मैं जानती हूँ कि मैं वक्त से पीछे चल रही हूँ। जब सब लोग जिस विषय पर लिख चुके होते है। उसके बाद ही उस विषय पर मेरा दिमाग चलना शुरू होता है। मगर किसी को याद करने के लिए कोई दिन फिक्स हो यह ज़रूरी तो नहीं जब जिसको याद करने का दिल करे तब उसे याद किया जा सकता है। है ना J
"शिक्षक"
शिक्षक हमारे ज़िंदगी से ताल्लुक रखने वाला वह इंसान होता है। जिसे हमें भगवान का दर्जा देना चाहिए। किन्तु शायद वास्तव में हम उन्हें वो दर्जा नहीं दे पाते, जिस तरह हमारे जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग सदैव आया करते हैं, उसी प्रकार हमारे जीवन में जिस दिन से हमारी शिक्षा प्रारम्भ होती है, से लेकर उस वक्त तक, जब तक हमारी शिक्षा पूर्ण नहीं हो जाती। न जाने कितने शिक्षक हमारी ज़िंदगी में आते है और आकार चले जाते है। जिनमें से हम कुछ को ही, याद रख पाते है और कुछ को नहीं। बाकी सबको या तो हम याद करते ही नहीं, या फिर याद करते भी हैं तो सिर्फ उस मज़ाकिया नाम से जो हमने ही कभी उन्हें दिया था। देखा जाये तो हमारे जीवन में आने वाला हर शख़्स हमको कुछ ना कुछ सिखाता ही है। माँ से शुरुआत होती है और उसके बाद तो जैसे हर कोई हमारा शिक्षक ही होता है जैसे हम हमारे परिवार के लोग से संस्कार सीखते है। वैसे ही हम अपने दोस्तों से भी बहुत कुछ सीखते है फिर वो अच्छा हो या बुरा, वो अलग बात है।
इंसान बना ही शायद सीखने के लिए है। इसलिए यह सीखने का सिलसिला कभी खत्म ही नहीं होता। ज़िंदगी के हर मोड़ पर नित नए अनुभवों से भी तो हम लगभग रोज कुछ न कुछ सीखते ही है। फिर चाहे कोई सही निर्णय लेकर सीख़ें या फिर कोई गलत निर्णय लेने पर, सीख तो दोनों ही सूरतों में मिलती है।
इस नाते एक तरह से हर इंसान हमारा शिक्षक ही हुआ। लेकिन हम सभी को वह दर्जा नहीं दे सकते जो वास्तव में हमें अपने स्कूल के या कॉलेज के शिक्षकों को देना चाहिए। क्योंकि ज़िंदगी के सही मायने तो वह ही हमको सिखाते हैं। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, सही गलत की सही पहचान तो वह ही हमें करवाते हैं। हमारी ज़िंदगी की नींव भी एक तरह से वही रखते हैं। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि बच्चे के शिक्षा की पहली नींव स्वयं उस बच्चे की माँ रखती है। उसकी पहली पाठशाला उसकी माँ ही होती हैं और अगर यह बात सोलह आने सच है, तो हमारे शिक्षक उस नींव के उपर मकान बनाने जैसा महत्वपूर्ण कार्य करते है। क्यूंकि बिना मकान के अकेली नींव के भी कोई मायने नहीं होते। है ना, और यदि ऐसा ना होता तो भगवान राम के ज़माने में और पांडवों के जमाने में स्वयं उनके माता पिता ने भी अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने हेतु गुरुकुल ना भेजा होता। तो हम तो सिर्फ इंसान हैं।
इसलिए शायद कबीर दास जी ने बहुत ही सुंदर शब्दों में कहा था।
“गुरु गोविंद दोनों खड़े, का के लागू पाये,
बली हारी गुरु आपकी गोविंद दियो दिखाये”
बली हारी गुरु आपकी गोविंद दियो दिखाये”
अर्थात् हमें सदा भगवान से पहले अपने गुरु को पूजना चाहिए क्योंकि उन्होने ही तो हमें वह शिक्षा और ज्ञान दिया है। जिसके चलते हम गोविंद को पहचान सके। इसलिए "हे गुरुदेव आपको बहुत-बहुत नमन कि आपने हमको यह शिक्षा प्रदान की जिसके कारण हम गोविंद को पहचान सके"। अथवा यदि आपने हमें यह ज्ञान नहीं दिया होता तो हम कभी गोविंद को सामने पाकर भी पहचान ही नहीं पाते। सच ही तो है जितनी सुंदर बात है। उसे उतने ही सुंदर ढंग से कहा गया है। हमारे जीवन में कुछ गुरु ऐसे भी आये हैं जिन्हें हमने उन दिनों कभी पसंद नहीं किया। जिसके चलते उन दिनों हमारी हमेशा यही कोशिश रहा करती थी कि उनका सामना ना हो, तो ही अच्छा है। मगर आगे जाकर जब हमको यह एहसास होता है, कि उस वक्त वह जो भी कहा करते थे, उसमें हमारा ही हित छुपा होता था।
मगर जिस तरह हर बात के दो पहलू होते हैं, इस बात के भी हैं। आज कल के अध्यापकों में से कुछ एक अध्यापक ऐसे भी हैं जिन्हों ने शिक्षक के नाम को धूल में मिला दिया है और इस कदर बदनाम भी किया है कि जब उस विषय में सुनो या कहीं पढ़ो तो बहुत अफसोस होता है। क्यूंकि जो शिक्षक बच्चे के अंदर ज्ञान का बीज बोता चला आया है। आज वही शिक्षक उसी बच्चे की जान का दुश्मन बन गया है। मैं यह नहीं कहती कि गलती करने पर सजा नहीं मिलनी चाहिए, जरूर मिलनी चाहिए मगर सजा देने का अर्थ होता है, गलती करने वाले को उसकी गलती का एहसास करवाना। ना कि बच्चे को इस कदर मारना पीटना, वह भी इस तरह से कि उसकी जान पर बन आये। क्यूंकि एक बार यदि उसे अपनी गलती का एहसास हो गया तो फिर वह खुद ही कभी आगे वो गलती नहीं दोहरायेगा। लेकिन आज कल तो सजा ऐसी होने लगी है, कि गलती का एहसास हो न हो, मगर बच्चे कि जान जाने की संभावना जरूर बन जाती है, जो कि एक इंसान और एक शिक्षक दोनों होने के नाते बेहद शर्मनाक बात है। क्यूंकि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को मार पीट कर नहीं बल्कि स्नेह और समझदारी से समझाया जाना चाहिए। ना कि उनके अंदर अपना डर बैठा कर उन नन्हें फूलों को खिलने से पहले ही, उनकी जमीन से उखाड़ देना चाहिए।
मगर जब हमें इस बात का एहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
यहाँ मैं आपको अपने उन दिनों के एक छोटे से अनुभव को साझा करना चाहूँगी। हमारे कॉलेज में अँग्रेज़ी साहित्य में एक अध्यापिका हुआ करती थी। जिनकी उम्र उस वक्त कुछ नहीं तो 50-55 के आस पास रही होगी जिनका नाम तो मुझे याद नहीं मगर वह अपना उपनाम समददर लिखा करती थी। सही क्या था। यह ना हम जानना चाहते थे, और ना ही हम में से कभी, किसी ने यह जानने की कोशिश ही की, बस इतना पता है कि वह जाति से बंगाली थी। हालाँकि शिक्षक का जात से कोई नाता नहीं जो भी इंसान हमें ज्ञान दे, जीवन का सही मार्ग दिखाये वो ही महान होता है। यहाँ मुझे कबीर दास जी का ही एक और दोहा याद आ रहा है।
यहाँ मैं आपको अपने उन दिनों के एक छोटे से अनुभव को साझा करना चाहूँगी। हमारे कॉलेज में अँग्रेज़ी साहित्य में एक अध्यापिका हुआ करती थी। जिनकी उम्र उस वक्त कुछ नहीं तो 50-55 के आस पास रही होगी जिनका नाम तो मुझे याद नहीं मगर वह अपना उपनाम समददर लिखा करती थी। सही क्या था। यह ना हम जानना चाहते थे, और ना ही हम में से कभी, किसी ने यह जानने की कोशिश ही की, बस इतना पता है कि वह जाति से बंगाली थी। हालाँकि शिक्षक का जात से कोई नाता नहीं जो भी इंसान हमें ज्ञान दे, जीवन का सही मार्ग दिखाये वो ही महान होता है। यहाँ मुझे कबीर दास जी का ही एक और दोहा याद आ रहा है।
“जाती न पूछो साधु कि पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान”
अर्थात यदि हमको किसी वक्ती से ज्ञान प्राप्त हो सकता है तो हमें उसकी जाति पर ना जाकर यानि उसकी जाति क्या है। यह ना जानने में दिलचस्पी दिखाते हुए उसका हुनर क्या है और हम उस से वह हुनर रूपी ज्ञान किस प्रकार सीख सकते हैं, पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। यहाँ तलवार और म्यान को भी इस ही नज़रिये से समझाया गया है कि म्यान और तलवार में से तलवार का ज्यादा महत्व है। खाली म्यान किसी काम की नहीं होती। खैर मैं बता रही थी, अपना अनुभव उन दिनों मेरा अँग्रेज़ी में हाथ बहुत तंग हुआ करता था। अर्थात् मेरी अँग्रेज़ी बहुत कमज़ोर हुआ करती थी। जिसके कारण हम यानी मैं और मेरे कुछ दोस्त हमेशा सबसे पीछे बैठा करते थे और किस्मत का खेल देखिये हमारे साथ रोज़ ही चोट हुआ करती थी। वह, ही हमारी एकमात्र ऐसी अध्यापिका थी। जो हमेशा ही जान बूझ कर पूछने की शुरुवात पीछे से ही किया करती थी। उस वक्त ऐसा लगता था मानो कहाँ फंस गए यार, डाँटते वक्त हमेशा उनका एक निश्चित संवाद हुआ करता था, जिसका उपयोग वो अनिवार्य रूप से किया करती थी। वह था "कुछ नहीं हो सकता तुम लोगों का, देखना बस घर-घर जाकर बर्तन साफ करने जैसा ही काम कर सकते हो तुम लोग, और कहीं किसी प्रकार का काम नहीं मिलेगा तुम को" वगैरा-वगैरा।
मगर हम लोग तो जैसे ढीठ हो गये थे। उनकी यह बातें रोज-रोज सुनकर हमको कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। नौबत यहाँ तक आ गई थी कि ऐसा लगता था कब वो आयें और कब हम लोगों से कहें कि तुम लोग यहाँ बैठने लायक ही नहीं हो। चले जाओ मेरी कक्षा से बाहर, यह जुमला सुनना हमारे लिए मजबूरी तो थी ही, साथ-साथ हमारी जरूरत भी थी। क्योंकि इस से पहले कम से कम और कुछ नहीं तो उपस्थिति तो लग जाए फिर कोई वांदा नहीं, जैसे जीने के लिए खाना-पीना, सोना-जागना, ज़रूरी होता है ठीक वैसे ही हमारे लिए उनकी डाँट ज़रूरी हुआ करती थी। जिस दिन वो नहीं आती थी, जैसे खाने में नमक ना हो तो लगता है ना, वैसे उनकी डाँट के बिना सब कुछ फीका बेस्वाद सा लगता था। उनकी डाँट हम लोगों कि रोज कि दिनचर्या में खाने में नमक का काम किया करती थी।
उनका ऐसा कहना गलत नहीं था। वह तो हमेशा हमारा भला ही चाहती थी, मगर हम ही उन्हें नहीं समझते थे। फिर जब कॉलेज खत्म हुए तब कई बार जीवन में इस बात का एहसास हुआ कि काश उन दिनों उनकी बातें मान ली होती तो, आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। शिक्षक दिवस पर अकसर लोग सिर्फ अपने पसंदीदा अध्यापक को ही ज्यादा याद किया करते हैं। मगर मैंने इस बार याद किया अपने उन सभी ऐसे अध्यापकों को जिन से उन दिनों मैं बेहद नफ़रत किया करती थी, या उनके पीछे उनका मज़ाक बनाया करती थी। इन सब बातों से जुड़े, नाजाने कितने क़िस्से हैं, मेरे पास जिनको मैं आप सभी के साथ बाँटना चाहती हूँ। मगर यदि सभी का वर्णन करने बैठ गई, तो यह लेख ना रहकर कहानी में तबदील हो जायेगा इसलिए आज के लिए बस इतना ही J इसी के साथ आपने सारे शिक्षकों को याद करते हुए उन सभी को नमन करती हूँ जिनकी बदौलत आज में यहाँ तक पहुँची हूँ .....जय हिन्द
शिक्षक को याद करने का कोई दिन निश्चित नहीं ..उन्हें तो भूलना ही नहीं चाहिए.
ReplyDeleteशिक्षक दिवस के अवसर पर
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित पोस्ट प्रकाशित की है आपने!
आज हम जो कुछ भी हैं अपने शिक्षकों की बदौलत ही तो हैं । हमारे शिक्षकों को पूरा सम्मान मिलना चाहिए।
ReplyDeleteशिक्षक जीवन का आधार होता है उसके बिना जीवन अधुरा है ....आपने बहुत विस्तार से प्रकाश डाला है इस विषय पर आपका आभार
ReplyDelete'इंसान बना ही शायद सीखने के लिए है'।
ReplyDelete- 'शायद' नहीं पल्लवी जी ,इंसान बना ही सीखने के लिए है.
बहुत अच्छे विचार हैं आपके .
good
ReplyDeleteशिखा जी,मयंक जी,zeal mam ,केवल राम एवं प्रतिभा जी, आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया। कृपया यूँ ही संपर्क बनाये रखें...
ReplyDeleteविचारशील पोस्ट। हार्दिक बधाई।
ReplyDelete------
ब्लॉग समीक्षा की 32वीं कड़ी..
पैसे बरसाने वाला भूत...
पल्लवी जी, शायद आपने ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें अभी तक नहीं देखीं। यहाँ आपके काम की बहुत सारी चीजें हैं।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग को देखा अच्छा लगा
ReplyDeleteलेत कोई कभी नहीं होता
दौड़ के अंत में कछुए भी जीतते हैं
जहां तक गुरू का सवाल है ,मेरा मानना है,गुरु का आचरण उसके द्वारा दी गयी शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण है ,हर इंसान अपने आचरण और व्यवहार से किसी ना किसी को शिक्षा दे सकता है ,केवल किताबी शिक्षा देने वाले गुरु नहीं हो सकते
बहुत सुन्दर प्रस्तुति , आभार
ReplyDeleteअति उत्कृष्ट लेख :
ReplyDeleteशिक्षक के लिए अब मैं क्या कहूँ..
शिक्षक तो भगवान के समतुल्य होते ही है !
मेरा शत-शत नमन उनको !!
"आज कल के अध्यापकों में से कुछ एक अध्यापक ऐसे भी हैं जिन्हों ने शिक्षक के नाम को धूल में मिला दिया है और इस कदर बदनाम भी किया है कि जब उस विषय में सुनो या कहीं पढ़ो तो बहुत अफसोस होता है।" :
ReplyDeleteठीक कहा है आपने पल्लवी जी...बहुत लोगों को जानता हूँ जो अपने अध्यापकों की बड़ाई करते नहीं थकते...कुछ बड़े तो ऐसे भी हैं जिनके जिंदगी को अध्यापकों ने बदल दिया और वो आगे चल के काफी सफल बने...लेकिन दुर्भाग्य कहिये की मुझे आजतक ऐसा कोई टीचर नहीं मिला जिसकी बातें मैं कभी शेयर कर सकूँ..बहुत अगर दिमाग पे जोर डालूं तो सिर्फ एक टीचर याद आते हैं जो सातवीं तक हमें कोचिंग पढ़ाते थे...
अच्छा, वैसे एक बात..मेरी अंग्रेजी तो अभी भी बहुत कमज़ोर है जी..सही में..आप हंसिये मत :)
बहुत अच्छे विचार प्रस्तुत किये हैं ।
ReplyDeleteबस आजकल गुरु और शिष्य दोनों में ही खोट आ गया है । पूजनीय शिक्षक कम ही दिखाई देते हैं ।
शिक्षा का व्यवसायिककरण इसके लिए जिम्मेदार लगता है ।
शुभकामनायें ।
डॉ.ज़ाकिर अली, रंजेन्द्र तेला जी,शुक्ला जी,कमलेश खान जी,अभिषेक जी,एवं डॉ.टी एस दराल जी....आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया... कृपया यूँ ही संपर्क बनाये रखें आभार
ReplyDeleteआपका सारा आलेख पढ़ा और सोच में पड़ गया हूँ कि जो गुरु कहता है वही आगे चल कर कहीं गोविंद का कार्य तो नहीं करता है. मेरा ख़्याल है कि यह ऐसा ही है. बहुत बढ़िया आलेख.
ReplyDeleteआदरणीय शिक्षकों को नमन ...
ReplyDeleteअच्छे विचार
ReplyDeleteशिक्षक जीवन का आधार होता है उसके बिना जीवन अधुरा है
सारगर्भित आलेख्।
ReplyDeleteहमारे शिक्षक ही वे हैं जिन्होंने हमें चलना सिखाया। आज हम जहां खड़े हैं उनमें हमारे शिक्षकों का ही योगदान है।
ReplyDeleteआभार।
बहुत सारगर्भित पोस्ट प्रकाशित की है आपने| धन्यवाद|
ReplyDeleteशिक्षक तो सदा पूजनीय हैं...दिवस विशेष ही नहीं.
ReplyDeleteएक सार्थक आलेख, बधाई.
सुन्दर पोस्ट ,उत्कृष्ट आलेख बधाई और शुभकामनाएं पल्लवी जी
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर व्याख्या की है आपने गुरु और शिष्य के रिश्ते का...बहुत ही सहजता से बताया है आपने गुरु की महिमा.....देर से ही सही...पर शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं......।
ReplyDeleteशिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं......
ReplyDeleteaap k lekh mai attachment laga raha hoo ...shlok aur uska arth ...
Gurur Brahma Gurur Vishnu,
Gurur Devo Mahesh Varah.
Guru Shakshat Para Brahma,
Tasmai Shri Guruve Namah.
The teacher is like Lord Brahma as he Generates knowledge within us,
like Lord Vishnu as he Drives ideas and knowledge into our mind unto the right path,
and like Lord Mahesha (Shiva) as he Destroys the ill-conceived ideas that come from our knowledge,
while enlightening us and helping us stay on the right path.
Thus the teacher is like our ultimate God and we should pray and give respect to our teacher.
आप सभी पाठकों का तहे दिल से शुक्रिया.... कृपया यूँ ही संपर्क बनाये रखें आभार...
ReplyDeleteयह लेख काफी कुछ कह जाता है। मुझे भी अपनी टीचर्स के असल नाम नहीं पताबस उनके सरनेम ही पता हैं और आज भी उनकी बहुत याद आती है।
ReplyDeleteएक शिक्षक हमेशा अपने छात्रों का भला ही चाहता है ,वो जो भी करते हैं उसमे हमारा हिट छिपा होता है ये बात और है कि वक़्त के गुज़र जाने के बाद हमे सही गलत का एहसास होता है।
आपके ब्लॉग पर आकार बहुत अच्छा लगा।
सादर
बहुत खूबसूरती के साथ बयां किया है आपने.. शिक्षक दिवस को.. अपना अनुभव भी शेयर किया.. अच्छा लगा..
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित प्रस्तुति..
ReplyDeleteपढ़ लिया यह लेख। अंग्रेजी वाली प्राध्यापिका के बयान को अच्छा नहीं मान पाऊंगा मैं। वैसे शिक्षा को डुबाने में शिक्षक अधिक दोषी हैं। फिर भी, इन सबके बावजूद्। शिक्षक का स्थान तो सबसे ऊपर है ही और उसके बिना हम क्या कल्पना करें? आज लिखने लायक भी तो न होते अगर वे न होते!
ReplyDeleteशिक्षक ही हमारे नीव के ईट है !
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने. हम साडी उम्र सीखते रहते हैं. कोई भी हमारा शिक्षक हो सकता है. मैं भी एक शिक्षक हु इसलिए काफी अच्छा लगा आपके विचार पढ़कर.
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