kie unke lie saza ki haqdaar hoti :) samvidhan ke mana kiya gaya hai. :)
aapki soch se sahmat hu har cheej ke positive aur neg effect hote hain.
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (21-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
समय के साथ छुआ छूत की समस्या कम हुई है . हालाँकि दूर दराज़ के गाँव में अभी भी देखने को मिलती है .
ReplyDeleteलेकिन अभी भी निम्न जाति में विवाह करने को राज़ी नहीं हैं लोग .
Apne bahut achchha aur tarkik vishleshan kiya hai Pallavi ji...par mujhe lagta hai ki is samasya ka sirf ek samadhan hai..vo yah ki har vyakti ye samjhe ki vo pahle manushya hai----Hindi,Muslim,Dalit,Achhut bad me...jab tak ye sence logon me nahi ayega..samasya ka koi nidan nahi hoga..
ReplyDeleteHemant Kumar
बहुत से प्रश्नों के उत्तर मांगती हुई सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteआज हमारे देश में, मुददा बना व्यापार
ReplyDeleteआमिर कोशिश कर रहे, हो जाये सुधार,,,,,
बेहतरीन प्रस्तुति,,
RECENT POST ...: आई देश में आंधियाँ....
अगर मानवीय संवेदनाओं को समझना है तो ...इन सबसे ऊपर उठना ही होगा....
ReplyDeleteजी, बिलकुल ठीक कह रहें आप अंकल आपकी लिखी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ।
ReplyDeleteशिखा जी एवं कनू ... सुधार कर लिया है मार्गदर्शन के लिए आप दोनों का आभार...
ReplyDeleteआभार ....
ReplyDeleteसत्यमेव जयते वाकई गज़ब की चेतना ला रहा है और लोग रविवार का बेसब्री से इंतजार करने लगे है . इसका असर भी दिख रहा है.
ReplyDelete.
छुवाछूत एक गंभीर समस्या है और इसे दूर करना अति आवश्यक है. विचारनीय पोस्ट .
आज कल छुवा छूत पहले के मुक़ाबले में काफी कम है .... शहरों में तो पता ही नहीं चलता कि कौन किस जाति का है ... दलित खुद ही प्रमाण - पत्र ले कर घोषणा कराते हैं कि हम दलित हैं । आज कल अंतरजातीय विवाह का प्रचालन भी बढ़ा है ... पर बदलाव धीरे धीरे ही आएगा ... बस मानवीय संवेदना का होना ज़रूरी है ... विचारणीय लेख
ReplyDeleteबदलाव तो है......जिन्होंने धन कम लिया है कम से कम वो तो मुक्त हैं छुआछूत से....
ReplyDeleteमानसिकता एकदम से नहीं बदलती...
सादर
अनु
क्योंकि भले ही ईश्वर ने दिमाग को दिल के ऊपर का दर्जा दिया हो, मगर तब भी दिमाग के बजाय दिल से लिए हुए फ़ैसले ही ज्यादा सही साबित होते है।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट में छुआछूत के मसले को अच्छे से उठाया है.
आपने दिल और दिमाग दोनों का ही अच्छा उपयोग किया है.
सार्थक पोस्ट के लिए आभार,पल्लवी जी.
एक सार्थक और उम्दा आलेख :
ReplyDeleteथोड़ा बदलाव तो आया है
कोई तो बात को उठाया है
इंसान है इंसानियत भी है
ले चलें कारवाँ उस दिशा
नया सवेरा सुना है
कहीं एक घ्रर बनाया है ।
मैं जब भी छुआछूत के सन्दर्भ में लोगों से राम और शबरी की बात करती हूँ, तो उनका हमेशा यही जवाब होता है कि वो तो भगवान् हैं...हम उनकी बराबरी कैसे कर सकते है... गाँधी जी का भी यही कहना था कि जब हरिजनों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं होगा, तब तक छुआछूत को समूल उखाड़ फेंकना असंभव है... सार्थक प्रस्तुति... :)
ReplyDeleteगूढ़ विषय को बहुत ही रोचक ढंग से रखा है आपने।
ReplyDeleteसच दिखाना जितना आसान है उतना ही उसे अमल कर दिखाना ...सच देखकर फिर उसी ढरे पर चलना पड़े तो फिर क्या कुछ नया हुआ ..लगता ही नहीं ..
ReplyDeleteबहुत सही लिखा आपने ....
जाति -विभेद हमारे समाज की समरसता के लिए कोढ़ है ., शायद तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था और नीचे के पायदान तक उसकी पहुच इस पर लगाम लगाये . अच्छी व्याख्या .
ReplyDeleteगहन भाव लिए ... सशक्त लेखन ...आभार
ReplyDeleteसबसे पहले तो हमे खुद इन दकियानूसी परम्पराओं से मुक्त होना होगा आपके सवाल का यही जवाब दे सकता हूँ -
ReplyDeleteतुम बदलोगे युग बदलेगा, तुम सुधरोगे युग सुधरेगा
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं और अपने आस पास के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा तभी धीरे धीरे इससे पूरे समाज में जागरूकता आ सकती है।
एक बात और भी कहना चाहूँगा 'आरक्षण' नाम की बीमारी भी इस देश से दूर होनी ज़रूरी है क्योंकि ये भी एक वजह है जो शूद्रों को अपनी हालत वही की वही रखे रहने का लोभ है ......ये मेरा अपना नजरिया है ।
सारे जहाँ से अच्छा ....... पर कई पैबंद . आपने जो विषय उठाया , उस पर सोचना ज़रूरी है , क्योंकि मजहब जब बैर नहीं सिखाता तो क्या जाति और छुआछूत
ReplyDeleteआप मेरे पोस्ट परिचय बुद्ध की शिक्षा से पर आयीं मुझे अच्छा लगा. आपका उनके जीवन के बारे में पहले पोस्ट पर भी स्वागत है.आप उसे पढ़ने की लिए यहाँ क्लिक कर सकते हैं. एक बार फिर से मैं गुजारिश करना चाहूँगा की यदि आपको यह बातें अच्छी लगें तो इसे दूसरों तक भी फैलाएं. आप चाहें तो इसे अपने नाम से भी दल सकते हैं क्यूंकि मेरा मतलब लोगो को सही चीजें बताने से है. मुझे कोई प्रसिद्धि नहीं चाहिए. मैं सिर्फ एक राष्ट दिखाना चाहता हूँ बाकि चुनना नहीं चुनना उनका काम है.
ReplyDeleteशुक्रिया
बहुत सही ...गहन भाव लिए ... सशक्त लेखन
ReplyDeleteछूआछूत एक बीमारी है जो हमारे समाज के लिए प्राणघातक है ...
ReplyDeleteसुंदर व सशक्त लेखन !
साभार !
भले ही ईश्वर ने दिमाग को दिल के ऊपर का दर्जा दिया हो, मगर तब भी दिमाग के बजाय दिल से लिए हुए फ़ैसले ही ज्यादा सही साबित होते है।
ReplyDeleteबात तो आपकी सही है |
ReplyDeleteविचारनीय पोस्ट ....
जो होना चाहिए काश! अब वो हो जाये ....
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!