हमारे समाज में ज्यादा तर मसले ऐसे होते हैं जिस में स्त्री और पुरुष कि सोच कम ही मिला करती है अभी कुछ दिन पहले कि ही बात है। पत्रिका को लेकर मेरी किसी सज्जन से चर्चा चल रही थी।यहाँ मैं उन सज्जन का नाम नहीं दे रही हूँ क्यूंकि वह मुझसे उम्र में बड़े भी हैं और ज्यादा तजुरबे कार भी। खैर इस विषय को लेकर सामने वाले सज्जन का कहना था। कि केवल साहित्यिक पत्रिकाएँ ही पढ़ने लायक होती है। बाकी सब घरेलू पत्रिकाओं में जो भी छापता है वह केवल मनोरंजन मात्र ही होता है। इससे ज्यादा और कुछ नहीं, और उससे समाज का कुछ भला नहीं हो सकता है। उनके अनुसार किसी साहित्यिक पत्रिका को पढ़ने से विचारणीय बाते सामने आती है। जिन पर सामुहिक रूप से विचार किया जाना चाहिए।जबकि मुझे ऐसा लगता है कि अधिकतर साहित्यिक पत्रिकाओं में एक ही विषय को लेकर अलग-अलग लेखक अपने अनुसार अपने विचार प्रस्तुत किया करते हैं। मगर इन घरेलू पत्रिकाओं में कई विभिन्न प्रकार के लेख ,कहानियाँ ,कवितायें एवं अन्य कई ऐसी सामग्री होती हैं कि आप एक ही पत्रिका के माध्यम से कई अलग-अलग पहलुओं पर एक साथ नज़र डाल सकते हैं। इन्ही सब बातों के चलते मेरे मन में ख्याल आया कि क्यूँ ना इस विषय पर अपने मित्रों के साथ चर्चा कि जाये और जाना जाय कि इस विषय को लेकर आप सब की क्या राय है। इसलिए आज यह विषय लेकर आप सब के बीच आई हूँ आप को क्या लगता है।
यदि पढ़ने के लिए अच्छी सामग्री मिल रही हो। जिससे आपका ज्ञान वर्धन हो रहा हो, तो क्या पत्रिका के नाम से इस बात पर फर्क पढ़ना चाहिए ? मुझे ऐसा लगता है पत्रिका कोई भी हो सामाजिक घरेलू पत्रिक या फिर साहित्यिक पत्रिका क्या फेर्क पड़ता है यदि पढ़ा जाने वाला विषय जानकारी देने वाला अथवा उपयोगी हो एवं जिससे आपको पढ़ने में मजा भी आरहा हो और आगे भी उस विषय में जानने कि इच्छा हो, अर्थात पढ़ने में रुचि कर लग रहा हो तो क्या फेर्क पड़ता है कि आपने कहाँ से पढ़ा। खैर इस विषय पर उन सज्जन का कहना था कि गृह शोभा ,मेरी सहेली एवं गृह लक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं में जो की महिलाओं की पत्रिकाएँ है। अर्थात महिला प्रधान पत्रिकाएँ है। तो यदि इन पत्रिकाओं में आपका कोई लेख, कहानी या आपकी कोई रचना छपती है तो उसमें कोई बड़ी बात नहीं है। उसके कोई मायने नहीं है । मायने हैं तो केवल साहित्यिक पत्रिकाओं के हैं। यदि उसमे आपके लेख या किसी रचना को स्थान दिया जाता है, तो वो बड़ी बात है। इस पत्रिकों में यदि आपको स्थान मिल भी गया तो आपने कोई बड़ा तीर नहीं मारा। जबकि देखा जाये तो आमतौर पर साहित्यिक पत्रिकाओं के मामले में यह पत्रिकाएँ ज्यादा मशहूर है। तो यदि आप अपना प्रचार प्रसार करने हेतु भी आफ्नै कोई रचना या आलेख इस पत्रिका के लिए देते है और उस में छपता है तो आप साहित्यिक पत्रिकाओं की तुलना में ज्यादा जल्दी मशहूर हो सकते हो अर्थात लोगों के बीच आपकी पहचान जल्द बन सकती है। क्यूंकि साहित्य समझना हर किसी के बस कि बात नहीं।
हालाकी मैं यह बात मानती हूँ कि यह विषय सबसे पहले किसी भी पाठक की पसंद पर अधिक निर्भर करता है कि उसका रुझान किस तरफ है और वह क्या पढ़ने में रुचि रखता है। क्यूंकि हर एक की पसंद अलग-अलग होती है। किसी को काव्य पसंद होता है, तो किसी को कहानियाँ "वो कहते है ना पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना-अपना " बस यहाँ भी वही बात है वैसे साधारण तौर पर एक आम नज़रिये से देखा जाए तो इन घरेलू पत्रिकों में ऐसा कुछ खास नहीं होता ज्यादा तर घर संसार ,परिवार और खास कर खूबसूरती निखारने और बढ़ाने के वियषों पर ही अत्यधिक देखने और पढ़ने को मिलता है। मगर अपनी बात आम आदमी तक पहुंचाने का इससे अच्छा और कोई माध्यम मेरी समझ से तो हो, ही नहीं सकता। क्यूंकि यह ऐसी पत्रिकाएँ है जो लगभग इंडिया के हर घर में आसानी से उपलब्ध होती हैं। लेकिन इन सब बातों के बावजूद यह कहना कि यह सारी पत्रिकाएँ बेकार हैं। या इनके अस्तित्व का कोई मोल नहीं मेरे हिसाब से ऐसा कहा जाना गलत बात होगी। क्यूंकि यदि ऐसा होता तो शायद इन पत्रिकाओं की बिक्री इतनी नहीं होती जितनी की आज की तारीख में है।
और वैसे भी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और हम समाज में ही रहते हैं। तो घर परिवार संसार यह सारे विषय भी तो उतने ही महत्वपूर्ण हुए ना जीतने के साहित्यिक विषय।
ऐसा नहीं है की इन पत्रिकाओं में हमेशा बेकार की ही बातें छ्पा करती हैं। क्या आप इस बात से सहमत हैं ? मैं तो नहीं हूँ। कई सारी ऐसी चीज़ें भी हैं हमारे जीवन में जो हम इन पत्रिकाओं के माध्यम से पढ़ कर सीख सकते है। जो शायद हम अपनी जिंदगी में समय के अभाव के कारण सीख नहीं पाये। लेकिन चुकि सिर्फ यह एक महिला प्रधान पत्रिका है अर्थात महिलाओं की पत्रिका है। इसलिए इस पुरुष प्रधान समाज को इस पत्रिका से भी आपत्ति है। क्यूँ ? क्यूंकि उनके लिए ऐसी कोई पत्रिका आती ही नहीं है। या आती भी हो तो मुझे इस विषय में कोई जानकारी नहीं है। मगर इसका मतलब यह तो नहीं हुआ ना कि इसके कारण यह पत्रिकाएँ बेकार हैं, निरर्थक है। जब इन्ही पत्रिकाओं को पढ़ने के बाद जब कोई महिला इन पत्रिकाओं से सीख कर कुछ अच्छा करती है । फिर चाहे वो घर परिवार से लेकर घर की साज सज्जा का मामला हो या फिर नित नये पकवान बनाना हो, तब तो लोग वाहवाई करते नहीं थकते। तो फिर पढ़ने की सामग्री को लेकर इतनी उतेजना क्यूँ जिसके चलते इन पत्रिकाओं को भला बुरा ठहराने का क्या मतलब निकलता है।
यहाँ मेरा मक़सद किसी की और इशारा करते हुए उस इंसान की अवहेलना करना नहीं है। की आखिर उसने यह बोला तो बोला कैसे। मैं तो बस इस विषय पर चर्चा करके यह जानना चाहती हूँ कि आम लोग की इस विषय में क्या राय है। बरहाल अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगी कि पत्रिका चाहे साहित्यिक हो या घरेलू दोनों का ही अपना एक अलग स्थान है और अपना एक अलग महत्व है। कोई किसी से कम नहीं है। दोनों ही बराबर हैं । और यह बात पूर्णतः पाठक पर निर्भर करती है की उसकी पसंद और उसकी रुचि क्या पढ़ने में है। जय हिन्द .....
my mom is reading Sarita since last three decades, at times I too enjoy reading these magazines.
ReplyDeletebut nowdays a large number of magazines are publishing sensual, arousing nd good for nothing subjects, which i feel is totally wrong.
neway kudos for ur article
saahity to saahity hi hai .. srijan jaisa bhi ho naya hi hota hai ... patrika mein chapna apne aap mein mahatv waali baat hai ... har kisi ka apna apna pathak varg hai ...
ReplyDeleteकुछ लोगों के लिए महिलाओं से जुड़ा हर मुद्दा बेकार होता है.फिर चाहे वो साहित्य हो या कोई और विषय.
ReplyDeleteहम कूपमंडूकता भी कह सकते हैं इसे.
साहित्य तो साहित्य है. नासवा जी से सहमत.
सबकी अपनी-अपनी पसंद होती है।
ReplyDeletePashand apni -apni hi pallavi ji..
ReplyDeleteapka vichar hi achcha hi.
bilkul sahi.. and दिगम्बर नासवा sir said absolutely true.. barabar samman ka adhikaari hai sahitye bhi.. aur hum compare kar hi kaise sakte hain jab wo alag alag moods me ho aur alag alag logo ko targeted ho.. sab equally important hai.. aur to aur jo jitna simple hai aur aam logo ke liye hai wo utna hi zyada important hai..
ReplyDeletelekin "aurato ki baate... " aisa kehkar jab muh banate hai na log to bada taras aata hai unki soch par.. stereotyping is kadar ghusi hai na unke dimaag me.. ki bechare khud hi nahi jaante ki kitni acchi acchi cheeze miss kar dete hain wo apni soch ke chhote se dayre ki wajah se..
When I was kid, "Vaama, Navneet and Dharmyug" were regularly brought at home, I miss such magazines.
ReplyDeleteI appreciate your feelings.
हरेक पत्रिका में अधिकांशतः कुछ न कुछ ऐसा अवश्य होता है जो सभी वर्ग के लिये रुचिकर हो. साहित्य और अन्य ज्ञानवर्धक सामिग्री हमेशा ग्राह्य है वह चाहे किसी पत्रिका में क्यों न हो.
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई ||
ReplyDeleteखूबसूरत प्रस्तुति ||
अच्छा लेखन किसी भी पत्रिका मे हो पढ़े जाने योग्य है.
ReplyDeleteआपके विचारों से मैं सहमत हूँ.
सुन्दर सार्थक चर्चा के लिए बधाई.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
आपके आने से मेरी पोस्ट की सार्थकता होती है.
हाँ ये तो अपने पसंद पर निर्भर करता है......लेकिन आपका आलेख इस मुद्दे को सबके सामने रख रहा है....शूभकामनायें....हिन्दी दिवस की भी।
ReplyDeleteसाहित्य तो साहित्य ही है....बस्स! इस बात पर मेरा भ समर्थन...
ReplyDeleteहिंदी दिवस पर बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं .
ReplyDeleteसभी अपनी रूची के अनुसार पढ़ते हैं..अपने ढंग से जीते हैं...मेरा शौक अच्छा दूसरे का गलत यह सोचना ही मूर्खता है। मैं हास्य-व्यंग्य लेख अधिक पसंद करता हूँ। गृह लक्ष्मी, सहेली, नहीं पढ़ता लेकिन आजकल एक पत्रिका मुझे बहुत अच्छी लगती है और चाहता हूँ कि आप भी इसे जरूर पढ़ें...आहा जिंदगी।
ReplyDeleteमुख्य मसला रूचि का है जिसको जिस तरह की चीजे पढ़ने में रूचि है उसे वही अच्छी लगती है बाकि चीजे बेकार लगती है | वैसे कई बार ये भी होता है की अलग अलग समय पर कुछ अलग अलग पढ़ने की इच्छा होती है ये जरुरी नहीं है की हर भर गंभीर चीजे ही पढ़ने की इच्छा हो या हर बार हल्का फुल्का या हास्य पसंद आये कई बार मुड पर भी निर्भर होता है |
ReplyDeleteदरअसल छोटी और सीमित सोच वाले छोटा और सीमित ही सोचेंगे । उनसे ज्यादा की उम्मीद नहीं की जा सकती है । और फिर किसी के नकारने या न नकारने से कोई फर्क नहीं पड़ता । फिर यह जान लेना भी आवश्यक है कि साहित्यिक पत्रिकाओं की एवज में इन घरेलू पत्रिकाओं की बिक्री अधिक है ....
ReplyDeleteपुरुष भी महिलाओं की पत्रिकाएं खूब पढ़ते हैं- मगर छुपकर,क्योंकि उनके पसंदीदा कॉलम कुछ और होते हैं।
ReplyDeleteआप सभी पाठकों और मित्रों का बहुत-बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपने विचारों से मुझे अनुग्रहित किया.... आभार। बात तो सच है साहित्य तो साहित्य ही है और रहेगा मगर, बाकी सब बेकार है यह कहना उचित नहीं.....
ReplyDeleteउम्मीद करती हूँ,जिन सज्जन का जिक्र मैंने ना करते हुए भी किया था। यह पोस्ट और आप सबकी प्रतिक्रियाएँ पढ़कर इन घरेलू पत्रिकाओं के प्रति शायद उनका नज़रिया बदलेगा। एक बार फिर... आप सभी का तहे दिल से धन्यवाद...कृपया यूंही संपर्क बनाये रखें। :)
लोगों की पसंद पर ही निर्भर करता है ......हर इन्सान की पसंद अलग -अलग हो सकती है
ReplyDeleteमुकेश कुमार सिन्हा जी ने कहा.... har magazine ka apna pathak varg hota hai, par har magazine apne naye varg ko talashta bhi hai, isliye wo kuchh naya kuchh badhiya dhundhta hai ...:)
ReplyDeletewaise ek sachchai bataun...main khud grihsobha, sarita aur vanita padhta hooon, har mahine..:)
पत्रिका चाहे साहित्यिक हो या घरेलू दोनों का ही अपना एक अलग स्थान है और अपना एक अलग महत्व है। कोई किसी से कम नहीं है। दोनों ही बराबर हैं । और यह बात पूर्णतः पाठक पर निर्भर करती है की उसकी पसंद और उसकी रुचि क्या पढ़ने में है।bilkul sahi kaha
ReplyDeleteजैसा कि अब तक सभी ने कहा मेरे विचार भी कुछ अलग नहीं है,सिर्फ यही कहूँगा बात कंटेंट्स के अच्छा लगने की है तभी हम उस पत्रिका को पढ़ते हैं फिर चाहे वह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका हो या घरेलू पत्रिका।
ReplyDeleteब्लॉग पर देर से आने के लिए क्षमा चाहूँगा।
सादर
'क्यूंकि यह ऐसी पत्रिकाएँ है जो लगभग इंडिया के हर घर में आसानी से उपलब्ध होती हैं।' ----यह तो बिलकुल सच नहीं है अगर तथ्यात्मकता की दृष्टि से देखें। अधिक बिकना स्तरीय होने का कहीं से परिचायक नहीं है। अलग अलग विषयों की पत्रिकाएँ अलग-अलग बिकती हैं। सरस-सलिल को कोई बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता लेकिन मैंने जब भी उसे देखा है तो मुझे दो-चार लेख तो हमेशा काम के लगे। रुचि एक बड़ा कारण है लेकिन अब इस मुद्दे पर स्त्री और पुरुष का झगड़ा खड़ा करने की कोई जरूरत नहीं थी और न है। शिक्षामित्र की बात से हँसी आई, वैसे बहुत हद तक सच है उनकी बात। लेकिन कोई अगर छुप कर पढ़ता हो तो इसमें भी कुछ लोग या कुछ महिलाएँ दोषी हैं। जैसे कोई कह सकता है कि यह तुम क्यों प।ध रहे हो? फिर भी मुझे किसी पत्रिका के विषयवस्तु से परेशानी नहीं। हर जगह कुछ पढ़ने लायक है। हो सकता है कि कुछ बेकार भी हो।
ReplyDeleteवैसे व्यापक और सामाजिक या राष्ट्रीय विचारों को ध्यान में रखें तो, ये सारी पत्रिकाएँ अधिकतर देश को बेचने में सहायक हो रही हैं। वहीं कुछ अच्छा भी मिल जाता है इनमें। भारत में जितने बड़े प्रकाशन समूह हैं, उनका लक्ष्य बस बाजार है, तो जाहिर है बाजारवाद में हमेशा कुछ कमी रहती है स्तर के मामले में। और कहानी का पत्रिकाओं में छपना भी अलग बात है। इसमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि साहित्य की जो पत्रिकाएँ हैं या लेखक हैं, हजार और लाख में नहीं पढ़े जाते, जैसे प्रेमचन्द लेकिन याद वही किए जाते हैं न कि ऐसे हल्के-फुल्के पत्रा आदि। …भूमण्डलीकरण और शोषण के साथ लूट को बढ़ाने में इनका खासा योगदान है। और साथ ही भाषा का स्तर भी बिगाड़ने में।
किस सन्दर्भ में आपने कहा है पता नहीं, मगर कई पुरुष भी इन्हें पढते रहे हैं. अपने ऑफिस में कई लोगों को पढ़ते देखता हूँ, और मैंने भी बचपन में काफी 'मनोरमा' पढ़ी हैं. :-)
ReplyDeletemere mummy bhi ye sab magazine padhati thi abhi bhi padhati hai .mai jab India mai thi to Vanita padha karti thi use maine bahota sari recipes sikhi.magazine koi bhi ho vo padhane vale ke upar nirabhar rahtai hai .
ReplyDeletepallvi ji
ReplyDeletexhma kijiyega aap tak pahunchne me der ho gai
aapka lekh padha bahut hi prabhavit karti hai aapki yah prastuti.
main aapki baat se puri tarah sahmat hun.sabki soch alag hoti hai isiliye kisi bhi patrika v sahity ke baare ye kahna uchit nahi lagta ki iska ya uska koi mayane nahi rakhta.sabki ruchi bhi alag alag hi hoti hai .vicharon ka mel to kadachit hi mil pata hai.
पत्रिका चाहे साहित्यिक हो या घरेलू दोनों का ही अपना एक अलग स्थान है और अपना एक अलग महत्व है। कोई किसी से कम नहीं है। दोनों ही बराबर हैं । और यह बात पूर्णतः पाठक पर निर्भर करती है की उसकी पसंद और उसकी रुचि क्या पढ़ने में है।
aapne bilkul sahi baat likhi hai iske liye aapko bahut bahut badhai
dhanyvaad sahit
poonam
पत्रिका चाहे कोई भी हो साहित्यिक हो या घरेलू दोनों का ही अपना एक अलग स्थान है अलग महत्व है ..पाठक की उसकी पसंद और उसकी रुचि पर निर्भर करती है.... पसंद अपनी -अपनी ..
ReplyDeleteपढने का एक अपना ही आनंद है - और यदि एक पत्रिका पढ़ कर उसकी १ करोड़ पाठिकाओं का कम से कम दो घंटे का समय प्रसन्नता से बीत रहा है - क्योंकि वे उस पठन के प्रक्रिया में हैं - जो वे सच में - दिल से -करना चाह रही हैं - तब तो यह पत्रिका स्वयं में ही बहुत सी समस्याओं का समाधान है - it is a very big positive step that a person is able to be happy for a while - reading what one likes to read | now we have to read also as per his approval ? इसके आगे मनन की सामग्री उसमे मिले - तो सोने पर सुहागा |
ReplyDeleteपरन्तु जो यह कह रहे हैं कि कोई चीज़ सिर्फ तभी पढो जब उससे आगे मनन कर के कोई समस्या सुलझाई जा सके तो क्या उन्हें नहीं लगता कि यह "पठन सुख" स्वयं में ही एक समाधान है?- वे ज़रूर होंगे उम्रदराज़ भी और तजुर्बेकार ही - पर वे पढने के सुख को जान ही नहीं पाए | मेरी तरफ से उन्हें कहिये - यह बात यहीं तक सीमित नहीं है | यदि ईश्वर की पूजा भी वे करें - तो इसलिए कि उससे कुछ मिले (money / increment/promotion/etc etc etc) - तो फिर वे कभी प्रार्थना का सुख नहीं पा पायेंगे , न ही ईश्वर को प्राप्त कर सकेंगे | जो हम अभी - इस वक़्त - कर रहे हैं, वही सबसे आवश्यक है -और वही पूरे मन से किया जाए - फिर चाहे वह एक "सरिता" पढना हो, या एक साल भर के बच्चे को मुंह छुपा कर "ता" कर के हँसना - तभी हम सही मायनों में जी रहे हैं एक सार्थक जीवन | यदि हम सिर्फ इसलिए पढ़ते हैं कि उस पर "मनन चिंतन" कर के "ज्ञानी" कहलाएं - तो फिर हम पढने को भी "सकाम कर्म " के रूप में कर रहे हैं |
सादर आमंत्रण आपकी लेखनी को... ताकि लोग आपके माध्यम से लाभान्वित हो सकें.
ReplyDeleteहमसे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़े लेखकों का संकलन छापने के लिए एक प्रकाशन गृह सहर्ष सहमत है.
स्वागत... खुशी होगी इसमें आपका सार्थक साथ पाकर.
आइये मिलकर अपने शब्दों को आकार दें
वैसे एक बात कहूँ...जब तक पटना में था तब तक सरिता,गृहशोभा,गृहलक्ष्मी बहुत पढता था मैं :)
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने और एकदम नया टॉपिक :)
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स्वागत... खुशी होगी इसमें आपका सार्थक साथ पाकर.
Regards.