मरती हुई भावनाओं का जिम्मेदार कौन हो सकता है शायद, जो मुझे लगता है वह है आत्मविश्वास की कमी। समझ नहीं आता है ज़िंदगी किस और ले जा रही है हम इन्सानों को, आज कल की भागती दौड़ती दुनिया में समय के अभाव का नतीजा है या बदलती मानसिकता का कहना बहुत मुश्किल है। आज एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति कोई मोल ही नहीं है। लोगों की जाने इतनी सस्ती हो गई हैं, कि एक इंसान बड़ी आसानी से दूसरे की जान लेने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाता। समझ नहीं आता कहाँ खो गई है इंसानियत, आज जहां देखो समाचार पत्रों से लेकर टीवी चेनल्स तक हर जगह वारदातों की खबरे देखने और सुनने को मिलती है। पहले तो केवल दिल्ली ,मुंबई जैसे महानगरों में ही यह वारदातें ज्यादातर सुनने को मिला करती थी। मगर अब यह आलम है कि महानगरों से लेकर सभी छोटे शहर, कस्बे और गावों में यह मार काट और लूट पाट की खबरें बेहद आम हो गई हैं।
टीवी चैनल वाले तो इन वारदातों के उपर आधारित ऐसे-ऐसे प्रोग्राम दिखते हैं कि मन में अपने आप ही एक अजीब असहाय होने की भावना महसूस होने लगती है। अपनों की सुरक्षा के प्रति डर लगने लगता है। तब लगता है कि जब हम लोग साधारण तौर पर घर में काम किया करते हैं, उस वक्त अकसर ऐसा होता है, कि हम खाना बनाते वक्त जल जाते हैं, या सब्ज़ी काटते वक्त अकसर उँगली कट जाया करती है। तब कितनी तकलीफ से गुज़रते है हम, भले ही वह तकलीफ क्षण भर की ही क्यूँ ना हो। मगर होती तो बहुत तीव्र है, फिर किसी की जान लेने वाले भी होते तो इंसान ही हैं। क्या उनको किसी को छुरा मरते वक्त या किसी को जलाते वक्त एक बार भी यह भावना नहीं आती कि सामने वाले को कितना दर्द होगा, कितनी तकलीफ होगी।
मुझे आज भी याद है, बचपन में जब कभी कोई बच्चा मुझे मार दिया करता था और मैं रोते हुए जब घर आकर सारी बातें बताया करती थी, तो मुझे सभी यही कहा करते थे कि क्या जरूरत थी पिट के आने की, तुझे भी सामने वाले को दो लगाने चाहिए थे। तब मेरा जवाब होता था कि यदि मैंने उसे मार दिया होता तो वो रोने लगता ना! इस पर हमेशा मुझे डाँट पड़ा करती थी, कि अब जब तू खुद रो रही है उसका क्या ? जब ऐसा कुछ सोचती हूँ तो लगता है बड़े होने से अच्छा तो बचपन ही था। कम से कम मन में दूसरों के प्रति कोई दौहरी भावनायें तो नहीं थी। आज कल तो इंसान में भावनायें नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान, इंसान के नाम से नहीं बल्कि रोबोट के नाम से जाना जाने लगेगा। आज की तारीख में इंसान ने रोबोट का निर्माण किया है और उसके अंदर डाटा भरा है। आने वाले समय में जब इंसान के अंतरमन से भावनायें मिट जायेगी तब न जाने कौन हमारे अंदर कौन क्या डाटा भरेगा।
पहले के ज़माने में दहेज़ प्रथा के नाम पर अकसर सुनने में आता था कि घर की बहू को जला कर मार डाला। आज भी इस अनुपात में कोई खास कमी नहीं आई है। मगर फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि या तो अब यह समाचार आम हो गया है, इसलिए इस पर नज़र नहीं जाती या फिर अब ऐसी ख़बरें कम पढ़ने में आती हैं। मगर हैरानी तो इस बात की होती है। कि ज़रा- ज़रा से बच्चे जिन्हें आज कल वक्त से पहले और आसानी से उन बातों का ज्ञान हो जाता है जो हमको शायद सही समय में मिला, या बहुत देर से मिला और इस वक्त से पहले ज्ञान प्राप्ती का नतीजा देखिय एक 17 साल के लड़के ने एक 14 साल की लड़की के साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश की और जब वह इस पाप को करने में नाकामयाब रहा तो उसने उस मासूम 14 साल की लड़की को मिट्टी का तेल डालकर जला कर मार दिया। घटना कानपुर उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव मुजाहिद पुर की है।
ऐसी ही एक और घटना के बारे में आप सभी ने पढ़ा होगा फ़ेसबुक पर लगे अपडेट के कारण एक लड़की ने अपनी जान दी क्यूँ? महज इसलिए कि उसके प्रेमी ने यह लिख दिया था कि I dumped my girl friend today,happy independence day अर्थात अब उसने पुरानी प्रेमिका को छोड़ दिया है। स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें यह भी कोई कारण हुआ भाला आत्महत्या करने का, सच कहूँ तो बज़ाय अफसोस के हँसी आती है मुझे ऐसे कमजोर लोगों पर और बहुत तरस आता है, बेचारे माँ-बाप पर। अब यह बात मेरे इस लेख के शीर्षक को सही साबित करती है। मरती हुई भावनायें आप सभी ने यह समाचार पढ़ ही लिया होगा इसलिए इसकी सम्पूर्ण जानकारी यहाँ नहीं दे रही हूँ। आप ही बताइये क्या किसी की भावनाओं का कोई मोल नहीं है? क्या हमारी जान इतनी सस्ती है कि यूँ ही किसी ने कुछ भी लिख कर चिपका दिया और आप बिना सोचे समझे आपने माँ-बाप के जज़्बातों से खिलवाड़ करने पर आमादा हो जाते हैं। क्यूँ ?
कभी सोचती हूँ तो लगता है कि हमने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाकर उनको आत्मनिर्भर होने के लायक तो बना दिया। मगर शायद कमी रह गई आत्मविश्वास की, शायद यह उसी का परिणाम है कि माँ-बाप सोचते हैं कि बच्चे बड़े हो कर उनका सहारा बन सकें और आज बदले मे वही बच्चे यूँ आत्महत्या करके अपने माँ बाप को समाज के सामने शर्मिंदा कर रहे हैं। उन्हें सिवाय बदनामी और ज़िंदगी भर का कभी खत्म ना होने वाला दुःख दे रहे हैं। बड़े शर्म की बात है ...
सच समझ नहीं आता आखिर कौन जिम्मेदार है इस सबका, इन सब बातों का, सवालों का, जवाव मेरे पास तो नहीं है, क्या आपके पास है? विद्यार्थियों के द्वारा की जाने वाली आत्मह्त्याओं का एक कारण आज की शिक्षा पद्धती और बढ़ती प्रतियोगिता को दिया जा सकता है, मगर क्या पहले बच्चे फ़ेल नहीं होते थे या पहले कभी किसी को प्यार में नकामयाबी नहीं मिलती थी। तो जब इन विषयों में पहले जो बातें संभव हुआ करती थी तो फिर आज क्यूँ संभव नहीं?? माना की वक्त के साथ बदलाव ही प्रकर्ति का नियम है। जो वक्त के साथ नहीं बदलता वो कहीं का नहीं रहता। मगर इसके मायने यह तो नहीं है हर समस्या का समाधान और नाकामयाबी का नतीजा या हल केवल मौत नज़र आने लगे।
इन सब बातों के चलते अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगी कि अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ आत्मविश्वा रखना भी जरूर सिखाएँ और यह समझाने का प्रयत्न करें कि यदि वह ज़िंदगी की राह में ज़िंदगी की ही किसी कसौटी पर खरे नहीं उतर पाये तो भी कोई बात नहीं... ज़िंदगी दुबारा मौका ज़रूर देती है। हार भी आगे बढ़ना सिखाती है। इस लेख को यहीं विराम देते हुए बस इतना की कहना चाहूंगी कि
टीवी चैनल वाले तो इन वारदातों के उपर आधारित ऐसे-ऐसे प्रोग्राम दिखते हैं कि मन में अपने आप ही एक अजीब असहाय होने की भावना महसूस होने लगती है। अपनों की सुरक्षा के प्रति डर लगने लगता है। तब लगता है कि जब हम लोग साधारण तौर पर घर में काम किया करते हैं, उस वक्त अकसर ऐसा होता है, कि हम खाना बनाते वक्त जल जाते हैं, या सब्ज़ी काटते वक्त अकसर उँगली कट जाया करती है। तब कितनी तकलीफ से गुज़रते है हम, भले ही वह तकलीफ क्षण भर की ही क्यूँ ना हो। मगर होती तो बहुत तीव्र है, फिर किसी की जान लेने वाले भी होते तो इंसान ही हैं। क्या उनको किसी को छुरा मरते वक्त या किसी को जलाते वक्त एक बार भी यह भावना नहीं आती कि सामने वाले को कितना दर्द होगा, कितनी तकलीफ होगी।
मुझे आज भी याद है, बचपन में जब कभी कोई बच्चा मुझे मार दिया करता था और मैं रोते हुए जब घर आकर सारी बातें बताया करती थी, तो मुझे सभी यही कहा करते थे कि क्या जरूरत थी पिट के आने की, तुझे भी सामने वाले को दो लगाने चाहिए थे। तब मेरा जवाब होता था कि यदि मैंने उसे मार दिया होता तो वो रोने लगता ना! इस पर हमेशा मुझे डाँट पड़ा करती थी, कि अब जब तू खुद रो रही है उसका क्या ? जब ऐसा कुछ सोचती हूँ तो लगता है बड़े होने से अच्छा तो बचपन ही था। कम से कम मन में दूसरों के प्रति कोई दौहरी भावनायें तो नहीं थी। आज कल तो इंसान में भावनायें नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान, इंसान के नाम से नहीं बल्कि रोबोट के नाम से जाना जाने लगेगा। आज की तारीख में इंसान ने रोबोट का निर्माण किया है और उसके अंदर डाटा भरा है। आने वाले समय में जब इंसान के अंतरमन से भावनायें मिट जायेगी तब न जाने कौन हमारे अंदर कौन क्या डाटा भरेगा।
पहले के ज़माने में दहेज़ प्रथा के नाम पर अकसर सुनने में आता था कि घर की बहू को जला कर मार डाला। आज भी इस अनुपात में कोई खास कमी नहीं आई है। मगर फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि या तो अब यह समाचार आम हो गया है, इसलिए इस पर नज़र नहीं जाती या फिर अब ऐसी ख़बरें कम पढ़ने में आती हैं। मगर हैरानी तो इस बात की होती है। कि ज़रा- ज़रा से बच्चे जिन्हें आज कल वक्त से पहले और आसानी से उन बातों का ज्ञान हो जाता है जो हमको शायद सही समय में मिला, या बहुत देर से मिला और इस वक्त से पहले ज्ञान प्राप्ती का नतीजा देखिय एक 17 साल के लड़के ने एक 14 साल की लड़की के साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश की और जब वह इस पाप को करने में नाकामयाब रहा तो उसने उस मासूम 14 साल की लड़की को मिट्टी का तेल डालकर जला कर मार दिया। घटना कानपुर उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव मुजाहिद पुर की है।
ऐसी ही एक और घटना के बारे में आप सभी ने पढ़ा होगा फ़ेसबुक पर लगे अपडेट के कारण एक लड़की ने अपनी जान दी क्यूँ? महज इसलिए कि उसके प्रेमी ने यह लिख दिया था कि I dumped my girl friend today,happy independence day अर्थात अब उसने पुरानी प्रेमिका को छोड़ दिया है। स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें यह भी कोई कारण हुआ भाला आत्महत्या करने का, सच कहूँ तो बज़ाय अफसोस के हँसी आती है मुझे ऐसे कमजोर लोगों पर और बहुत तरस आता है, बेचारे माँ-बाप पर। अब यह बात मेरे इस लेख के शीर्षक को सही साबित करती है। मरती हुई भावनायें आप सभी ने यह समाचार पढ़ ही लिया होगा इसलिए इसकी सम्पूर्ण जानकारी यहाँ नहीं दे रही हूँ। आप ही बताइये क्या किसी की भावनाओं का कोई मोल नहीं है? क्या हमारी जान इतनी सस्ती है कि यूँ ही किसी ने कुछ भी लिख कर चिपका दिया और आप बिना सोचे समझे आपने माँ-बाप के जज़्बातों से खिलवाड़ करने पर आमादा हो जाते हैं। क्यूँ ?
कक्षा में फ़ेल हो गये तो आत्महत्या कर ली, प्यार में नाकामयाब हो गये तो आत्महत्या कर ली, क्या सभी समस्यायों का एक ही हल है? जान दे देना। क्या दुःख से भागने का नाम ही ज़िंदगी है? नहीं न! तो फिर आज कल की नई पीढ़ी यह बात क्यूँ नहीं समझ पा रही है। क्यूँ उसे हर समस्या का समाधान केवल मौत नज़र आता है। कहाँ मर गई है उनके अंदर की भावनायें, उनकी समझ, उनकी आत्मा, जो उन्हें बता सके सही और गलत में फर्क, जो उनको यह एहसास करा पाये कि उनके यूँ इस तरह आत्महत्या करने के बाद माँ-बाप का क्या होगा जिन माँ-बाप ने खुद दुःख तकलीफ़ें उठा कर अपने बच्चों को पढ़ाया, लिखाया, इस क़ाबिल बनाया कि वह अपने पैरों पर खड़े हो सकें। अपनी ज़िंदगी को अपना कह सके।
सच समझ नहीं आता आखिर कौन जिम्मेदार है इस सबका, इन सब बातों का, सवालों का, जवाव मेरे पास तो नहीं है, क्या आपके पास है? विद्यार्थियों के द्वारा की जाने वाली आत्मह्त्याओं का एक कारण आज की शिक्षा पद्धती और बढ़ती प्रतियोगिता को दिया जा सकता है, मगर क्या पहले बच्चे फ़ेल नहीं होते थे या पहले कभी किसी को प्यार में नकामयाबी नहीं मिलती थी। तो जब इन विषयों में पहले जो बातें संभव हुआ करती थी तो फिर आज क्यूँ संभव नहीं?? माना की वक्त के साथ बदलाव ही प्रकर्ति का नियम है। जो वक्त के साथ नहीं बदलता वो कहीं का नहीं रहता। मगर इसके मायने यह तो नहीं है हर समस्या का समाधान और नाकामयाबी का नतीजा या हल केवल मौत नज़र आने लगे।
इन सब बातों के चलते अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगी कि अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ आत्मविश्वा रखना भी जरूर सिखाएँ और यह समझाने का प्रयत्न करें कि यदि वह ज़िंदगी की राह में ज़िंदगी की ही किसी कसौटी पर खरे नहीं उतर पाये तो भी कोई बात नहीं... ज़िंदगी दुबारा मौका ज़रूर देती है। हार भी आगे बढ़ना सिखाती है। इस लेख को यहीं विराम देते हुए बस इतना की कहना चाहूंगी कि
"कौन कहता है कि आसमा में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों :)"
बिलकुल सही बात कही है आपने। जैसा कि आपने प्रतावना मे ही कहा आत्मविश्वास का डगमगाना ही इस सबका सबसे बड़ा कारण है।
ReplyDeleteसादर
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परिंदों का मन
आत्मविश्वास की कमी से ज्यादा यह कायरता की निशानी हैं, वह इंसा ही क्या जो मुश्क़लात से घबरा जाए...
ReplyDeleteVery true picture .... a well written and well intended article .
ReplyDeleteजीवन तो हर हाल में जीना होगा।
ReplyDeleteअगर कोई आत्महत्या करता है, खासकर कम उम्र लड़का-लड़की, तो सबसे अधिक दोषी उसके अभिभावक हैं, माता-पिता हैं। आखिर उस आत्महंता को यह खयाल क्यों नहीं आ सका कि वह किसी का साथ पा सके, कम से कम अपने माँ-बाप का और वह ऐसा कर जाता है।
ReplyDeleteआजकल के परिवेश में लोगोंमें सहन शक्ति बिलकुल नहीं रही आत्मबल बहुत कमजोर है...जरा सा कुछ हुआ नहीं कि हाय आहत हो गए कहा और बस ...
ReplyDeleteजिम्मेदारी माता -पिता ,शिक्षक और समाज सबकी है.
अच्छा आलेख है.
Atamvishavash ka dagamagana hi ina sab chijo ki vajah hai.
ReplyDeleteहांलांकि ऐसे लोग कम ही हैं ..पर फिर भी हैं ..स्वयं को कमज़ोर करते हैं और समाज को भी ... आज सबके मन में धरना है कि हर बात में कामयाबी ही मिलनी चाहिए बस ... जागरूक करती पोस्ट ..
ReplyDelete♥
ReplyDeleteपल्लवी जी
सादर अभिवादन !
पीढ़ियों के अंतराल की समस्या का वर्तमान रूप पहले से कुछ अलग है । वर्तमान की किशोर और युवापीढ़ी भ्रमित अधिक है ।
उसकी पुरुषार्थ और स्वाभिमान की भावना दंभ और कायरता का रूप ले चुकी है ।
रहा सवाल कि आख़िर कौन जिम्मेदार है इस सबका, इन सब बातों का ?
घर-परिवार की बजाय नासमझ दोस्तों के साथ समय गुजारना , नेट पर ऊटपटांग साइट्स पर चोरों की तरह ताकाझांकी में उलझे रहना , शिक्षकों-बुजुर्गों और आदर्श चरित्रों के अनुसरण की जगह ऐरे-ग़ैरे दुनिया भर के संस्कृतिहीन मॉडल्स-फिल्मी लोगों को आदर्श बना लेना … कारण किसी से छुपे भी नहीं हैं !
बहरहाल अच्छी , चिंतनपूर्ण पोस्ट के लिए साधुवाद !
हार्दिक शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत ही सही कहा है
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने
ReplyDeleteजीवन अनमोल है इसे यूँही नहीं खोना कुछ पल ऐसे ज़रुर आते हैं जब हम खुद को कमजोर महसूस करते है इसका मतलब यह नहीं की हार मान लें
ReplyDeleteमाना कि कितनी भी बेदर्द हो ज़िंदगी
मगर यह भी अच्छा नहीं कि मर जाएँ |
इस प्रेरक पोस्ट में कई ऐसी बाते हैं जो हमें अपनाना चाहिए। बदलाव तो आ ही सकता है यदि हम प्रण कर लें।
ReplyDeleteहमें सच में इस दिशा में गंभीरता से सोचना ही पड़ेगा .....कि .आखिर क्यूँ ?
ReplyDeleteजीवन में जब इंसान को यह लगता है कि अब आगे कुछ शेष नहीं रह गया, तब उसका आत्मविश्वास उससे दूर भागने की कोशिश में रहता है। हम खुद को कमजोर और कायर समझने लग जाते हैं। फिर ऐसे कदम उठा जाते हैं जो इंसान की जिंदगी की डोर छूट जाने के लिए काफी होते हैं। हां, जो व्यक्ति आत्मविश्वास के साथ जीते हैं, वे विपदाओं का सामना कर लेते हैं। कहने में यह अच्छा लगता है कि हमें जीवन में कठिनाईयों का सामना बिना घबराये करना चाहिए, लेकिन वास्तव में हम ऐसा कम ही कर पाते हैं। इसलिए हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि अपने आत्मबल को डिगने न दें, तभी जीवन सार्थक हो पायेगा।
ReplyDeleteआभार।
"कौन कहता है कि आसमा में सुराख नहीं हो सकता
ReplyDeleteएक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों
बहुत ही प्रेरक अभिव्यक्ति....आभार
कौन कहता है कि आसमा में सुराख नहीं हो सकता
ReplyDeleteएक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों
बहुत ही प्रेरक अभिव्यक्ति....आभार
आपकी post शानदार है.
बधाई हो !!
तुमने जो संताप दिए हैं,
हमने तो चुपचाप सहे हैं,
जब हमने पत्थर खाए हैं,
तुमने केवल रास किया है,
हमने तो बस गरल पिया है !१!
मुझे नहीं दुःख ,नहीं मिले तुम,
आत्मा के भी होंठ सिले तुम,
मौन तुम्हारा तुम्हें डसेगा,
तुमने केवल हास किया है,
हमने तो बस गरल पिया है !२!
क्या बड़ा ब्लॉगर टंकी पर ज़रूर चढता है ?
'घर-परिवार की बजाय नासमझ दोस्तों के साथ समय गुजारना , नेट पर ऊटपटांग साइट्स पर चोरों की तरह ताकाझांकी में उलझे रहना , शिक्षकों-बुजुर्गों और आदर्श चरित्रों के अनुसरण की जगह ऐरे-ग़ैरे दुनिया भर के संस्कृतिहीन मॉडल्स-फिल्मी लोगों को आदर्श बना लेना … '---सहमति है लेकिन यह ध्यान देना आवश्यक है कि भारत के सम्पन्न और अधिकतम 30-35 करोड़ लोग ही तो इन बातों से ताल्लुक रखते हैं…बाकी के 80-90 करोड़ में से भी कई आत्महत्या करते हैं…
ReplyDeleteहिंदी के प्रति आपके प्रेम को देखकर दिल गदगद हो गया। आप सच में मार्मिक लिखती हैं।
ReplyDeleteआपके पोस्ट पर पहली बार आया हूँ । पोस्ट अच्छा लगा । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteमनुष्य आज इतना ज्यादा स्वार्थी हो गया है की उसे अपने अतिरिक्त और कोई दिखाई नहीं देता. वो ये नहीं जानता या शायद जानना नहीं चाहता की उसके एक कृत्य का कितने लोगों पर और कैसा प्रभाव पड़ेगा. आज के सन्दर्भ में बहुत ही सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteजागरुक करती प्रेरक पोस्ट्।
ReplyDeleteपोस्ट अच्छा लगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट समाज की कई समस्याओं को छूती है. केंद्र में आत्महत्या/हत्या को रख कर लिखी गई पोस्ट लगता है हमारे आसपास को पूरी तरह कहती है. आपके विचारों एक दिशा देते हैं कि आत्मविश्वासी होना आवश्यक है. बहुत बढ़िया आलेख लिखा है.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति :
ReplyDeleteसब के सब स्वार्थी हो गए हैं किसी को भी किसी की भावनाओं से कोई मतलब नहीं ! बेहद दुखद !!
hello pallavi ji maine haal hi men apna blog banaya hai.sarvprath aap jaisi vicharak blogger ko padne ka mauka mila.aap ke vichar bahut achchhe hain...
ReplyDeleteआपकी बात दुरुस्त है। दरअसल सबसे बड़ी कमी आत्मबल का कमजोर होना होता ही है पर..सबसे ज्यादा मुश्किल है लचीलेपन का न होना। हर रास्ता मौत की तरफ नहीं जाता ये बताने वाला कोई साथ नहीं होता। इसमें कोई शक नहीं कि इंसान की परिस्थितयां उसके आत्मविश्वास को डिगा देती हैं। पर हैरानी तब होती है जब संपन्न् तबके में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ने लगी है। देखा जाए तो हमारे देश में हर रोज औसतन तीन किसान आत्महत्या करते हैं, वो भी महज पांच हजार, दस हजार जैसी रकम के लिए। अगर एक हाथ आगे बढ़े तो दस हाथों को मदद मिलती है। पर हम कोसते रहेंगे आगे नहीं आएंगे।
ReplyDeletepallavi ji
ReplyDeleteaapke aalekh ne bahut bahut hi jyada prabhavit kar diya hai.aapke kathan ki har pankti har shabd yatharthta liye hue hai.main aapki baat se puri tarah sahmat hun.aapne bahut hi sateek prashn uthaya hai jo bahut kuhh sochne par majboor karta hai.
jagrukta ko parilaaxhit karti post
bahut bahutbadhai
poonam
आज के दौर में काफी प्रासंगिक मुद्दा उठाया आपने...आभार.
ReplyDeleteसार्थक और शिक्षाप्रद पोस्ट /दुष्यन्त कुमार का नाम शेर के साथ आपको लिख देना चाहिए |अच्छा लगा यहाँ आना
ReplyDeletehello pallavi ji apke post ne kaphi prabhawit kiya hai. aapne bahut achchha likha hai...
ReplyDeleteअच्छा लिखा है
ReplyDeleteसार्थक !
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है।
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